(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ जसप्रीत कौर फ़लक जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। प्रस्तुत है आपका संक्षिप्त परिचय एवं ई-अभिव्यक्ति में प्रथम भावप्रवण रचना लफ़्ज़ों के चराग़।
शोधकार्य (अटल बिहारी वाजपेयी के काव्य में सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना)
हिन्दी मौलिक काव्य संग्रह – चुप का गीत (2013), रेत पर रंगोली (2018) इश्क समंदर तो नहीं (2022) कैनवस के पास(2024)
अनुवादित पंजाबी काव्य संग्रह- मरजाणियाँ (2017)
अनुवादित अंग्रेजी काव्य संग्रह- A portrait Sans Frame (2021) अठवें रंग दी तलाश (मौलिक पंजाबी काव्य संग्रह,2021) संपादित हिन्दी काव्य संग्रह- नारी हर युग में हारी(2023)
अनुवादक कार्य – प्रो. मोहन सिंह की कविताओं का हिन्दी अनुवाद o बीस पंजाबी कवियों की पाँच-पाँच कविताओं का अनुवाद o बलबीर साहनेवाल के पंजाबी उद्धरण का हिन्दी में अनुवाद
राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने के साथ-साथ मुशायरों, टेलीविजन,आकाशवाणी के कवि सम्मेलन में शामिल होना लगातार जारी है। कई शोध पत्र एवं पुस्तक समीक्षायें प्रतिष्ठित अखबारों में प्रकाशित होती रहती हैं।
“कविता कथा कारवाँ ” (रजि) साहित्यिक संस्था की प्रधान
कथा कारवाँ पब्लिकेशनस (रजि), लुधियाना (पंजाब) की संचालिका
सम्मान – पंजाब गौरव, सोझन्ती कवयित्री(2018), अमृता प्रीतम सम्मान, गोल्ड मैडल(2019),राज्य कवि उदय भानू हंस(2019 हरियाणा से),श्री शारदा शताब्दी सम्मान 2021, सरोजिनी नायडू सम्मान (2022), गणतंत्र दिवस पर जिला स्तरीय सम्मान (2021,2023), कबीर कोहिनूर सम्मान (2023, 2024), राष्ट्र गौरव सम्मान (2023) साहित्य रत्न सम्मान (2023), इण्डो-थाई गौरव सम्मान(2023 बैंकॉक से), स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर जिला स्तरीय पुरस्कार(2023),राज भाषा गौरव सम्मान (2023), पंजाब दी धी (2023) अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘हिन्दी की गूंज’, जापान से “सशक्त महिला सम्मान” से अलंकृत(8 मार्च 2024) प्रमुख हैं।
NEP शिक्षा नीति के निर्देशानुसार ‘बचपन’ नामक कविता “नयी नुहार” अभ्यास पुस्तिका में शामिल
☆ कविता – लफ़्ज़ों के चराग़☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक परिचर्चा – सवाल लेखकों के जवाब मेरे।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 280 ☆
परिचर्चा – सवाल लेखकों के जवाब मेरे
(समकालीन व्यंग्य समूह एक मासिक स्तम्भ चलाता है “रचनाकार कठघरे में “ इसमें लेखक से लेखक ही सवाल करते हैं। इसी स्तंभ में ई-अभिव्यक्ति के विवेक रंजन श्रीवास्तव।)
पहला सवाल — क्या आज के अधिकांश लेखक मजदूर से भी बदतर हैं जो बिना परिश्रमिक निरंतर लिख रहे हैं। इसके लिए लेखक या संपादक में कौन जिम्मेवार है ?
— प्रभात गोस्वामी
उत्तर …मजदूर तो आजीविका के लिए किंचित मजबूर होता है, पर लेखक कतई मजबूर नहीं होता।
बिना पारिश्रमिक लिखने के पीछे छपास की अभिलाषा है। संपादक इसके लिए दोषी नहीं कहे जा सकते, यद्यपि पत्र , पत्रिका का मैनेजमेंट अवश्य दोषी ठहराया जा सकता है, जो लेखन के व्यय को बचा रहा है।
सवाल 2… व्यंग्य विधा हमेशा विद्रूपताओं को उजागर करती आई है। इसमें आम आदमी का दर्द और परेशानियों का अधिकतर समावेश होता रहा है। आज मजदूर दिवस पर यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या एक श्रमिक को व्यंग्य का पात्र बनाना उचित होगा ? वैसे भी यह वर्ग हमेशा उपहास का पात्र ही रहा है। आप क्या सोचते हैं ? कृपया बताएं।
– प्रीतम लखवाल, इंदौर
उत्तर … आपके प्रश्न में ही उत्तर निहित है, मजदूर यदि कामचोरी ही करे तो उसकी इस प्रवृत्ति पर अवश्य व्यंग्य लिखा जाना चाहिए। हमने कई व्यंग्य पढ़े हैं जिनमे घरों में काम करने वाली मेड पर कटाक्ष हैं ।
मेहनतकश होना बिलकुल भी उपहास का पात्र नहीं होना चाहिए।
प्रश्न : मैं तो कलम का मजदूर हूं इस उक्ति में कितनी सच्चाई है ?
एक श्रमिक के शारीरिक श्रम और बुद्धिजीवियों के श्रम में भारी अंतर है। दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हो सकते, फिर बुद्धिजीवियों के सर पर ही मोरपंख क्यों खोंस दिये जाते हैं ?
–इन्दिरा किसलय
उत्तर : बुद्धिजीवी ही मोरपंख खोंसते हैं, वे ही उपमा , उपमेय, रूपक गढ़ते हैं।
मैं तो कलम का मजदूर हूं , किन्ही संदर्भो में शब्दों की बाजीगरी है।
बौद्धिक श्रम और शारीरिक मजदूरी नितांत भिन्न हैं ।
सवाल – कहते हैं कि कविता के पांव अतीत में होते हैं और उसकी आंखें भविष्य में होती हैं, पर व्यंग्य इन दिनों लंगड़ा के चल रहा है और उसकी आंखों में मोतियाबिंद जैसा कुछ हो गया है ? आप इस बात पर क्या कहना चाहेंगे ?
– जयप्रकाश पाण्डेय
जवाब… विशेष रूप से नई कविता की समालोचना में प्रयुक्त यह युक्ति सही है , क्योंकी कविता की पृष्ठ भूमि , इतिहास की जमीन , विगत से उपजती है। प्रोग्रेसिव विचारधारा की नई कविता उज्ज्वल भविष्य की कल्पना के सपने रचती है । किंबहुना यह सिद्धांत प्रत्येक विधा की रचना पर आरोपित किया जा सकता है, व्यंग्य पर भी। किंतु आप सही कह रहे हैं की व्यंग्य लंगड़ा कर चल रहा है। व्यंग्य को महज सत्ता का विरोध समझने की गलती हो रही है, मेरी समझ में व्यंग्य विसंगतियों का विरोध है ।
यह हम आप की ही जबाबदारी है कि अपने लेखन से हम समय रहते व्यंग्य की लडखडाहट से उसे उबार लें ।
सवाल – बहुरूपिए निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं। साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। पर व्यंग्यकार को बहुरूपिया कह दो तो वह मुंह फुला लेता है, क्या आप मानते हैं व्यंग्यकार बहुरूपिया होता है ?
— जयप्रकाश पांडेय
उत्तर …व्यंग्यकार व्यंग्यकार होता है, और बहुरूपिया बहुरूपिया । कामेडियन कामेडियन … अवश्य ही कुछ कामन फैक्टर हैं । व्यंग्यकार को बहुविध ज्ञानी होना पड़ता है, और कभी अभिव्यक्ति के लिए बहुरूपिया भी बनना पड़ सकता है।
प्रश्न : एक राम घट-घट में बोले की तर्ज पर विधा-विधा में व्यंग्य बोलता है। फिर भी इसको अलग श्रेणी की विधा मानने का विमर्श खड़ा करना क्या समुचित हैं ?
— भंवरलाल जाट
उत्तर … बिजली से ही टीवी , लाइट , फ्रिज , पम्प , सब चलते हैं, फिर भी बिजली तो बिजली होती है, उस पर अलग से भी बात होती है।
व्यंग्य हर विधा में प्रयुक्त हो सकता है , पर निखालिस व्यंग्य लेख का अपना महत्व है। उसे लिखने पढ़ने का मजा ही अलग है। इसी लिए यह विधा विमर्श बना रहने वाला है।
प्रश्न… विवेक जी, आप व्यंग्य के वैज्ञानिक हैं। तकनीकी व्यंग्य लेखन के कुछ पाॅइंट हमें भी सिखाईये।
साथ ही आपके व्यंग्य में शीर्षक हमेशा बड़े होते हैं। क्या शीर्षक भी प्रभाव डालते हैं ?
— सुषमा ‘राजनिधि’ इंदौर,
उत्तर … सुषमा जी यह आपका बड़प्पन है कि आप मुझे ऐसा समझती हैं। अब तो व्यंग्य लेखन की स्वतंत्र वर्कशाप आयोजित हो रही हैं, प्रेम सर का प्रयोग सफल हो। हम सब एक दूसरे को सुनकर , पढ़कर प्रेरित होते हैं। कभी मिल बैठ विस्तार से बातें करने के अवसर मिलेंगे तो अच्छा लगेगा ।
जहां तक शीर्षक का प्रश्न है, मेरा एक चर्चित आलेख है ” परसाई के लेखों के शीर्षक हमे शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं “
न तो शीर्षक बहुत बड़ा होना चाहिए और न ही एक शब्द का की भीतर क्या है समझ ही न आए । शीर्षक से लेख के कर्टन रेजर का काम भी लिया जाना उचित है।
बच्चो के नाम पहले रखे जाते हैं , फिर उनका व्यक्तित्व विकसित होता है , जबकि व्यंग्य लेख में हमें अवसर होता है कि हम विचार लिपिबद्ध कर ले फिर शीर्षक तय करें । मैं इसी छूट का लाभ उठाया करता हूं।
प्रश्न… कुछ व्यंग्यकार झूठों के सरताज, नौटंकीबाज, मक्कार और जहर उगलने वाले नेता की इन प्रवृत्तियों पर इसलिए प्रहार करने से परहेज करने की सलाह देते हैं कि वह जनता द्वारा चुना गया है। क्या ऐसे जनप्रतिनिधि को व्यंग्यकारों द्वारा बख्शा जाना चाहिए ?
ऐसी विसंगतियों के पुतले जनप्रतिनिधि का बचाव करने वाला लेखक क्या व्यंग्यकार कहलाने का हकदार है ?
— टीकाराम साहू ‘आजाद’
जवाब : आजाद जी , मेरा मानना है कि हमें पूरी जिम्मेदारी से ऐसे नेता जी पर जरूर लिखना चाहिए, व्यक्तिगत नाम लेकर लिखने की जगह उन प्रवृतियों पर कटाक्ष किए जाने चाहिए जिससे यदि वह नेता उस लेख को पढ़ सके तो कसमसा कर रह जाए ।
जनता द्वारा चुन लिए जाने मात्र से नेता व्यंग्यकार के जनहितकारी विवेक से ऊपर नहीं हो सकता।
सवाल… व्यंग्य का पाठक वर्ग कितना बड़ा है? क्या व्यंग्यकार ही इसे पढ़ते हैं या यह आम जनता तक भी पहुँचता है ?
कविता के लिए तो कवि सम्मेलनों में व्यापक पब्लिसिटी से जनता का आवाहन किया जाता है और वह जन-जन तक पहुँचती है लेकिन यह व्यवहार व्यंग्य में नहीं है। व्यंग्य की जब भी बैठक/गोष्ठियां, आयोजन/सम्मेलन होते हैं तो उसमें प्राय: व्यंग्य लेखक ही सम्मिलित होते हैं या एक दो अतिथि और मुख्य अतिथि। क्या यह स्थिति व्यंग्य के हित में है ?
क्या व्यंग्य, व्यंग्य लेखकों के बीच ही नहीं सिमट कर रह गया ?
— के.पी.सक्सेना ‘दूसरे’
जवाब… मेरा मानना है कि व्यंग्य का पाठक वर्ग विशाल है, तभी तो लगभग प्रत्येक अखबार संपादकीय के बाजू में व्यंग्य के स्तंभ को स्थान देता है।
यह और बात है की कई बार फीड बैक न मिलने से हमे लगता है कि व्यंग्य का दायरा सीमित है।
वरन गोष्ठियों के विषय में मुझे लगता है की लोग अपनी सुनाने में ज्यादा रुचि रखते हैं, शर्मा हुजूरी मित्रो की वाहवाही भी कर लेते हैं।
यदि छोटे व्यंग्य, किंचित नाटकीय तरीके से प्रस्तुत किए जाए तो उनके पब्लिक शो सहज व्यवहारिक हो सकते हैं। जो व्यंग्य के व्यापक हित में होगा । आजकल युवाओं में लोकप्रिय स्टेंडप कामेडी कुछ इसी तरह के थोड़े विकृत प्रयोग हैं ।
प्रश्न… आदरणीय विवेक जी
क्या गुरु को दक्षिणा स्वरुप अंगूठे की अभिलाषा रखनी चाहिए ? अंगूठा मांगना तो एक विकृति रही थी। क्या उसकी पुनरावृति होनी चाहिए ?
आप रचनात्मक और सृजनात्मक परिवार से हैं, किन्तु आपकी नौकरी बहुत सारी उन विसंगतियों से परिपूर्ण रही हैं जो व्यंग्य के विषय बन सकते हैंl ऐसे में सामंजस्य कैसे बना पाते थे ?
— परवेश जैन
उत्तर … परवेश जी गलत को किसी भी तरह की लीपा पोती से त्वरित कितना भी अच्छा बना दिया जाए समय के साथ वह गलत ही कहा और समझ आ जाता है ।
प्रचलित कथा के आचार्य द्रोण एकलव्य के संदर्भ में एक दूसरा एंगल भी दृष्टव्य और विचारणीय है । मेरी बात को इस तरह समझें कि यदि आज कोई विदेशी गुप्तचर भारतीय आण्विक अनुसंधान के गुर चोरी से सीखे तो उसके साथ क्या बरताव किए जाने चाहिए ??
एकलव्य हस्तिनापुर के शत्रु राज्य मगध के सेनापति का पुत्र था। अतः द्रोण की जिम्मेदारी उनकी धनुरविद्या को शत्रु से बचाने की भी मानी जानी चाहिए। इन स्थितियों में उन्होंने जो निर्णय लिया वह प्रासंगिक विशद विवेचना चाहता है । अस्तु ।
मैंने जीवन में हमेशा हर फाइल अलग रखी, घर, परिवार, आफिस, साहित्य … व्यंग्य लेखन में कार्यालयीन अनुभवों के साथ हर सुबह का अखबार नए नए विषय दे दिया करता था।
सवाल… व्यंग्य उपन्यास लिखना कठिन कार्य है, हरिशंकर परसाई जी के “रानी नागफनी” से लेकर डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के “नरक यात्रा” तक व्यंग्य उपन्यासों की लंबी सूची है लेकिन जब चर्चा होती है तो सुई “राग दरबारी” पर आकर क्यों अटक जाती है ?
— जय प्रकाश पाण्डेय
जवाब… शायद कुछ तो ऐसा भी होता ही है की जो सबसे पहले सर्वमान्य स्थापना अर्जित कर लेता है , वह लैंडमार्क बन जाता है। उसी से कम या ज्यादा का कंपेरिजन होता है।
रागदरबारी जन मूल्यों पर आधारित व्यंग्य लेखन है , सुस्थापित है । उससे बड़ी लाइन कोई बने तो राग दरबारी का महत्व कम नहीं होगा ।
सवाल… व्यंग्यकार व्यंग्य को भले ही व्यंग्य लिख लिख कर हिमालय पर बिठा दें लेकिन साहित्य जगत में उसको आज भी अछूत माना जाता है। एक किताब के विमोचन समारोह में अतिथि जिन्होंने विमोचन भी किया था तब उन्होने व्यंग्य के लिए कहा था कि व्यंग्य तो कीचड़ है आप क्यों उसमें पड़े हैं। साथ ही कहा था कि अच्छा है आप अन्य विधाओं में भी लिख रहे हैं तो उससे मुक्त हो जायेंगे ।
– अशोक व्यास
जवाब…एक विधा में पारंगत जरूरी नहीं की दूसरी हर विधा में भी पारंगत ही हो , और उसकी पूरी समझ रखता हो।
ऐसे में इस तरह के बयान आ जाना स्वाभाविक नही है।
प्रश्न…व्यंग्य विधा में भी प्रयोग की गुंजाइश है। प्रयोग से व्यंग्य रचना और ध्यान खींच सकती है। आपके क्या विचार हैं ?
इसके लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं ?
— अनिता रश्मि
उत्तर… खूब संभावना है। प्रयोग हो ही रहे हैं। डायरी व्यंग्य , पत्र लेखन व्यंग्य , कहानी, विज्ञान कथा व्यंग्य , संवाद व्यंग्य , आत्मकथा व्यंग्य , संस्मरण व्यंग्य , आदि ढेरो तरह से रची गई रचनाएं पढ़ी है मैने ।
प्रश्न… मजदूरों के कुछ आम नारे हैं। पहला – “दुनिया के मजदूरों एक हो।” मगर मजदूर एक न हुए।
दूसरा – “जो हमसे टकराएगा… चूर चूर हो जाएगा।” लेकिन मजदूरों से टकराने वाले अधिक पत्थर दिल हुए।
तीसरा – “हर जोर जुलुम की टक्कर में…हड़ताल हमारा नारा है।” किंतु जोर जुलुम बरक़रार है।
चौथा – “इंकलाब ज़िंदाबाद।” पर इंकलाब के तेवर अब, ढीले हैं।
फिर मजदूर दिवस का औचित्य क्या ?
— प्रभाशंकर उपाध्याय
जवाब… वामपंथ अब ढलान पर है । ये सारे नारे वामपंथ के चरम पर दिए गए थे। शहीद भगत सिंह अपने समय में इस विचारधारा से प्रभावित हुए। किंतु समय के साथ साम्यवाद असफल सिद्ध हो रहा है। संभवतः मजदूरों का शोषण जितना चीन में है , अन्यत्र नहीं।
यदि मजदूरों को उनके वाजिब हक मिल जाएं तो ये नारे स्वतः गौण हो जाएं।यूं मजदूरों के हक की लड़ाई के लिए बनाए नारे कभी खत्म नहीं होते,समय बदलता है पर दबे कुचले मजदूरों के हक हमेशा जिन्दा रहते हैं, ये इंसानियत को जिंदा रखने वाले होते हैं। यही प्रगति भी है शायद , एक हक मिलते ही दूसरे के लिए जागना नैसर्गिक प्रवृति है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेटस अपने अपने…“।)
अभी अभी # 355 ⇒ स्टेटस अपने अपने… श्री प्रदीप शर्मा
एक समय था, जब किसी से मिलते थे, तो पहले आपस में दुआ सलाम होती थी, राम राम होती थी, और फिर आमने सामने बात होती थी। जो दूर गांव बसे होते थे, उनसे चिट्ठी पत्री के माध्यम से ही हालचाल जाने जा सकते थे। तब कहां इतने अमीर गरीब थे, समय ही समय था, रिश्तों में हम कितने अमीर थे।
समय बदलता चला गया, हमारे लाखों के सावन में दो टकियाॅं की नौकरी ने आग लगा दी। नौकरी ने ओहदे दिए, दर्जा दिया, इंसान बड़ा छोटा, अमीर गरीब होने लगा। उसका भी अपना एक स्टेटस, दबदबा, कायम होने लगा।।
पहले रेडियो आया फिर टेलीफोन। जिस घर में रेडियो और टेलीफोन होता, वह बहुत बड़ा आदमी समझा जाता। लेकिन फ्रिज टीवी के आते ही इंसान फिर खास से आम हो गया। घर घर लूना, कार और स्कूटर और सबके हाथों में मोबाइल। पहले सम्पूर्ण क्रांति और तत्पश्चात् संचार क्रांति। और आदमी को स्मार्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगा।
2G स्कैम और कोलगेट कांड के बाबजूद, देश आखिर 3G, 4G और 5G तक पहुंच ही गया। कैशलेस, ऑनलाइन और डिजिटल होते होते वह आखिर व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम से जुड़ ही गया।
शिक्षा का स्तर कुछ भी हो, व्हाट्सप यूनिवर्सिटी ने कई की पीठ को ज्ञानपीठ बना दिया, और उधर फेसबुक तो मानो अपनी खुद की प्रिंटिंग प्रेस ही हो गई। शादी की विवाह पत्रिका खजूरी बाजार में नहीं, व्हाट्सएप और पीडीएफ पर ही छपने लगी।।
दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन मेरे जैसा कुंए का मेंढक पीसी, लैपटॉप और डेस्कटॉप से अनजान ही रहा। स्मार्ट फोन आज भी मेरे हाथ में, मानो बंदर के हाथ में उस्तरा ही है। रोजी रोटी की चिंता से दूर मेरे जैसा पेंशनर सिर्फ व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही अपना जीवन गुजार रहा है। स्मार्ट फोन की सांकेतिक भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती। बच्चे मेरे मार्गदर्शक और गाइड हैं, फिर भी स्मार्ट फोन के बाकी एप्स यानी बंदर मेरे किसी काम के नहीं। करत करत अभ्यास के इतना ही पढ़ पाया कि ape बंदर को नहीं एप्लीकेशन को कहते हैं।
व्हाट्सएप का ही एक अंग है स्टेटस, जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ था। अभी तक नेकी कर, व्हाट्सएप पर डाल, लेकिन आजकल लोग पार्टी करते हैं और स्टेटस पर डाल देते हैं। जब मैंने दूध वाले, ऑटो वाले, मंदिर वाले पंडित जी और काम वाली बाई को भी स्टेटस पर देखा, तो मुझमें हीनता की भावना जाग्रत हो गई। बगल में छोरा जैसा व्हाट्सएप के बगल में स्टेटस और मुझे पता ही नहीं। हाय मैं मर जाऊं।।
इस उम्र में हीनता से ग्रस्त होना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। मैंने आज से ही स्टेटस की कोचिंग लेना शुरु कर दी है। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। मेरा स्टेटस अभी तक इतना गिरा हुआ था, और मुझे पता ही नहीं था। होगा ignorance is bliss, मैं इस कलंक को अपने माथे से मिटाकर ही रहूंगा। आखिर मेरा भी कुछ स्टेटस है।
अक्सर मैं महिला/पुरुषों को स्टेटस पर टहलते देखा करता हूं, अब मुझे भी अदरक का स्वाद लग चुका है। सुबह सुबह गर्मागर्म चाय के साथ अब स्टेटस का भी जायका लिया जाएगा। हो सकता है, आपसे भी शीघ्र ही स्टेटस पर मुलाकात हो। दिल थामकर बैठिए, अब हमारी बारी है। शांतता, कोचिंग जारी है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अंतर्मन का भाषण।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 4 – अंतर्मन का भाषण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
एक मंत्री जी अपने जीवन की अंतिम साँसें गिन रहे थे। उनके पास अधिक समय नहीं था। सो उन्होंने अपने लड़के को पास बुलाया और कहा – “मुझे नहीं पता कि मैं और कितनी देर जी पाऊँगा। मैं चंद पलों का मेहमान हूँ। तुमने मेरे कई भाषण सुने हैं। ये सभी बाहरी भाषण हैं। इन्हें हर कोई सुन सकता है। लेकिन मैं तुम्हें आज एक भाषण सुनाऊँगा जो तुम्हें बाहर नहीं अपने अंतर्मन में हमेशा दोहराना होगा। यदि तुम इस भाषण का गूढ़ार्थ समझ गए तो तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं खटकेगी। सफलता तुम्हारे क़दम चूमेगी। तो ध्यान से सुनो–
भाइयो और बहनो! मैं सबको हाथ जोड़कर सिर झुकाए प्रणाम करता हूँ। आपको पता है कि मेरे पिता ने किस तरह विश्वास दिलाकर, वोट हथियाकर, विधायक बने, फिर मंत्री बनकर करोड़ो रुपए डकार गए। आपको भनक तक नहीं लगने दी। दूधमुँहे बच्चों के दूध से लेकर पूँजीपतियों को ज़मीन मंजूर करने तक की हर स्कीम में एक से बढ़कर एक स्कैम किए, इन स्कैमों के चलते जो नाम कमाया है, वह किसी से छिपा नहीं है। उनका नाम टाइप करने भर से गूगल का सर्च इंजन काँपने लगता है। धरती फटने लगती है। उसी फटी धरती में खुद धरती माँ समाने के लिए मचलने लगती है। सरकार ने मेरे पिता को एक सौ करोड़ रुपए देकर गरीबों के लिए घर बनाने को कहा तो उन्होंने आपको झुग्गी-झोपड़ियाँ बनाकर दी। अब आप पूछेंगे कि वे सौ करोड़ रुपए कहाँ गए, तो मैं उसका पूरा हिसाब लेकर आया हूँ। तो सुनिए, पचास करोड़ में हमारे लिए दिल्ली में सभी ऐशो-आराम वाला गेस्ट हाऊस बनवाया। शेष बचे रुपयों से अपनी रखैल के लिए शॉपिंग मॉल बनवाया। आप लोगों से आऊटर रिंग रोड के नाम पर खेती करने वाली ज़मीनें छीनकर प्राइवेट कंपनियों के मालिकों को बेच डाला। इतना सब करने के बावजूद किसी ने मेरे पिता को भ्रष्टाचारी कहने की हिम्मत नहीं की। न जाने कितनी हत्याएँ कीं, बलात्कार किए, ज़मीन हड़पी लेकिन किसी ने चूँ तक नहीं की। बल्कि उनके लिए आप विरोधियों से लड़ गए। चुनाव के समय एक दारू की बोतल, बिरयानी पैकट और एक हरी पत्ती फेंकने पर कुत्तों से भी अधिक दुम हिलाकर विश्वास दिखाने वाली आपकी कला पर हमें गर्व है।
मेरे देशवासियों चिंता मत कीजिए। पिता जी नहीं रहे तो क्या हुआ, मैं तो हूँ न। मेरे पिता द्वारा स्थापित कीर्तिमान को साक्षी मानते हुए मैं आपसे प्रण करता हूँ कि अंतरिक्ष में जितने तारे हैं, मैं उनसे भी ज्यादा स्कैम करूँगा। मैं अपने पिता को किसी भी सूरत में निराश नहीं होने दूँगा। उन्होंने आपके लिए कम से कम झुग्गी-झोपड़ियाँ तो बनवाईं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी झुग्गी-झोपड़ियाँ नेस्तनाबूद करके आप सभी को मंदिरों की चौखट पर भीख माँगने के लिए मजबूर कर दूँगा। मेरे पिता जी ने आऊटर रिंग रोड के नाम पर आपकी आधी ज़मीनें छीन लीं। मैं उन्हीं का बेटा हूँ। मुझमें उन्हीं का असली खून दौड़ता है। मैं बिना हड़पे कैसे रह पाऊँगा। मैं एयरपोर्ट के नाम पे झूठा वादा करके बाकी बची ज़मीनें भी छीन लूँगा।
सोचिए देशवासियों मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ। इसलिए कि मैंने आप जैसी मूरख जनता कहीं नहीं देखी है। मेरे पिता ने लाख स्कैम किए, बलात्कार किए, हत्याएँ कीं, फिर भी आप उन्हें जिताते रहे। जब तक आप जैसे भेड़ हैं तब तक मुझ जैसे लकड़बग्घों का चुनाव में खड़ा होना ज़रूरी है। मुझे और मेरे परिवार को पता चल गया है कि आपमें शर्म-हया नाम की चीज़ नहीं बची है। मैं आपके खून-पसीने की कमाई से विदेश में महंगी पढ़ाई के साथ-साथ मौज मस्ती करता रहा और आप थे कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए भी तरस गए। मेरे पिता अक्सर कहा करते थे कि मूरख जनता को मूरख न बनाना हमारी मूरखता होगी। उन्होंने कहा था कि नेता के पेट से नेता और गरीब के पेट से गरीब ही पैदा होता है। विधायक से मंत्री बनना मेरे पिता का खानदानी बिजनेस है। मैं उसी बिजनेस की परंपरा निभा रहा हूँ। इस बार मैं चुनाव में खड़ा हूँ। विश्वास है कि बगैर बुद्धिमानी दिखाए अपनी मूरखता से मुझे अवश्य विजयी बनाओगे। मूरखता दिखाना आपकी खानदानी आदत है तो उसे भुनाना हमारी। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह परंपरा यहाँ नहीं रुकेगी। आज मैं जीतूँगा तो कल मेरा बेटा जीतेगा। आज मैं विधायक बनूँगा तो कल मेरा बेटा विधायक बनेगा। आज मैं मंत्री बनूँगा तो कल मेरा बेटा मंत्री बनेगा। और आप पहले भी भेड़ थे, आज भी भेड़ हैं और आगे भी भेड़ रहेंगे।”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 169 ☆
☆ आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।
जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।
दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।
मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।
साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।
निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।
जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।
मेरा मानना है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।
अंत में मेरा मानना है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।
यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:
टोनी मॉरिसन ने 1993 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने “बिलव्ड” और “द ब्लूस्ट आई” सहित कई उपन्यास लिखे।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने 1954 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें “द ओल्ड मैन एंड द सी” और “फॉर व्हॉम द बेल टोल्स” शामिल हैं।
जेके राउलिंग ने हैरी पॉटर श्रृंखला लिखी, जो अब तक की सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक श्रृंखला में से एक है। उन्होंने श्रृंखला की पहली पुस्तक एक समय सीमा के दबाव में लिखी, और उन्होंने श्रृंखला में सात और पुस्तकें लिखीं।
ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। मेरा मानना है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।
मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।