हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 263 ☆ कविता – अपरिग्रह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – अपरिग्रह)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 263 ☆

? कविता – अपरिग्रह ?

हवाई यात्रा की

सिक्योरिटी के पल

सच्चा त्याग अपरिग्रह सिखाते हैं

सब कुछ ट्रे में …और आप स्कैनर में !

 

सोचता हूं

मन की गठरी में बंधे

ईर्ष्या, चिंता, अभिमान

लोभ, वगैरह वगैरह का वजन

ढोते लोग यूं ही पार हो जाते हैं क्यूं, बिना किसी लोड लिमिट ।

 

काश

कोई स्कैनर

पकड़ पाता

मन की भी

कलुषता !

और उस पार

पहुंचते

पवित्र, निष्कलंक इंसान

ऊंची उड़ान भरने।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 2 – झबरू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  झबरू)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – झबरू  ?

हमारा शहर अत्याधुनिकता की ओर पुरज़ोर अग्रसर हो रहा है और मेट्रो बनाने का काम भी तीव्र गति से चल रहा है। ऐसे में भीड़-भाड़वाले इस विशाल शहर में जब ट्रैफिक रुकती है तो इंसान चाहे तो एक पावर नैप ले ही सकता है।

सुबह के आठ बजे थे। इस समय दफ्तर जानेवालों की भीड़ एकत्रित हो रही थी और मैं अपनी बिटिया को एयरपोर्ट से लाने के लिए निकली थी। यात्रा लंबी थी और कई ट्रैफिक लाइट पर रुकने की मानसिक तैयारी मैं भी कर चुकी थी।

ट्रैफिकलाइट के पास गाड़ी रुक गई। गाड़ी के रुकते ही फूलवाले, कूड़ा रखने के पैकेटवाले और टिश्यूपेपर बॉक्स वाले गाड़ियों के आसपास काँच पर टोका मारते हुए घूमने लगे। सुबह का समय था तो इन सबके साथ नींबू और मिर्ची बाँधकर बेचनेवाले भी घूम रहे थे और भीड़ में खड़े टैक्सीवाले बहुनी के चक्कर में उन्हीं को अधिक महत्त्व दे रहे दे।

मेरी नज़र रास्ते की बाईं ओर थी क्योंकि बाहर बिकनेवाली किसी भी वस्तु में मुझे रुचि नहीं थी। बाईं फुटपाथ पर एक आठ -नौ  बरस का लड़का अपनी  बाईं कमर पर साल दो साल के बच्चे को पकड़े हुए था और उसके दूसरे हाथ में एक पन्नी में गरम चाय थी। शायद सुब-सुबह अपने माता पिता के लिए किसी टपरी से चाय ले जा रहा था।

वह भी रास्ता पार करने के लिए ही खड़ा था पर उसे जल्दी न थी। वह अपनी कमर को इस तरह हिलाता कि गोद का बच्चा थिरक उठता और साथ ही खिलखिलाता। अपने छोटे भाई को खिलखिलाते देख उसका कमर नचाना बढ़ गया और वह और स्फूर्ति से उसे हँसाता।

मुझे उस दृश्य को देखने में आनंद आ रहा था। दरिद्रता में संतोष की छवि का दर्शन मिल रहा था। प्रसन्न रहने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं इस बात को यह बालक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। मेरी दृष्टि बस उस भीड़ में उसी को देख पा रही थी। मौका मिलते ही वह रास्ता पार कर अपनी माँ के पास पहुँचा जहाँ वह गुलाब के फूलों का गुच्छा बना रही थी।

गाड़ी चल पड़ी और मेरी आँखों के सामने अचानक झबुआ खड़ा हो गया। झबुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती का रहनेवाला था। उसका बाप कानपुर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था। उसकी पत्नी का जब देहांत हो गया तो वह अपने बच्चे को कानपुर ले आया।

उन दिनों मेरी दीदी और जीजाजी कानपुर में ही रहा करते थे। शिक्षा विभाग में उच्च पदस्थ थे तो बहुत बड़ा बँगला जो बाग- बगीचे से सुसज्जित था  और नौकर – चाकर की सुविधा सरकार की ओर से उपलब्ध थी। झबरू का बाप उनके बंगले के बाहरी हिस्से में जहाँ एक गेट हमेशा बंद रहता था वहाँ अस्थाई व्यवस्था कर रहा करता था। प्रातः हैंडपंप के पानी से नहाता, अपनी धोती धोकर फैला देता और सत्तू खाकर निकल पड़ता। उसकी गठरी वहीं पड़ी रहती। दीदी को अगर पास – पड़ोस में जाना होता तो वह उसी रिक्शेवाले के साथ चली जाया करती थी।

दीदी का लड़का साल भर का ही था। झबरू का बाप एक दिन झबरू को लेकर दीदी के पास आया और झबरू को नौकर रखने के लिए कहा। आठ -नौ साल का बच्चा क्या काम करेगा ? पर झबरू के बाप की परेशानी देखकर उसे घर पर रख लिया गया। उसे दीदी के बच्चे को संभालने का काम दिया गया। वह दिन भर बच्चे के साथ खेलता उसे अपनी कलाबाज़ी दिखाता, उसे अपनी गोद में लेकर बगीचे में घूमता और दोनों खूब खुश रहते।

झबरू को बागवानी का शौक था तो वह माली का एसिस्टेंट भी बन गया था। धनिया, पुदीना, हरीमिर्च, पालक, मेथी टमाटर पत्तागोभी आदि घर के बगीचे में उगाए जाते। झबरू का काम बड़ा साफ़ था। वह बगीचे से झरे हुए पत्ते उठाकर बगीचा साफ़ रखता। लॉन पर रखी बेंत की कुर्सी मेज़ साफ़ करता। शाम को लॉन में पानी डालता और दीदी जीजाजी की सेवा में जुटा रहता।

दीदी का लड़का स्कूल जाने लगा, स्कूल ले जाने -लाने की ज़िम्मेदारी भी झबरू के पिता ने सहर्ष ले ली। इधर झबरू भी बड़ा होने लगा। दीदी के हाथ के नीचे कई छोटे -बड़े काम करने लगा। उन दिनों गरीब बच्चों को पढ़ाने -लिखाने की बात पर लोग खास विचार नहीं करते थे। पर झबरू जब सोलह वर्ष का हुआ तो जीजा जी ने उसे एक बढ़ई के हाथ के नीचे काम करने के लिए भेज दिया।

वह अभी भी उनके घर में ही रहता था। घर बुहारना, पोछा लगाना, रसोई में धनिया, मेथी पालक, पुदीना साफ़ कर देना, चूल्हा जलाना (उन दिनों गैस का प्रचलन नहीं था) आलू छील देना सब्ज़ी धोकर रखना आदि सारे काम कर नहा-धोकर नाश्ता खाकर टिफन लेकर काम सीखने जाने लगा।

झबरू बहुत हँसमुख, खुशमिजाज़, मिलनसार तथा  हुनरमंद लड़का था। हर काम को सीखने की उसकी तीव्र इच्छा और त्वरित सीख लेने की योग्यता ने जीजाजी की आँखों में उसे विशेष स्थान दिया था। दीदी के लिए वह घर का सेवक मात्र था पर हाँ दीदी उसकी अच्छी देखभाल करतीं और स्नेह भी।

जिस बच्चे को झबरू गोद में लेकर घूमता था वह भी अब बड़ा हो गया था। वह अब नौवीं में पढ़ता था और झबरू शायद बाईस -तईस साल का था। कानपुर के किसी बड़े कॉलेज में फर्नीचर बनाने का बड़ा कॉन्ट्रेक्ट हीरालालको दिया गया। झबरू हीरालाल के पास ही काम सीखता था।

झबरू ने जी-जान से सभी प्रकार के फर्नीचर बनाए। मेज़, अलमारी, साहब के लिए शानदार कुर्सी, ग्रंथालय के लिए डेस्क सब कुछ नायाब डिज़ाइन के बनाए गए और झबरू की कुशलता स्पष्ट दिखाई दी। उसकी खूब प्रशंसा भी की गई। अब रोज़गार भी खूब बढ़ गया।

झबरू की उम्र बढ़ती रही, कामकाज भी अच्छा करने लगा, हाथ में अच्छा रुपया पैसा आ गया तो उसने गंगा के किनारे एक खोली किराए पर ले ली। आवश्यक वस्तुएँ जुटाकर कमरा सजाया और बाप को लेकर वहाँ रहने गया।

झबरू मेरी दीदी को माई कहता था और जीजाजी को बड़े बाबू। उसके जाने पर जिस कमरे में वह रहता था उसकी सफ़ाई की गई। एक लोहे के बक्से में बढ़ई के काम के औज़ार मिले। कुछ काँच के रंगीन टुकड़े, कँचे, गंगा के गोल-  गोल पत्थर, गुलेल, भैया जी के ड्रॉइंग पेपर के कई कागज़ जिस पर फ़र्नीचर के पेंसिल से डिज़ाइन निकाले गए  थे। कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ चिपका कर डिज़ाइन बनाए गए पुराने कागज़ भी मिले। कानपुर की मिट्टी थोड़ी सफेद सी होती है जिसमें बालू भी मिश्रित रहती है। मिट्टी के कई गोले मिले जिन्हें सुखाकर उस पर कई सुंदर आकृतियाँ उकारी गई  थीं। मसूरदाल चिपकाकर एक  सुंदर स्त्री का चित्र मिला जो देखने में कुछ कुछ मेरी दीदी जैसा ही था। अगर झबरू को पढ़ना लिखना आता तो शायद वह उस चेहरे के नीचे माई लिख डालता। सभी वस्तुओं को देखकर दीदी के नैन डबडबा उठे थे। एक योग्य लड़के को जीवन में खास अवसर न दे पाने का शायद उन्हें पश्चाताप भी होने लगा था।

झबरू जब से पिता को लेकर गंगा पार रहने गया था तब से वह भी फिर कभी लौटकर नहीं आया। कई  वर्ष बीत गए। दीदी का लड़का पढ़ने के लिए लखनऊ यूनिवरसिटी चला गया तो जीजाजी ने अपना भी ट्रांसफर करा लिया।

एक दिन घर के दरवान ने आकर कहा कि कोई वृद्ध व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है। अपना नाम वह रसिकलाल बताता है। जीजाजी तुरंत बाहर बरामदे में आए। वृद्ध कोई और नहीं झबरू का बाप था। जीजाजी को देखते ही पैर पकड़कर फूटफूटकर वह रोने लगा। शांत होने पर बोला उसके बेटे को पुलिस पकड़कर ले गई। कृपया उसे बचा लीजिए। मेरा बेटा निर्दोष है। कोई उसे फँसा रहा है।

जीजाजी की सरकारी दफ्तरों के उच्च पदस्थ लोगों के साथ न केवल परिचय था बल्कि उठना -बैठना भी था। पता चला कि झबरू खूब पैसा कमाने लगा तो गलत लोगों के संगत में रहने लगा था। वह वेश्याओं के यहाँ भी आना जाना रखता था। किसी एक पर उसका दिल आया था और वह नहीं चाहता था कि और कोई ग्राहक उसके पास जाए। बस एक दिन हाथापाई हो गई  और उसने आरी से अपनी प्रेमिका और ग्राहक दोनों को मार डाला।

पुलिस पकड़कर ले गई। बाप को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि झबरू ऐसा काम कर भी सकता था। पर अब हत्या का आरोप था वह भी एक नहीं दो हत्याओं का। रसिकलाल बेटे को बचाना चाहता था पर जीजाजी को जब पता चला कि उसे शायद फाँसी की सज़ा सुनवाई जाएगी तो उन्होंने उसे यह कहकर लौटा दिया कि उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।

साल दो साल बीत गए। एक दिन समाचार पत्र में झबरू की फाँसी का समाचार आया। जिस दिन उसे फाँसी दी गई उसके बाप को मृतदेह ले जाने के लिए बुलवाया गया। शाम हो गई पर वह न आया। रात के समय पता चला कि गंगा में पेट पर पत्थर बाँधकर  रसिकलाल ने आत्महत्या कर ली।

घटना तो बहुत ही पुरानी है पर आज ट्रैफिक पर खड़े उस खुशमिज़ाज बालक ने झबरू की यादें किसी फिल्म के रील की तरह आँखों के सामने घुमा दी। मैं झबरू से बहुत बार दीदी के घर मिल चुकी थी। आज उसे याद कर अनायास ही मेरे कपोलों पर अश्रु ढुलक पड़े।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 73 – देश-परदेश – मौसम के रंग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 73 ☆ देश-परदेश – मौसम के रंग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गिरगिट को रंग बदलने में हमेशा प्रथम श्रेणी में गिना जाता था। कुछ वर्षों से भारतीय राजनेताओं ने गिरगिट से उसका ये खिताब अपने नाम कर लिया हैं।

मौसम भी अपने रंग दिखाने में अग्रणी रहता हैं। मानव जाति ने प्रकृति से पंगा ले लिया तो प्रकृति भी मौसम के माध्यम से अपने रंग बदलने लगी हैं।

अब पहले जैसे मौसम नहीं रहता है, ऐसा विगत कुछ वर्षों से हमारे सयाने सुनाते आ रहे हैं। अब प्रकृति की संपदा वनस्पति, जल और नभ में विष भरेंगे तो प्रकृति भी बदला तो लेती रहेगी।

देसी हिसाब से होली तक ठंडक रहती है, लेकिन मौसम को मानने का  हमारा पैमाना अलग अलग रहता हैं। गीजर के गर्म पानी का उपयोग तो अभी करते रहेंगे, लेकिन पंखे, एसी जैसे नकली ठंडक देने वाले यंत्रों का प्रयोग भी आरंभ कर चुके हैं। घर में गीजर सुविधा बंद करने पर ही पंखे चालू होने चाइए।

आज हमारे पड़ोसी शर्मा जी डॉक्टर के यहां से दवा लेकर तीन घंटे समय लगा कर आए, डॉक्टर और केमिस्ट का तो सीजन चल रहा हैं। बच्चों की शिकयत करते हुए बोले खाने के टेबल पर खाते हुए बच्चे पंखा चला देते है, उसी की वजह से आज समय, स्वास्थ्य और धन की हानि हुई।

शर्मा जी, चर्चा करते हुए  पूछने लगे इन सब से कैसे बचना चाइए। हमे अपने पिताश्री जी की याद आ गई, वो प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त छूटी के दिन घर के एक मात्र पंखे पर पुरानी अख़बार से लपेट कर उसके उपयोग को बाधित कर दिया करते थे। 13 अप्रैल (वैशाखी) के दिन अखबार को पंखों से हटा कर गर्मी  की घोषणा की जाती थी।

हमारे एक परिचित ने कमरे में लगे हुए एसी के ऊपर भी कपड़े के कवर से ढांक दिया है, ऐसे में एसी भी सुरक्षित और उपयोग भी बंद हो गया। स्वास्थ्य और बिजली दोनो की बचत भी हो गई।

अनुशासन/ नियम का पालन करने के लिए कुछ सख्त कदम लेने पड़ते हैं।

“भय बिनु होय ना प्रीत”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #227 ☆ किंमत… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 227 ?

☆ किंमत… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

वडा-पाव हा कुणा चहा तर कुणास बुर्जीवाला

रस्त्यावरती भूक लागता आठवतो मग ठेला

*

कुणास शंभू कुणा राम तर कुणा बासरीवाला

प्रत्येकाचा ईश्वर आहे काळजात बसलेला

*

थांबत नाही कुणीच आता सूर्याच्या थाऱ्याला

हवे कुणाला कोकम सरबत कुणास कोका कोला

*

बालपणीचा बंधू असतो प्रिय हो ज्याला त्याला

लग्नानंतर आवड बदलते प्रिय वाटतो साला

*

शेतामधला वळू मोकळा धूळधाण करण्याला

अन कष्टाळू बैल बिचारा बांधतोस दाव्याला

*

पाठीवरती ओझे वाही गाढव म्हणती त्याला

त्याच्यावरती प्रेम करावे वाटे कुंभाराला

*

मी छोटासा महत्त्व माझे इथे नसे कोणाला

खुंटा आहे म्हणून किंमत आहे या जात्याला

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मराठी छंद… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मराठी छंद… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

या मराठीचा छंद

जीवना आत्मानंद

ग्रंथ श्लोक अगंध

काय हवे ज्ञानीया.

*

लेखणीही ऊदंड

सामर्थ्यात अखंड

श्री’ते ‘ज्ञ’त पाखंड

सत्य पोथी-पुराण.

*

बोली विवीध गोडी

सहज अर्थ जोडी

माय मराठी मोडी

व्यास-वाल्मिकी ऋषी.

*

ओहोळ जैसा वाहे

तैसी वळणे राहे

वळणदार दोहे

अक्षरे धन्य ओवी.

*

मन अतृप्त नित्य

लिहीता नि वाचस्थ

प्रमाणाचा प्रशस्त

सारस्वता लौकिक.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “आईपण पेलताना” ☆ सौ. अंजोर चाफेकर ☆

सौ. अंजोर चाफेकर

🔅 विविधा 🔅

☆ “आईपण पेलताना…” ☆ सौ. अंजोर चाफेकर

तसे पाहिले तर आमच्या पिढीनेही नोकरी, करिअर सांभाळत मुलांना वाढविले.

परंतु मी जेव्हा  माझ्या मध्यमवर्गीय परीघातील पुढची पिढी बघते तेव्हा जीवाची घालमेल होते.

आज स्रीला किती आव्हानांना सामोरे जावे लागते आहे.

केवळ संसाराला हातभार म्हणून अर्थाजन नाही.

तिची करीअर, तिने निवडलेल्या क्षेत्रात तिला ठोस प्रगती करायची आहे.स्वतःला सिद्ध करायचे आहे.त्यामुळे तिचे कामाचे तास वाढले आहेत.९ते५ इतकी मर्यादित कामाची चौकट राहिली नाही.

 

हे सर्व करताना तिचे आईपण ही पेलायचे आहे.

 

सकाळी मुलाला शाळेच्या बस मधे सोडून आले की भरभर आटपून ऑफीसची तयारी.

जेवणाचे डबे,मुलाच्या नाश्त्याचा डबा, संध्याकाळच्या जेवणाची तयारी,सेमिनारची तयारी, मुलांचा अभ्यास,वयस्क आईबाबांची काळजी, त्यांच्या डाॅक्टरच्या अपाॅयन्टमेंट्स आणि बरंच काही.

कधी कधी मनात अपराधीपणाची भावना येते.

‘मी मुलाला त्याच्या वाढत्या वयात पुरेसा वेळ देऊ शकत नाही.’असे शल्य मनाला बोचत होते.

 

मुलाचा अभ्यास इतका वाढलाय.

शिवाय त्याच्या सर्वांगीण विकासासाठी पियानोचा क्लास,

क्रिकेट किंवा फुटबॉलचे कोचिंग,स्वीमिंगचा क्लास, वेदिक मॅथ्स आणि बरंच काही…

 

ऑफीसच्या डेड लाईन्स,कधी कामासाठी बाहेरगावी किंवा परदेशात टूरिंग तर कधी वर्क फ्राॅम होम.

कधी मनाला मरगळ येते, खूप गळून गेल्यासारखे वाटते पण उसंत घ्यायला वेळच नसतो.

ब-राच वेळा जोडीदाराचेही टूरिंग चालू असते. त्यामुळे सिंगल पेअरेंटिंग हाताळावे लागते.

माझ्या ओळखीतली बरीच कपल्स मला म्हणतात, काकी, मूल झाल्यावर आमचे आयूष्यच बदलून गेले.

मूल नव्हते तेव्हा आम्ही खूप कुल होतो.

म्हणजे आईपणाचा आनंदही नीट भोगता येत नाही.

 

हल्ली मुली उशीरा मूल होऊन देतात.

माझ्या ओळखीतल्या एका मुलीला वयाच्या ४०व्या वर्षी जुळ्या मुली झाल्या.

तिने त्यांना सांभाळण्यासाठी  जाॅब सोडला.

तिची आईही आता वयस्क, कशी सांभाळणार या वयात जुळ्या मुलींना?

इतक्या उशीरा मूल झाल्याचा आनंद तर झाला परंतु करिअर सुटल्यामुळे डिप्रेशन आले.आईपण लाभणे ही जशी प्रत्येक स्रीची मानसिक व शारीरिक गरज असते

तसेच हल्ली स्वतःची ओळख असणे ही स्रीची मानसिक गरज असते.आता तिच्या जुळ्या मुली 1वर्षाच्या झाल्यावर तिने जाॅब घेतला.होते थोडी तारांबळ, पण करते मॅनेज.

दोघेही तरूण नवरा बायको  हे नोकरीतल्या कामाचा ताण,स्पर्धा ,उच्च राहणीमान व   कर्जाचे हप्ते यामुळे चिडचिडे झालेले असतात.एकमेकांना वेळ देऊ न शकल्यामुळे एकमेकांना समजून घ्यायला कमी पडतात.

अगदी प्रेमविवाह असला तरी कधी कधी दोघांचे पेटेनासे होते. अशावेळी आपल्या दोघांतील तणाव मुलाला समजू नये यासाठी स्रीची धडपड चालू असते.एकाच वेळी तिला किती अवधाने सांभाळावी लागतात.

स्री जेव्हा माता बनते तेव्हा तिच्यामुळे तिच्याही नकळत एक शक्तीचा स्रोत निर्माण होतो.

जननी हे शक्तीचे पहिले विकसीत रुप आहे.

आपल्या देशात स्रीचे पूजन हे तिच्यातील मातेचे पूजन असते.कारण मातेमधे एक ईश्वरी अंश आहे असे मानले जाते.

आपण माता यशोदा,जीजामाता अशा अनेक मातांना मानतो कारण त्यांनी आपल्या अपत्यांना घडविले.

त्या असामान्य माता असतील.

पण आमच्या आजच्या पिढीच्या सामान्य माता सुद्धा असामान्य आहेत. किती समर्थपणे त्या आपले आईपण पेलत आहेत.वेळेची कसरत करून,अव्याहत काम करून त्या स्वतःलाही घडवतात व आपल्या मुलांचेही भविष्य घडवत आहेत.शिवाय जिद्दीने परिस्थितीला टक्कर देत आहेत.

मला खरंच खूप कौतुक वाटते आजच्या पिढीतल्या या तरूण मातांचे.

या अशा दोन्ही आघाड्या सांभाळणा-रा स्त्रियांकडे बघण्याचा आपला द्रृष्टिकोन आपण कौतुकाचा असला पाहिजे.तिला पुरणपोळ्या किंवा मोदक बनवता नसतील येत. आलेल्या पाहुण्यांची सरबराई करायला वेळ नसेल.

तरीही ती तिच्या परीने स्वीगी, अमॅझाॅन च्या मदतीने वाढदिवस वगैरे साजरे करते.

तिने कितीही स्वतःला सुपर वुमन बनविण्याचा प्रयत्न केला तरी तिला लिमिटेशन्स येणारच.तेव्हा आपणच आई वडील या नात्याने, शेजारी य नात्याने,समाज म्हणून तिला मदतीचा हात पुढे केला पाहिजे.

©  सौ.अंजोर चाफेकर, मुंबई.

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तीन लघुकथा (१) संध्या-छाया सुखविती हृदया… (२) आनंदाची नशा… (३) भावना जपणार सासु सुनेचं नातं ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित ☆

सौ राधिका माजगावकर पंडित

? जीवनरंग ?

तीन लघुकथा (१) संध्या-छाया सुखविती हृदया… (२) आनंदाची नशा… (३) भावना जपणार सासु सुनेचं नातं ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित

(१) संध्या-छाया सुखविती हृदया…

साने आजोबा भाजी घेऊन सावकाश जिना चढत होते.त्याचं ओझं उचलायला मी पुढे सरसावले.आम्ही आजींपर्यंत पोहोचलो.आजोबांनां वेळ लागला म्हणून आजी चिडल्या होत्या. गोळ्या देण्याची वेळ झाली होती. आजोबा टेकले पण नाहीत त्यांनी लगबगीनें गोळ्या आणि पाण्याच्या ग्लास आजींपुढे धरला. एक घोट घेऊन संतापलेल्या आजीने गोळ्या आणि पाण्याचं भांड भिरकावून दिलं. आजोबा पुढे धावले, आजींनी त्यांचा हात झिडकारला. . आजीच्या पाठीवरून हात फिरवत तें, म्हणाले, ” अगं हळू! ठसका लागंला कां तुला?सावकाश ! सावकाश जरा. थांब हं! मी दुसरं पाणीआणतो . धिम्या पावलांनी चालत जाऊन त्यांनी फरशी पुसायचं फडकं आणलं. मला चीडआलीआजींची.थकलेल्या, वाकलेल्या, नवऱ्याच्या वयाचा काही विचारच नाही ह्या बाईच्या मनांत. न राहून मी हंळूच विचारलं, ” आजोबा आजींचा राग नाही का येत तुम्हाला? किती करता तुम्ही त्यांच्यासाठी, दुःख नाही होत का तुम्हाला?” मला शांत करत आजोबा शांतपणे म्हणाले, ” असं बघ पोरी,रागावून कसं चालेल? आपल्या माणसांवर कधी कुणी रागवतं का? अगं कापलं तरी आपलंच असत ना ते ? कापऱ्या हाताने कन्यादान करताना तिच्या वडिलांना, देवा ब्राह्मणांसमोर मी वचन दिल आहे कीं,आजन्म तुमच्या ह्या काळजाच्या घडाला कधीही न, दुखवता प्रेमाने सांभाळीन म्हणून. आता दुखण्याने बेजार झाली आहे ती.तिचं दुःख आणि दुखणं मी घेऊ शकलो नाही,तरी सुखाची सोबत तर देऊ शकतो ना?आजोबांचं तत्व नाही पटलं मला. मी माझं घोडं पुढे दामटलं., ” आजोबा अहो तुमचं वय आणि ह्या वयातलं तुमचं, नवरा असून बायको साठी इतकं करणं म्हणजे’, अवघडचं आहे,नाही का? हसून ते म्हणाले, “वयाच् काय घेऊन बसलीस पोरी? नवरा बायकोचं कर्तव्य निभावत , एकमेकांना सुखदुःखात साथ देत, शांतपणे हिने माझा संसार केलाचं कीं नाही . माझ्या माणसांना आणि मलाही सांभाळले. पण आता दुखणं नाही सांभाळता येत तिला. बेजार झाल्यामुळे चिडचिडी झाली आहे ती. आता तिला सांभाळण्याचे दिवस माझे आहेत.संसाराच गणित तुही समजून घे बाळ.आजोबा म्हणतेस ना मला? मग वडिलकीच्या नात्याने सांगतोय, संसार रथाचं एक चाक डगमगायला लागलं तर,दुसऱ्या चाकाने सांवरायचं असतं. आणि असं बघ तिच्या ऐवजी माझ्यावर अशी वेळ आली असती तर,तिने माझाही तालमाल तोलून धरलाच असताच कीं.,”असं म्हणून साने आजोबांनी हळूवारपणे आजींच्या पाठीवरून हात फिरवला. आजी खूदकन हंसल्या. खरंच कित्ती जादू असते नाही का हाताच्या स्पर्शामध्ये!आधार देणारे हात,समजून घेणारे,प्रेमाने कुरवाळणारे,आजोबांचे थरथरणारे हात, खूप काही सांगून गेले मला. आयुष्याच्या संध्याकाळी,.. आहे ती परिस्थिती स्विकारून धर्म पत्नीला साथ देण्याचं त्यांचं तत्त्वज्ञान ऐकून मी मात्र अवाक झाले होते. प्रसंग साधा,पण आयुष्याच ‘ सार ‘ त्यात सामावलं होतं. मी तिथून बाहेर पडतांना आजींचे शब्द कानावर पडले. त्या विचारत होत्या,”अहो चुकलंच माझ् मघाशी. रागानी पाण्याचं भांड भिरकावले मी.लागलं का हो तुम्हाला? आजोबा गडगडाटी हंसले मिस्किल पणे म्हणाले, ” नाही नाही फुलं पडली माझ्या अंगावर” . , ” अरे पण ते जाऊ दे फुलांवरून आठवलं अरेच्चा! असा कसा विसरलो मी? अगं भाजीवाल्याच्या शेजारी गजरे वाला बसला होता तुझ्या साठी हा गजरा आणला होता., ” आजी लाजल्या. मगाशी रागाने लाल झालेला त्यांचा चेहरा आता गुलाबी झाला होता ! ते संध्याछायेचे प्रेम रंग बघून मी हंसतच घराबाहेर पडले. जाता जाता किती मोलाचा संदेश दिला नाही का आजोबांनी आपल्याला?. धन्यवाद् सानेआजोबा . … 

(२) आनंदाची नशा…

मी चौकात क्रॉसिंगला उभा होतो, आणि ती दिसली. केविलवाण्या चेहऱ्याने ती प्रत्येकाला विनवत होती, 

“दादा बाळाला भूक लागलीया दुधाची पिशवी घेऊन द्या ना “… इतर भिकारी चहा, पाव, तंबाखू साठी भीक मागतात, पण तिची मागणी वेगळीच होती. काय तर म्हणे दूध हवंय आणि ते सुद्धा बाळासाठी. हिलाच प्यायचं असेल, बाळाचं नांव .. लबाड असतात ही लोकं, वेळ पडली तर बाळाची शपथ घ्यायला सुद्धा मागेपुढे बघणार नाहीत. मला तिची जिरवायची होती. कोणीच दाद दिली नाही, तेव्हां ती घाईघाईने बांधकामाच्या दिशेने निघाली. लांबवर नजर गेली तर झोळीतल्या लहान मुलाचा रडण्याचा आवाज आला. तिची पावलं वेगाने पडू लागली. माझं कुतूहल जागं झालं. मीही तिच्या मागोमागं गेलो. पळत जाऊन तिने बाळाला जवळ घेतलं, बाळाजवळ बसलेली छोटी मुलगी विचारत होती, ” आई कवाधरनं रडतया बाळ, मिळालं का ग दूध? मला बी भूक लागलीया “ रडकुंडीला येऊन आईने उत्तर दिलं, ” नाही मिळालं बाळा दूध. कुनी पैसं बी देना. कुट काम बी मिळना, एका बाबाच्या हातात दुधाची पिशवी व्हती.मला तुमचा भुकेला चेहरा आठवला, वाटलं हिसडा मारावा आणि घ्यावी पिशवी हिसकावून त्याच्या हातातून. पर मनात इचार आला, चोरी करनं पाप हाये, आपलं पोट आज भरलं पर चोरीचं पाप कायम पोटात फिरल. त्यो पांडुरंग मला माफ नाही करणार. “

मी खजिल झालो,माझी मलाच लाज वाटली. आपण उगीचच एखाद्याबद्दल गैरसमज करून घेतो,दिसतं तसं नसतं एवढं मात्र खरं. मघाशी माझ्या हातातल्या दुधाच्या पिशवीकडे बघून तिने दूध मागितलं होतं आईची माया गहिवरली होती, पण मला ते ढोंग वाटलं होतं.घरी दुधाच्या चार चार पिशव्या फुटत होत्या, पातेल्यातले दूध नेहमी उतू जात होतं,आणि इथे वाटीभर दुधाला ही माय महाग झाली होती.मी तिच्याबद्दल उगीचच गैरसमज करून घेतला होता.घाईघाईने निष्कर्ष काढण्यापेक्षा अशा माणसांची परिस्थिती समजून घेणही महत्त्वाचं असतं. मी मागे वळलो,दुधाची आणखी एक पिशवी,ब्रेड बटर,आणि बिस्किटाचा मोठ्ठा पुडा तिच्या बाळांसाठी घेतला,आणि त्या मुलीला दिला तो घेताना बाळाची ताई हरखली.लेकरांच्या मायची नजर आनंदाने चमकली.आणि मी ? देण्यापेक्षाही घेणाऱ्याच्या चेहऱ्यावरचा आनंद किती मोठा असतो, या विचारांची सांगड मनात घालू लागलो. दुसऱ्या दिवशी बाळासाठी दुधाची बाटली,चमचा वाटी,आणि दूध गरम राहण्यासाठी,माझ्या मुलांसाठी आणलेला आणि अडगळीत फेकून दिलेला चांगला ग्लास घेऊन मी तिच्या दिशेला निघालो, बाळाला रोज दुधाची पिशवी पुरवण्याचा मी संकल्प केला.मला जणू काही बाळांच्या त्या माऊलीच्या चेहऱ्यावरच्या निर्मळ आनंद शोधण्याची नशा चढली होती.हो!अगदी निर्मळ ‘निष्पाप,निरागस निरामय आनंदाची नशा. आणि मग रस्ता ओलांडून मी पुढे चालू लागलो…

(३) भावना जपणार सासु सुनेचं नातं

वझेआजी आता खूप थकल्यात. इतक्या की कमरेत पूर्ण वाकल्यांत . सूना म्हणतात. आता पूर्ण आराम करायचा. पण आजीचा वेळ जात नाही.मग त्यांच मन उदास होऊन, नको त्या विचाराने भरकटत जातं. आणि माहेर आठवतं. हॊ नां! अहो ! अजूनही त्यांना हक्काच माहेर आहे. आणि मायेच्या वयस्कर दादा वहिनीकडे त्यांचं मन ओढ घेतं. 

आणि एकदम आजींच्या मनात आलं .. बस्स ठरलं. दादाला भेटून ४ दिवस माहेरी जाऊन सुखाचं माहेरपण उपभोगायचं. आणि मग ठरवल्याप्रमाणे सगळी तयारी झाली. पण मनातला गोंधळ संपत नव्हता. काय नेऊ मी दादांकरता ? कपडे? नको. पैसे नको. तर मग काही वस्तु न्यायची.कां ? पण मग पुरेसे पैसे पण नाहीत जवळ .काय कराव बाई? आजी निघाल्या, भावाकडे. रिकाम्या हाताने. मनात रुखरुख होतीच, पण काय घ्यावं तेही सुचत नव्हतं .उदास झाल्या बिचाऱ्या. कित्ती केलंय दादांनी आपल्यासाठी आणि आपण मात्र रिक्त हस्ताने निघालोय. 

एकदम त्यांच्या लक्षात आलं “ अग बाई ! कावेरी कुठंय ? केव्हाची बाहेर गेलीय .मला निघायला हवं आता.” .. आणि इतक्यांत धापा टाकत कावेरी .. त्यांची सून’ आली, आणि मनकवडी कावेरी म्हणते कशी? “आई ही घ्या . मामांसाठी नवीन पद्धतीची काठी. मामांची लाकडी काठी आता जुनी झालीय. आणि 

हे.. मामीसाठी शुगर टेस्ट करायला छोटे मशिन, आता त्यांना दवाखान्यांत जायची भानगडच नाही. आई मामी पण थकल्यात आता. घराबाहेर पडणं होतं नाही त्यांच्याकडून. तुमच्याकडून ही सप्रेम

भेट द्या ना त्यांना. आता या वयात कपडे वस्तू काही नकोस वाटतं. काय द्याव प्रश्न पडला होता ना तुम्हांला ? “ आजी अवाक झाल्या .किती चुटकीसरशी प्रश्न सोडवला हिने. माझ्या मनातल्या भावना किती जपते माझी ही सून.. लाघवी आहे पोर. 

आणि मग सगळं सामान घेऊन आजी समाधानाने माहेर घरी पोहोचल्या . मनाने त्या केव्हाच तिथे पोहोचल्या होत्या. आजींनी आणलेली वेगळी भेट बघून मामी गहिवरल्या आणि म्हणाल्या,” वन्स अगदी योग्य वस्तू आणल्यात तुम्ही आमच्यासाठी.” आणि मग कावेरीचं कौतुक करण्यात दोघी नणंद भावजया रंगून गेल्या. त्यात दादांनी पण भर टाकली. कारण धोरणी सुनेनी त्यांच्यासाठी आगळीवेगळी योग्य तीच भेट आणली होती. 

खरंच किती योग्य भेट आणली होती नाही का कावेरीनी ! मला वाटतं तुम्हालाही ही आयडिया आवडेल. तर मंडळी असं होतं हे सासु-सुनेच ‘ भावना ‘ जपणार नातं.

© सौ राधिका माजगावकर पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ वाई, पाचगणी व महाबळेश्वरचे कलापर्यटन – भाग – १ ☆ श्री सुनील काळे ☆

श्री सुनील काळे

? मनमंजुषेतून ?

🌟 वाई, पाचगणी व महाबळेश्वरचे कलापर्यटन – भाग – १ 🌟 श्री सुनील काळे 🌟

(लोकसत्ता – 24 फेब्रूवारी 2024 . पर्यटन विशेषांक)

वाई ,पाचगणी आणि महाबळेश्वर ही महाराष्ट्राची नावाजलेली ठिकाणे आहेत . वाई हे पर्यटनाच्या दृष्टीने तीर्थक्षेत्र म्हणून ओळखले जाते, काही जण वाईला दक्षिण काशी असेही संबोधतात . तीर्थक्षेत्र ही जशी वाईची ओळख आहे तसेच फार पूर्वीपासून विद्वान मंडळीचे गाव किंवा विश्वकोश निर्मितीसाठी प्रसिद्ध असलेले तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशींमुळे वाईला महत्व प्राप्त झाले आहे .

वाई पासून बारा कि .मी अंतरावर पसरणीचा वेडावाकडा घाट पार करून पोहचले की थंडगार वाऱ्याच्या झुळका सुरु झाल्या की ओळखायचे आपण पाचगणीत पोहचत आहोत . पर्यटनाच्या दृष्टीने थंड हवेचे ठिकाण म्हणून पाचगणीला ओळखतातच पण त्याहीपेक्षा ब्रिटींशानी सुरु केलेल्या रेसिडेन्सल बोर्डींग स्कूल्समुळे पांचगणीला एक नवी ओळख मिळाली आहे .

महाबळेश्वर हे खऱ्या अर्थाने महाराष्ट्राचे नंदनवन व उंचावर असलेले गिरिस्थान आहे . थंड हवेच्या ठिकाणाबरोबरच महाराष्ट्रातील सर्वाधिक पाऊस पडणारे ठिकाण म्हणूनही महाबळेश्वरला महत्व आहे . क्षेत्र महाबळेश्वर येथील पुरातन पंचगगा व कृष्णाबाईचे मंदीरे , कृष्णा नदीचे उगमस्थान व पंचनद्याचे संगमस्थान यामुळे तीर्थक्षेत्र म्हणूनही प्राचीन काळापासून क्षेत्रमहाबळेश्वर सुप्रसिद्ध होते . अशा या महाबळेश्वर पाचगणीला खऱ्या अर्थाने विकसित करण्याचे श्रेय मात्र ब्रिटिशांना किंवा गोऱ्यासाहेबांना दिलेच पाहीजे . याचे मुख्य कारण म्हणजे येथील थंडगार हवा , सुंदर वनश्री , आल्हाददायक वातावरण ही वैशिष्ठये असली तरी या ठिकाणाला येण्यासाठी चांगले रस्ते नव्हते . राहण्यासाठी प्रशस्त बंगले , निवासस्थाने , क्लब्ज , बाजारपेठ , नव्या सुंदर पॉईंटसचा शोध घेऊन तेथपर्यंत अवघड डोंगराळ जागी पोहचण्यासाठी लागणारे रस्ते विकसित करण्याचे काम ब्रिटीश राजवटीत सुरु झाले . पुणे किंवा मुंबईतील असह्य उकाड्यामुळे उन्हाळ्यातील मे महिन्यात व्हाईसरॉय , गव्हर्नरसाहेब यांनी राज्यकारभार करण्यासाठी महाबळेश्वर येथून राजभवन किंवा गव्हर्नर हाऊस नावाचे प्रशस्त बंगले बांधले व खऱ्या अर्थाने पर्यटनाची कारकीर्द सुरू केली . या ठिकाणांचा प्रसार व प्रचार केला त्यामुळे अनेक ब्रिटीश अधिकारी व भारतातील राजे , श्रीमंत व्यापारी , प्रसिद्ध उदयोजक त्यांची बायका मुले  सर्व परिवार घेऊन मित्रमंडळीसोबत सातत्याने  येथे येऊ लागली व हळूहळू खऱ्या जीवनावश्यक सुविधा येथे पुरविल्या जाऊ लागल्या . त्याचबरोबर अनेक इंग्रज कलाकार मंडळी येथे निसर्गचित्र काढण्यासाठी येऊ लागले .

परमेश्वराकडे माझ्या अनेक तक्रारी आहेत पण एका गोष्टीविषयी मी सतत त्याचा कृतज्ञ आहे की त्याने माझा जन्म व बालपण पाचगणीसारख्या सुंदर  निसर्गरम्यस्थानी  घालवले . लोकसत्ताने जेव्हा या तीन ठिकाणी चित्रकाराच्यादृष्टीने या पर्यटनस्थळांचे काय महत्व आहे असा विषय मांडायला सांगितले त्यावेळी जवळपास पन्नासवर्षांपासूनचा एका कलाकाराचा समृद्ध जीवनपटच माझ्या डोळ्यापुढे सरकला . सगळ्या आठवणी जाग्या झाल्या सष्टपणे डोळ्यासमोर चित्र दिसू लागले .

साधारण पन्नासपूर्वी म्हणजे 1975 च्या दरम्यान आम्ही मुले पाचगणीच्या मराठी शाळेत  शिकत होतो . त्या कोवळ्या आठ दहा या बालीश  वयात पाचगणीच्या गावाबाहेर जकात नाक्याशेजारी एका शनिवारच्या अर्ध्या दिवसाच्या शाळेनंतर आम्ही मुले शाळा सारावण्यासाठी शेण गोळा करायला जात होतो . त्यावेळी त्या दुपारच्या शांत वेळी एक वेगळेच दृश्य पाहायला मिळाले . एक वयस्कर जाडजूड रिचर्ड ॲटनबरोसारखा दिसणारा गोरापान म्हातारा माणूस डोक्यावर मोठी फेल्टहॅट घालून रंगाची एक मोठी पेटी घेऊन छान ब्रशेस कागदाचे पॅड घेऊन बिलिमोरीया स्कूलच्या बाहेर मुख्य रस्त्याच्या कडेला निवांतपणे एक चित्र काढत होता . हा म्हातारा नेमके काय करतोय हे पाहण्यासाठी उत्सुकतेपोटी आम्ही मुले त्याच्या बाजूला गोळा झालो . अतिशय व्यवस्थित काटेकोरपणे समोरच्या दृश्याचे पेन्सीलने केलेले रेखाटन व सुंदर रंगसगतीने चित्रित केलेले कृष्णाव्हॅलीचे ते पाहिलेले पहीले

डेमोन्सस्ट्रेशन नंतरच्या आयुष्याला कलाटणी देणारे ठरले . सगळी मुले गेली पण मी मात्र या गोऱ्या चित्रकाराचा शेवटपर्यंत पाठलाग केला . त्यावेळी ते गृहस्थ पाचगणीच्या प्रसिद्ध एम आर ए या राजमोहन गांधी यांच्या संस्थेत गेले . पुढे मोठे झाल्यानंतर त्यांचे नाव व कार्य कळले . या चित्रकाराचे नाव होते  गॉर्डन ब्राऊन . हे मूळचे ऑस्ट्रेलियाचे पण त्यांनी नैतिक पुनरुत्थान केन्द्र (MRA ) ही संस्था उभी करण्यासाठी आर्किटेक्ट म्हणून फुकट काम केले . राजमोहन यांच्या प्रेमाखातर ऑस्ट्रेलियातून स्वखर्चाने येऊन संस्थेचे वास्तूनिर्मितीचे नियोजन व पूर्ण त्रेसष्ट एकरात एक भव्य प्रकल्प उभा केला . पण येथील सुंदर वातावरण , टेबललॅन्डची पठाराखालची संस्था , कृष्णा व्हॅलीची , रस्त्यांची त्यांनी अनेक चित्रे जलरंगात साकारली . त्यातील काही चित्रे एम आर ए या संस्थेच्या इमारतीमध्ये आजही पाहता येतात .

त्यानंतर कलाशिक्षक सुभाष बोंगाळे यांनी अनेक चित्रे जलरंगात जागेवर जाऊन रेखाटलेली आहेत . हिरव्या शेवाळी रंगाच्या सायकलला एक पाठीमागे स्टॅन्ड बांधून रंगाचे सामान घेऊन सिडने पॉईंटच्या व्हॅलीत बोंगाळे सर सतत स्केचिंग व लॅन्डसेकप्स करत बसायचे . पाचगणीच्या या संराच्या चित्रनिर्मितीच प्रेरणा घेऊन मी या लेखाचा लेखक  सुनील काळे आयुष्यभर या परिसरात रेखाटणे करत व जलरंग वापरून सातत्याने तीस पस्तीस वर्ष चित्र काढत राहीलो आहे . कृष्णानदीच्या किनाऱ्यावर धोमधरण बांधल्यानंतर पाचगणीच्या विविध भागातून दिसणारे विहंगम दृश्य , चिखली , पसरणी या गावांची बारावाडीची दिसणारी भातशेती , चमकणाऱ्या सह्याद्री पर्वताच्या रांगा , पाचगणीचे दुतर्फा रस्त्याच्या बाजूला असलेली भव्य वडाची झाडे , अशिया खंडातील दुसऱ्या क्रमांकाचे सपाट पठार म्हणून प्रसिद्ध असलेली टेबललॅन्डची पठारे या पाच पठारावरून दिसणारे पाचगणी गावाचे दृश्य विलोभनीय दिसते . खिंगर , दांडेघर , आंब्रळ , राजपुरी , तायघाट , भिलार या सभोवतालच्या गावामध्ये पसरलेले शंभर एकरचे एकेक सपाट पठार रंगवणे हे आयुष्यभर आनंद देणारे कार्य ठरले . ब्रिटिशांनी त्यांच्या मुलांमुलीसाठी येथे प्रथम त्यांचा जॉन चेसन नावाचा रिटायर्ड ऑफीसर पाठवून भरपूर अभ्यास केला . सिल्व्हर वृक्षाची झाडे लावली . प्रत्येक वर्षातील बारा महिन्यांचे तापमान पाहून तीनही ऋतूमध्ये काय काय फरक दिसतो याच्या सविस्तर नोंदी केल्या . रिकाम्या पसरलेल्या जागेत मोठ्या शाळा व राहण्यासाठी वसतिगृहे बांधली बंगले बांधले . रस्त्यांचे नियोजन केले . स्ट्रॉबेरी , बटाटा , कॉफी व इतर अनेक फळझाडे वृक्षांची लागवड केली . नगरपालीका बांधली . ऑफीसर्स राहण्यासाठी विश्रामगृहे बांधली . प्रथमच टेबललॅन्डच्या पायथ्याशी शाळा बांधली या शाळांपैकी सेंट जोसेफ स्कूल , किमिन्स स्कूल , सेंट पीटर्स स्कूल , यांनी सव्वाशे वर्षांचा टप्पा पूर्ण केला आहे .

परंतू सव्वाशे वर्ष होवूनसुद्धा  आजही किमिन्स , सेंट जोसेफ या शाळांमध्ये उत्तम दर्जाचे सुशिक्षित कलाशिक्षक नसल्याने चांगले कलाकार निर्माण झाले नाहीत किंवा कलापरंपरां निर्माण झाली नाही . चित्रसंस्कृती टिकून राहीली नाही ही दुर्देवाची गोष्ट आहे .

सुनील व स्वाती काळे या दाम्पत्याने मात्र या परिसराचा सखोल अभ्यास करून येथील किमिन्स , सेंट पीटर्स , बिलीमोरीया , या शाळांसोबत अनेक ब्रिटीशकालीन बंगले , पारशी लोकांचे बंगले , अग्यारी , चर्चेस , या वास्तूंचे जलरंगात चित्रिकरण केले . गावातील मुख्यरस्ते , सुंदर वनश्री , गार्डनमधील फुले , कुंड्या , कॉसमॉस , हॉलिहॉक्स ,वॉटरलिलीज , रानफुले  तैलरंगात रंगवून पाचगणीचा निसर्ग अनेक मान्यवर कलाप्रेमी मंडळीच्या घरी व अनेक देशात चित्रे विकली त्यामुळे पाचगणी ,महाबळेश्वर व वाईपरिसरातील चित्रकार म्हणून स्वतःची एक वेगळी ओळख निर्माण केलेली आहे . नुकतेच त्यांचे प्रदर्शन नेहरू सेंटर येथील AC व सर्क्युलर आर्ट गॅलरीमध्ये भरले होते त्याठिकाणी त्यांनां चित्र रसिकांकडून भरघोस अभूतपूर्व प्रतिसाद मिळाला .

वाई हे ऐतिहासिक व धार्मिकदृष्ट्या खूप महत्वाचे गाव आहे . लक्ष्मणशास्त्री जोशी यांनी विश्वकोष निर्मितीचे संपादक मंडळाचे प्रमुख म्हणून अनेक वर्ष काम केले . त्याकामासाठी अनेक तज्ञ व नावाजलेले चित्रकार वाई येथे कलासंपादक म्हणून येऊ लागले .

प्रसिद्ध चित्रकार व जेजे स्कूल ऑफ मुंबईचे डिन असलेले ज . द . गोंधळेकर वाईच्या  विश्वकोषात काही वर्षांसाठी आले होते . त्यांनी गणपती घाट , मधलीआळी घाट , मेणवली घाट येथे पेनने व जलरंगात चित्रे काढलेली आहेत .

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री सुनील काळे [चित्रकार]

संपर्क – 32, निसर्ग बंगला, मेणवली रोड, स्वप्नपूर्ती मंगल कार्यालयाजवळ, मु .पो. भोगाव, ता. वाई, जि.सातारा – ४१२८०३. 

मेल : [email protected]

मोब. 9423966486, 9518527566

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “अय्यर सर —एक अविश्वसनीय सत्यकथा” – लेखक : श्री हेरंब कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

श्री मोहन निमोणकर 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “अय्यर सर —एक अविश्वसनीय सत्यकथा” – लेखक : श्री हेरंब कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

(आयुष्यभर लॉजच्या खोलीत राहून उरलेला पगार विद्यार्थ्यांसाठी खर्च करणार्‍या एका प्राध्यापकाची ही कहाणी)

*रूम नंबर २०२*

*श्रीकृष्ण रेस्टार्ंट बारामती.*

*प्रवासी मुक्कामाला आला आणि त्याने चेक आऊट ३५ वर्षांनी केलयं …..*

*शेवटची ओळ नाही ना समजली ? नाहीच समजणार. कारण ती आहेच अगम्य.*

*याचा अर्थ त्या हॉटेलात राहायला आलेला प्रवासी एकाच खोलीत ३५ वर्षे राहिला. ८ बाय १० च्या इवल्याश्या खोलीत. आणि आयुष्यभर फिरत होता सायकलवर.*

*का ? परिस्थिती गरीब होती म्हणून का ?*

*मुळीच नाही. वरिष्ठ महाविद्यालयात नोकरी करणारे ते प्राध्यापक होते. होय. गोंधळ उडावा असंच हे प्रकरण आहे. के.एस.अय्यर. बारामतीच्या तुळजाराम चतुरचंद महाविद्यालयात सेवा केलेले आणि नुकतेच ५ महीन्यापूर्वी निधन पावलेले.*

*पूर्वी एकदा कवीमित्र संतोष पवार यांनी पगार विद्यार्थ्यांसाठी खर्च करून फकीरी वृत्तीने जगणारा एक प्राध्यापक असल्याचे सांगितले होते. मात्र सर गेल्यावर तपशीलवार माहिती कळली आणि या माणसाला आपण का शोधले नाही, याची जन्मभर व्यापून उरणारी अपराधी बोचणी लागली.*

*नुकताच बारामतीला शारदा प्रतिष्ठानच्या कार्यक्रमाला गेल्यावर आवर्जून सरांनी ज्या तुळजाराम चतुरचंद महाविद्यालयात काम केले तिथे गेलो. तिथल्या उपप्राचार्य नेमाडे मॅडम, संजय खिलारे सर, कार्यालय प्रमुख महामुनी, दिपक भुसे हे सारे अय्यर सरांविषयी भरभरून बोलत होते. आपल्याकडे माणूस जिथे राहतो, नोकरी करतो, तिथे त्याच्याविषयी चांगले बोलण्याची प्रथा नाही… पण अय्यर सरांनी सर्वांचे टोकाचे प्रेम आणि आदर मिळवला होता. माझ्यासोबत तिथे आलेल्या मार्तंड जोरी या अभ्यासू शिक्षक मित्राने नंतर मग सरांची माहिती जमवायला मला खूप परिश्रमपूर्वक मदत केली.*

*आज प्राध्यापकांचे वाढते पगार त्यातून येत चाललेली सुखासीनता, त्यातून कमी होत जाणारी ज्ञानलालसा, मिळणार्‍या पैशातून बदलत जाणारी जीवनशैली आणि कमी होणारे सामाजिक भान… यामुळे अपवाद वगळता प्राध्यापक वर्गाविषयी नाराजी व्यक्त होत असते. अशा काळात एक प्राध्यापक आपल्या ध्येयवादाने अविवाहित राहतो, केरळ मधून महाराष्ट्रात येतो, आपल्या इंग्रजी अध्यापनाने विद्यार्थ्यांना वेड लावतो, आणि माणूस किती कमी गरजांत राहू शकतो, याचा वस्तूपाठ जगून दाखवतो, हे अविश्वसनीय वाटावे असेच आहे.* 

*इतके मोठे वेतन असूनही लॉजच्या ८ बाय १० च्या खोलीत एक कॉट. मोजकेच कपडे, एक कपाट आणि त्यात पुस्तके पुस्तके आणि पुस्तके एवढाच या माणसाचा संसार होता. आयुष्यभर सायकल वापरली. गरजा खूपच कमी. मार्तंड जोरी त्या लॉजच्या वेटरला भेटले, तेव्हा सर केवळ एकवेळ जेवत व एक ते दीड पोळी खात असे सांगितले. त्या वेटरला सुद्धा ते अहो जाहो म्हणून आदराने वागवत. इतक्या फकीरीत राहताना मग वेतन आयोग लागू झाल्यावर या माणसाने पगारवाढ देवू नका मला गरज नाही असे म्हणायचे. मग सहकारी चिडायचे. संघर्षाचा स्वभाव नाही. सर शांतपणे सर्वांचा आग्रह म्हणून पगार नाइलाजाने स्वीकारत.*

 *पाचव्या वेतन आयोगाच्या वेळी ते नाइलाजाने स्वीकारताना सरांनी फरकाच्या ५०००० रुपये रकमेतून पुस्तके स्वीकारण्याची महाविद्यालयाला उलटी अट घातली. ही निस्पृहता होती.*

 *सरांचा जन्म १९३३ साली केरळात झाला. वडील सैन्यात होते. शिक्षण राजस्थान बंगालमध्ये झाले. सुरवातीला सरांनी रेल्वेत नोकरी केली. कुटुंबातील सर्वजण सुखवस्तू आहेत. कर्मवीर भाऊराव पाटील यांच्या प्रेरणेतून १९६८ साली शिक्षक झाले. कराडला नोकरी केली. नंतर बारामतीत तुळजाराम चतुरचंद महाविद्यालयात अखेरपर्यंत राहिले.*

 *त्यांच्यात हा साधेपणा व ध्येयवाद कशातून आला याचा शोध घेतल्यावर लक्षात आले की, हा गांधींचा प्रभाव आहे. महात्मा गांधींना लहानपणी ते भेटले होते. त्यातून गांधींचा खूप अभ्यास केला. गांधीवादी मूल्य नकळत जगण्यात उतरली. सर आंबेडकरांना आणि गाडगेबाबाबांना भेटले होते. आंबेडकरांची अनेक भाषणे त्यांनी ऐकली होती. त्यातून अभ्यासाची प्रेरणा जागली असावी. स्वातंत्रपूर्व मूल्यांच्या प्रभावातून सरांचे हे सारे साधेपण ध्येयवाद आला होता.*

 *केवळ साधेपणासाठी कौतुक करावे असेही नव्हते, तर सरांचे इंग्रजी विषयाचे अध्यापन हे अत्यंत प्रभावी होते. सर समजा अगदी गाडी वापरुन बंगल्यात राहिले असते, तरी केवळ इंग्रजी शिक्षणासाठी त्यांच्या हजारो विद्यार्थ्यांनी त्यांना लक्षात ठेवले असते. त्यांच्या विद्यार्थांना त्यांच्या अध्यापनाची पद्धती विचारली, तेव्हा सरांची काही शिक्षक म्हणून वैशिष्ट्ये लक्षात आली. सर इंग्रजी साहित्यातील नाटक, कविता, समीक्षा सारख्याच सामर्थ्याने शिकवू शकत. विशेषत: समीक्षेवर खूपच प्रभुत्व होते. सलग घडयाळी 3 तास ते शिकवत. घडयाळी ८ तास शिकवण्याचेही रेकॉर्ड केले. इतकी नोकरी होऊनही प्रत्येकवेळी वाचन करून नोट्स काढूनच वर्गात जात. त्या नोट्स च्या झेरॉक्स करून विद्यार्थ्यांना फुकट वाटत.*

 *सर कधीच चिडत नसत किंवा कधीच बसून शिकवत नसत. १९९५ नंतर निवृत्तींनंतर त्यांचे कार्यक्षेत्र विस्तारले पुण्यात ३ दिवस ते अध्यापन करीत व ३ दिवस बारामतीत अध्यापन. मृत्यू झाला त्या महिन्यात ही ८३ व्या वर्षीही ते तास घेत होते. याची तुलना रविंद्रनाथांशीच फक्त होऊ शकते. असा आजन्म शिक्षक म्हणून राहिलेला आणि कधीह निवृत्त न झालेला हा शिक्षक होता. शेकडो PhD चे प्रबंध त्यांनी तपासून दिले. नेट सेट सुरू झाल्यावर मोफत मार्गदर्शन सुरू केले. इंग्रजीसोबत त्यांना अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, खेळ याविषयात विलक्षण गती होती.*

 *क्रिकेट चे तर १० वर्षापूर्वीचे तपशील ते अगदी सहज सांगत. सर रिकाम्या वेळेत सतत वाचन करीत. अगदी बँकेत, दवाखान्यात प्रतिक्षा करावी लागे, तेव्हा तिथेही ते पुस्तक वाचत बसत. त्यांच्या लहानशी खोली फक्त पुस्तकांनीच भरली होती. त्यांनी मृत्यूनंतर ही पुस्तके विविध महाविद्यालयांना द्यायला सांगितली होती. सरांनी इंग्रजीत दोन पुस्तके व अनेक संशोधकीय पेपर्स लिहिले.*

 *विद्यार्थ्यांवरचे प्रेम पुत्रवत होते. एम.ए.च्या प्रत्येक बॅच नंतर ते हॉटेलात निरोप समारंभ आयोजित करीत. मुलांना जेवण देत. नंतर ग्रुप फोटो काढून तो फ्रेम करून स्वत:च्या खर्चाने प्रत्येक मुलाला देत. महाविद्यालयात असताना त्यांना निरोपसमारंभात भाग घेता आला नव्हता हे त्यांना शल्य होते. या माणसाचे विद्यार्थी हाच त्यांचा संसार. पगारातील उरलेली सर्व रक्क्म पुस्तके आणि विद्यार्थ्यांच्या फीसाठी ते खर्च करीत. सरांच्या मदतीमुळे माझे शिक्षण पूर्ण झाले, असे सांगणारे आज अनेक विद्यार्थी आहेत. त्यांनी किती विद्यार्थ्यांना काय स्वरूपाची मदत केली, हे त्यांच्या निस्पृह स्वभावामुळे कुणालाच कळले नाही. पण ती संख्या प्रचंड होती.*

 *मला अय्यर सरांचे मोठेपण भारतीय गुरुपरंपरेशी जोडावेसे वाटते. या देशातील ऋषींच्या आश्रमात अगदी राजपुत्र शिकायला असायचे, पण ऋषीच्या जगण्यात फकीरी होती. ज्ञान हीच त्यांची ओळख असायची. कुठेतरी झोपडी बांधून ज्ञानाच्या सामर्थ्याने दीपवणारी ही भारतीय गुरूपरंपरा होती. अय्यर सर हे या परंपरेचे पाईक होते. भारतीय मनाला ही फकीरी भावते. महात्मा गांधी पासून राम मनोहर लोहिया, मेधा पाटकर अण्णा हजारेंपर्यंत भारतीय मन या फकीरीतल्या श्रीमंतीपुढे झुकते. अय्यर सरांनी पुन्हा ही परंपरा जिवंत केली, जगून दाखवली.*

 *या माणसाने आपल्या या फकिरीच्या बीजावर प्रसिद्धीच पीक काढलं नाही. निष्कांचन, अनामिक राहून देवघरातील नंदादीपासारखा हा माणूस तेवत राहिला आणि एक दिवस विझून गेला. आपल्या आयुष्याच्या सन्मानाची किंवा त्यागाच्या वसुलीची कोणतीच अपेक्षा नव्हती. या त्यागातून मिळालेल्या नैतिक अधिकारातून आजच्या चंगळवादी समाजाला किंवा बांधिलकी विसरत चाललेल्या शिक्षणक्षेत्रावर कोरडे ओढण्याचा अधिकार मिळूनही त्यांनी तो वापरला नाही. स्वत:च्या जीवन तत्वज्ञानावर लेख लिहिले नाहीत की भाषणे केली नाहीत. ते फक्त जगत राहिले. त्यांच्या आदर्श बापुजींच्या भाषेत ‘मेरा जीवन मेरा संदेश ‘ पण समाज, शासन, विद्यापीठ म्हणून आपण या माणसाची नोंद घेतली नाही.*

 *अय्यर सर गेले. ज्या पुणे विद्यापीठात वयाच्या ८३ व्या वर्षीपर्यन्त त्यांनी शिकविले. त्या विद्यापीठाने किमान या अनामिक जगलेल्या आणि तन मन आणि धनसुद्धा विद्यार्थ्यांना अर्पण केलेल्या या दधीचि ऋषीचे चरित्र प्रसिद्ध करून ते प्रत्येक प्राध्यापक विद्यार्थ्यापर्यंत पोहोचवावे आणि ही प्रेरणा संक्रमित करावी. अन्यथा आइनस्टाईन म्हणाला होता तसे ‘असा हाडामांसाचा माणूस होऊन गेला यावर भावी पिढी विश्वाससुद्धा ठेवणार नाही.’*

लेखक : हेरंब कुलकर्णी.

मो. 8208589195

संग्राहक : श्री मोहन निमोणकर

संपर्क – सिंहगडरोड, पुणे-५१ मो.  ८४४६३९५७१३.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचतांना वेचलेले ☆ न सांगितले गेलेले छत्रपती…!!! – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

? वाचतांना वेचलेले ?

☆ न सांगितले गेलेले छत्रपती…!!! – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

छत्रपती शिवाजी महाराजांबाबत प्रमुख्याने फक्त या तीनच गोष्टी सांगितल्या जातात….!

1.अफजलखानाचा कोथळा 

2.शाहीस्तेखानाची बोटे आणि

3.आग्र्याहुन हून सुटका

पण मला भावलेले छत्रपती शिवाजी महाराज अनेक अंगाने समजून घ्यावेसे वाटतील….!

  1. आपल्या आईला जिजाऊ मॉसाहेबांना सती जाण्यापासून रोखणारे छत्रपती शिवाजी महाराज”सामाजिक क्रांती” करणारे होते…!
  2. रयतेच्या भाजीच्या देठालासुद्धा हात लावता कामा नये हा आदेश देणारे”लोकपालक” राजे होते…!
  3. सर्व प्रथम हातात तलवारीबरोबरच पट्टी घेऊन जमीन मोजून तिची नोंद त्यांनी ठेवायला चालू केली असे”उत्तम प्रशासक” होते…!
  4. विनाकारण व विना मोबदला झाडं तोडल्यास नवीन झाड लावून जगवण्याची शिक्षा देणारे”पर्यावरण रक्षक” होते…!
  5. समुद्र प्रवास करण्यास हिंदू धर्मात बंदी होती तो विरोध पत्करून आरमार उभे केले व आधुनिक नौदलाचा पाया रचून धर्मा पेक्षा देश मोठा हा संदेश देणारे”स्व-धर्मचिकित्सक” होते …!
  6. मुहूर्त न पाहता, अशुभ मानल्या गेलेल्या अमावस्येच्या रात्री सर्व लढाया करुन त्या सर्वच्या सर्व लढाया जिंकून “अंधश्रध्दा निर्मुलनाचा संदेश देणारेचिकीत्सक राजे”
  7. ३५० वर्षांपूर्वी छत्रपती शिवरायांनी सुरु केलेली शिवकालीन पाणी साठवण व्यवस्था आजही तितकीच प्रभावी आहे !”जलतज्ञ” राजे छत्रपती शिवराय!!
  8. ३५० वर्षांपूर्वी दळणवळणाचे कोणतेही साधन नसताना अभेद्य असे१०० राहून अधिक गडकिल्ल्यांचे निर्माते,”उत्तम अभियंते राजे”
  9. सर्व जातीधर्मातल्या मावळ्यांना समान न्याय देत सामाजिक क्रांतीचा पाया रचणारे राजे!!
  10. परस्त्री मातेसमान मानत महिलांनासन्मानाने वागवाणारे”मातृभक्त, नारीरक्षक” छत्रपती शिवराय
  11. संपुर्ण विश्वात फक्त छत्रपती शिवरायांच्या दरबारातच मनोरंजनासाठी कोणतीही स्री नर्तीका नाचवली गेली नाही की मद्याचे प्याले ही रिचवले गेले नाहीत

खऱ्या अर्थाने ते “लोकराजे” होते कारण ते धर्म जातीच्या पलीकडे जाऊन सुखी जनतेचे स्वप्न पहात होते हीच खरी शिवशाही होती…..!

लेखक : अज्ञात

संग्रहिका : सुश्री सुनीला वैशंपायन

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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