(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश। आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सहारे ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 1 – “सहारे” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 52 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #64 – मैं तुम्हारे साथ हूँ … ☆ श्री आशीष कुमार☆
प्रतिवर्ष माता पिता अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा दादी के घर ले जाते। 10-20 दिन सब वहीं रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा। बालक थोड़ा बड़ा हो गया।
एक दिन उसने अपने माता पिता से कहा कि अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता हूं ।तो आप मुझे अकेले को दादी के घर जाने दो। माता पिता पहले तो राजी नहीं हुए। परंतु बालक ने जब जोर दिया तो उसको सारी सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी।
जाने का दिन आया। बालक को छोड़ने स्टेशन पर गए।
ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया। फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की ।उसको सारी सावधानियां फिर से समझाई।
बालक ने कहा कि मुझे सब याद है। आप चिंता मत करो। ट्रेन को सिग्नल मिला। व्हीसिल लगी। तब पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया कि बेटा अगर रास्ते में तुझे डर लगे तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा उसको पढ़ना बालक ने पत्र जेब में रख लिया।
माता पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया। ट्रैन चलती रही। हर स्टेशन पर लोग आते रहे पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई न कोई था। अब बालक को अकेलापन लगा। ट्रेन में अगले स्टेशन पर ऐसी शख्सियत आई जिसका चेहरा भयानक था।
पहली बार बिना माता-पिता के, बिना किसी सहयोगी के, यात्रा कर रहा था। उसने अपनी आंखें बंद कर सोने का प्रयास किया परंतु बार-बार वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। बालक भयभीत हो गया। रुंआसा हो गया। तब उसको पिता की चिट्ठी। याद आई।
उसने जेब में हाथ डाला। हाथ कांपरहा था। पत्र निकाला। लिफाफा खोला। पढा पिता ने लिखा था तू डर मत मैं पास वाले कंपार्टमेंट में ही इसी गाड़ी में बैठा हूं। बालक का चेहरा खिल उठा। सब डर दूर हो गया।
मित्रों,
जीवन भी ऐसा ही है।
जब भगवान ने हमको इस दुनिया में भेजा उस समय उन्होंने हमको भी एक पत्र दिया है, जिसमें लिखा है, “उदास मत होना, मैं हर पल, हर क्षण, हर जगह तुम्हारे साथ हूं। पूरी यात्रा तुम्हारे साथ करता हूँ। वह हमेशा हमारे साथ हैं।
लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल ‘लघुकथा के परिन्दे ‘ फेसबुक समूह की ऑनलाइन साप्ताहिक लघुकथा गोष्ठी सम्पन्न
लघुकथा में ज़र्रे को आफताब बनाने की सामर्थ्य – डॉ.प्रभुदयाल मढ़इया ‘विकल’
लघुकथा लेखन में सहजता सरलता होना आवश्यक –सुरेश पटवा
भोपाल | लघुकथा में ज़र्रे को आफताब बनाने की ताकत होती है ,लघुकथाओं में जीवन के विविध रंग आते हैं ,लघुकथा में कथ्य का विस्तार सम्भव नहीं ,यह उदगार हैं वरिष्ठ साहित्यका उपन्यासकार लघुकथा लेखक डॉ प्रभुदयाल मढ़ईया ‘विकल’ (मुम्बई) के जो लघुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा आयोजित साप्ताहिक ऑन-लाइन गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए अपनी बात रख रहे थे ,इस अवसर पर उन्होंने अपनी लघुकथा ‘काजल’ का वाचन भी किया |
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश पटवा ने कहा कि ‘लघुकथा लेखन में सहजता सरलता होना आवश्यक है ,इसमें ‘कहन’ यानी कथा तत्व और ‘पहन’ यानी रस अलंकार मुहावरे युक्त प्रभावी भाषा शिल्प की आवश्यकता होती है साथ ही छन्न ,सन्न, और प्रसन्न की बात कहते हुए बताया कि ‘गर्म तवे पर पानी की बूंद सा लघुकथा का त्वरित प्रभाव हो जिससे पाठक एकदम अवाक हतप्रभ यानी सन्न रह जाये और अंततः लघुकथा के प्रभाव से पाठक श्रोता गदगद होकर प्रसन्न हो जाये |
कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि श्री सुरेश कुशवाह ‘तन्मय’ ने केंद्र द्वारा आयोजित इन आयोजनों की प्रशंसा करते हुए इन आयोजनों को लघुकथा के विकास के लिए आवश्यक कदम बताया ,इस अवसर पर उन्होंने अपनी लघुकथा ‘नचिकेता प्रश्न ‘ का वाचन किया |
कार्यक्रम के प्रारम्भ में गोष्ठी के संयोजक सुपरिचित लघुकथाकार मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीकी ने मंचस्थ अतिथियों एवम।लघुकथा पाठ के लिये आमंत्रित लघुकथाकारों का स्वागत किया | ततपश्चात सुपरिचित लघुकथाकार और गोष्ठी संयोजक चित्रा राघव राणा के संचालन में गोष्ठी प्रारम्भ हुई सर्वप्रथम श्री आशीष जौहरी ने ‘न्यूज रूम’ लघुकथा का वाचन किया जिसमें नेताओं की मिलीभगत से फर्जी पुलिस एनकाउंटर पर सवाल उठाया गया | ‘ निर्जन पगडंडी’ लघुकथा को निम्मी गुप्ता (सूरत) ने प्रस्तुत किया जिसमें आज के समाज।में असुरक्षित बेटियों के हालात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गया | गोष्ठी के क्रम को आगे बढ़ाया जनकजा कान्त शरण ने ‘डूबता सूरज’ लघुकथा के माध्यम से जिसमें बुजुर्गों और बच्चों की सामाजिक दशा पर प्रश्न उठाया गया ,श्रीमती कमलेश चौरसिया (नागपुर) ने ‘धर्म का विस्तार’ लघुकथा प्रस्तुत की जिसमे बढ़ती धार्मिक कट्टरता और रोटी के प्रश्न पर अंगुली उठायी गई है | श्री ओम सपरा (दिल्ली) ने ‘विदेशिया’ लघुकथा के माध्यम से कोरोना काल की महामारी में लोगों की अमानवीयता के चेहरे को बेनकाब किया | श्री हरदीप सबरवाल ने गोष्ठी के क्रम।को आगे बढ़ाते हुए ‘तर्क की मौत’ लघुकथा द्वारा धार्मिक पाखंड पर तीखा प्रहार किया | डॉ प्रतिभा त्रिवेदी ने ‘सोशल डिस्टेन्स’ लघुकथा के माध्यम से बुजुर्गों की उपेक्षा का दर्द अभिव्यक्त किया ,श्री नेतराम भारती (दौसा राजस्थान) ने ‘मेडम का दुःख ‘ लघुकथा के माध्यम से शादी की आयु निकल जाने के दर्द को अभिव्यक्त किया ,गोष्ठी के क्रम।को आगे बढ़ाया डॉ दिलीप बच्चानी ,मारवाड़ (राजस्थान) ने ‘सम्वेदना का विसर्जन ‘ लघुकथा के माध्यम से जिसमें नवीन विषय में चिकित्सा विज्ञान को जोड़ते हुए हमारे संकीर्ण धार्मिक रीति रिवाजों पर प्रहार किया ,कार्यक्रम।के अंत में श्रीमती राजश्री शर्मा (खंडवा) ने ‘त्यौहार’ लघुकथा के माध्यम से हमारे समाज।परिवार के ताने बाने को प्रभावी अभिव्यक्ति प्रदान की |
गोष्ठी में पढ़ी गई लघुकथाओं पर समीक्षक लघुकथाकार घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ ने विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की लघुकथाओं के शीर्षक से लेकर उनके कथ्य शिल्प भाषा शैली और उद्देश्य पर अपनी बात रखी ,कार्यक्रम के अंत में डॉ मौसमी।परिहार ने सभी जनों।का आभार प्रकट किया ,इस आयोजन में डॉ कर्नल गिरजेश सक्सेना ,श्री गोकुल सोनी, श्रीमती मधुलिका सक्सेना ,श्रीमती कांता राय सहित अनेक लघुकथा प्रेमी उपस्थित थे।
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
‘रणांगण’ या गाजलेल्या कादंबरीचे लेखक श्री.विश्वनाथ चिंतामणी उर्फ विश्राम बेडेकर आणि ‘वासूनाका’ कार श्री.प्रभाकर नारायण उर्फ भाऊ पाध्ये यांचा आज स्मृतीदिन.
विश्राम बेडेकर यांचा जन्म 1906 मध्ये अमरावती येथे झाला.त्यांचे शिक्षण अमरावती व पुणे येथे झाले.मराठी साहित्यात कादंबरी बरोबरच त्यांनी पटकथा लेखनही केले. शिवाय सुमारे 15 चित्रपटांचे दिग्दर्शन व सहदिग्दर्शनही त्यांनी केले आहे. 1934 साली त्यांनी कृष्णार्जुन युद्ध या चित्रपटाचे सर्वप्रथम दिग्दर्शन केले. एक झाड दोन पक्षी हे त्यांचे आत्मचरित्र खूप गाजले. टिळक आणि आगरकर, ब्रह्मकुमारी, वाजे पाऊल आपुले, नरो वा कुंजरोsवा इ. नाटके त्यांनी लिहिली. शेजारी, स्वा.सावरकर, काबुलीवाला(हिंदी),
The Immortal सांग (अमर भूपाळी) इ. चित्रपटांचे पटकथा लेखन केले. सिलीसबर्गची पत्रे हे त्यांचे आठवणींवर आधारीत पुस्तक.
एक झाड दोन पक्षी’ या त्यांच्या आत्मचरित्रास 1985 चा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिळाला. तसेच विष्णूदास भावे पुरस्कार सांगली येथे 1982 ला देण्यात आला. 1986 च्या अखिल भारतीय साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. मुंबई येथील मराठी साहित्य संमेलनाचेही ते 1988 ला अध्यक्ष होते.
दि.30/10/1998 ला त्यांचे पुणे येथे निधन झाले.
भाऊ पाध्ये हे अर्थशास्त्रातील पदवीधर! पण त्यांनी साहित्य,कामगार चळवळ, पत्रकारिता अशा विविध क्षेत्रात उल्लेखनीय कार्य केले.
अग्रेसर, करंटा, बॅ.अनिरुद्ध धोपेश्वरकर, राडा, वणवा, वासूनाका या त्यांच्या काही कादंब-या. डोंबा-याचा खेळ, पिचकारी, मुरगी, थालीपीठ, थोडी सी जो पी ली हे त्यांचे कथासंग्रह. शिवाय गुरूदत्त चरित्रही व ऑपरेशन छक्का हे नाटक त्यानी लिहिले.
वैतागवाडी या त्यांच्या कादंबरीस 1965 सालचा महाराष्ट्र राज्य साहित्य पुरस्कार मिळाला. बॅ. धोपेश्वरकर या कादंबरीला 1968 चा ‘ललित’ पुरस्कार मिळाला. 1993 साली महाराष्ट्र राज्य साहित्य व संस्कृती मंडळाने त्यांना गौरववृत्ती जाहिर केली.
त्यांच्या साहित्याविषयी जाणकारांनी अनेक मते व्यक्त केली आहेत. मराठी साहित्य विश्वात वादळ निर्माण करणारे साहित्यिक असे त्यांचे वर्णन केले जाते. त्यांचे लेखन थेट वास्तवाला भिडणारे आहे. त्यांच्या लेखनातून मुंबईतील संक्रमणकाळात झालेले बदल चित्रित झालेले दिसतात. मराठी साहित्यात स्वतःचा ठसा निर्माण करणा-या भाऊ पाध्ये यांचे 30/10/1996 ला निधन झाले.
श्री.बेडेकर व पाध्ये यांना स्मृती वंदन!.
श्री सुहास रघुनाथ पंडित
ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ :- विकिपीडिआ साभार.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
(दिग्दर्शकाना आपल्या नाटकाच्या यशाची खात्री पटे.भाग 2 पुढे चालू)
मग या नायिकेला लाडीगोडी लावण्यासाठी तिच्याच वजनाइतकी चिरलेल्या पिवळ्याधमक गुळाची साडी नेसवली जाई. त्यामुळे ती नायिका आपला पूर्वीचा रंग झटकून हा पिवळा रंग अंगभर लपेटून घेई. त्या पिवळ्या साडीला खोवून घेतलेल्या पांढऱ्याशुभ्र ओल्या नारळाच्या किसाची मध्ये मध्ये नक्षी काढली जात असे. ही कलाकुसर मात्र सढळ हाताने करत असत. असा हा मेकअप पूर्ण झाल्यावर आता या नायिकेला प्रत्यक्ष नाटकाचे वेध लागलेले असत. मग एका गोल, खिरीच्या साजेशा रंगाला मॅच होईल अशा रंगाच्या डिशच्या रंगमंचावर नायिका अवतरत असे. आता नायकाच्या एंट्रीची वेळ जवळ आलेली असते. इतका वेळ सर्व दिव्यातून बाहेर पडताना आपल्या या नायिकेला अग्नीसरांनी योग्य वेळी साथ दिलेली असते. पण ते फक्त पाहुणे कलाकार असल्याने या प्रयोगातून वेळीच exit घेतात. त्यानंतरच नायकाचे रंगमंचावर आगमन अपेक्षित असते. अग्नीसरांच्या उपस्थितीतच जर चुकून या नायकाचे आगमन झालेच तर मोठा अनर्थ ओढवतो. कारण आपल्या तापट स्वभावाने अग्नीसर पाहुणे कलाकार न राहता खलनायकाच्या भूमिकेत शिरुन गुळाच्या मदतीने या दुग्धरुपी नायकाला बदसूरत करण्याची शक्यता असते आणि पूर्ण नाटकाचा प्रयोगसुद्धा फसू शकतो. म्हणून मग थोडा वेळ ही नायिका मंद वाऱ्याच्या सान्निध्यात आपले श्रम विसरुन थंड होत आतुरतेने नायकाची वाट पाहू लागते. हीच वेळ नायकाच्या आगमनाची असते. आपल्या शुभ्रधवल वर्णाने हा दूधनायक सळसळत रंगमंचावर प्रवेश करतो. आपल्या सहजसुंदर अभिनयाने या नाटकात रंग भरु लागतो. जोडीला याने नायिकेला भेट म्हणून तुपाची धार पण आणलेली असते. त्याच्या सानिध्याने खिरीचे नाटक अधिकच झळकू लागते. शिवाय साथीला त्याची नेहमीची, नेहमीच छोटीशी पण महत्वाची भूमिका निभावणारी वेलचीताई या नाटकाला वेगळ्याच उंचीवर नेऊन ठेवते. आता हा सर्व कलाकारांचा एकजीव झालेला संच नाटकाच्या शेवटच्या अंकासाठी सिद्ध होतो. आतुरतेने क्लायमॅक्स ची वाट पाहणारे आम्ही प्रेक्षक ताबडतोब आमच्या रसनारुपी चक्षूनी त्या रंगमंचीय रंगतदार खिरीचा आस्वाद घेत असू. आणि आमच्या चेहऱ्यावरील तृप्तीने आपल्या कलाकृतीला योग्य दाद मिळाल्याचे त्या दोन दिग्दर्शिकाना समजत असे. मग आपल्या या स्त्रीपार्ट करणाऱ्या नायिकेकडे कौतुकाने पाहताना त्या कृतकृत्य होऊन जात.
तळटीप:-
आवडत असल्यास या नाटकात काजूचे तुकडे, बदाम, बेदाणे याना छोट्या भूमिका द्यायला हरकत नाही.
खोबऱ्याच्या किस वापरण्याऐवजी सुक्या खोबऱ्याचे पातळ काप करुन त्याची नक्षी पिवळ्या साडीला काढली तरी चालेल.
महत्वाचे म्हणजे खपली गव्हाच्या अनुपस्थितीत घरातले रोजचे गहू किंवा त्याचा बाजारात मिळणारा तयार दलिया कधीतरी नायिकेची भूमिका उत्तम पार पाडू शकतात.
सध्याच्या काळात उखळ सहज उपलब्ध नसल्यामुळे त्याचे काम मिक्सर करु शकतो. फक्त गव्हाला हलकेच पाण्याने ओलसर करुन, मिक्सरमध्ये हलके हलके फिरवावे लागते.
☆ डायरीतली कोरी पाने – भाग – 1 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆
लहानपणापासून जोपासलेली डायरी लिहायची सवय म्हणजे नन्दनाचा विरंगुळा होता.आपण लग्नानंतरही नियमीतपणे डायरी लिहायची हे तिने मनोमन ठरवून ठेवलेलं होतं !
…’ माहेर सोडताना मळभ भरून आल्यासारखं आण्णांचं मन गच्च होतं.आतल्याआत गदगदत ते स्वतःला सावरत होते. शेवटच्या क्षणापर्यंत मला मात्र आतून असं भरून येतच नव्हतं. राहुल मला आवडला होता. मिळालाही. त्या आनंदाच्या उर्मीच एवढ्या तीव्र होत्या की आता माहेर अंतरणार असल्याचं दु:ख तेवढ्या तिव्रतेने मला जाणवलंच नव्हतं एवढं खरं. पण शेवटच्या क्षणी नेमकं काय झालं कुणास ठाऊक..?..पण माझ्याही नकळत मी आईच्या मिठीत गेले..आणि आतून उन्मळून पडले.पहिल्या श्वासापासून गृहीत धरलेल्या या वटवृक्षाचा आधार सोडताना माझ्यातली वेल जणू मुळापासून हलली होती.त्या वेलीला तसाच भक्कम आधार हवा होता.तो राहुलच्या रूपात मिळेल?…’
हे नन्दनाच्या डायरीतलं लग्नानंतरचं पहिलं पान..! ते लिहून झालं आणि नन्दनालाच आश्चर्य वाटलं.’ राहुलच्या रूपात आपल्याला हवासा वाटणारा आधार मिळेल कां?’ हा प्रश्न आपल्याला पडलाच कसा? राहुलने हे वाचलं तर..?..या कल्पनेनेच ती शहारली.मग डायरी तिने मिटूनच टाकली. कायमची. लिहिण्यासाठीसुद्धा पुढे कितीतरी दिवस तिने ती उघडलीच नाही.
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राहुलला तिने प्रथम पाहिलं तेव्हा ते ‘लग्न’ याच उद्देशाने ! पत्रिका देणं , त्या जमणं , एकमेकांना बघणं , पसंत पडणं , मग सविस्तर बोलणी आणि पुढचे सगळे सोपस्कार. सगळं कसं रीतसर , रूढीप्रमाणे झालेलं. आधीची दोन स्थळं मुलं चांगली असूनही नन्दनाने नाकारली होती. ‘कां’ ते तिला सांगता येत नव्हतं.
आई खनपटीलाच बसली तेव्हा नन्दना थोडी चिडली होती. तिच्या नकाराला आईचा आक्षेप नव्हता. पण तिला नन्दनाकडून समर्पक कारण हवं होतं.नन्दना ते नेमक्या शब्दात व्यक्त करू शकत नव्हती.मुलं देखणी होती. रुबाबदार होती.आर्थिकदृष्ट्या सुस्थितीतली होती. पण कां कुणास ठाऊक त्यांच्याकडे पाहून हा आपला जन्माचा जोडीदार असावा असं तिला मनोमन वाटलेलं नव्हतं..!
राहुलकडे पहाताच मात्र..? नंदनाला बघताना,तिला जुजबी प्रश्न विचारताना,राहुलचे मिष्किल डोळे हसत होते. त्या डोळ्यांचं ते हसणं नन्दनाला सुखावून गेलं होतं. जाताना त्याची हसरी नजर चोरपावलानं नन्दनाच्या मनात सहवासाची ओढ पेरुन गेली होती..! राहुल बद्दलची प्रेमभावना त्यामुळेच नैसर्गिकपणे फुलणाऱ्या फुलासारखी नन्दनाच्या मनात उमलंत गेलेली होती..!
एरवी नन्दनाने दिलेल्या आधीच्या एक-दोन नकारांच्या वेळी चिडलेली नन्दनाची आई तिच्या या होकाराने मात्र दुखावली गेली होती. नन्दनाचा होकार तिच्यासाठी अनपेक्षितच होता.
” अजून हातात काही स्थळं आहेत नन्दना.ती पाहू या. उगाच होकाराची घाई कशाला?”
” पण या स्थळात वाईट काय आहे ?” आण्णा नंदनाच्या मदतीला धावले होते.
” ते तुम्हाला समजणार नाही. शेवटी तडजोडी बायकांनाच कराव्या लागतात.तिचं जेव्हा जळेल ना,तेव्हा तिला कळेल,पण तोवर खूप उशीर झालेला असेल”
” तुला एवढी भिती कशाची वाटतेय?”
” चार माणसांचं कुटुंब आपलं.जे हवं ते फारसे हट्ट न करता मिळत आलंय तिला आजपर्यंत.तिथं एकत्र कुटुंबात रहावं लागणाराय.तिला जमणाराय कां सगळं?”
“मला जमेल” नंदना स्वतःच्या निर्णयावर ठाम राहिली.
अखेर आण्णांनीच आईची समजूत घातली.”अगं, घरचा धंदा व्यवसाय असणाऱ्यांची ‘एकत्र कुटुंब’ ही गरज असते.वेगळे संसार त्यांना सोईचे नसतात आणि परवडणारेही नसतात. नन्दना लाडात वाढलीय हे खरं, पण ती लाडावलेली नाहीय हे नक्की. ती जबाबदारीने सगळं नक्कीच निभावून नेईल.” आई निरुत्तर झाली होती. पण तिच्या कपाळावरच्या आठ्या मात्र लग्नाची तयारी सुरू झाली तरी विरलेल्या नव्हत्या.नन्दनाला राहुलची हसरी नजर खुणावत होती. राहुलची आठवण झाली की त्रासिक चेहऱ्याची आई तिला जास्तच कोरडी, व्यवहारी वाटायला लागायची.एकदम कुणीतरी अगदी परकीच..!
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राहुलच्या घरातलं वातावरण नन्दनाला खूप मोकळं, प्रसन्न वाटलं. तिथे परकेपण नव्हतंच. सुगंधात भिजलेला मोकळा श्वास तिथं राहुलच्या रूपानं स्वागताला उत्सुक होता. राहुलच्या मिठीत तो सुगंध नन्दना भरभरून प्याली. तृप्त झाली. पण…? राहुलच्या सहवासातला आनंद, घरातली प्रसन्नता आणि मोकळेपण..ही सगळी तिच्या स्वतःच्या मनोवृत्तीची तिच्या मनात उमटलेली प्रतिबिंबंच होती हे तिच्या लगेच लक्षात आलंच नसलं तरी हळूहळू तिला ते उमगणार होतंच. म्हणूनच नव्या नवलाईचे सुरुवातीचे दिवस असे धुंदीत तरंगतच गेले.
त्या चार दिवसात माहेरची आठवण तिला आलीच नव्हती. त्या दिवशी आईचा फोन आला आणि नन्दनाला हे घरची आठवण न होणं प्रथमच तीव्रतेने जाणवलं. ‘ तिकडे आई अण्णा मात्र आपली आठवण काढत चार रात्री तळमळत राहिले असतील..’ नुसत्या कल्पनेनंच नन्दनाचे डोळे भरून आले. महत्प्रयासाने तिने दाबून धरलेला हुंदका तिच्याही नकळत फुटलाच.
“नन्दना, काय झालं गं..?”
“नाही..काही नाही..”
” कशी आहेस..?”
“मी..मी छान आहे.मजेत..”
” खरं सांगतेयस ना..?”
“हो गं. तुझी शप्पथ.आई, तू..कशी..आहेस?”
“माझं काय गं..मी बरी आहे..” आईचा आवाजही थोडा ओलावला होताच.”तू मजेत आहे म्हणालीस ना,आता बरं वाटलं बघ.जीवाला स्वस्थता कशी ती नव्हतीच. माझ्याही आणि यांच्याही..”
” काहीतरीच काय गं?”
” बरं, ते राहू दे. हे बघ, राहुलच्या आई घरी आहेत कां? मी बोलते त्यांच्याशी. चार दिवस माहेरपणाला पाठवा म्हणून सांगते. चालेल ना?”
नन्दनाला काय बोलावं सुचेचना. जावंसं तर वाटत होतं. पाय मात्र निघणार नव्हता. तेवढ्यात राहुलच्या आईच आल्या.
“आईचा फोन आहे. तुमच्याशी बोलणाराय” तिने आपला मोबाईल त्यांच्या हातात दिला आणि त्याच क्षणी तिच्या मनातला ‘तो’ धागा तिला एकदम तटकन् तुटल्यासारखंच वाटलं. आपण जाऊ,मजेत राहूही.. पण राहुल?.. राहुलच्या आईंनी तिला मोबाईल परत दिला पण त्या दोघी काय बोलल्या हे या भांबावलेल्या अवस्थेत नन्दनाच्या लक्षातच आलं नव्हतं. जावं की जाऊ नये या दोलायमान अवस्थेत नन्दना दिवसभर अस्वस्थच राहिली..! पण… रात्री..?
“आईचा फोन आला होता ना ?” राहुलनं विचारलंच.
” हो आईंशीही बोलली ती. माहेरपणासाठी विचारत होती.”
“तू काय ठरवलंयस?तुला जायचंय?”
राहुलचा स्वर थोडा टोकदार झालेला होता.नन्दनालाही ते जाणवलं.तिने चमकून वर पाहिलं. त्याची नजर नेहमीसारखी हसत नव्हती.
“तू तुझ्या आईला काय बोललीयस? येते म्हणालीयस कां?”
राहुलचा चढलेला स्वर,त्याचं हे असं जाब विचारणं सगळंच नन्दनाला अनपेक्षित होतं. त्याच्या तीक्ष्ण नजरेला नजर देऊन ती फार वेळ पाहूच शकली नाही. तिने आपली नजर खाली वळवली. भरून येतायतसं वाटणाऱ्या डोळयांना तिने निर्धाराने गप्प बसवलं.
“मी येते म्हणालेली नाहीये.ती या विषयावर आईंशी बोललीय. त्या काय म्हणाल्या कुणास ठाऊक ” शक्यतो शांत राहायचा प्रयत्न करीत नन्दना म्हणाली. आणि मग राहूलचा स्वर आणि नजर दोन्ही क्षणात निवळली.
” तू विचारलं नाहीस आईला?” त्याने हसत विचारलं.
“अंहं”
“का ?”
“कां असं नाही..पण..”
” ती नको म्हणेल अशी भिती वाटली का?”
“अजिबात नाही”
“आता मी सांगतो ते शांतपणे ऐक.आईने त्यांना ‘मी राहुलशी बोलून घेते’असं सांगितलं होतं. रात्री त्यांना पुन्हा फोन करायलाही सुचवून ठेवलं होतं. हे बघ.रात्रीचे दहा वाजून गेलेत. कुठं आलाय त्यांचा फोन अजून? आला तर काय सांगायचं?”
… तिच्या मनातला तिचा हसरा राहुल तिची नजर चुकवून कुठेतरी दडून बसलाय असंच तिला वाटत राहिलं. लग्नानंतरचं या घरातलं मोकळं आणि प्रसन्न वातावरण तिला एकदम कोंदट वाटू लागलं. तेवढ्यात तिच्या मोबाईलचा डायलटोन.
” बघ तुझ्या आईचाच असणार.”
नन्दनाने न बोलता मोबाईल उचलला.फोन आईचा नव्हता. आण्णांचा होता.
आण्णांचा आवाज ऐकला आणि नन्दनाला एकदम भरून आलं.
” कसे आहात? तुम्हाला डिस्टर्ब केलं नाही ना?”आण्णांनी हसत विचारलं.
” नाही हो. काहीतरीच काय?”
” राहुल आहेत ना तिथे? मी बोलू त्यांच्याशी?”
“हो.. देते.”
” राहुल, अण्णा तुझ्याशी बोलतायत.”
” माझ्याशी? कशाला?” मनातली नाराजी लपवायचा प्रयत्न करीत छान प्रसन्न हसून तिने लटक्या रागाने राहुलकडे पाहिलं.
“असं काय करतोयस रे? घे ना..बोल पटकन्.”
“हां आण्णा. हो.आई बोलली मला. आम्हाला कांहीच हरकत नाहीये..पण.. पण एक मिनिट.” मोबाईल वर हात ठेवून राहुल क्षणभर थांबला.मग हलक्या आवाजात नन्दनाला म्हणाला,
” आई सत्यनारायणाची पूजा करायची म्हणतेय आणि मी त्यानंतरची आपली महाबळेश्वरची बुकिंग केलीयत. बघ काय ठरवतेस? माहेर हवंय की महाबळेश्वर?” नन्दनाकडे पहात तो मिष्किल हसत राहिला.
” तू म्हणशील तसं” ठरवून सुद्धा आपल्या बोलण्यातला कोरडेपणा तिला कमी करता आला नाही. राहुलच्या सूचक नजरेनेसुद्धा ती नेहमीसारखी फुललीच नाही….!