हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 644 ⇒ दर्दे दिल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दर्दे दिल।)

?अभी अभी # 644 ⇒  दर्दे दिल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(श्री प्रदीप शर्मा जी का यह आलेख उनके मित्र श्री राजेश गुप्ता जी द्वारा 1 अप्रैल को उनके जन्मदिवस पर साझा किया गया था। श्री प्रदीप शर्मा जी के मित्रों का दायरा विस्तृत है और मानवीय सम्बन्धों पर आधारित है। जितने उनके फेसबुक (आभासी) मित्र हैं उससे ज्यादा उनके वास्तविक मित्र हैं। उनकी मिलनसारिता ही उन्हें हमें और ई-अभिव्यक्ति से जोड़ती है। उन्हे जन्मदिवस की अशेष हार्दिक शुभकामनायें।)

सन् १९६५ में धर्मेंद्र और नंदा की एक फिल्म आई थी, आकाशदीप जिसमें रफी साहब का एक गाना है ;

मुझे दर्दे दिल का पता न था

मुझे आप किसलिए मिल गए।

मैं अकेले यूं जी मज़े में था

मुझे आप किसलिए मिल गए।।

मजरूह साहब ने यूं तो कई गीत लिखे हैं, लेकिन चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में रफी साहब ने इस गीत को इस खूबसूरती से गाया है, कि आज आपसे इस गीत के बारे में दिल की बात कहने से अपने आपको रोक नहीं पाया।

ईश्वर एक है, सत्य सनातन है। जो नास्तिक हैं, वे भी किसी एक अज्ञात शक्ति के अस्तित्व से इंकार नहीं कर सकते। डार्विन हो या मनु, Adam हो या Eve, सृष्टि की रचना तो हुई है। पहले पहल वाला जीव अमीबा हो या किसी का अब्बा, क्या फर्क पड़ता है। एक से ही अनेक की उत्पत्ति होती है। पहले ईश्वर अकेला था, बोर तो होगा ही, सोचा, चलो सृष्टि की रचना कर डालें। उधर सृष्टि की रचना हुई और इधर हमारे शायर की कलम चली।

मैं अकेले यूं ही मज़े में था, मुझे आप किसलिए मिल गए।।

शैलेन्द्र भी यही शिकायत करते हैं !

दुनिया बनाने वाले,

क्या तेरे मन में आई

काहे को दुनिया बनाई !

एक भक्त को पूरा अधिकार है, अपने आराध्य से प्रश्न पूछने का, जवाब तलब करने का। जब वह दुखी होता है, तो उस परम पिता से यही तो कहता है ;

दुनिया न भाये मोहे

अब तो बुला ले

चरणों में, चरणों में !

द्वैत और अद्वैत में एक भक्त नहीं उलझता, एक शायर नहीं उलझता। वह सिर्फ विरह और मिलन से परिचित है। बहुत कम ऐसे संतोष आनंद होते हैं, जो साहिर से सहमत होते हैं ;

जो मिल गया

उसी को मुकद्दर समझ लिया।

हर फिक्र को

धुएं में उड़ाता चला गया

मैं ज़िन्दगी का साथ

निभाता चला गया।।

इस जीव की पीड़ा भी यही है। वह जब अकेला होता है, तो उसे किसी के साथ की तलब होती है। अकेला हूं, मैं हमसफ़र ढूंढ़ता हूं। और जब कोई हमराही कुछ दूर चलकर साथ छोड़ देता है, तो दिल में एक दर्द दे जाता है, और तब उसे अहसास होता है ;

मुझे दर्दे दिल का पता न था।

मुझे आप किसलिए मिल गए।।

दुनिया में जो मिलता है, वह कुछ हमसे लेता है, तो कुछ देता भी है। दिल लेने देने में कौड़ी खर्च नहीं होती। एक उम्र ऐसी होती भी है ज़िन्दगी में, जब पैसा तो क्या दिल भी नहीं संभाला जाता। कोई लूट लेता है, कोई चुरा लेता है तो किसी को हम स्वयं तश्तरी में पेश कर देते हैं और शान से कहते हैं, हम दिल दे चुके सनम।

मैंने कभी किसी को दिल नहीं दिया, लेकिन मेरा दिल कितने लोग ले गए, मुझे पता ही नहीं। आपने यूं ही दिल्लगी की होगी। हम दिल की लगी समझ बैठे। मुझे दिल की कोई शिकायत नहीं, मेरा कोई दर्दे दिल नहीं। लेकिन मैं यह भी नहीं कह सकता कि मैं अकेले यूं ही मज़े में था, मुझे आप किसलिए मिल गए।।

अब हमारा आपका रिश्ता ही ले लीजिए ;

यूं ही अपने अपने सफ़र में गुम

कहीं दूर मैं, कहीं दूर तुम

चले जा रहे थे, जुदा जुदा

मुझे आप किसलिए मिल गए ?

बस इस प्रश्न का जिस दिन उत्तर मिल जाएगा, हमारा मिलना, बिछड़ना, दिल से दिलों का रिश्ता, एक नई इबारत लिख जाएगा। अपने दर्द को सब महसूस करते हैं, लेकिन जब किसी से दिल का रिश्ता कायम होता है, तो दुनिया बदल जाती है। शैलेन्द्र और राजकपूर सरल आम भाषा में जो हमको समझाना चाह रहे थे, वह और कुछ नहीं, हमारे दिलों को आपस में जोड़ना ही था।

हमारे दिलों की दूरियां कम हों, एक दूसरे का दर्द समझ सकें, बहुत गिर गए गिरने वाले, खुद उठ सकें, औरों को उठा सकें, हमारे आपस में मिलने का मक़सद समझ सकें। ईश्वर ने हमें मिलाया ही इसलिए है, कि हम एक दूसरे के दर्द को महसूस कर सकें।।

मुझे दर्दे दिल का पता न था

मुझे आप इसलिए मिल गए …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 65 – परवाह का रंग… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परवाह का रंग।)

☆ लघुकथा # 65 – परवाह का रंग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“अरे तुमने सुना कमला वो तुम्हारे पड़ोसी सोनी जी का बेटा विदेश जा रहा है? माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजकर।  कितना आज्ञाकारी बनता था, भाई ऐसी औलाद से तो ईश्वर बच्चा ही न दे।” एक सांस में पूरी खबर सुना दी रेखा भाभी ने कमला को।

कमला धीरे से बोली – “आपको किसने कहा? किससे पता चली ये बात?”

“बस तुम्हें ही खबर नहीं, सारा मोहल्ला थू -थू कर रहा है अभी तो सुनकर आ रही हूँ।”

“भाभी सुनी हुई बात हमेशा सच हो जरूरी नहीं! अभी थोड़ी देर पहले फोन पर आंटी से मेरी बात हुई है। उन्होंने बताया कि उनका बेटा ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहा है। अपनी बिटिया के पास रहने के लिए जा रही हैं। आप स्वयं समझदार हैं? आपकी बहू और बेटे के बारे में भी तो लोग जाने क्या क्या कहते हैं…। अफवाहों पर यकीन ना करें तो अच्छा रहेगा बाकी आप स्वयं सोच लो…।”

“अच्छा चलो! यह सब बात छोड़ देते हैं। कमला एक कप चाय तो पिला दो। क्या करूँ ? आदत से मजबूर हूँ। लेकिन तुमने बहुत अच्छी बात कही अब मैं अपने घर परिवार के रिश्ते को मजबूत करूंगी। जा रही हूँ कमला।  बहू के घर के कामों में उसकी मदद करती हूं। तभी तो परवाह का रंग चढ़ेगा।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ दुष्यंत की कहानियों का पाठ और चर्चा ☆ साभार – श्री सुरेश पटवा ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ दुष्यंत की कहानियों का पाठ और चर्चा साभार – श्री सुरेश पटवा

भोपाल। दुष्यंत संग्रहालय में दुष्यन्त कुमार की 50वीं पुण्यतिथि वर्ष के उपलक्ष्य में उनकी कहानियों का पाठ एवं चर्चा का आयोजन वरिष्ठ साहित्यकार गोकुल सोनी की अध्यक्षता और प्रसिद्ध उपन्यासकार चंद्र भान राही के मुख्य आतिथ्य में राज सदन में किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ सुनीता शर्मा की सरस्वती वंदना से हुआ।

संस्था की निदेशक करुणा राजुरकर ने वर्ष भर आयोजित किए जा रहे कार्यक्रम की रूपरेखा रखी। तत्पश्चात संयुक्त सचिव लेखक सुरेश पटवा ने विषय प्रवेश करते हुए कहा कि  दुष्यंत केवल कवि और ग़ज़लकार ही नहीं थे। उन्होंने विशद गद्य लेखन भी किया। उन्होंने सात कहानियाँ और चार उपन्यास भी लिखे हैं। जो आम आदमी का दर्द बयान करती हैं। सभी दुष्यंत रचनावली के तीसरे खंड में संग्रहित हैं। “आघात” उनका भाई को खोने का निजी दुख का संस्मरण है। “कलियुग” साहूकारी शोषण पर आधारित है। “मिस पीटर” स्त्री विमर्श की कहानी है। “छिमिया” एक स्वाभिमानी नौंकरानी पर केंद्रित है। “मड़वा उर्फ माड़े” ग्राम सेवा पर जान लुटाने वाले स्वाभिमानी देसी ग्रामीण की कहानी है। “हाथी का प्रतिशोध” जंगल पर इंसानों के होते क़ब्ज़े की दास्तान बयान करती है। “मुसाफ़िर” रेल यात्रा पर एक अधूरी कहानी है।

गोकुल सोनी ने अध्यक्ष की आसंदी से बोलते हुए कहा कि एक कथा लेखक की पैनी दृष्टि समकालीन समाज के परिवर्तनों पर होना चाहिए। लेखक का समय के सापेक्ष होना बहुत आवश्यक है। उसका दायित्व है कि वह अपने समय की अच्छाइयों और दुष्प्रवृत्तियों पर ईमानदारी से अपनी कलम, चलाए। दुष्यंत कुमार “कलियुग” जैसी कहानी लिखकर, स्त्री अस्मिता, स्वाभिमान, एवं गरीबों के शोषण पर लिखकर सहज ही प्रेमचंद के करीब खड़े नजर आते हैं। 

चन्द्रभान राही ने उपस्थित साहित्य रसिकों को अवगत कराया कि “दुष्यंत ग़ज़लकार के रूप में अद्वितीय हैं जो हर आन्दोलन की आवाज बनते हैं। यह आग ही तो है जो भीतर जलती है।”

डॉक्टर अनिता चौहान ने “मिस पीटर” का, अरविंद मिश्र ने  मुसाफिर  और सुधा दुबे ने माड़े उर्फ मड़वा कहानी का पाठ किया।

कार्यक्रम का सरस संचालन जयन्त भारद्वाज ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था के अध्यक्ष रामराव वामनकर ने किया।

 साभार – श्री सुरेश पटवा, भोपाल 

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 266 ☆ बदल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 266 ?

☆ बदल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती बदलते सगळेच ,

एका रंगपंचमीला रंगीबेरंगी साड्या

नेसून मॉर्निंग वाॅकला गेलो….

आणि झाशीच्या राणीच्या,

पुतळ्याजवळ ,

साजरी झाली गप्पांची

रंगपंचमी !

 

एका तुकाराम बीजेला,

केली देहूची वारी,

कविता तिथेही होतीच,

आपली सांगाती!

 

गुढीपाडवा ही साजरा केला,

कवितेची गुढी उभारून

धुळ्यात!

दौंडची ‘भोगी’

 संक्रांत, दसरा,

दिवाळी, पंधरा ऑगस्ट,

सव्वीस जानेवारी, शिवरात्र….

सारेच सण आणि उत्सव,

कवितेच्या रंगात रंगलेले !

 

पण आता,

कुणाच्या तरी कवितेत ऐकलेलं—-

हे कवितेचं मांजर,

मलाही पोत्यात घालून,

दूर कुठेतरी सोडून —

द्यावसं वाटतंय ,

आणि हीच समारोपाची ,

कविता ठरावी असंही !!

१ एप्रिल!२०२५

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविता म्हणजे… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कविता म्हणजे… सौ. वृंदा गंभीर

कविता म्हणजे शुभेच्छा शब्दांचे मोती

कविता म्हणजे फुलतात नाती गोती

*

कविता म्हणजे एक लघु कथा

कविता म्हणजे कविंच्या मनातील व्यथा

*

कविता म्हणजे शब्दांचे भांडार

कविता म्हणजे अक्षरांचे आगार

*

कविता म्हणजे फुलणारे प्रेम

कविता म्हणजे बेवफा जखमी प्रेम

*

कविता म्हणजे अन्याया विरुद्ध लढा

कविता म्हणजे अनुभवाने दिलेला धडा

*

कविता म्हणजे कस लागलेली बुद्धीमत्ता

कविता म्हणजे कवी ने मिळविलेली सत्ता

*

कविता म्हणजे छंद, आनंद, विश्वास

कविता म्हणजे कवीच्या लेखणीचा श्वास

💐जागतिक कविता दिनाच्या सर्व कवी कवियत्री साहित्यिक बंधू भगिनींना हार्दिक शुभेच्छा 💐

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रिक्त मडके… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रिक्त मडके… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

तिने अ‍ाणल्या पावसात,

मलाही भिजायचे होते.

तिच्या प्रेमाच्या सावलीत,

मलाही निजायचे होते.

*

अनाकलनीय तिची ती माया.

गूढ, अतर्क्य जी तितिक्षा.

वाट्याला माझ्या केवळ,

आली घोर उपेक्षा.

*

सरी आल्या बरसून गेल्या,

ठेऊन मडके रिक्त.

पावसात शोधणे आता,

हटवादी शैशव फक्त.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ एक विचार: मनःस्थिती बदला ☆ प्रा. सुनंदा पाटील ☆

प्रा. सुनंदा पाटील

? विविधा ?

☆ एक विचार: मनःस्थिती बदला ☆ प्रा. सुनंदा पाटील ☆

निलूच्या सूनबाई. मृणाल तिचं नाव. वय वर्षे चाळीस पार – साधारण पंचेचाळीस शेहेचाळीस. स्वतंत्र राहणारी. ” नवराबायको दोघं – चुलीस धरून तिघं ” या म्हणीप्रमाणे संसार सुरू असलेली. तिला एक मुलगा वय वर्षे वीस. एक मुलगी वय वर्षे सतरा.

नवरा खाजगी कंपनीत मोठ्या हुद्द्यावर नोकरीत असलेला. ती स्वतः एका बऱ्या कंपनीत नोकरीला आहे. सासू सासऱ्यांचा “जाच ” नाही. लग्न झाल्याझाल्याच तसं तिनं सांगितलेलं. त्यामुळे निवृत्त शिक्षिका सासूबाई आणि निवृत्त बँक ऑफिसर सासरे साधारण मोठ्या अशा आपल्या “गावी ” राहतात. खेड्यात नव्हे.

मुलं लहान असताना, कधी पाळणाघर, कधी बाई, कधी घरून काम असं तिनं ॲडजस्ट केलं. मुलांची शाळा, संगोपन सांभाळलं. दोन्ही मुलं १० ते ५ शाळेची झाली आणि मृणाल बरीच सुटवंग झाली. त्यांच्याच वेळात ही पण नोकरी करू लागली. सुख सुख ते काय म्हणतात, ते खूपच होतं.

दरवर्षी देश विदेशात कुठेतरी फिरणं होतं. गाडी, मोठासा फ्लॅट, आर्थिक बाजू उत्तम. पण हेच सुख कुठेतरी बोचू लागलं मृणालला. तिची सततची चिडचिड वाढली. उगाचच मुलांवर, नवऱ्यावर ओरडणं वाढलं. कारण कळेचना. समाजमाध्यमे आणि मैत्रिणी यावेळी कामी आल्या. “मेनॉपॉज ” नावाचं एक सत्र तिच्या आयुष्यात सुरू झालं होतं म्हणे. हार्मोन्स कमी जास्त झालेत की, असं होतं म्हणे. यावर उपाय एकच की, घरच्यांनी तिचे मुड्स, सांभाळायचे ! (आता इथे एवढा वेळ कुणाला आहे ?) शिवाय आजवर मी सर्वांसाठी केलं, आता तुम्ही माझ्यासाठी करा.

हे लिहिण्यामागचा हेतू एवढाच आहे की, खरंच मेनॉपॉज आणि मानसिक अवस्था यांचा म्हणावा इतका ” मोठ्ठा ” संबंध आहे का? हे कबूल आहे, की त्यावेळी जरा शारीरिक बदल होतात. पाळी येतानाही आणि जातानाही. मात्र गेल्या काही वर्षात हे ” त्रासाचं ” प्रमाण जरा जास्तच वाढलंय असं वाटतं.

मृणालचीच गोष्ट घेऊन बघू या ! नवरा आता मोठ्या पदावर आहे. त्याच्या जबाबदाऱ्या वाढल्यात. स्त्री – पुरुष असा बराच स्टॉफ त्याच्या हाताखाली आहे. जबाबदाऱ्या आहेत. घरी यायला कधी कधी उशीर होतो. शिवाय “तो अजूनही बरा दिसतो. “

मुलगा इंजिनिअरिंग थर्ड इअरला आहे. त्याचा अभ्यास वाढलाय. मित्रमंडळ वाढलंय. त्यात काही मैत्रिणीही आहेत. कॉलेज ॲक्टिव्हिटीज असल्याने घरात तो कमीच टिकतो. त्यात कॅम्पसची तयारी करतोय. मग त्याला वेळ कुठाय ?

मुलगी वयात आलेली. नुकतीच कॉलेजला जाऊ लागलीय. टीनएजर आहे. तिचं एक भावविश्व तयार झालेलं आहे. काहीही झालं तरी ती कॉलेज ” बुडवत ” नाही. घरी असली की, मैत्रिणींचे फोन असतात. सुटीच्या दिवशी त्यांचा एखादा कार्यक्रम असतो. फोनवर, प्रत्यक्ष हसणं खिदळणं, गप्पा होत असतात. तरीही ती आईला मदत करते. वॉशिंग मशीन लावणे, घरी आल्यावर भांडी आवरणे, अधेमधे चहा करणे. आताशा कूकर लावते, पानं घेते. जमेल तसं काही तरी ती करून बघते. जमेल तशी आईला मदत करते.

मृणाल मात्र आजकाल या प्रत्येकात काहीतरी खुसपट काढते. नवऱ्यावर पहिला आरोप, म्हणजे “त्यांचं माझ्याकडे लक्ष नाही. घरी मुद्दाम उशिरा येतात. ऑफिसमधे सुंदर बायका असतात, तिथेच ते जास्त रमतात. मी आता जुनी झाले, माझ्यातला इंटरेस्ट संपलाय वगैरे वगैरे. शिवाय आगीत तेल टाकायला आजुबाजुच्या सख्या असतातच. मग हा स्ट्रेस अधिक वाढत जातो.

बाळ आधीच्या सारखं आईच्या भोवती भोवती नसतं. त्यांच्यातला संवाद थोडासा कमी झालाय. कारण विषय बदललेत. ” आता माझी त्याला गरजच नाही ” या वाक्यावर नेहमीच तिची गाडी थांबते. त्याचं स्वतंत्र विश्व काही आकार घेतंय, ही गोष्टच तिच्या लक्षात येत नाही. ते बाळ आता हाफचड्डीतलं नाहीय. मोठं झालंय.

मुलीचंही तेच. तिच्या जागी स्वतः ला ती ठेवून बघतच नाही. सतत “आमच्यावेळी ” ची टकळी सुरू असते.

याचा दृश्य परिणाम एकच होत जातो की, ते तिघंही हळूहळू हिला टाळताना दिसतात. ” रोज मरे त्याला कोण रडे ” ही परिथिती येते. कारण कसंही वागलं तरी परिणाम एकच. कितीही समजून घेतलं तरी आई फक्त चिडचिड करते. मग त्याला एक गोंडस नाव मिळतं ” हार्मोन्स इम्बॅलन्स. मेनॉपॉज. “

डॉक्टरी ज्ञानाला हे चॅलेंज नव्हे, हे आधी लक्षात घ्या. पाळी येताना आणि जाताना बाईमधे अनेक बदल होतातच. पण ते ती कशा त-हेने घेते यावर अवलंबून आहे. जसं दुःख, वेदना कोण किती सहन करतं यावर अवलंबून असतं अगदी तसंच !

एक गोष्ट इथे शेअर करते. माझ्या बाळंतपणाच्या वेळी, माझ्या बाजूलाच माझ्या नवऱ्याच्या मित्राची बायको होती. मित्र संबंध म्हणून एकाच खोलीत आम्ही दोघी होतो. तिला पहाटे मुलगा झाला. ती आदली रात्र तिने पूर्ण हॉस्पिटलमधे रडून / ओरडून गोंधळ घालून घालवली. माझीही वेळ येतच होती. पण माझ्या तोंडून क्वचित ” आई गं ” वगैरे शिवाय शब्दच नव्हते. कळा मीही सोसतच होते. माझा लेबर रूममधून माझा ओरडण्याचा काहीच आवाज येत नाही हे बघून, माझी आई घाबरली. खूप घाबरली.. कारण आदली रात्र तिने बघितली होती.

रात्री बारा चाळीसला मला मुलगा झाला. माझं बाळ जास्त वजनाचं हेल्दी होतं. काही अडचणीही होत्या. पण सर्व पार पाडून नॉर्मल बाळंतपण झालं. तेव्हाच लक्षात आलं की, सुख दुःख हे व्यक्तीसापेक्षच असतं.

चाळीस ते पन्नास किंवा पंचावन्न हा वयोगट प्रत्येकच स्त्रीच्या वाट्याला येतो. एखादी विधवा बाई, संयुक्त कुटुंबातील बाई, परित्यक्ता, प्रौढ कुमारिका ते सगळं सहज सहन करून जाते. कारण ” रडण्यासाठी तिला कुणाचा खांदा उपलब्ध नसतो. ” तिला वेदना नसतील का? अडचणी नसतील का? पण ती जर रडत चिडत बसली तर, कसं होणार ? जिथे तुमचं दुःख गोंजारलं जातं, तिथेच दुःखाला वाचा फुटते. अन्यथा बाकिच्यांची दुःखे ही मूक होतात. असो !

हे सर्वच बाबतीत घडत असतं. कारण, परदुःख शीतल असतं. हे वाचून अनेकांचं मत हेच होईल की, ” यांना बोलायला काय जातं ? आम्ही हे अनुभवतोय. ” याला काही अंशी मी सहमत आहे. पण पूर्णपणे नाही. प्रत्येकच नवरा खरंच सुख बाहेर शोधतो का? घरातल्या पुरुषाला सुख बाहेर शोधावे लागू नये, इतकं घरातलं वातावरण नॉर्मल असलं तर तो बाहेर का जाईल ? आपल्या म्हणजे स्त्रियांच्या जशा अनेक अडचणी असतात, तशाच पुरुषांच्याही असतात, हे जर समजून घेतलं तर, वादाच्या ठिणग्या पडणार नाहीत. क्वचित पडल्याच तर तिचा भडका होणार नाही.

पंख फुटल्यावर पाखरंही घरट्याच्या बाहेर जातात, मग मुलांनी याच वयात आपलं करिअर करण्याचा प्रयत्न केला, तर सर्वतोपरी त्यांना मदत करायलाच हवी ना?

मुलींना वेळेतच जागं केलं, त्यांच्या अडचणी जाणून घेतल्या तर मुलगीच तुमची मैत्रिण बनते. जरासं आपणही तिच्या वयात डोकावून बघावं. तिच्या ठिकाणी स्वतःला ठेवून बघावं.

आपली चिडचिड होणं स्वाभाविक आहेच. पण एक गोष्ट लक्षात घ्यायला हवी की, रडून चिडून जर परिस्थिती बदलत असेल, तर खुशाल रडा. पण आहे त्या परिस्थितीशी आपली मनस्थिती जुळवून घेतली तर, आणि तरच घरात संघर्षाची परिस्थिती निर्माण होणार नाही. कारण कपड्याची एखाद्या ठिकाणची शिवण उसवली तर, जसं ज्याला शिवता येईल तसं शिवून टाकावं. अन्यथा तो कपडा कामातून जाईल हे लक्षात असू द्यावं.

यासाठी खूप काही करायला हवंय का? नाही ! आपला भूतकाळ आठवून वर्तमानाशी जुळवून घ्यावं. ” मी तरूण असताना मला माझी आईच तेवढी ग्रेट वाटायची. सासू नव्हे. ” हे आठवावं. बहीण भावाला आणि दीर नणंदांना दिलेले गिफ्ट आठवावे. आपल्या घरात सासर आणि माहेरपैकी कुठली वर्दळ अधिक होती/आहे हे बघावं. त्यानुसार आपल्या नवऱ्याचं वागणं, याचा विचार करावा.

विषय जरा वेगळ्या बाजूला कलतोय, हे कळतंय ! यावर पुढे सविस्तर बोलूच.

पण सध्या एवढंच लक्षात ठेवूया मैत्रिणींनो की, मेनॉपॉज किंवा तत्सम अडचणींवर सहज मात करता येते, त्याचा बाऊ न करता. त्यासाठी फक्त आपली मनस्थिती बदलूया!

© प्रा.सुनंदा पाटील

गझलनंदा

८४२२०८९६६६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “प्रेमाची शिक्षा” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “प्रेमाची शिक्षा” ☆ श्री मंगेश मधुकर

विकीनं तोंडावर दार बंद केल्यावर मायाच्या डोळ्यात पाणी आलं. पुन्हा पुन्हा विनंती केली पण दार उघडलं नाही. गर्दी व्हायला लागल्यावर माया परत फिरली.

“विकी, हा काय प्रकार?,” राजा.

“मरु दे तिला, पार डोक्याची मंडई झालीय. जा दारू घेऊन ये. अजून प्यायचीय”

“आधी मला सांग. कोण होती ती?”

“गप बोललो ना. तो विषय नको. ”

“चांगल्या घरातली दिसत होती. एकदम श्रीमंत कॅटेगरी”

“पंधरा पिढ्या बसून खातील एवढा पैसा आहे”

“आणि तू तिला शिव्या घातल्या, हाकलून दिलं आणि तिनंही गप ऐकलं. नक्की भानगड काय?”

“ऐकून घेतलं म्हणजे उपकार नाही केले. तशी मातीच खाल्लीयं ना” बोलताना विकीच्या डोळ्यात विखार होता.

“म्हणजे” 

“हिच्यामुळेच बरबाद झालो ना”

“तुमचं लफडं होतं”

“नाही रे”

“मग”

“आमच्या गावातल्या सर्वात श्रीमंत माणसाची लेक, सगळा गाव त्यांच्याच तालावर नाचणारा. कुठंच बरोबरी नाही म्हणून आम्ही दहा हात लांब राहायचो. सावलीला सुद्धा फिरकायचो नाही.”

“मग ही बया कुठं भेटली”

“कॉलेजमध्ये भेटली अन माझी साडेसाती सुरू झाली. तेव्हा आतापेक्षा जास्त सुंदर दिसायची. कॉलेजची पोरं पार फिदा पण कोणी हिंमत करत नव्हते आणि प्रेम-बीम यासाठी लागणारा पैसा, वेळ आणि इच्छा या गोष्टी माझ्याकडे नव्हत्या. खूप शिकायचं अन मोठा अधिकारी व्हायचं एवढं एकाच स्वप्न पूर्ण करण्यासाठी जीव तोडून प्रयत्न करत होतो. पहिला नंबर कधीच सोडला नाही ना शाळेत ना कॉलेजमध्ये. दिसायला बरा त्यात व्यायामची आवड त्यामुळे तब्येत कमावली. अभ्यास सोडून दुसरं व्यसन नव्हतं. ” 

“आता तुझ्याकडं बघून, सांगतोयेस ते खरं वाटत नाही”

“माझी पर्सनॅलिटी आणि हुशारी बघून ही प्रेमात पडली. सगळा एकतर्फी मामला.”

“भारीच की.. एवढी चिxx पोरगी फिदा म्हणजे..”

“डोंबलाची चिxx! !तिच्यामुळेच वाट लागली. इतकी पागल झाली की थेट प्रपोज केलं पण मी नकार दिला. माझ्यासाठी करियर जास्त महत्वाचं आहे असं सांगितलं पण तिच्या डोक्यात शिरलं नाही.”

“एकदम पिक्चर सारखं वाटतयं”

“खरंय!! आयुष्याचा पार पिक्चरच झाला. स्पष्ट नकार दिल्यावर सगळं थांबेल असं वाटलं पण झालं भलतंच. आपल्यासारख्या सुंदर, श्रीमंत मुलीला एक पोरगा चक्क नकार देतोय यानं तिचा ईगो हर्ट झाला. ”

“मग रे!!”

“हट्टाला पेटली. वेगवेगळ्या प्रकारे प्रयत्न सुरू केले. दबाव टाकत होती. नापास करण्याची धमकी दिली. हरप्रकारे प्रयत्न केले पण मी नकारावर ठाम होतो. कॉलेजची परीक्षा संपण्याची वाट बघत होतो कारण त्यानंतर आमचे मार्ग वेगळे होणार होते मात्र शेवटचा पेपर संपल्यावर कँटिनमध्ये तिनं जबरदस्तीनं थांबवत पुन्हा विचारलं. मी काहीच बोललो नाही तेव्हा विणवण्या करायला लागली तेव्हा अजून प्रकरण वाढू नये म्हणून तिथून जाऊ लागलो तेव्हा राग अनावर होऊन तिनं खाडकन माझ्या कानफटात मारली. आवाज ऐकून आजूबाजूच्या सर्व नजरा वळल्यावर भावनेच्या भरात केलेली चूक तिच्या लक्षात आल्यावर स्वतःला वाचवण्यासाठी एकदम वेगळा पवित्रा घेतला. जोरजोरात रडायला लागली आणि सगळ्यांना सांगितलं की मीच तिला त्रास देतोय. सारखं सारखं प्रपोज करतोय. तिचा अनपेक्षित “यू टर्न” माझ्यासाठी धक्कादायक होता. ”

“बाsबो, मग पुढं??”राजा 

“एका क्षणात व्हिलन झालो. कॉलेजच्या पोरांनी संधी साधली. कसाबसा जीव वाचला. संध्याकाळी तिचे वडील, भाऊ आणि नातेवाईक घरी. पुढचे पंधरा दिवस हॉस्पिटलमध्ये आणि दोन महीने हात गळ्यात. ”

“तू खरं का सांगितलं नाहीस”

“हजारदा सांगितलं पण कोणीच विश्वास ठेवला नाही उलट परत असं काही बोललास तर घरादारा सकट जाळून टाकू अशी धमकी मिळाली. झकत गप्प बसलो. आईवडिलांनी तिच्या बापाचे पाय धरले. गयावया केल्या म्हणून जिवंत राहिलो पण गाव कायमचा सोडावा लागला.”

“डेंजर आहे रे बाई!!एवढं सगळं झालं तरी ती खरं बोल्ली की नाही. माफी बिफी…”

“अं हं!!कुठल्या तोंडानं बोलेल. करून सावरून नामानिराळी झाली. मी मात्र बदनाम झालो. स्वप्नाचा चक्काचूर झाला. दिशाहीन जगण्यामुळे हताश, निराश झालो. सैरभैर भटकताना बाटलीच्या नादी लागलो. ”

“पण तुझी काहीच चूक नव्हती. पोलिसांकडे का गेला नाहीस. ”

“झाला तेवढा तमाशा बास होता. प्रकरण वाढवून काहीच उपयोग होणार नव्हता. जिवावर आलेलं गाव सोडण्यावर निभावलं असं समजून नशीब नेईल तिकडं जात राहिलो. ”

“इतकं सारं सोसलसं. कधी बोलला नाहीस. ”

“बरबादीची कहाणी सांगून काय फायदा? आधी फक्त अभ्यासाचं व्यसन आणि आता!!” विकी भेसूर हसला. त्या हसण्यातली वेदना राजापर्यंत पोचली. विकीच्या खांद्यावर हात ठेवत तो म्हणाला“जे झालं ते झालं. सोडून दे. आयुष्यात ती पुढं गेली. लग्न करून मोकळी झाली अन तू अजूनही तिथंच आहेस. स्वतःला संपवतोयेस. ”

“मग काय करू. कशासाठी जगायचं. पोराच्या आयुष्याचे धिंडवडे पाहून आई-वडीलांनी हाय खाल्ली अन झुरून झुरून गेले. आता तर पार एकटा उरलोय. वाट बघतोय. “विकीच्या आयुष्याची परवड ऐकून राजाच्या डोळ्यात पाणी आलं.

—-

*बेदम पिण्यानं विकीची तब्येत बिघडली. सरकारी दवाखान्यात भरती केलं. अवस्था पाहून डॉक्टरांनी ‘फक्त वाट बघा’ असं स्पष्ट सांगितलं.

*पश्चाताप आणि अपराधीपणाच्या भावनेनं मायाला नैराश्य आलं कायम शून्यात नजर, खाण्या-पिण्याकडं दुर्लक्ष, त्यामुळं हॉस्पिटलमध्ये भरती केलं. परिस्थिती चिंताजनक असल्याचं डॉक्टरांनी स्पष्ट सांगितलं. तेव्हा बायकोवर जीवापाड प्रेम करणारा कैलास मनानं खचला.

मायानं एकतर्फी, हट्टी प्रेम केलं. त्याचे परिणाम ती, विकी आणि कैलास तिघांनाही भोगावे लागले आणि काहीही चूक नसताना त्या प्रेमाची शिक्षा विकी, कैलासला मिळाली. एकाचं आयुष्य तर दुसऱ्याचा सुखी संसार भरडला गेला.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३५ – रेडिओ – भाग दुसरा ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – – ३५ – रेडिओ – भाग दुसरा  ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

रेडिओ – भाग दुसरा 

(हे “गीत रामायण” वर्षभर श्रोत्यांनी प्रचंड भावनात्मकतेने, श्रद्धेने आणि अपार आनंदाने ऐकले.) 

इथून पुढे — 

आज काय रामजन्म होणार…

सीता स्वयंवर ऐकायचे आहे…

राम, सीता, लक्ष्मण वनवासात चालले आहेत..

“माता न तू वैरिणी” म्हणत भरत कैकयीचा तिरस्कार करतोय…

भरत भेटीच्या वेळेस,

।पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा।

या गाण्याने तर कमाल केली होती.

सेतू बांधा रे” या गाण्याबरोबर श्रोतृवर्ग वानरसेने बरोबर जणू काही लंकेलाच निघाला. घरोघर “सियावर रामचंद्रकी जय” चा गजर व्हायचा.

शेवटचं,

।गा बाळांनो श्री रामायण। या गाण्याने कार्यक्रमाचा जेव्हा समारोप झाला तेव्हा एक अनामिक हुरहूर दाटून आली. खरोखरच या श्रोतृगणात आमची पिढी होती हे आमचं किती भाग्य! या अमर महाकाव्याची जादू आम्ही या रेडिओमुळे प्रत्यक्ष अनुभवली. त्यानंतरच्या काळात गीतरामायणाचे अनेक प्रत्यक्ष कार्यक्रम झाले.. आजही होतात पण रेडियोवर ऐकलेल्या त्या पहिल्या कार्यक्रमाची मजाच और होती! आजही आठवताना, लिहिताना, माझ्या अंगावर काटा फुलतो. कसे आम्ही कुटुंबीय, शेजारी, आजूबाजूचे सारेच हातातली कामे टाकून गीत रामायणातल्या समृद्ध रचना गाणाऱ्या रेडिओ जवळ मग्न होऊन, भान हरपून बसून राहायचे आणि पुढच्या आठवड्याची प्रतीक्षा करायचे.

आज ओठातून सहज उद्गार निघतात, “रेडिओ थोर तुझे उपकार.”

शालेय जीवनातला आणखी एक- रेडिओ सिलोन वरून प्रसारित होणारा अतीव आनंददायी, औत्स्युक्यपूर्ण कार्यक्रम म्हणजे “बिनाका गीतमाला

अमीन सयानी”चं बहाररदार निवेदन आणि तत्कालीन हिंदी चित्रपटातील एकाहून एक आवडती गाणी ऐकताना मन फार रमून जायचं. दर बुधवारी रात्री आठ वाजता, रेडिओ सिलोन वरून प्रसारित होणारा हा कार्यक्रम आम्ही न चुकता ऐकायचो. त्यासाठी दुसऱ्या दिवशीचा गृहपाठ पटापट संपवून “बिनाका गीतमाला” ऐकण्यासाठी सज्ज व्हायचे हे ठरलेलेच. आज कुठले गाणे पहिल्या पादानवर येणार यासाठी मैत्रिणींमध्ये पैज लागलेली असायची. तसेच नव्याने पदार्पण करणार्‍या शेवटच्या पादानवरच्या गाण्याचे ही अंदाज घेतले जायचे. आम्ही अक्षरश: “बिनाका गीतमालाची” डायरी बनवलेली असायची. शेवटच्या पादानपासून पहिल्या पादानपर्यंतची दर बुधवारची गाण्यांची यादी त्यात टिपलेली असायची. मुकेश, रफी, तलत, आशा, लताची ती अप्रतीम गाणी ऐकताना आमचं बालपण, तारुण्य, फुलत गेलं.

जाये तो जाये कहा..

जरा सामने तो आओ छलिया..

है अपना दिल तो आवारा..

जिंदगी भर नही भूलेंगे..

जो वादा किया वो..

बहारो फुल बरसाओ..

बोल राधा बोल..

बिंदिया चमकेगी, कंगना खनकेगी..

वगैरे विविध सुंदर गाण्यांनी मनावर नकळत आनंदाची झूल या कार्यक्रमातून पांघरली होती.

दुसऱ्या दिवशी शाळेतही मधल्या सुट्टीत पटांगणातल्या आंब्याच्या पारावर बसून आम्ही मैत्रिणी ही सारी गाणी सुर पकडून (?) मुक्तपणे गायचो. अमीन सयानीचे विशिष्ट पद्धतीने केलेले सूत्रसंचालन, त्याचा आवाज आम्ही कसे विसरणार? अजूनही हे काही कार्यक्रम चालू आहेत की बंद झालेत हे मला माहीत नाही. असतीलही नव्या संचासहित पण या कार्यक्रमाचा तो काळ आमच्यासाठी मात्र अविस्मरणीय होता हे नक्की.

फौजीभाईंसाठी लागणार्‍या विविधभारतीनेही आमचा ताबा त्याकाळी घेतला होता.

वनिता मंडळ नावाचा एक महिलांसाठी खास कार्यक्रम रेडिओवरून प्रसारित व्हायचा. तो दुपारी बारा वाजता असायचा. त्यावेळी आम्ही शाळेत असायचो पण आई आणि जिजी मात्र हा कार्यक्रम न चुकता ऐकायच्या. खरं म्हणजे त्या काळातल्या सर्वच गृहिणींसाठी हा कार्यक्रम महत्त्वाचा आणि मनोरंजनाचा ठरला होता. माझा या कार्यक्रमांशी प्रत्यक्ष संबंध आयुष्याच्या थोड्या पुढच्या टप्प्यावर आला. त्यावेळच्या आठवणी माझ्यासाठी खूप महत्त्वाच्या आहेत. अकरावीत असताना

माझे अत्यंत आवडते, इंग्लिश शिकवणारे, खाजगी क्लासमधले “काळे सर” हे जग सोडून गेले तेव्हा मी खूप उदास झाले होते. त्यांच्या स्मृतीसाठी मी एक लेख लिहिला आणि “वनिता मंडळ” या आकाशवाणीच्या कार्यक्रमात तो सादर करण्याची मला संधी मिळाली. त्यावेळी मा. लीलावती भागवत, विमल जोशी संयोजक होत्या. त्यांना लेख आणि माझे सादरीकरण दोन्ही आवडले आणि तिथूनच आकाशवाणी मुंबई केंद्रावर माझ्या कथाकथनाच्या कार्यक्रमाची नांदी झाली. तेवढेच नव्हे तर मी लेखिका होण्याची बीजे या आकाशवाणीच्या माध्यमातूनच रोवली गेली. माननीय लीलावती भागवत या माझ्या पहिल्या लेखन गुरू ठरल्या. रेडिओचे हे अनंत उपकार मी कसे आणि का विसरू?

अगदी अलीकडे “उमा दीक्षित” संयोजक असलेल्या एका महिला कार्यक्रमात कथाकथन करण्यासाठी मी आकाशवाणी मुंबई केंद्रावर गेले होते. पन्नास वर्षात केवढा फरक झाला होता! दूरदर्शनच्या निर्मितीमुळे आकाशवाणीला ही अवकळा आली असेल का असेही वाटले. नभोवाणी केंद्राचे एकेकाळचे वैभव मी अनुभवलेले असल्यामुळे त्या क्षणी मी थोडीशी नाराज, व्यथित झाले होते. फक्त एकच फरक पडला होता. त्या दिवशीच्या माझ्या कार्यक्रमाचा अडीच हजाराचा चेक मला घरपोच मिळाला होता पण त्याकाळचा १५१ रुपयाचा चेक खात्यात जमा करताना मला जो आनंद व्हायचा तो मात्र आता नाही झाला. आनंदाचे क्षण असे पैशात नाही मोजता येत हेच खरं! माझ्या कथाकथनाला अॉडीअन्स मिळेल का हीच शंका त्यावेळी वरचढ होती.

आता अनेक खाजगी रेडिओ केंद्रेही अस्तित्वात आहेत. गाडीतून प्रवास करताना अनेक RJ न्शी ओळख होते. कुठल्याही माध्यमांची तुलना मला करायची नाही पण एक नक्की माझ्या मनातलं नभोवाणी केंद्र… ऑल इंडिया रेडिओ… त्याचे स्थान अढळ आहे आज मी रेडिओ ऐकत नाही हे वास्तव स्वीकारून सुद्धा… 

“ताई उठता का आता? चहा ठेवू का तुमचा? साखर नाही घालत.. ”

सरोज माझ्या डोक्यावर हात ठेवून मला उठवत होती…

“अगबाई! इतकं उजाडलं का? उठतेच..

आणि हे बघ तो रेडियो चालूच ठेव. बरं वाटतं गं!ऐकायला”

गरमगरम वाफाळलेला आयता चहा पिताना रेडियोवर लागलेलं कुंदा बोकीलचं,

।शाळा सुटली पाटी फुटली

आई मला भूक लागली।

हे गाणं ऐकत पुन्हा मी त्या आनंददायी ध्वनीलहरीत बुडून गेले.

– क्रमश: भाग ३५ – समाप्त.

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “कुंभमेळ्याकडे थोडेसे वेगळ्या दृष्टिकोनातून…” – लेखक : श्री मिलिंद साठे ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

श्री मोहन निमोणकर 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “कुंभमेळ्याकडे थोडेसे वेगळ्या दृष्टिकोनातून…” – लेखक : श्री मिलिंद साठे ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर

प्रयाग राज कडे जाणाऱ्या सर्वच रस्त्यांवरील व्यवसाय भरभराटीला आले होते. अगदी टायर पंक्चर वाल्यापासून ते स्टार हॉटेल पर्यंत. प्रयाग राज मधल्या सर्वच व्यावसायिकांना दिवसाचे २४ तास सुध्दा कमी पडत होते. कुठलाही उद्दामपणा, मुजोरी न करताही व्यवसाय करता येतो. साधं कपाळावर गंध कुंकू लावणारा हजारात कमाई करत होता. अगदी भिकाऱ्याला सुध्दा कुणी निराश करत नव्हते. सरप्रायजींगली भिकारी खुपच कमी दिसले. आता थोडेसे सरकारी नोकरांबद्दल, तेच कर्मचारी, तेच पोलिस, तेच प्रशासन, पण फक्त जबरदस्त राजकीय इच्छाशक्ती असणाऱ्या नेत्यामुळे काय चमत्कार घडू शकतो त्याचं जिवंत उदाहरण म्हणजे हा महाकुंभ. कोण म्हणतं सरकारी नोकर काम करत नाहीत ? एमबीए च्या सर्व विद्यार्थ्यांसाठी एक उत्तम वस्तुपाठच होता हा कुंभमेळा. फायनान्स, मार्केटिंग, एचआर, इव्हेंट, डीसास्टर, मॅनपाॅवर काय नव्हतं तिथे ? माझ्या असे वाचनात आले की आर्किटेक्चर च्या विद्यार्थ्यांसाठी यासाठी एक काॅंपिटीशन आयोजित केली होती. नवीन पिढीला सुध्दा कुंभ आयोजनात सहभागी करुन घेण्याचा हा प्रयत्न किती छान. प्रत्येक काॅर्नरवर २४ तास हजर असलेले पोलिस रात्रीच्या थंडीत शेकोटी पेटवून भाविकांची सहाय्यता करत होते. बिजली, पानी, सडक और सफाई सलग २ महिने २४×७ मेंटेन ठेवणे ही खायची गोष्ट नाही. किती महिने किंवा वर्षे आधीपासून तयारी सुरू केली असेल ? 

सरकारी कर्मचाऱ्यांना त्यांच्या विशिष्ट मानसिकतेतून बाहेर काढून स्वतःच्या घरचे कार्य असल्याप्रमाणे कामाला जुंपणे कसं जमवलं असेल ? यूपी पोलिसांची हिंदी चित्रपटांनी उभी केलेली प्रतिमा आणि कुंभ मधले पोलिस याचा काही ताळमेळ लागत नव्हता. बहुतेक कुंभ संपल्यानंतर ते ही म्हणतील “सौजन्याची ऐशी तैशी”. सफाई कर्मचार्यांबद्दल तर बोलावे तेवढे कमीच आहे. जागोजागी ठेवलेल्या कचरा पेट्या भरून वाहण्यापुर्वीच उचलल्या जात होत्या. रस्ते झाडण्याचे काम अहोरात्र चालू होते. हजारो शौचालयांचे सेप्टिक टॅंक उपसणाऱ्या गाड्या सगळीकडे फिरत होत्या. रात्रंदिवस भाविक नदीमध्ये स्नान करत होते त्यामुळे शेकडो किलोमीटर लांबीचे गंगा यमुना चे काठ जलपोलिसांद्वारे नियंत्रित केले जात होते. हेलिकॉप्टर मधूनही परिस्थिती वर लक्ष ठेवले होते.

आधुनिक तंत्रज्ञान आणि धार्मिकता याचा सुंदर संगम साधला होता. सर्व खोया पाया बुथ एकमेकांशी साॅफ्ट वेअर द्वारे जोडले होते. प्रत्येक दिव्याच्या खांबावर मोठ्या अक्षरात नंबर आणि क्यू आर कोड चे स्टिकर लावलेले होते. ज्या योगे तुम्हाला तुमचे लोकेशन इतरांना कळवणे सोपे जावे. गंगा यमुना दोन्ही नद्यांचा प्रवाह नियंत्रणात ठेवला होता. हिमालयात उगम पावणाऱ्या नद्यांचा पाण्याचा प्रवाह अतिशय बेभरवशी असतो हे विशेष करून लक्षात घेतले पाहिजे. ज्या पाण्यात शेकडो संत महंत, या देशाच्या राष्ट्रपती, पंतप्रधान, परदेशी पाहुणे, मोठमोठे उद्योगपती स्नान करत होते त्या पाण्याची गुणवत्ता नक्कीच चांगली असली पाहिजे. पुण्यातून निघताना बरेच जण म्हणाले “त्या घाण पाण्यात आंघोळ करायची ?” पण ओली वस्त्रे अंगावरच वाळवून देखील आम्हाला काहीही त्रास झाला नाही.

सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे आखाड्यातल्या नळाला २४ तास येणारे पाणी पिण्यायोग्य होते. रस्त्यावर जागोजागी मोफत आर ओ फाऊंटन लावलेले होते. गर्दीच्या रस्त्यांवरुन स्थानिक तरुण दुचाकीवरून माफक दरात भाविकांना इच्छित स्थळी पोचवत होते. एक प्रचंड मोठी अर्थव्यवस्था काम करत होती. एखाद्या छोट्या राज्याच्या वार्षिक बजेट पेक्षा मोठी उलाढाल ह्या दोन महिन्यांत झाली असेल. हे सर्व लिहीत असतानाच माझ्या बहिणीने मला एक बातमी दाखवली “महा कुंभ मध्ये आजपर्यंत १२ बालकांनी सुखरूप जन्म घेतला” एका परीने हा सृजनाचाही कुंभ म्हणावा लागेल.

मी अजिबात असा दावा करत नाही की जे होते ते सर्वोत्तम होते. पण कुठल्याही गैरसोयी बद्दल कुणीही तक्रार करताना दिसत नव्हते.

ह्या देशातील सर्व सामान्य माणसाने अत्यंत श्रध्देने, संयमाने साजरा केलेला हा जगातील सर्वात मोठा धार्मिक सोहळा अनुभवण्याचे भाग्य आम्हाला लाभले ही आमच्या पुर्वजांची पुण्याई.

Never underestimate the power of common man.

लेखक : श्री मिलिंद साठे

 ९८२३०९९९५१ 

प्रस्तुती : श्री मोहन निमोणकर

संपर्क – सिंहगडरोड, पुणे-५१ मो.  ८४४६३९५७१३.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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