हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 177 ☆ “मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री दीप त्रिवेदी जी द्वारा लिखित  “मैं कृष्ण हूँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 177 ☆

“मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

दीप त्रिवेदी का उपन्यास “मैं कृष्ण हूँ”

प्रकाशक आत्मन इनोवेशन, मुंबई

मूल्य रु 349

चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव

कृष्ण भारतीय संस्कृति के विलक्षण महानायक हैं। वे एक मात्र अवतार हैं जो मां के गर्भ से प्राकृतिक तरीके से जन्मे हैं। इसीलिए कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है, रामनवमी की तरह कृष्ण अष्टमी नहीं। कृष्ण के चरित्र में हर तरह की छबि मिलती है। दीप त्रिवेदी का यह उपन्यास कृष्ण के बचपन पर केंद्रित एक अनूठा और विचारोत्तेजक साहित्यिक प्रयास है उपन्यास भगवान कृष्ण के जीवन को एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। उपन्यास न केवल कृष्ण के चरित्र की गहराई को उजागर करता है, बल्कि उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को आधुनिक संदर्भ में समझने का अवसर देता है। दीप त्रिवेदी, एक प्रख्यात लेखक, वक्ता और स्पिरिचुअल साइको-डायनामिक्स विशेषज्ञ माने जाते हैं। इस उपन्यास में कृष्ण को एक अलौकिक व्यक्तित्व के बजाय एक मानवीय और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया गया है।

कथानक

“मैं कृष्ण हूँ” पुस्तक कृष्ण की आत्मकथा के रूप में लिखी गई है, जिसमें वे स्वयं अपने जीवन की कहानी सुनाते हैं। यह आत्म कथा मथुरा के कारागृह में उनके जन्म से शुरू होती है, जहां वे कंस के अत्याचारों के बीच पैदा होते हैं, और गोकुल में यशोदा और नंद के संरक्षण में उनके बचपन तक ले जाती है। इसके बाद, कथा उनके जीवन के विभिन्न चरणों—कंस का वध, मथुरा से द्वारका तक का सफर, और महाभारत में उनकी भूमिका—को समेटती है। उपन्यास पारंपरिक धार्मिक कथाओं से हटकर कृष्ण के मन की गहराइयों को खंगालता है। लेखक ने उनके हर निर्णय, हर युद्ध, और हर रिश्ते के पीछे की मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।

 कृष्ण का बचपन, युवावस्था और परिपक्व जीवन विस्तार से वर्णित है। इससे पाठक को कृष्ण के व्यक्तित्व के विकास को क्रमबद्ध तरीके से समझने में मदद करती है।

लेखन शैली

दीप त्रिवेदी की लेखन शैली सरल, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। उन्होंने हिंदी भाषा का उपयोग इस तरह किया है कि यह आम पाठक के लिए सहज होने के साथ-साथ विद्वानों के लिए भी गहन वैचारिक सामग्री प्रदान करती है। उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को ऐसा लगता है जैसे वे कृष्ण की अंतरात्मा से सीधे संवाद कर रहे हों।

पाठकों को यह शैली थोड़ी उपदेशात्मक लग सकती है, क्योंकि लेखक समय-समय पर कृष्ण के जीवन से सीख देने की कोशिश करते हैं। यह दृष्टिकोण कथा के प्रवाह को कभी-कभी धीमा कर देता है, लेकिन यह किताब के उद्देश्य—जीवन के युद्धों को जीतने की कला सिखाने के लिए जरूरी है।

चरित्र-चित्रण

 त्रिवेदी ने उपन्यास में कृष्ण को एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है। एक चंचल बालक, एक प्रेमी, एक योद्धा, एक रणनीतिकार, और एक दार्शनिक। कथा वाचकों की पारंपरिक कथाओं में जहां कृष्ण को चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों के साथ जोड़ा जाता है, वहीं इस पुस्तक में उनकी मानवीयता और बुद्धिमत्ता पर जोर दिया गया है। उदाहरण के लिए, कंस के खिलाफ उनकी रणनीति को चमत्कार के बजाय उनकी बुद्धिमत्ता के रूप में वर्णित किया गया है।

अन्य पात्रों जैसे यशोदा, राधा, अर्जुन, और द्रौपदी भी, कथा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन वे मुख्य रूप से कृष्ण के दृष्टिकोण से ही चित्रित हैं। यह उपन्यास के आत्मकथात्मक स्वरूप को बनाए रखने में सफल रहती है।

 संदेश

“मैं कृष्ण हूँ” का केंद्रीय संदेश यह है कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन को समझना और नियंत्रित करना होगा। लेखक ने कृष्ण के जीवन को एक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत किया है, जो यह सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। पुस्तक में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि कृष्ण ने अपने जीवन में हर युद्ध—चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, या राजनीतिक हो—अपने मन की शक्ति से जीता।

इसके अलावा, यह उपन्यास आधुनिक जीवन से जोड़ने की कोशिश करता है। कृष्ण की साइकोलॉजी को समझकर पाठक अपने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित हो सकता है। यह किताब धार्मिकता से अधिक आत्म-जागरूकता और आत्म-सुधार पर केंद्रित है, जो इसे एक प्रेरणादायक और व्यावहारिक रचना बनाती है।

दीप त्रिवेदी का “मैं कृष्ण हूँ” एक ऐसी पुस्तक है जो न केवल कृष्ण के जीवन को नए नजरिए से देखने का अवसर देती है, बल्कि पाठक को आत्म-चिंतन और आत्म-विकास के लिए भी प्रेरित करती है।

कृष्ण का चरित्र हर भारतीय का जाना पहचाना हुआ है, अतः उपन्यास में रोचकता और नवीनता बनाए रखने की चुनौती का सामना लेखक ने सफलता पूर्वक किया है और एक जानी समझी कहानी को नई दृष्टि दी है।

पुस्तक पठनीय तथा चिंतन मनन योग्य है।

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार… ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” 

☆ आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार…  ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

मध्य प्रदेश के सागर जिले के कस्बा बरीना (पर्वर्तित नाम) में डा.दंपति की कर्ज के दबाव में आत्महत्या की घटना मेरे लिए एक आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी। ये आश्चर्य उस समय और बढ़ गया है जब पता चला, दोनों दंपति डा. होने के साथ-साथ राज्य सरकार में पदस्थ है। जहां उनकी अच्छी खासी नियमित तनख्वाह भी है।

आंखें तब विस्मित रह गई जब मालूम हुआ उनका बेटा पहले ही पटना से एम. बी. बी.एस. की पढ़ाई भी कर रहा है।

सामाजिक सरोकार की दृष्टि से देखा जाए तो डा.दंपति (कपूरिया परिवार नाम परिवर्तित) देश के एक प्रतिशत से भी कम भाग्यशालीधनी परिवारों में से एक है।

भाग्यशाली और धनी इसलिए कि घर के तीन लोग, में से दो की अच्छी तनख्वाह, शहर में खुद का घर जमीन, जायदाद सबकुछ होने के साथ साथ घर का एक मात्र शेष सदस्य उनका इकलौता बेटा भी सफलता की राह पर उम्र का इंतजार करता हुआ दिखाई पड़ता है।

मगर फिर भी  डा. दंपती द्वारा आत्महत्या कर ली गई हालांकि अभी विस्तृत अन्वेषण बाकी है, परंतु फिर भी यदि आरंभिक जानकारियों एवम छपी रिपोर्ट का विश्लेषण किया जाए तो आधुनिक समाज की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं एवं एकल परिवार होने के चलते विचारों के प्रवाह में किसी प्रकार के समायोजन की कमी के साथ ही, एक पीढ़ी द्वारा सब कुछ अगली पीढ़ी के लिए तैयार करके देने की अंतहीन प्रवृत्ति बढ़ती हुई दिखाई देती है।

कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी क्षति पूर्ति संभव नहीं परंतु इसकी पुनर्वृति तो रोकी जा सकती है।  आत्महत्या  की इस घटना में  जो लोग असमय इस दुनिया से चले गए के प्रति सम्मान सहित परिवार में  बचे इकलौते बेटे पर बीत रही मानसिक पीड़ा को समझते हुए ऐसी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए  शेष समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता है।

परिवार में “सुविधाओं को सुख की गारंटी” मानने वालों के लिए यह  घटना एक विचारणीय प्रश्न के रूप में  होनी चाहिए।

कपूरिया दंपति जैसी सोच रखने वाले समाज में अभी भी अनेक लोगों के लिए एक सबक हो सकता है की अगली पीढ़ी के बारे में स्वयं ही सारे निर्णय लेने से पहले एक बार उनसे भी पूछ लिया जाए कि उन्हें क्या चाहिए और किसी कीमत पर?

अगर आज कपुरिया परिवार के पीछे बचे एकमात्र वारिस उनके बेटे से पूछा जाए की क्या उसने चाहा था इस कीमत पर उसे एक बना हुआ बड़ा हॉस्पिटल या तीन  करोड़ का बंगला मिले तो यकीनन  वो मना ही करेगा।

ऐसे में  वो आत्मघाती महत्वाकांक्षा किसकी थी?

यदि दोनों विवेकशील दंपति ने लोन लेकर अस्पताल बनाने का निर्णय जो लिया था उस समय क्या भविष्य के खतरों एवं विपरीत परिस्थितियों का संपूर्ण आकलन किया  था? 

यदि किया था तो क्या उसमें अपने वर्तमान जीवन  को प्राथमिकता देते हुए अपने लिए कुछ संभावना रखी थी?

मैं माता-पिता को स्वार्थी न होने की सलाह नहीं देना चाहता मगर अगली पीढ़ी के लिए, जो लोग अपनी  कीमत पर उनका भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं? उन्हे  एक बार खुद से भी पूछ लेना चाहिए क्या इसमें उस अगली पीढ़ी की इच्छा भी शामिल है ? यदि हां तो क्या सब संभावित खतरों से उसे अवगत कराया गया है? 

संभवत नहीं।

यहां एक पक्ष और उभर कर आता है वह है लोन मिलने की सरलता, विशेष रूप से प्राइवेट बैंकों द्वारा दिए जाने वाले आकर्षक ऑफर एवं लोन लेने के लिए प्रेरित करना। लोन  देना, बैंकों का काम है इसके लिए प्रेरणा  देना भी उनके कार्य का हिस्सा  हो सकता है, मगर जहां बाजारवाद की इस प्रक्रिया में सब अपना अपना रोल निभा रहे है, बैंक व्यवस्था जो की वृहत आर्थिक नीतियों का हिस्सा है, यही बैंक व्यवस्था कई बार तात्कालिक रूप से लोन देने के लिए, छोटे मोटे नियमों का उल्लघंन करने को प्रेरित भी करती है जबकि  बाद  में उसी वजह से उत्पन  जटिलता, इस तरह की घटनाओं का कारण बनती है।  ऐसे  में  नियमों को क्षणिक उल्लंघन  कितना दुःशकर हो सकता है ये आकलन भी हमें ही करना है।  

यहां यह भी विचारणीय है कि, क्या हमें अपनी सीमा और महत्वाकांक्षाओं को पहचाना नहीं चाहिए? 

संभावनाओं के आधार पर बड़े आर्थिक लाभ के लिए वर्तमान में सब कुछ दांव पर लगा देना ही  तो जुआ है। क्या ऐसी बुराई की परिणति  जो एक युद्ध के रूप में हमारे इतिहास में  महाभारत जैसी विध्वंशक घटना के रूप में दर्ज है, से हमने कुछ नहीं सीखा?

शिक्षा का अभिप्राय केवल गणित के हिसाब लगाकर अच्छे भविष्य को देखना मात्र नही है।

शिक्षा महज आर्थिक गणना का नाम भी नहीं है। शिक्षा एक सार्वभौमिक सत्य की तरह है जो आदमी के सामाजिक, पारिवारिक, एवं वैचारिक मूल्यों के साथ विकसित होती है या यूं कहें कि होनी चाहिए। इन सामाजिक, एवं वैचारिक मूल्य की कमी का ही  भयावह परिणाम  इस तरह की घटनाएं है, जहां वर्तमान में सब कुछ अच्छा होने के बावजूद, एक और अच्छे कल के लिए, अक्सर अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता है।

आज के समय में बढ़ती  प्रतिस्पर्धा, एवम येन केन प्रकारेन आगे बढ़ने की  मानसिकता के साथ साथ श्रेष्ठ  से भी आगे सर्वश्रेष्ठ के लिए दौड़ते रहना ही विकास एवं आर्थिक संबलता का पैमाना बनाता जा रहा है, जिसकी परिणीति यदा-कदा  हमारे समाज में होने वाली  इस तरह की विभत्स घटनाओं के रूप में सामने आती है।

प्रश्न यह है कि इसका हल क्या है?

कैसे रुकेंगी ये आत्महत्याऐं? क्या एक और घटना के साथ अखबार में एक और खबर छपकर रह जाएगी?

बढ़ती आत्महत्याएं, हमारे लिए सामाजिक सरोकार की आवश्यकता के साथ-साथ व्यक्तिगत मंथन और  भविष्य के प्रति जागरूक होने के साथ, अपने सपनों के प्रति थोड़ा और उदार होने की मांग भी कर रही है।

साथ ही एक सोच कि  “हम  जिम्मेदार मां बाप अपने रहते ही l सबकुछ कर दें, ताकि अगली पीढ़ी को कुछ ना करना पड़े या अगली पीढ़ी खुश रहे, ” ऐसे विचारों के साथ एक विचार  और जोड़ने की  आवश्यकता है। जो की 

एक सर्वविदित सत्य कि तरह हमारे आस पास ही है बस उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है जिसके अनुसार “कोई भी जीवन अपने जन्म के साथ ही अनेकों संभावना एवं घटनाओं के एक क्रम के साथ जन्म लेता है जिसमें उस नव जीवन को कुछ सौभाग्य परिवार से, कुछ समाज से, तो कुछ  उसके जीवन में “खुद के  पुरुषार्थ” से मिलता है। इसमें “खुद का पुरुषार्थ” का हिस्सा उस जीवन विशेष  के प्रयास एवं विवेक पर छोड़ना होगा, जिसकी चिंता में हम तथाकथित विचारशील लोग, अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं, वो भी उस व्यक्ति सहमती – असहमति पूछे बिना।

©  श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”

ईमेल –  [email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 664 ⇒ कारीगर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कारीगर।)

?अभी अभी # 664 ⇒ कारीगर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कर्म की कुशलता ही कौशल है ! मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्रकृति उसकी सर्वोत्कृष्ट कलाकृति। कुछ लोगों के लिए कला ही जीवन है तो कुछ के लिए कला उनकी आजीविका है, जहां कर्म और कौशल का सुंदर समावेश है।

कोई कर्म बड़ा छोटा नहीं होता, अगर वह कुशलता, समर्पण और मनोयोग से किया जाए। एक नींव का पत्थर किसी बुलंद इमारत का हिस्सा हो सकता है तो कोई हीरा किसी के सर का ताज। हैं दोनों ही पत्थर। दोनों की अपनी अपनी नियति, अपना अपना काज।।

ज्ञान, अनुभव और अभ्यास का, मिला जुला स्वरूप है। कहीं इसे इल्म कहा जाता है तो कहीं सृजन का सोपान। इस संसार में कोई बाजीगर है तो कोई जादूगर। कोई बाजीगर किसी करिश्मे से अगर हारी हुई बाजी जीत लेता है तो कोई छलिया अपनी जादुई बांसुरी की धुन से न केवल गोकुल की गैयों और गोप गोपियों की सुध बुध छीन लेता है, वही नटवर कन्हैया, द्वापर में योगिराज श्रीकृष्ण बन कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता के रूप में अनासक्त कर्म का अमर संदेश देता है तो त्रेता युग में वही मर्यादा पुरुषोत्तम बन सबके मन मंदिर में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाता है।

इस दुनिया में सौदागर भी हैं और कारीगर भी। कुछ सौदागर सच्चाई से सौदा बेचते हैं, और अपनी आजीविका चलाते हैं तो कुछ सच्चाई का सौदा करने के लिए डेरे की आड़ में डाका डालकर इंसानियत को शर्मसार करते हैं। हमने सच्चे सौदागरों को अपनी पोटली में हींग और सूखे मेवे लाते देखा है। जिनमें कोई कल का काबुलीवाला है और कोई आज का बेचारा फेरी वाला, जो दिन भर की मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से अपना और अपने बच्चों का पेट पाल पाता है।।

कुछ पेशे पुश्तैनी होते हैं। बढ़ई, जुलाहा, सुनार, सुतार, ठठेरा, धोबी, हलवाई और रंगरेज। आज की भाषा में कहें तो टेक्नीशियन, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर। जिनके बिना हमारा पत्ता भी नहीं हिलता। शादियों के मौसम में हम भी कभी हलवाई और धर्मशाला तलाशा करते थे। आज सब कुछ मैरिज गार्डन और कैटरर के जिम्मे। इसे कहते हैं सच्चा सौदा।

अच्छे कारीगर की तलाश किसे नहीं ! अर्जुन युद्ध कर, शस्त्र उठा, कुरुक्षेत्र के यही श्रीकृष्ण जब जरासंध के पागलपन और हिंसा से मथुरावासियों को बचाने के लिए रणछोड़ बनते हैं, तो समुद्र में सुंदर द्वारिका के निर्माण के लिए वे भी वास्तु के देवता विश्वकर्मा का आव्हान करते हैं। जिसका काम उसी को साजे।।

अच्छे कारीगर बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। होते हैं कुछ मूढ मति, जिन्हें कला और कलाकार की कद्र नहीं होती। सुनते हैं शाहजहां ने उस कारीगर के हाथ कटवा दिए थे, जिसने ताजमहल बनवाया था। जिस मां ने तुम्हें जन्म दिया, तुम उसके साथ भी शायद यही सलूक करते। तुमने उस कारीगर के हाथ नहीं काटे, मुगल सल्तनत का ही सफाया कर दिया। इतिहास ऐसे लोगों को कभी माफ नहीं करता।

जो अन्नपूर्णा घर का भोजन बनाती है, हम उसके हाथ चूमते हैं। दामू अण्णा, रवि अल्पाहार और लाल बाल्टी वाले रानडे की कचोरी बड़े चाव से खाते हैं, क्योंकि उनके कारीगरों के हाथ में स्वाद है। नागौरी की शिकंजी कभी घर पर बनाकर देखें।।

अब जरा उस कारीगर के बारे में सोचें, जिसने यह दुनिया बनाई। हम आपको बनाया। आज की परिस्थिति में भी दोष दें, या तारीफ करें। बस नतमस्तक हो इतना ही कह सकते हैं ;

अजब तेरी कारीगरी रे करतार

समझ ना आए, माया तेरी

बदले रंग हज़ार

अरे वाह रे पालनहार !

अजब तेरी कारीगरी रे करतार…

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #209 – बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक ज्ञानवर्धक बाल कहानी –  “शिप्रा की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 209 ☆

☆ बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मैं मोक्षदायिनी शिप्रा हूं। मुझे मालवा की गंगा कहते हैं। मेरे जन्म के संबंध में दो किवदंतियां मशहूर है। पहली किवदंती के अनुसार मेरा जन्म अति ऋषि की तपस्या की वजह से हुआ था।

कहते हैं कि अति ऋषि ने 3000 साल तक कठोर तपस्या की थीं। वे अपने हाथ ऊपर करके इस तपस्या में लीन थें। जब तपस्या पूर्ण हुई तो उन्होंने आंखें खोलीं। तब उनके शरीर से दो प्रकार स्त्रोत प्रवाहित हो रहे थें। एक आकाश की ओर गया था। वह चंद्रमा बन गया। दूसरा जमीन की ओर प्रवाहित हुआ था। वह शिप्रा नदी बन गया।

इस तरह धरती पर शिप्रा का जन्म हुआ था।

दूसरी किवदंती के अनुसार महाकालेश्वर के क्रोध के परिणाम स्वरूप शिप्रा ने जन्म लिया था। किवदंती के अनुसार एक बार की बात है। महाकालेश्वर को जोर की भूख लगी। वे उसे शांत करने के लिए भिक्षा मांगने निकले। मगर बहुत दिनों तक उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब वे भगवान विष्णु के पास गए। उन से भिक्षा मांगी।

भगवान विष्णु ने उन्हें तर्जनी अंगुली दिखा दी। महाकालेश्वर अर्थात शंकर भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने त्रिशूल से अंगुली भेद दी। इससे अंगुली में रक्त की धारा बह निकली।

शिवजी ने झट अपना कपाल रक्त धारा के नीचे कर दिया। उसी कपाल से मेरा अर्थात शिप्रा का जन्म हुआ।

मैं वही शिप्रा हूं जो इंदौर से 11 किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी से निकलती हूं। यह वही स्थान हैं जो धार के उत्तर में स्थित काकरी-बादरी पहाड़ हैं। जो 747 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। वहां से निकलकर में उत्तर की दिशा की ओर बहती हूं।

उत्तर दिशा में बहने वाली एकमात्र नदी हूं। जिस के किनारे पर अनेक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। विश्व प्रसिद्ध महाकाल का मंदिर मेरे ही किनारे पर बना हुआ है। यह वही स्थान है जिसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथ ग्रंथों में होता है । जिसे पुराने समय में अवंतिका नाम से पुकारा जाता था। यही के सांदीपनि आश्रम में कृष्ण और बलराम ने अपनी शिक्षा पूरी की थी।

विश्व प्रसिद्ध वेधशाला इसी नगरी में स्थापित है। ग्रीनविच रेखा इसी स्थान से होकर गुजरती है। मुझ मोक्षदायिनी नदी के तट पर सिंहस्थ का प्रसिद्ध मेला लगता है। जिसमें लाखों लोग डुबकी लगाकर पुण्य कमाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति की अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

मैं इंदौर, देवास, उज्जैन की जीवनदायिनी नदी कहलाती हूं। मेरी पवित्रता की चर्चा पूरे भारत भर में होती है। मगर, मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है गत कई सालों से मेरा प्रवाह धीरे-धीरे बाधित हो रहा है। मैं ढलान रहित स्थान से बहती हूं। इस कारण मुझ में पहली जैसी सरलता, सहजता, निर्मलता तथा प्रवाह अब नहीं रह गया है।

मेरी दो सहायक नदियाँ है। एक का नाम खान नदी है। यह इंदौर से बह कर मुझ में मिलती है। दूसरी नदी गंभीरी नदी है। जो मुझ में आकर समाती है। इनकी वजह से मैं दो समस्या से जूझ रही हूं।

एक आजकल मुझ में पानी कम होता जा रहा है और गंदगी की भरमार बढ़ रही है। इसका कारण मुझ में बरसात के बाद नाम मात्र का पानी बहता है। मेरा प्रवाह हर साल कम होता जा रहा है। मैं कुछ सालों पहले कल-कल करके बहती थी। मगर आजकल मैं उथली हो गई हूं। इस कारण अब मैं बरसाती नाला बन कर रह गई हूं। इसे तालाब भी कह सकते हैं।

दूसरी समस्या यह है कि मुझ में लगातार प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मेरा पानी लगातार गन्दा होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि मुझमें खान नदी आकर मिलती है। यह इंदौर के गंदे नाले की गंदगी लेकर लेकर आती है जो मुझ में लगातार प्रवाहित होती है। मुझे गंदा व उथला बना रहा है।

इस पानी में प्रचुर मात्रा में धातुएं, हानिकारक पदार्थ, रसायन, ऑर्गेनिक व अपशिष्ट खतरनाक पदार्थ मुझ में लगातार मिलते रहते हैं। इसी तरह देवास के औद्योगिक क्षेत्र का चार लाख लीटर प्रदूषित जल भी मुझ में मिलता है। साथ ही मेरे किनारे पर बसे कल-कारखानों का गंदा पानी भी मुझ में निरंतर मिलता रहता है।

इन सब के कारणों से मेरा पानी पीने लायक नहीं रह गया है। ओर तो ओर यह नहाने लायक भी नहीं है। यह बदबूदार प्रदूषित पानी बनकर रह गया है। कारण, मुझ में लगातार गंदगी प्रवाहित होना है।

यही वजह है कि पिछ्ले सिंहस्थ मेले में मुझ में नर्मदा नदी का पानी लिफ्ट करके छोड़ा गया था। जिसकी वजह से गत साल सिंहस्थ का मेला बमुश्किल और सकुशल संपन्न हो पाया था। यदि बढ़ते प्रदूषण का यही हाल रहा तो एक समय मेरा नामोनिशान तक मिल जाएगा। मैं गंदा नाला बन कर रह जाऊंगी।

खैर! यह मेरे मन की पीड़ा थी। मैंने आपको बता दी है। यदि आप सब मिलकर प्रयास करें तो मुझे वापस कल-कल बहती मोक्षदायिनी शिप्रा के रूप में वापस पुनर्जीवित कर सकते हैं।

और हां, एक बात ओर हैं- मुझ में जहां 3 नदियां यानी खान, सरस्वती (गुप्त) और मैं शिप्रा नदियां- जहां मिलती हूं उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इस तरह में 195 किलोमीटर का लंबा सफर तय करके चंबल में मिल जाती हूं  यह वही चंबल है जो आगे चलकर यमुना नदी में मिलती है।  यह यमुना नदी, गंगा में मिलकर एकाकार हो जाती हूं इस तरह मैं मालवा की मोक्षदायिनी नदी- गंगा भारत की प्रसिद्ध गंगा नदी में विलीन हो जाती हूं।

यही मेरी आत्मकथा है।

आपसे करबद्ध गुजारिश है कि मुझे बनाए रखने के लिए प्रयास जरूर करना। ताकि मैं मालवा की गंगा मालवा में कल-कल कर के सदा बहती रहूं। जय गंगे! जय शिप्रा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-06-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 248 ☆ बाल गीत – मम्मा इत्ते  छोटे दिन … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 248 ☆ 

☆ बाल गीत – मम्मा इत्ते  छोटे दिन  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सूरज लगता बाल सुमन।

जगकर प्रातः करें नमन।।

नरम धूप सूरज की भइया

ता – ता – ता – ता थप्पक – थइया।।

बैठ धूप में मम्मा सुन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

शाम गुलाबी , सुबह ठिठुरती।

रात की रानी खूब महकती।

हरसिंगार महक गुनगुन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

शीत सताए हवा ठुमकती।

बदरा बिजली कभी चमकती।

गाल गुलाबी , शीतल तन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

कभी कुहासा, कभी उजाला।

धूप विटामिन डी का प्याला।

ओढ़ रजाई भरता मन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

महक मोगरा मन है हरती।

चाँद चाँदनी खूब दमकती।

मम्मा इत्ते छोटे दिन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? डाॅ. निशिकांत श्रोत्री – अभिनंदन ?

💐 संपादकीय निवेदन 💐

 !! हार्दिक अभिनंदन !! 

आपल्या समूहातील ज्येष्ठ लेखक व कवी डॉ. निशिकांत श्रोत्री यांची पाच पुस्तके २८ फेब्रुवारी २०२५ ते ३० मार्च २०२५ या अल्प कालावधीत प्रकाशित झाली आहेत. हा खरोखरच एक विक्रम म्हणायला हवा. आणि त्यासाठी आपल्या सर्वांतर्फे डॉ. श्रोत्री यांचे अगदी मनःपूर्वक अभिनंदन.

त्यांचे असेच आणखी कितीतरी उत्तम साहित्य वाचण्याची सर्व वाचकांना सुसंधी लाभो या असंख्य शुभेच्छा.💐

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंतोत्सव… ☆ सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वसंतोत्सव… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

(पुरस्कृत कविता)

आला वसंत हा आला

चैतन्याने जो नटला ||धृ||

*

पीतफुले घेऊनिया

बहावाही बहरला

पांथस्थांना सुख द्याया

आनंदाने जो नटला ||१||

*

पुष्पें गुलमोहराला

रक्तवर्णे तळपला

ग्रीष्मासंगे जो फुलला

रस्ता मखमली झाला ||२||

*

पर्णपाचू बहरला

हिरवाई ने सजला

पुष्पांसवे तो रंगला

ग्रीष्मासवे जो दंगला ||३||

*

मोद मना मना झाला

वसंताने तोषविला

कूजनाने वेडावला

गंधांसह रुजविला ||४||

*

आला वसंत हा आला

उत्सवात जणू न्हाला ||

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

कोल्हापूर 

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनगाणे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवनगाणे☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

वाटेला आलेले

जगलो जीवन

आव्हाने पेलीत

चालत राहीलो..

*

निवांत क्षणी

भूत आठवला

हळूच हसलो गाली

पण होतो कधी रडलो..

*

बसलो सुसज्ज अशा

मखमली सोफ्यावर

आठवले मज मग

लोखंडी खुर्चीत बसलेलो..

*

पुर्ण बाहीचा सदरा

सुखावह स्पर्ष तो

भयावह ते दिवस

का उगा आठवित बसलो…

*

गुणगुणतो गाणे

माझेच वाटे मजला

दुखभरे दिन बितेरे भैया

अब सुख आयो रे

रंग जीवन मे नया अब आयो रे….

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- मी नाईराजानं ते पैशाचं एन्व्हलप खिशात ठेवलं. पूर्वीपेक्षाही त्या पैशांचं ओझं मला आता जास्त जाणवू लागलं. ते ओझं हलकं केल्याशिवाय मलाच चैन पडणार नव्हती. मी सर्वांचा निरोप घेतला. जाताना केशवरावांना म्हणालो,

“माझ्याबरोबर कोपऱ्यावरच्या रिक्षा स्टॉपपर्यंत चला ना प्लीज”. ते तयार झाले. मी मनाशी निश्चय पक्का केला. अगदी मनाच्या तळ्यातलं जे जे ते सगळं त्यांच्याशी बोलायचं असं ठरवूनच टाकलं. पण ते माझं बोलणंच नंतर पुढचं सगळं अतर्क्य घडायला निमित्त ठरणार होतं याची मला तेव्हा कल्पनाच नव्हती.)

केशवराव आणि मी घराबाहेर पडलो. चार पावलं चालून गेल्यावर वाटेतच एक सार्वजनिक बाग दिसली. मी घुटमळलो.

“काका, आपण इथं बागेत बसूया पाच मिनिटं? मला थोडं बोलायचंय. ” सगळा धीर एकवटून मी विचारलं. ते ‘बरं’ म्हणाले. आम्ही आत जाऊन बसलो. मला सुरुवात कशी करावी ते समजेचना.

“बोल. काय बोलणार आहेस.. ?”

‘तू लहान तोंडी मोठा घास घेऊ नकोस.. ‘ हे माझ्या मोठ्या बहिणीचे शब्द मला आठवले आणि आपलं कांही चुकत तर नाहीय ना असं वाटून माझं अवसानच गळून गेलं. मी मान खाली घातली. त्यांच्या नजरेला नजर मिळवण्याचं धाडस मला होईना.

“बोल ना अरे,.. तू गप्प कां? काय झालंय.. ?”

त्यांचे आपुलकीचे शब्द ऐकून मला थोडा धीर आला.

“घरी.. ताईपुढे.. हे सगळं बोलता आलं नसतं म्हणून तुम्हाला त्रास देतोय… ” मी कसंबसं बोलायला सुरूवात केली. आवाज भरून आला न् मी बोलायचं थांबलो. त्यांनी मला अलगद थोपटलं. त्या स्पर्शानेच माझे डोळे भरून आले. मी महत्प्रयासाने स्वतःला सावरलं.

“काका, थोडं स्पष्ट बोललो तर रागावणार नाही ना?”

“नाही रे बाबा,.. बोल तू. “

“काका, आमच्या ताईशी तुमचं लग्न झालं ती खूप नंतरची गोष्ट ना हो? त्याआधी ती आमचीच होती.. हो ना? आमच्या घरातली. आमच्याचसारखी. फक्त तिचं तुमच्याशी लग्न झालं म्हणून तिच्या सगळ्या सुखदुःखांवर फक्त तुमचाच अधिकार कसा?

त्यातला आमचा वाटा आम्हालाही द्या ना. तो तुम्ही दोघेही नाकारता कां आहात?.. ” माझा आवाज भरून आला. आवेग ओसरेनाच.

“अरे.. असं काय करतोयस वेड्यासारखं?” ते मला समजावू लागले.

“मग पुष्पाताई आणि काका दोघे इकडे आले, तेव्हा त्यांनी दिलेले पैसे घेतले कां नव्हते तुम्ही? ‘नको’ म्हणून नाकारलेत कां? आज माझी भाऊबीजही ताईने नाकारली. कां? मी फक्त वयानं लहान म्हणून कुणाला कांहीच विचारायचं नाही कां?… “

माझं बोलणं ऐकून ते मनातून थोडंसं हलले. निरूत्तर झाले. थोडावेळ शून्यांत पहात राहिले. आता स्पष्ट बोलायची हीच वेळ होती.

“काका, हे फक्त तुमच्यावर नाही, आपल्या सर्वांवर आलेलं संकट आहे हे लक्षात घ्या. तुम्ही एकटे नाही आहात. आपण आता मी सांगतो तशी कामं आपण वाटून घेऊया. नोकऱ्यांमधल्या दूरवरच्या पोस्टिंगमुळे मला न् दादाला इथे राहून ताईची काळजी घेता येत नाहीय याचं दोघांनाही वाईट वाटतंय. तेव्हा आईने ठरवलंय तसं ताई बरी होईपर्यंत आई इथे राहून सगळं घरकाम सांभाळू दे. तुम्ही आणि अजित-सुजित ताईच्या औषधांच्या वेळा, तिला हवं-नको सगळं बघताच आहात. अजितच्या काकूंची एरवीही सोबत असतेच शिवाय त्या

हॉस्पिटलायझेशन असते तेव्हा रात्रभर तिच्याजवळ थांबून तिला सांभाळतातही.. यातली कुठलीच जबाबदारी आम्हा भावंडांना मनात असूनही शेअर करता येत नाही. त्यामुळे आजपर्यंतचा आणि याच्या पुढचाही ताईच्या उपचारांचा सगळा खर्च आम्ही भावंडं एकत्रितपणे करणार आहोत. त्याला तुम्ही प्लीज नाही म्हणू नका.. “

मी बोलायचं थांबलो. माझ्या बोलण्यात नाकारण्यासारखं काही नव्हतंच. ऐकता ऐकता त्यांची नजर गढूळ झाली. नजरेतल्या ओलाव्याने त्यांचा आवाजही भिजून गेला.

“तुला माझ्या मनातलं, अगदी खरं सांगू कां?” ते म्हणाले, ” हे मी आत्तापर्यंत घरी कुणापाशीच बोलू शकलेलो नाहीये. कारण माझ्यासारखे घरातले आम्ही सगळेच तुझ्या ताईच्या विचारानेच अस्वस्थ आहोत. तुझ्या बोलण्यातली तळमळ मला समजतेय. तुम्हा सगळ्याच भावंडांच्या सदिच्छांचाच मला या अगतिकतेत खूप आधार वाटतोय. पण खरं सांगू? तुझी ताई आता थोड्याच दिवसांची सोबतीण आहे हे निदान मी तरी मनोमन स्वीकारलंय. पहिल्या दोन केमोजच्या रिअॅक्शन्स तिला खूप त्रासदायक ठरलेल्या आहेत. तिसरा डोस अजून साधारण महिन्यानंतर द्यायचाय. तो ती कसा सहन करेल याचंच मला दडपण वाटतंय. त्यानंतरच ऑपरेशनची गरज आहे कां नाही हे ठरेल. एखादा चमत्कार घडला तरच ऑपरेशन न करता ती बरी होईल हेच वास्तव आहे आणि मी ते स्वीकारलंय. म्हणूनच माझ्या मनातल्या या घालमेलीची तिला कल्पना येऊ न देता मी रोज हसतमुखाने तिला सामोरा जातोय. कसलेही अवास्तव हट्ट न करता अतिशय समाधानानं तिने मला आजवर साथ दिलेली आहे. मला तिचा उतराई व्हायचंय. म्हणूनच मी तिला समजावतो, धीर देतो, हेही दिवस जातील हा माझ्यापरीने तिला विश्वास देत रहातो. ‘तुला कांही हवंय कां?.. जे हवं असेल ते मोकळेपणाने सांग.. मी आणून देईन.. ‘ असं मी तिला नेहमी सांगत, विचारत रहातो. ती हसते. ‘काही नको.. मला सगळं मिळालंय’ म्हणते. खूप शांत आणि समजूतदार आहे ती. त्यामुळेच निदान बाकी कांही नाही तरी तिच्या औषधपाण्याचा खर्च माझ्या कष्टाच्या पैशातून झाल्याचं समाधान तरी मिळावं एवढीच माझी इच्छा आहे. माझी ही भावना तू समजून घे. माझ्या नुकत्याच झालेल्या रिटायरमेंट नंतर हे संकट आलंय. यामागे ईश्वरी नियोजन असेलच ना कांहीतरी? म्हणून तर नेमक्या गरजेच्या वेळी माझ्या फंड ग्रॅच्युईटीचे आलेले साडेतीन लाख रुपये आज माझ्या हाताशी आहेत. माझ्या कष्टाच्या पैशातून तिच्या औषधपाण्याचा खर्च करायचं समाधान खूप महत्त्वाचं आहे रे माझ्यासाठी. असं असताना तुम्ही देताय म्हणून तुमच्याकडून पैसे घेणं योग्य आहे कां तूच सांग. तुम्ही सगळीच भावंडं मला कधीच परकी नाही आहात. माझ्याजवळचे हेही पैसे संपतील तेव्हा इतर कुणापुढेही हात न पसरता मी पहिला निरोप तुलाच पाठवीन. मग तर झालं?विश्वास ठेव माझ्यावर. “

मी भारावल्यासारखा त्यांचा प्रत्येक शब्द न् शब्द मनात साठवत होतो. ते बोलायचे थांबले तसा मी भानावर आलो.

“नक्की.. ?”

“हो.. नक्की. वयाने लहान असूनही तुम्ही प्रेमानं, आपुलकीनं, सगळं करू पहाताहात हे खरंच खूप आहे आमच्यासाठी.. ” ते मनापासून म्हणाले. मला खूप बरं वाटलं. मनातली रुखरूख विरुन तर गेलीच आणि केशवरावांबद्दलचा आदर अधिकच दुणावला. परतीच्या प्रवासात याच विचारांची मला सोबत होती. विचार करता करता खूप उशीरा माझ्या लक्षात आलं की वरवर ‘हो’ म्हणत केशवराव पैसे घ्यायला नाहीच म्हणाले होते! तरीही त्या मागचा त्यांचा विचार आणि भावना खूप प्रामाणिक आणि निखळ होत्या. ताईच्या घरातली ही ‘श्रीमंती’ हाच तिचा भक्कम आधार रहाणार होता!

ज्या क्षणी हे नेमकेपणानं जाणवलं आणि माझ्याकडून स्वीकारलं गेलं त्या क्षणीच ताईला मदतीच्या रूपात कांही द्यायचा माझ्या मनातला अट्टाहास संपला. आता एकच इच्छा मनात होती, या जीवघेण्या दुखण्यातून माझी ताई पूर्ण बरी होऊन पुन्हा ते घर पूर्वीसारखं हसतखेळत रहावं. त्या ‘आनंदाच्या झाडा’ची पानगळ संपून त्याला पुन्हा नवी पालवी फुटावी. ताईच्या मनात तरी यापेक्षा वेगळं काय असणार होतं? आणि शिवाय तिच्याही मनात वेगळ्या रूपातला कां असेना पण ‘तो’ आहेच की. तिची कसोटी पहाणारा आणि ताई कसोटीला खरी उतरेल तेव्हा तिला जे हवं ते भरभरून देणारा! ताई खरंतर प्राप्त परिस्थितीला तोंड देत, असह्य यातना सहन करीत, या कसोटीला उतरण्याचा जीवापाड प्रयत्न करते आहेच की. ते फलद्रूप होतील? व्हायलाच हवेत…. ‘ मी भानावर आलो. ताईच्या मनांत आत्ता याक्षणी असेच उलटसुलट विचार येत असतील? ती काय मागत असेल तिच्या मनातल्या

‘त्या’च्याकडे?… परतीच्या त्या संपूर्ण प्रवासात मनात असे भरून राहिले होते ते ताईचेच विचार…. !!

तो प्रवास संपला तरी तिची विवंचना आणि काळजी पुढे बरेच दिवस मनात ठाण मांडून माझं मन पोखरत राहिली होती…. ‘तुझी ताई आता थोड्या दिवसांचीच सोबतीण आहे हे मी मनोमन स्वीकारलंय’… हे केशवरावांचे शब्द पुढे कितीतरी दिवस मनात रुतून बसले होते. कितीही सकारात्मक विचार करायचा म्हटलं तरी त्यांचे ते शब्द मन बेचैन करत रहायचे.

ताईला केमोचा तिसरा डोस देऊन झाल्याचं समजलं तेव्हा वाटलं आता प्रतिक्षा संपली. आता कांही दिवसातच तिचा पुढचा चेकअप होईल आणि ऑपरेशन करावे लागेल की नाही याचा निर्णयही. आम्ही सर्वजण त्या निर्णयाचीच वाट पहात होतो. आॅपरेशन करायचं म्हटलं तरी ती ते सहन करू शकेल कां याबद्दलची साशंकता डाॅक्टरांनी पूर्वी व्यक्त केली होतीच.. आणि ती.. नाही सहन करू शकली तर.. ? केशवराव म्हणाले तसा खरोखरच एखादा चमत्कार घडून ऑपरेशनची गरज न भासताच ताई बरी होईल कां? असेच सगळे उलटसुलट विचार मनाला व्यापून रहायचे. थोडी जरी उसंत मिळाली तरी आम्ही भावंडं आपापल्या सवडीने ताईला भेटून येत असू. त्या भेटीत माझ्या आईच्या मनातली घालमेल, केशवरावांच्या बोलण्यातली अगतिकता, अजित-सुजित दोघांच्याही

नजरेमधे जाणवत रहाणारी व्याकुळता,.. हे सगळंच माझं मन अस्वस्थ करणारं होतं!

अखेर ताईच्या संपूर्ण चेकअपची तारीख ठरली… , ऑपरेशनची गरज निर्माण न होताच ती बरी व्हावी असं सर्वांनाच अगदी मनापासून वाटत होतं.. , याच अस्वस्थ अनिश्चिततेत चार दिवस

कापरासारखे उडून गेले.. !

आता प्रतिक्षा होती ती फक्त तिकडून येणाऱ्या फोनची… आणि त्यादिवशी फोनचा रिंगटोन वाजताच तिकडचाच फोन असणार ही खात्री असल्यासारखा मी फोनकडे धावलो…

फोन तिकडचाच होता…. !

“मामा… मी अजित बोलतोय…. “

त्याच्या उत्तेजित झालेल्या स्वरांनी माझा थरकाप उडाला… त्याच्या आवाजातली थरथर मला स्पष्ट जाणवली आणि मी थिजून गेलो… त्याला ‘बोल’ म्हणायचं भानही मी हरवून बसलो. थरथरत्या हातातला रिसिव्हर कसाबसा सावरत मी तसाच उभा होतो.. !!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “तक्रार…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “तक्रार…” ☆ श्री मंगेश मधुकर

सकाळी दहाच्या सुमारास पोलिस चौकीत आलो तेव्हा वाटलं की अर्ध्या तासात काम संपवून घरी जाता येईल पण कसलं काय!!बारा वाजले तरी चौकीतच होतो. तक्रारीचे स्वरूप समजल्यावर प्रत्येकानं साहेबांची भेट घ्यायला सांगितलं आणि ते कामासाठी बाहेर गेलेले. वाढतं ऊन आणि पोटातली भूक यामुळं चिडचिड वाढली तरीही चडफडत बसून राहिलो. काही वेळातच साहेब आले. तेव्हा अस्वस्थता कमी झाली. दहा मिनिटात बोलावणं आल्यावर केबिनमध्ये साहेबांसमोर उभा राहिलो.

“नमस्कार साहेब” 

“बोला. काका. डोक्याला बँडेज??, काय झालं??. ”

“त्यासाठीच आलोय पण माझी तक्रार नोंदवून घेतली जात नाहीये”

“का?”साहेबांनी हवालदारांकडे पाहत विचारलं पण हवालदार काहीच बोलले नाहीत.

“मी सांगतो”

“हं बोला”साहेब.

“कपाळावरची ही पट्टी दिसतेय ना. सकाळीच तीन टाके पडलेत. ”

“अक्सीडेंट, टु व्हीलर की कार”

“फ्लेक्स”

“म्हणजे”साहेबांच्या चेहऱ्यावर आश्चर्य आणि उत्सुकता.

मी पुढे काही बोलणार इतक्यात हवालदार म्हणाले “मोठ्या लोकांविरुद्ध तक्रार करायची म्हणतात म्हणूनच लिहून घेतली नाही. ”

“हे खरंय”माझ्याकडं पाहत साहेबांनी विचारलं.

“शंभर टक्के!!या भागातील माननीय, मान्यवर आणि त्यांचे चार कार्यकर्ते यांच्यामुळे ही दुखापत झाली. असा माझा आरोप आहे. ”

“नक्की काय घडलं ते जरा नीट सांगा?”साहेबांचं बोलणं संपायच्या आत मी मोबाइल पुढे केला. फोटो पाहून साहेब जरासे वैतागले. “आता हे काय?”

“पुरावा”

“फ्लेक्सच्या फोटोत कसला पुरावा?”

“साहेब, यातच सगळं काही आहे. वेगवेगळ्या बाजूने फोटो काढलेत त्यावरूनच तक्रार करतोय.” 

“काय बोलताय ते तुमचं तुम्हांला तरी समजतेय का?”साहेब.

“हा फ्लेक्स बेकायदेशीररित्या लावलाय. रस्ता ओलंडताना डिवायडरमध्ये जी दहाएक फुटाची जागा असते तिथे लावलेल्या फ्लेक्सची किनार मला लागली. तीन टाके घालावे लागले. ”

“म्हणून थेट पोलिसात तक्रार!!”

“का करू नये. थोडक्यात निभावलं पण जर काही गंभीर दुखापत झाली असती. डोळा फुटला असता तर.. ”

“काही झालं नाही ना. ”

“मग काही गंभीर व्हायची वाट पहायची का?”

“तक्रार करून काय मिळणार आणि ज्या लोकांची नावं घेत आहेत. त्यांना काही फरक पडणार नाही. ”

“असं कसं. फ्लेक्स माननियांना शुभेच्छा देण्यासाठी लावलाय कार्यकर्त्यांची नावं आणि फोटो आहेत. फ्लेक्स चुकीच्या ठिकाणी आणि धोकादायक स्थितीत लावलाय. त्याचा पुरावा म्हणून शूटिंग सुद्धा केलंय. ”

“फार काही हाती लागणार नाही परंतु मनस्ताप मात्र वाढेल. ”

“तक्रार करायला आलो तेव्हाच मनाची तयारी केलीय.

“जरा शांत डोक्यानं विचार करा” 

“साहेब, आम्ही सामान्य माणसं सार्वजनिक ठिकाणी जीव मुठीत घेऊन फिरतो. त्यातही पायी चालणाऱ्यांचे फार हाल. एकतर लोक बेफाम गाड्या चालवतात आणि त्यात भर म्हणजे जागोजागी लावलेले फ्लेक्स. आमचा विचारच कोणी करत नाही उलट ‘घरात बसा कशाला बाहेर पडता’ असं उद्धटपणे बोलतात. ”

“तुमचा त्रास समजू शकतो. याविषयी नक्की मार्ग काढू. नको त्या भानगडीत पडू नका. त्रास होईल. ” 

“निदान तुम्ही तरी असं नका बोलू. आम्हांला फक्त कायद्याचा आधार म्हणजे पर्यायाने तुमचाच आधार. वाट्टेल तिथं फ्लेक्स लावतात. इच्छा असूनही विरोध करता येत नाही अन भांडूही शकत नाही. त्रास सगळ्यांना होतो. सहन होत नाही अन सांगता येत नाही अशी अवस्था. तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार खात राहतो. आज वाचलो तेव्हा ठरवलं की या त्रासाविरुद्ध तक्रार करायची. ”

“त्यानं काय साध्य होईल. ”

“माननियांचे नाव असल्यानं तक्रारीची निश्चितपणे दखल घेतली जाईल आणि बाकी सोशल मीडिया आहेच आणि न्यूज चॅनल तर ब्रेकिंग न्यूजसाठी तडफडत असतातच” माझ्या बोलण्यानं साहेब विचारात पडले.

“थोडा वेळ बाहेर बसता का?काहीतरी मार्ग काढतो. ”

बाहेर बाकावर जाऊन बसलो. डोकावून पाहीलं तर आत फोनाफोनी सुरू होती. काही वेळानं आत बोलावलं. बसायला सांगून साहेबांनी चहाची ऑर्डर दिली.

“एक उत्तम उपाय सापडलाय. त्यामुळे तक्रारीची गरज भासणार नाही. ”

“काय?”मी 

“आपल्या भागातील सगळे बेकायदेशीर फ्लेक्स उतरवण्याचं काम सुरू झालंय. ”

“अरे वा!!अचानक हा चमत्कार??”

“चमत्कार वैगरे काही नाही. तुमच्या तक्रारीविषयी माननीयांशी बोललो. तुमचं म्हणणं त्यांना शंभर टक्के पटलं आणि या कामी घेतलेल्या पुढाकाराबद्दल माननियांनी तुमचं खास कौतुकसुद्धा केलं. ताबडतोब कार्यकर्त्यांना फ्लेक्स काढायच्या कामाला लावलयं. आता ठीक आहे. ”

“खूप खूप धन्यवाद साहेब!!, फार मोठी मदत झाली. अजून काय पाहिजे. इतरांप्रमाणे मीसुद्धा निमूटपणे सहन करत होतो पण आज थोडक्यात बचावलो तेव्हाच ठरवलं की याविषयी काहीतरी करायला पाहिजे. जखमेचे फोटो काढले. डोक्याला बँडेज बांधलेल्या अवस्थेत घटनाक्रम शूट करून इथे आलो. ”

“आता पुढं काहीही करू नका”साहेब.

“जे हवं होतं ते तुम्ही झटपट केलंत त्यामुळे आता बाकी काही करण्याची गरज नाही. खूप खूप धन्यवाद!!आणि माझी एक विनंती माननीयांपर्यंत पोहचवा. पुन्हा बेकायदेशीर फ्लेक्स लावले जाऊ नयेत एवढीच अपेक्षा आहे. त्यांनी मनात आणलं तर हे सहज शक्य आहे. पुन्हा एकदा मनापासून आभार!!” साहेबांचा निरोप घेऊन चौकीच्या बाहेर पडलो. घरी येताना चौकातले फ्लेक्स उतरवण्याचे काम सुरू होतं ते पाहून नकळत चेहऱ्यावर हसू उमललं.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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