हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना शहर में झूठ का पता।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆व

आए दिन हर कोई घर-जमीन गांव सब छोड़-छाड़ कर या बेच-बांचकर शहर की ओर कदम बढ़ाता है। पता नहीं शहर में ऐसा कौन सा चुंबक होता है जो लोहे के बदले इंसान को अपनी ओर खींचता है। शहर की चमचमाती सड़कों को देख चमचमाने का कीड़ा बड़ा उछल-कूद करता है। छोटे-छोटे गांवों में शहरी लालच की बड़ी अट्टालिका का निर्माण बिना ईट, सीमेंट, रेत और पानी के हो जाता है। वह क्या है न कि सच्चाई का डाकिया शहर में झूठ का पता कभी नहीं ढूँढ़ सकता। फिर एक दिन इसके-उसके मुँह हमें एक ही बात सुनने को मिलती है- डाकिया ही चल बसा शहर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते। सच कहें तो शहर कुछ लोगों को शह देता है तो कुछ लोगों को हर लेता है।

हमारे गांव में फलां पिछड़ा बाबू रहा करते थे। आजकल शहर में विकास बाबू बनकर हमारे बीच धाक जमा रहे हैं। उन्हीं का नाम ले लेकर गांव में कइयों का जीना हराम हो गया है। मैंने निर्णय किया कि विकास बाबू के यहां जाकर दो-चार दिन ठहरूँगा और अपनी योग्य कोई नौकरी तलाश करूँगा। किंतु जैसे ही मैं शहर पहुंचा वहां विकास बाबू को देखकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। गांव में खुद को सॉफ्टवेयर कंपनी का कर्मचारी बताने वाले विकास बाबू के कर्म और आचार में बड़ा अंतर दिखाई दिया। वे सॉफ्टवेयर कंपनी में नहीं किसी अपार्टमेंट के वॉचमैन की नौकरी करते थे। पूछने पर बताया कि गांव में खुद की जमीन जायदाद होने के बावजूद वह सम्मान नहीं मिल पा रहा था जो सम्मान शहर में आकर झूठ बोलकर मिल रहा है। आज मेरी झूठमूठ की सॉफ्टवेयर की नौकरी से सचमुच की खूबसूरत अप्सरा जैसी पत्नी, लाखों का दहेज, चार चक्का गाड़ी और ऊपर से इज्जत अलग मिल रही है।

मैंने पूछा कि क्या तुम्हें झूठ के पर्दाफाश होने का डर नहीं है? इस पर उन्होंने किसी दार्शनिक की तरह जवाब दिया – कैसा झूठ? कहां का झूठ? यहाँ हर कोई झूठ में जी रहा है। गांव की सच्चाई छोड़ लोग शहर के झूठ की ओर दौड़ रहे हैं। शहर में रहने वाले अपनी सच्चाई छोड़कर महानगरों की झूठी चकाचौंध के पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं। महानगर में रहने वाले अमेरिका, इंग्लैंड की झूठी दुनिया में जाना चाहते हैं। और वहां रहने वाले चंद्रमा की झूठी दुनिया में घूमना चाहते हैं। यह दुनिया बड़ी अजीब है। सच को लतियाती और झूठ को पुचकारती है। सच्ची दुनिया में झूठे लोग रह सकते हैं लेकिन झूठी दुनिया में सच्चे लोग कतई नहीं रह सकते। यह दुनिया झूठ बोलने वालों को सिर पर और सच बोलने वालों को पैरों तले रखती है। वॉचमैन की नौकरी करने वाले विकास बाबू सच में सॉफ्टवेयर कर्मचारी थे। उन्होंने दुनिया की सच्चाई को बड़े ही सॉफ्ट ढंग से मेरे बदन के हार्डवेयर में उतार दिया था।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 284 ☆ आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 284 ☆

? आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ?

व्यंग्य व्यंजनात्मक भाषा का प्रयोग करता है. व्यंग्य में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका सीधा अर्थ नहीं होता. वह कुछ अन्य बात व्यंजित कर लक्ष्य भेदन करता है. समझदार के लिये इशारा पर्याप्त होता है. प्रायः कूटनीति में कानून के दायरे में रहते हुये भी इसी प्रकार प्रहार किये जाते हैं. विदेश मंत्रालय की विज्ञप्तियां इसी प्रकार से रची जाती हैं। व्यंग्य के अंदाज ए बयां में भी प्रत्यक्षतः तो मान मर्यादा की दृष्टि से एक परदा बनाये रखा जाता है किन्तु संदर्भो के आधार पर, मिथको का सहारा लेकर, व्यंजना में बहुत कुछ कह दिया जाता है.

कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम बात कह डालती है जिसमें पाठक के सम्मुख एक कल्पना लोक रचा जाता है. कहानी शब्द चित्र गढ़ती है. निबंध या ललित लेख अमिधा में अपना कथ्य कहते हैं. संस्मरण जिये हुये दृश्यों को रोचक शब्दों में पुनर्प्रस्तुत करते हैं. किन्तु व्यंग्य सामर्थ्य सर्वथा भिन्न होता है. व्यंग्य बिना कहे भी सब कह देता है. इसलिये निश्चित ही व्यंग्य की भाषा और अभिव्यक्ति शैली अन्य विधाओं से अलग होती ही है. अपनी बात पाठक को रोचक तरीके से समझाने के लिये  विषय के अनुरूप फ्रेम पर कथानक गढ़कर उसके गूढ़ार्थ पाठक तक पहुंचाने पर काम करना होता है. व्यंग्य लेखन एक कौशल है, जो शनैः शनैः विकसित होता है. इसके लिये रचनाकार को सामयिक संदर्भों से तादात्म्य बनाये रखना होता है. लेखक का अध्ययन उसे व्यंग्य लिखने में परिपक्वता प्रदान करता है. व्यंग्य लेखन में सीधा नाम लेकर प्रहार अशिष्ट माना जाता है. इसलिये अर्जुन की तरह प्रतिबिंब के सहारे सही निशाने पर लक्ष्य कर तीर चलाने की भाषाई सामर्थ्य व्यंग्य लेखन की बुनियादी मांग होती है. मानहानि के कानूनी दांव पेंचों के साथ ही लोगों की भावना आहत होने के खतरो से बचते हुये लेखन शैली व्यंग्य की विशेषता है .

अंदाजे बयां ऐसा हो कि बयान को नोटिस में लिया जाए ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 369 ⇒ ककहरा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ककहरा।)

?अभी अभी # 369 ⇒ ककहरा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क) कभी कुछ किया

ख) खुद खिलाफ खड़े

ग) गाँधी गाय गायक गाँधी

घ) घड़ी घर घटना घंटे घोषित

च) चलो चाय चाहिए

छ) छाप छोड़ी छाछ

ज) जितना जिसने जिसका जिन्हें

झ) झूठ झील झोला

ट) टीवी ट्वीट टेस्ट टी

ठ) ठीक ठोस ठाकुर

ड) डर डिफेंड डुप्लीकेट डुबकी

ढ) ढंग ढेर ढूँढता ढाई

त) ताऊ तारीफ़ ताली

थ) थाना थोड़ा थंक्स थाली

द).दिल दिया दिन देश

ध) धर्म ध्यान धन धन्यवाद

न) नज़र नमस्कार नारायण

प) पहले पानी प्यार

फ) फिर फोन फैसला फाड़

ब) बधाई बहुत बार

भ) भक्त भले भाव

म) मोदीजी मुझे मिले मुकेश

य) यह यात्रा यादगार

र)राजनीति रीत रुचिकर रुपया

ल) लोग लेकिन लायक लोकतंत्र

व) वही वाकई वास्तविक

श) शुक्रिया शुभचिन्तकों

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 205 ☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 205 ☆

☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सत्य राह पर चलकर बच्चो

जग में नाम कमाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 

मन में दृढ़ विश्वास जगाकर

मुड़कर कभी न देखो तुम।

सहज , सरलता हैं आभूषण

कर्तव्यों को परखो तुम।

भटक न जाना अपने पथ से

आगे बढ़ते जाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

कर्मनिष्ठ ही भाग्य बदलते

खुद की वे तकदीर बनें।

सदा देशहित जो जन जीएं

वे ही वीर नजीर बनें।।

 *

सदा साहसी विजयी होता

साधो तीर चलाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

सदा समय का मूल्य समझना

पल – पल का उपयोग करें।

सौरभ में गौरव भर जाए

तन – मन हित ही योग करें।।

 *

सदा गलतियाँ निरखें – परखें

फूलों – सा खिल जाओ जी।।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

स्वप्न हवा में कभी न पालो

मिले सफलता खुद श्रम से।

हैं विज्ञान – ज्ञान ही पूँजी

सदा बचो संशय , भ्रम से।

 *

आलस और दिखावा छोड़ो

हँसो – हँसाओ गाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #171 – बाल कथा – घमंडी सियार… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा “घमंडी सियार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 171 ☆

☆ बाल कथा -घमंडी सियार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

उस ने अपने से तेज़ दौड़ने वाला जानवर नहीं देखा था. चूँकि वह घने वन में रहता था. जहाँ सियार से बड़ा कोई जानवर नहीं रहता था. इस वजह से सेमलू समझता था कि वह सब से तेज़ धावक है.

एक बार की बात है. गब्बरू घोड़ा रास्ता भटक कर काननवन के इस घने जंगल में आ गया. वह तालाब किनारे बैठ कर आराम कर रहा था. सेमलू की निगाहें उस पर पड़ गई. उस ने इस तरह का जानवर पहली बार जंगल में देखा था. वह उस के पास पहुंचा.

“नमस्कार भाई!”

“नमस्कार!” आराम करते हुए गब्बरू ने कहा, “आप यहीं रहते हो?”

“हाँ जी,” सेमलू ने जवाब दिया, “मैं ने आप को पहचाना नहीं?”

“जी. मुझे गब्बरू कहते हैं,” उस ने जवाब दिया, “मैं घोड़ा प्रजाति का जानवर हूँ,” गब्बरू ने सेमलू की जिज्ञासा को ताड़ लिया था. वह समझ गया था कि इस जंगल में घोड़े नहीं रहते हैं. इसलिए सेमलू उस के बारे में जानना चाहता है.

“यहाँ कैसे आए हो?”

“मैं रास्ता भटक गया हूँ,” गब्बरू बोला.

यह सुन कर सेमलू ने सोचा कि गब्बरू जैसा मोताताज़ा जानवर चलफिर पाता भी होगा या नहीं? इसलिए उस नस अपनी तेज चाल बताते हुए पूछा, “क्या तुम दौड़भाग भी लेते हो?”

“क्यों भाई , यह क्यों पूछ रहे हो?”

“ऐसे ही,” सेमलू अपनी तेज चाल के घमंड में चूर हो कर बोला, “आप का डीलडोल देख कर नहीं लगता है कि आप को दौड़ना आता भी होगा?”

यह सुन कर गब्बरू समझ गया कि सेमलू को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया है इसलिए उस ने जवाब दिया, “भाई!  मुझे तो एक ही चाल आती है. सरपट दौड़ना.”

यह सुन कर सेमलू हंसा, “दौड़ना! और तुम को. आता भी है या नहीं? या यूँ ही फेंक रहे हो?”

गब्बरू कुछ नहीं बोला. सेमलू को लगा कि गब्बरू को दौड़ना नहीं आता है. इसलिए वह घमंड में सर उठा कर बोला, “चलो! दौड़ हो जाए. देख ले कि तुम दौड़ सकते हो कि नहीं?”

“हाँ. मगर, मेरी एक शर्त है,” गब्बरू को जंगल से बाहर निकलना था. इसलिए उस ने शर्त रखी, “हम जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ेंगे.”

“मुझे मंजूर है,” सेमलू ने उद्दंडता से कहा, “चलो! मेरे पीछे आ जाओ,” कहते हुए वह तेज़ी से दौड़ा.

आगेआगे सेमलू दौड़ रहा था पीछेपीछे गब्बरू.

सेमलू पहले सीधा भागा. गब्बरू उस के पीछेपीछे हो लिया. फिर वह तेजी से एक पेड़ के पीछे से घुमा. सीधा हो गया. गब्बरू भी घूम गया. सेमलू फिर सीधा हो कर तिरछा भागा. गब्बरू ने भी वैसा ही किया. अब सेमलू जोर से उछला. गब्बरू सीधा चलता रहा.

“कुछ इस तरह कुलाँचे मारो,” कहते हुए सेमलू उछला. मगर, गब्बरू को कुलाचे मारना नहीं आता था. ओग केवल सेमलू के पीछे सीधा दौड़ता रहा.

“मेरे भाई, मुझे तो एक ही दौड़ आती है. सरपट दौड़,” गब्बरू ने पीछे दौड़ते  हुए कहा तो सेमलू घमंड से इतराते हुए बोला, “यह मेरी लम्बी छलांग देखो. मैं ऐसी कई दौड़ जानता हूँ.” खाते हुए सेमलू ने तेजी से दौड़ लगाईं.

गब्बरू पीछेपीछे सीधा दौड़ता रहा. सेमलू को लगा कि गब्बरू थक गया होगा, “क्या हुआ गब्बरू भाई? थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं भाई, दौड़ते चलो.”

सेमलू फिर दम लगा कर दौड़ा. मगर, वह थक रहा था. उस ने गब्बरू से दोबारा पूछा, “गब्बरू भाई! थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं. सेमलू भाई. दौड़ते चलो.” गब्बरू अपनी मस्ती में दौड़े चले आ रहा था.

सेमलू दौड़तेदौड़ते थक गया था. उसे चक्कर आने लगे थे. मगर, घमंड के कारण, वह अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता था. इसलिए दम साधे दौड़ता रहा. मगर, वह कब तक दौड़ता. चक्कर खा कर गिर पड़ा.

“अरे भाई! यह कौनसी दौड़ हैं?” गब्बरू ने रुकते हुए पूछा.

सेमलू की जान पर बन आई थी. वह घबरा गया था. चिढ कर बोला, “यहाँ मेरी जान निकल रही है. तुम पूछ रहे हो कि यह कौनसी चाल है?” वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया था.

“नहीं भाई, तुम कह रहे थे कि मुझे कई तरह की दौड़ आती है. इसलिए मैं समझा कि यह भी कोई दौड़ होगी,” मगर सेमलू कुछ नहीं बोला. उस की सांसे जम कर चल रही थी. होंठ सुख रहे थे. जम कर प्यास लग रही थी.

“भाई! मेरा प्यास से दम निकल रहा है,” सेमलू ने घबरा कर गब्बरू से विनती की, “मुझे पानी पिला दो. या फिर इस जंगल से बाहर के तालाब पर पहुंचा दो. यहाँ रहूँगा तो मर जाऊंगा. मैं हार गया और तुम जीत गए.”

गब्बरू को जंगल से बाहर जाना था. इसलिए उस ने सेमलू को उठा के अपनी पीठ पर बैठा लिया. फिर उस के बताए रास्ते पर सरपट दौड़ाने लगा, कुछ ही देर में वे जंगल के बाहर आ गए.

सेमलू गब्बरू की चाल देख चुका था. वह समझ गया कि गब्बरू लम्बी रेस का घोडा है. यह बहुत तेज व लम्बा दौड़ता है. इस कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि उसे अपनी चाल पर घमंड नहीं करना चाहिए. चाल तो वही काम आती है जो दूसरे के भले के लिए चली जाए. इस मायने में गब्बरू की चाल सब से बढ़िया चाल है.

यदि आज गब्बरू ने उसे पीठ पर बैठा कर तेजी से दौड़ते हुए तालाब तक नहीं पहुँचाया होता तो वह कब का प्यास से मर गया होता. इसलिए तब से सेमलू ने अपनी तेज चाल पर घमंड करना छोड़ दिया. 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ – २९ मई २०२४ को अहिल्यानगर (अहमदनगर) में राष्ट्रीय हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन – ☆ संयोजिका – डॉ ऋचा शर्मा ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

संयोजिका – डॉ. ऋचा शर्मा

🌹– २९ मई २०२४ को अहिल्यानगर (अहमदनगर) में राष्ट्रीय हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन –🌹

अहिल्यानगर – साहित्य समाज का दर्पण होता है। हिंदी साहित्य में लघुकथाओं के द्वारा समाज से जुड़े अनेक प्रश्न उपस्थित किए जाते हैं तथा पाठक उन पर चिंतन प्रारंभ कर देता है। साहित्य समाज को संस्कारित भी करता जाता है।

अहमदनगर में लघुकथाकारों को मंच प्रदान कराने हेतु २९ मई २०२४ के दिन, स्नेहालय पुनर्वसन संकुल, एम आय डी सी में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है,  यह जानकारी संयोजक डॉ गिरीश कुलकर्णी तथा डॉ ऋचा शर्मा द्वारा प्राप्त हुई।

स्नेहालय, डॉ शंकर केशव आडकर चैरिटेबल ट्रस्ट, आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति, हिंदी सृजन सभा तथा लघुकथा शोध केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में  ‘लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और संभावनाएं’  विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। इसमें पूरे देश से लघुकथाकार, हिंदी भाषा तथा साहित्यप्रेमी शामिल हो रहे हैं।

दिनांक २९ मई को  सुबह ९ बजे से शाम ५ बजे तक सम्पन्न होनेवाली संगोष्ठी में दिल्ली के वरिष्ठ लघुकथाकार  डॉ बलराज अग्रवाल, पुणे के डॉ दामोदर खडसे, हरियाणा करनाल के डॉ अशोक भाटिया, नागपुर के डॉ मिथिलेश अवस्थी, लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल मध्यप्रदेश की निदेशक श्रीमती कांता रॉय,  पुणे की श्रीमती नरेंद्र कौर छाबड़ा, आदि मान्यवरों का मार्गदर्शन प्राप्त होगा ।

दोपहर के सत्र में ‘लघुकथाकार तथा पाठक’ चर्चा – सत्र सम्पन्न होगा। आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति अहमदनगर  की ओर से देशव्यापी लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित की गई है। पुरस्कार प्राप्त  लघुकथाकारों  को पुरस्कृत तथा सम्मानित किया जाएगा ।

इस सम्मेलन में सभी साहित्यप्रेमियों का स्वागत है। यह पूर्णत: नि:शुल्क है। इस कार्यक्रम की संयोजिका डॉ ऋचा शर्मा ने राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन में अधिक से अधिक संख्या में सहभागी होने का आवाहन किया  है। अधिक जानकारी के लिए ८९९९०३९८८२ नंबर पर संपर्क करें।

संयोजिका –  डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001, e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

संयोजक – लघुकथा शोध केंद्र ,अहमदनगर तथा हिंदी सृजन सभा, अहमदनगर

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री नीला देवल – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री नीला देवल

💐 हार्दिक  अ भि नं द न 💐

आपल्या समुहातील ज्येष्ठ लेखिका सुश्री नीला देवल यांच्या ‘अग्निशिखा’ या कादंबरीस सुचेतस् आर्टस् या संस्थेचा कै.सर्जेराव माने स्मृती कादंबरी पुरस्कार प्राप्त झाला आहे.  ई अभिव्यक्ती परिवाराकडून  त्यांचे मनःपूर्वक  अभिनंदन  आणि पुढील वाटचालीसाठी  हार्दिक शुभेच्छा !

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कवितेला…. ☆ डॉ. माधुरी जोशी ☆

डॉ. माधुरी जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

कवितेला…. 🖋️✍️अ ते ज्ञ🎼 डॉ. माधुरी जोशी 

कुठे मनात शब्द साठतात

सहज सुंदर सजत राहतात

हातात हात घालून ओळ करतात

आणि पेनातून झर झर झरतात

कधीतरी काहीतरी वाचलेलं

कधीतरी काहीतरी अनुभवलेलं

अचानक उसळी मारत वर येतं

आणि मनात रिंगण धरतं

कसे शब्द ओळीनं चपखल बसतात

आपली आपली जागा ठरवतात

त्यांना आपसूक कळतात वृत्त,छंद

माझ्या नकळत सुंदर व्यक्त होतात

मी काहीच ठरवलेलं नसतं

मी खूप काही अभ्यासलेलंही नसतं

तरी शब्द कुठूनअचानक सामोरे येतात

सुंदर कवितेची वस्त्र पांघरतात

वाचणारे म्हणतात

तुम्ही छान कविता करता

देवाला हात आपोआप जोडले जातात

 

© डॉ.माधुरी जोशी

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “साक्षात्कार… —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “साक्षात्कार…—” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

मनी झरे का अवचित झरझर

अवखळ श्रावणसर

अलगद कानी गुणगुणती अन्

बासरीचे सूर मधुर ….

 

निळे सावळे भासे का नभ

प्रसन्न जरी दिनकर

निरभ्र असुनी भवती सारे

मनी दाटे हुरहूर ….

 

जग सारे हे तसेच येथे

मनाची परि भिरभिर

शोधू लागले कोठून आली

नकळत श्रावणसर ….

       

मग क्षणात चमके इंद्रधनू अन्

सूर्य हसे हळुवार

लख्ख दिसे मज मनी दडलेला

कृष्णसखा सुकुमार ….

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ९ ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र- निघताना बाबांनी त्यांचे आशिर्वाद म्हणून दिलेला तो छोटासा कागदी फोटो म्हणजे पिवळ्या धमक रंगाचं जरी काठी सोवळं नेसलेलं, हसतमुख, प्रसन्न मुद्रा असलेलं दत्तरूप होतं. आज इतक्यावर्षांनंतरही तो फोटो मी माझ्याजवळ जपून ठेवलाय. आजही त्याचं दर्शन घेतो तेव्हा ‘तो’ माझ्याजवळ असतोच आणि त्याच दत्तरुपाशी निगडित असणारी माझ्या बाबांची त्या क्षणीची ही आठवणसुद्धा!)

आईबाबांचा निरोप घेऊन मी निघण्यासाठी वळलो. बाहेर पडलो. आई मला निरोप द्यायला दारापर्यंत आली…

“जपून जा. गेल्यावर पोचल्याचं पत्र टाक लगेच. सांभाळ स्वत:ला…” तिचा आवाज भरून आला तशी ती बोलायची थांबली. मी कसंबसं ‘हो’ म्हंटलं.. आणि चालू लागलो. आता क्षणभर जरी रेंगाळलो तरी हे मायेचे पाश तोडून जाणं कठीण जाईल याची मला कल्पना होती.

माझा लहान भाऊ शाळेत गेलेला होता. मोठा भाऊ बँकेत मॅनेजरना सांगून मला बसमधे बसवून द्यायला आला होता.

“कांही अडचण आली, तर माझ्या ब्रँचच्या नंबरवर मला लगेच फोन कर” तो मनापासून म्हणाला. एरवी अतिशय मोजकंच बोलणारा तो. पण त्याचं  प्रेम आणि आधार मला त्याच्या कृतीतून जाणवायचा. आम्हा दोघात सव्वा दोन वर्षांचं अंतर. त्यामुळे माझ्या अजाण वयात माझ्याशी माझ्या कलानं खेळणारा माझा हक्काचा जोडीदार तोच. तो पहिलीत गेला तेव्हा हट्ट करून मीही त्याच्या मागे जाऊन वर्गात बसलो होतो.आई रोज त्याचा अभ्यास घ्यायची, तेव्हा त्याच्याबरोबर मीही अभ्यासाला बसायचो. पहिली आणि दुसरी अशी दोन वर्ष मी त्याच्याजवळ रोज वर्गात जाऊन बसत दोन इयत्ता एकदम करुन त्याच्याबरोबर थेट तिसरीतच प्रवेश घेतला होता. पूर्वी हे सगळे अधिकार मुख्याध्यापकांकडे असल्याने माझी वेगळी परीक्षा घेऊन मला थेट तिसरीत प्रवेश मिळाला होता. पुढे पूर्वीच्या एसएससी म्हणजे ११ वी पर्यंत आम्ही दोघेही एकाच वर्गात एकाच बाकावर बसून शिकलो. त्यामुळे आम्ही दोघे सख्खे भाऊ वर्गमित्रही. परिस्थितीवशात हेच त्याच्यावर खूप मोठा अन्याय करणारं ठरलं होतं. तो माझ्यापेक्षा खूप हुशार असूनही माझे नोकरीचे वय नसल्याने मी पुढे शिकू शकलो आणि तो मात्र आम्हा सर्वांसाठी शिक्षण तिथंच थांबवून मिळेल ती नोकरी करीत भटकंती करत राहिला. त्याची सुरुवातीची अशी कांही वर्षें संघर्ष आणि तडजोडीत गेल्यानंतर एस् एस् सी मधल्या चांगल्या मार्कांमुळे त्याला नुकताच स्टेट बँकेत जॉब मिळाला होता. तरीही आम्हा सर्वांच्या जबाबदारीमुळे त्याचा त्यावेळचा सुरुवातीचा सगळा पगार घरखर्चासाठीच संपून जायचा. तरीही त्या वयातल्या स्वतःच्या हौसामौजा बाजूला ठेवून तो हे मनापासून करीत राहिला. मला आठवतंय, पगार झाला की तो स्वतःसाठी अगदी मोजके पैसे ठेवून बाकी सगळे आईकडे घरखर्चासाठी द्यायचा. मी इस्लामपूरला रहायला गेल्यानंतरच्या त्याच्या पगाराच्या दिवशी त्याने मला बाजूला बोलवून घेतले आणि स्वतःसाठी ठेवून घेतलेल्या दहा रुपयातले पाच रुपये माझ्या हातावर ठेवले.

“हे काय? मला कशाला? नको” मी म्हणालो.

“असू देत”

“पण का?.. कशासाठी? मला लागलेच तर मी घेईन ना आईकडून. आणि तसेही मी इथे असताना मला कशाला लागणारायत?”

त्याला काय बोलावं सूचेना. त्यानं मला आधार दिल्यासारखं थोपटलं. म्हणाला,

“नाही लागले, तर नको खर्च करूस. तुझे हक्काचे म्हणून वेगळे ठेव. कधीतरी उपयोगी पडतील.”

खरंतर म्हणूनच माझं मुंबईला जायचं ठरलं तेव्हा माझ्या भाडेखर्चाची जुळणी करायचा विषय निघाला तेव्हा त्यानेच दर महिन्याला मला दिलेले ते पैसे खर्च न करता मी साठवलेले होते, ते त्याला दाखवले.

“हे पुरेसे आहेत अरे.वेगळी तजवीज कशाला?”मी म्हंटलं.तो अविश्वासाने बघत राहिला होता..!

त्याचेच पैसे बरोबर घेऊन मी आज मुंबईला निघालो होतो.

त्याचा हात निरोपासाठी हातात घेतला, तेव्हा हे सगळं आठवलं न्  माझे डोळे भरून आले.

रात्रभरच्या संपूर्ण बस प्रवासात मी टक्क जागा होतो. न कळत्या वयापासूनच्या या अशा सगळ्या आठवणी मनात गर्दी करत होत्या. रात्र सरेल तसा मनातला हा अंधारही दूर होईल असं वाटलं.’सगळं सुरळीत होईल. काळजी करू नको ‘ घर सोडतानाचे बाबांचे हे शब्द आठवले आणि मनातलं मळभ हळूहळू दूर झालं.

मुंबई मी पूर्वी कधी पाहिलेलीही नव्हती. माझं असं ध्यानीमनी नसताना मु़बईला येणं  माझ्या आयुष्यातल्या निर्णायक वळणावर मला घेऊन जाणाराय याची त्याक्षणी मला कल्पना कुठून असायला?पण यानंतर घडणाऱ्या घटनांची पावलं सूत्रबध्दपणे त्याच दिशेने पडत होती हे आज मागे वळून पहाताना मला लख्खपणे जाणवतंय.आणि या जाणिवांमधेच ‘त्या’च्या दत्तरुपातल्या आस्तित्वाच्या दिलासा देणाऱ्या गडद सावल्याही मिसळून गेलेल्या आहेत!

मुंबईतलं सुरुवातीचं माझं वास्तव्य अर्थातच माझ्या मोठ्या बहिणीच्या बि-हाडी दादरलाच होतं.त्यामुळे माझं ‘घरपण’ शाबूत होतं!एकच रुखरुख होती ती म्हणजे माझ्या बालवयापासून इतकी वर्षं विनाविघ्न सुरु असलेल्या दत्तसेवेत मात्र खंड पडणार होता. एरवीही ते तसं सगळं इथं शक्यही नव्हतंच.इथं  गुरुचरित्राची ती पोथी नव्हती.बाबांना मिळालेल्या प्रसाद पादुका नव्हत्या. ही सगळी हरवलेपणाची भावना मनात घर करू लागली. पहिल्या दिवशी  आंघोळ होताच मी तिथल्या देवघरातल्या दत्ताच्या तसबिरीकडे पाहून हात जोडले. अलगद डोळे मिटले. पण मिटल्या डोळ्यांसमोर ती तसबिरीतली दत्तमूर्ती साकार झालीच नाही. अंत:चक्षूंना दिसू लागलं होतं, बाबांनी मला दिलेल्या फोटोतलं पिवळ्या धमक रंगाचं जरीकाठी सोवळं नेसलेलं, लालचुटूक रंगाचं उपकरण घेतलेलं हसतमुख, प्रसन्नमुद्रा असणारं ते दत्तरुप!! त्याच्या नजरेचा स्पर्श होताच मनातली कांहीतरी हरवलेपणाची भावना खालमानेनं निघून गेली!

एक-दोन दिवस असेच गेले. मग एक दिवस रात्री माझी बहीण आणि मेहुणे दोघांनीही मला दुसऱ्या दिवशी मुंबईतल्या एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंजमधे जाऊन माझं नाव नोंदवून यायला सांगितलं. एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज ऑफिस कुठे आहे, तिथे किती नंबरच्या बसने, कोणत्या दिशेला कसे जायचे हे सगळे समजावूनही सांगितलं. मुंबईत कुणीही बरोबर नसताना एकट्यानेच हे सगळे करायचे याचं दडपण होतंच शिवाय मला त्याची काही गरजच वाटत नव्हती. कारण माझी स्टेट बँकेच्या टेस्ट इंटरव्ह्यूमधून नुकतीच निवड  झाली होती. फक्त पोस्टिंग व्हायला काही दिवस वाट पहायला लागणार होती. थोडा उशीर झाला तरी अनिश्चितता नव्हती. शिवाय तोपर्यंत एका खाजगी नोकरीच्या बाबतीत मेव्हण्यांनी स्वतःच बोलणीही पक्की करत आणली होती. असं असताना एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंजमधे नाव कशाला नोंदवायचं असंच मला वाटत होतं.

“नाही..नको.आता त्याची काय गरज आहे?” मी म्हणालो.

“हे बघ. आता गरज नाहीय असं वाटलं तरी अचानक गरज उद्भवलीच तर? त्यानंतर नाव नोंदवायचं म्हटलं तर वेळ हातातून निघून गेलेली असेल. आत्ता मोकळा आहेस तर ते काम उरकून टाक.त्यात नुकसान तर कांही नाहीये ना? हवं तर मी रजा घेऊन येतो तुझ्याबरोबर.”मेव्हणे मनापासून म्हणाले. ‘ते माझ्या हिताचंच तर सांगतायत. त्यांना विरोध करून दुखवायचं कशाला?’असा विचार करून मी ‘ एकटा जाऊन नाव नोंदवून यायचं कबूल केलं.

प्रत्येकाला भविष्यात घडणाऱ्या विविध घटना, त्यांचा घटनाक्रम, त्यांचं प्रयोजन..हे सगळं पूर्णत: अज्ञातच तर असतं. पण घडणारी प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्रसंग विनाकारण घडत नसतोच. त्याला कांही एक कार्यकारणभाव असतोच. माझ्या बहिण आणि मेव्हण्यांचं मला एम्प्लॉयमेंट एक्स्चेंजमधे नाव नोंदवायला प्रवृत्त करणंही याला अपवाद नव्हतं. कारण नंतर पुढे घडणाऱ्या सगळ्याच अनपेक्षित घटना त्या त्या वेळी नकारात्मक परिणाम करणाऱ्या असल्या तरी त्यांतून मला अलगद बाहेर काढण्यासाठीचं ‘त्या’नेच माझ्यासाठी केलेलं हे नियोजन होतं याचा थक्क करणारा प्रत्यय मला लवकरच येणार होता!

ते सगळंच अघटीत वेळोवेळी मला कडेलोटाच्या काठावर नेऊन उभं करणारं,माझी कसोटी पहाणारं ठरणार तर होतंच आणि माझ्या मनातलं ‘त्या’चं स्थान अधिकाधिक दृढ करणारंही!

क्रमश:.. (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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