हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’ ☆

डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

पुस्तक    : लम्हों से संवाद

कवयित्री : डॉ• मुक्ता

प्रकाशक : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना

पृष्ठ. सं•   : 114

मूल्य.      : 200 रुपए

‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद

मानव जीवन अनुभवों को लेकर चलता है। डॉ. मुक्ता के निजी अनुभव धीरे-धीरे विस्तृत होते-होते दर्शन में प्रविष्ट होने का आनंद और लुफ़्त उठाते हैं तथा बंजर जमीन पर पीर के फूल खिलाने का उद्यम रचते हैं। संवेदनशील मनुष्य हर क्षण, हर लम्हा मनुष्यत्व की रक्षा करता है, क्योंकि मनुष्य ही देव, दर्शन और इतिहास है, तभी तो कवयित्री डॉ. मुक्ता को भी ‘शब्द-शब्द समिधा’ में कहना पड़ा ‘सोहम्’। दरअसल यह आत्मीयता है, जो किसी-किसी को महसूस होती है, जो बेचैनी भी पैदा करती है। विपत्तियों में यादास्त किस तरह पतवार थामती है, खुद को समर्पित कर कैसे कविता या नज़्म आगे बढ़ती है, यह कहने को कवयित्री डॉ. मुक्ता प्रस्तुत होती हैं काव्य संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ को लेकर, एक कादम्बरी वाक्य में देखिए वह क्या कहती हैं- उम्र गुजर जाती है जिंदगी ख्वाबों में ख़ुद से कभी-कभी बेवजह मुस्कुराहट की कोशिश करते, जीने की वजह से गुनहगार, मरु-सी जिंदगी, बड़ी बेवफा, खफ़ा-सी, दरकते रिश्ते, मोह के धागे कहाँ खो जाते हैं पता ही नहीं चलता, पल-पल भरमाता सुकून कहाँ मिलता है, तमाशा बन शाश्वत सत्य भी बेवजह साहिल को पाने की गुफ़्तगू, इंसान की कशमकश, आतंक के साये में न्याय की गुहार में इम्तिहान, इत्मीनान, अदब, धीर बंधाए, अनुभव करता है- जिंदगी क्या है? उठ रहे सवाल, आंधियों का रेला, कैसा चलन हो गया आज, तन्हा-सी झंझावतों में फंसी जिंदगी को कैसे कह दे मलाल है, नसीब है, फितरत है- नहीं आसान है, काश! अक्सर, स्वाँग, फांसले उजास के, दस्तूर-ए-दुनिया, मन को समझाए कैसे, कहीं दूर चल और खुद से जीतने की ज़िद में, नहीं वाज़िब, क्योंकि बच्चे बड़े सयाने हो गए हैं, सोचो! क्या वे दिन आएंगे, पछताना पड़ेगा नहीं, शब्द अनमोल हैं बात ऊंची रख हाले-दिल, ख़लिश, जीना है मुझको ये सिख लीजिए, नहीं वाज़िब जनाजा, दिल नादान, ‘सोहम्’ पाक रिश्ता है, बस! उसे उन्मुक्त हो जाने दो, अन्तर्निनाद, मुकाम के लिए एकला चलो रे, जीने की राह पर, साहिल को पा जाएगा। कवयित्री डॉ. मुक्ता की ‘उम्र गुज़र जाती है’ नज़्म देखिए-

तूफ़ान तो गाहे-बेगाहे आते रहते हैं जिंदगी में

कश्ती को सागर तक पहुँचाने में उम्र गुजर जाती है

मन से क्षुब्ध होने पर सुख या दु:ख अनुभव होता है और शान्त मन का असुख-अदुःख की अवस्था अनुभूति है। तभी तो भावों के उद्दीप्त होने पर सुखानुभूति तो उद्बुद्ध होने पर दुःखानुभूति होती है। अतः हर प्रकार की मनोदशा में प्रिय-अप्रिय होने का तत्त्व विद्यमान रहता है। मगर, मृग-तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता का विषय है। कवयित्री कहती है कि जिंदगी दर्द भी है और दवा भी, इसमें लहरें उठती रहेंगी। जब शांत जल में मात्र कंकर डालने से क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तो फिर उद्दीपक के प्रभाव से शांत मन में विक्षोप या आंदोलन उत्पन्न होना संभाव्य है। कवयित्री कहती है मानव को समय की धार, जिंदगी के फ़लसफ़े, संवेग (क्षुब्द मनोवृत्ति) को समझना होगा। डॉ. मुक्ता ‘मरुस्थल में मरूद्यान’ की संकल्पना का पाठ लिखती हैं-

मृग-तृष्णा उलझाती है, मत दौड़ उसके पीछे मन बावरे !

ख़ुदा तेरे अंतर्मन में बसता, उस में झाँकना भी ज़रूरी है

जब मनुष्य मन की वीथियों से बाहर आ जाएगा, तो निश्चय ही अँधेरा छंट जाएगा, धरा सिंदूरी हो जाएगी। जिंदगी की डगर पर खुद पर भरोसा कर मनुष्य को मिथ्या जग में एकला ही चलना होगा-

अपनी ख़ुदी पर रखो भरोसा

और बना लो इसे ज़िंदगी का मूलमंत्र रे

यह ज़िंदगी है दो दिन का मेला

यहाँ कोई नहीं किसी का संगी-साथी रे

कवयित्री की नज़्में जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, विविध चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं। जीवन के सत्यों का उद्घाटन करती हैं, साथ ही सामयिक परिस्थितिओं और विद्रूपताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री जिंदगी का फ़लसफ़ा लिखती हैं; यथा-

ऐ मन! सीख ले तू जीने का हुनर

हम तो तेरे तलबगार हो गये

कवयित्री आत्म-प्रवचन्ना से मुक्त होकर आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। उसके निज़ाम में सब अच्छा ही होता है जो जीवन में समूचा सार-तत्त्व ‘जीने की राह पर’ सब गिला-शिकवा को भुलाकर आगे बढ़ता है। अर्थात ‘स्व’ में ‘पर’ का विसर्जन ही जीवन का सार-तत्त्व है-

यह दुनिया है मुसाफ़िरखाना

सबने अपना किरदार है निभाना

इस जहान से सबने है लौट जाना

तू हर पल प्रभु का सिमरन कर

90 नज्मों के इस संग्रह में कवयित्री किसी विशिष्ट भाव-बोध की गिरफ्त में नजर नहीं आती, बल्कि उनकी काव्यात्मक सोच विभिन्न गवाक्षों और गलियारों से गुजरती है और जहां कहीं भी कोई लम्हा उन्हें स्पंदित करता है, वह बड़ी चतुराई से उसे चुराकर अपने काव्य-कौशल द्वारा सुघड़ ढंग से अपनी कविता में पिरो देती हैं। एकांतलक्षिता के गुलमुहरी भाव-कुंजों से संपृक्त, संवेगात्मक कटु यथार्थ को अपनी कविता में सलिखे से समोने में कवयित्री के संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ की नज़्में काव्य-रचना की रहस्यमयी प्रक्रिया, सूक्ष्म निरीक्षण और संभाव्य कल्पना और यथार्थ-बोध से परांतग्राह्य बनकर, नितांत निजी काव्यगत अनुभव ‘स्वान्तःसुखाय’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की बानगी प्रस्तुत कर स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करती हैं-

समय कभी थमता नहीं, निरंतर बदलता रहता

सृष्टि का क्रम पल-पल, नव-रूप में प्रकट होता रहता

स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करता, अनुभव कीजिए

कवि दार्शनिक होता है, पर दर्शन को सहज रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती रहती है, जिसमें डॉ. मुक्ता उत्तीर्ण नज़र आती हैं। ‘शाश्वत सत्य’ से पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

ज़िंदगी में मनचाहा होता नहीं, तनिक विचार करें

जो होता है, वह कभी भाता नहीं, तनिक विचार करें,

स्व-पर से ऊपर उठना है लाज़िम

जो होना है, अवश्य होकर रहता, तनिक विचार करें।

निष्कर्षतः कवयित्री अपनी व्यथा, वेदना, पीड़ा को अपनी रचनाओं में समाविष्ट करती हैं और उनका दर्द, दुःख, बेचैनी, जिज्ञासा ही उनकी रचनाओं का आधार बने हैं। किंतु किसी भी कवि/कवयित्री की खासियत यह होती है वह व्यक्तिगत संदर्भ का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत करता है। चूंकि कवि रस-स्रष्टा से पहले रस-भोक्ता है, परंतु वह स्वार्थी की तरह रस का अकेला उपभोग नहीं करता, बल्कि ‘स्व’ को विस्तृत और व्यापक बनाकर ‘पर’ का तादात्म्य बैठा देता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसा करने के कारण रचनाएँ पढ़ने में अधिक रुचिकर और आकर्षित करने वाली भी बन जाती हैं। डॉ. श्यामसुंदर का मत है कि कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना साधारणीकरण है। डॉ. मुक्ता ने समसामयिक युग के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बदलते संदर्भो की गहनता से पड़ताल कर, ईमानदारी और सद्भावना के साथ साधारणीकरण के मंत्र को जपते ‘सर्तक-सावधान-समाधान’ रूपी विभिन्न रूपों की सुंदर प्रस्तुति दी है। यही कवयित्री चित्त (मन) का साधारणीकरण है। ऐसा ही एक प्रयास डॉ. मुक्ता ने ‘कोशिश’ नज़्म में किया है-

बढ़ न जायें दिलों के फ़ासले इस क़दर

ज़रा क़रीब आने की कोशिश तो कीजिए

कहीं छा न जाये मरघट सी उदासी

अंतर्मन में झांकने की कोशिश तो कीजिए

काव्य शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से मौलिक और प्रखर काव्य सृष्टि हुई है। नज़्में चित्रमयी, लाक्षणिक भाषा और रूपकों से सम्पन्न हैं तथा प्रस्तुत-अप्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। विशेषतः हिंदी तत्सम, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का मणिकंचन प्रयोग नज़्मों की नब्ज़ बने हैं।

शुभाकांक्षी

© डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

साहित्यालोचक एवं अनुवादविद

चरखी दादरी, हरियाणा, मो. 81999-29206

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #231 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 232 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(प्रदत्त शब्दों पर दोहे)

परिमल

मोहक परिमल गंध का, लेते हम आनंद।

रसिक राधिका ने कहा,लिख दो प्यारे छंद।।

*

कोकिल

 मोहक कंठी कोकिला,प्यारी सी आवाज।

चहक -चहक खग कह रहे, आए हैं ऋतुराज।।

*

किसलय

किसलय फूटा शाख पर,हुआ नवल शृंगार।

सुंदर शाखें सज रही,दिखता प्यार अपार।।

*

कस्तुरी

कस्तूरी की गंध ने,मृग को किया विभोर।

इधर – उधर मृग ढूँढता,कहीं न दिखता छोर।।

*

पुष्प

पुष्प चढ़ाते प्रेम का,प्रभु देते आशीष।

याचक ने की  याचना, झुके द्वार पर शीश।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #214 ☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 214 ☆

☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जख्म दिल के दिखाये न गये

राज  दिल  के  बताये  न गये

*

गीत  लिक्खे  प्यार  के  हमने

अफसोस   पर  सुनाये न  गये

*

इस  तरह मगरूर  थी  खुद में

रिश्ते  प्यार  के निभाए  न गये

*

खूब  चाहा  छिपाना  दर्द  को

चाह  कर  भी  छिपाये  न गये

*

सोचा मिटा  दें निशां  प्यार  के

पर  मुश्किल  है मिटाए न  गये

*

है  खुदा  की  नेमत   प्यार  भी

लब्ज़  ये  उनसे  जताये न  गये

*

दिल में “संतोष” आस आँखों में

कभी   हमसे   भुलाये   न  गये

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवन यात्रा… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

जीवन यात्रा… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

सुखदुःखाचे बांधून तोरण

माणसा तुझे हे कसले जीवन ।। ध्रु ।।

*

अस्थी मांसानी शरीर सजले

निज अवयवानी सुंदर नटले

रसरक्तानी तुला पोशीले

श्वेत कृष्ण कातडीचे पांघरुण

*

मांडलास तू जीवन व्यापार

गण गोताचा माया बाजार

पाप पुण्य कर्माचा शेजार

निर्मिलेस जरी तू नन्दनवन

*

मोह मायेचा पिंजरा सजला

संसारी जीव एथेच रमला

झाली घालमेल घात जाहला

आले यमाजी चे अवताण

*

चारचौघे घेती खांदयावरी

निघाली यात्रा यमाच्या दारी

प्रत्येक जण असतो त्या  वाटेवरी

गुंडाळले तुला पांढरे कफ़न

*

उठ ऊठ प्रेता तिरडी सजली

गण गोत  आप्त सर्वही जमली

कमी ज्यास्त सगळी  रडली

धग धगते पेटले चिता सरण

*

माणसा तुझे हे कसले जीवन

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 222 ☆ विश्व सुमनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ही दरी कमी करूया !! ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? विविधा ?

ही दरी कमी करूया !! ☆ श्री सुनील देशपांडे 

माणसाचं मन किती विचित्र असतं !  मृत्यू अटळ आहे हे समजायला लागल्यापासूनच माणसाला अमरत्वाची सुद्धा  स्वप्नं पडू लागली. अमरत्त्व ही अशक्य गोष्ट आहे हे माहीत असूनही मानव अमरत्वाच्या संकल्पनेकडे सरकण्याचा प्रयत्न करतोच आहे. अगदी हजारो वर्षापासून !  या प्रयत्नाचा एक महत्वाचा टप्पा मानवानं या शतकात मात्र गाठला आहे असे म्हणायला हरकत नाही. तो म्हणजे अवयव प्रत्यारोपण.

१९०५ साली तो म्हणाला ‘ मी मेलो तरी माझे नेत्र दुसऱ्याच्या शरीरात जिवंत राहतील‘

१९५४ साली तो म्हणाला ‘ मी मेलो तरी माझी मूत्रपिंडे  दुसऱ्याच्या शरीरात जिवंत राहतील ‘

असं करता करता तो आज  म्हणू शकतोय कि ‘ मी मरेन पण माझे हृदय, फुफ्फुसे, हाडं, कुर्च्या, मगज, यकृत, स्वादुपिंड, आतडी, प्लिहा हे सर्व अवयव कुणाच्या ना कुणाच्या शरीरात जिवंत राहू शकतील, मी मरेन पण अवयव रूपी उरेन !’

मानवाचा अमरत्वाच्या वाटेवरून  चाललेला हा प्रवास, वैद्यकशास्त्राच्या संशोधनातूनच या टप्प्यावर पोहोचला आहे. अवयव प्रत्यारोपणाच्या जेवढ्या जास्तीत जास्त शस्त्रक्रिया होतील तेवढे हे संशोधन पुढे पुढे जाईल. तसेच वरील अवयवांच्या यादीत अधिकाधिक भर पडत जाईल आणि प्रत्यारोपणाच्या यशस्वितेची टक्केवारी वाढत जाईल हे नक्की.

पण हे सगळं घडण्यासाठी मुख्य गरज आहे ती हा विषय सर्वसामान्य जनतेपर्यंत पोहोचवण्याची आणि हे शिवधनुष्य पेलण्याची.

२०१५ मध्ये जे जे हॉस्पिटल मध्ये  अवयवदान कार्यकर्त्यांची एक सभा वसईच्या देहमुक्ती मिशनचे प्रमुख श्री पुरुषोत्तम पवार यांच्या प्रयत्नाने आयोजित केली गेली होती. त्यावेळी श्री पवार यांनी असा प्रस्ताव मांडला की आपण सर्वच आपापल्या भागात उत्तम काम करत आहोत. परंतु आपण सगळे एक होऊन जर कामाला लागलो तर खूप मोठ्या प्रमाणावर हे कार्य राज्यभर उभे राहू शकेल.

आणि 

सर्वांच्या संमतीने एका मोठ्या महासंघाची स्थापना करण्याचा संकल्प झाला. त्यानुसार श्री पुरुषोत्तम पवार यांच्या बरोबर  दधिची देहदान समिती, मानव ज्योत, जीवन ज्योत, सुमती ग्रुप अशा प्रस्थापित सेवाभावी संस्थांच्या श्री सुधीर बागाईतकर, श्री विनोद हरिया, श्री. कुलीनकांत लुठीया, श्री. विनायक जोशी या कार्यकर्त्यांनी देखील या महासंघासाठी चंग बांधला.

या सर्वांच्या प्रयत्नातून २०१६ मध्ये महाराष्ट्रातील अवयवदान क्षेत्रातील अनेक सदस्यांशी संपर्क करून एक राज्यव्यापी कार्यकर्त्यांचे अधिवेशन मुंबई मुलुंड येथे, महाराष्ट्र सेवा संघ यांच्या सहकार्याने आयोजित केले. या अधिवेशनात डॉ. वत्सला त्रिवेदी, डॉ. प्रवीण शिनगारे, नागपूरचे चंद्रकांत मेहेर  इत्यादी मान्यवर मार्गदर्शनासाठी उपलब्ध झाले. प्रमुख पाहुणे म्हणून भारतात ज्यांच्यावर २००३ मध्ये पहिले यशस्वी यकृत प्रत्यारोपण झाले होते, असे नाशिक येथील डॉ. भाऊसाहेब मोरे यांना पाचारण करण्यात आले होते.

या अधिवेशनाच्या यशस्वीतेमुळे महाराष्ट्रातील विविध भागातील संस्था व कार्यकर्ते महासंघाशी जोडले गेले. सतत दोन वर्षांच्या यशस्वी कार्यकालानंतर दिनांक १७ मे २०१७ रोजी महासंघाची सरकार दरबारी नोंद होऊन नोंदणीकृत संस्था म्हणून कार्यरत झालेला हा महासंघ म्हणजे दि फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन.

त्याच दरम्यान नाशिक येथून पदयात्रेच्या माध्यमातून महाराष्ट्र पालथा घालण्याची महत्त्वाकांक्षा बाळगून असलेले आणि पहिली नाशिक ते आनंदवन अशी ११०० किलोमीटरची पदयात्रा आयोजित करणारे श्री सुनील देशपांडे यांच्याशी श्री पुरुषोत्तम पवार यांनी संपर्क साधला. श्री देशपांडे यांच्या उपक्रमाला फेडरेशनचा संपूर्ण पाठिंबा जाहीर केला. त्या पदयात्रेच्या यशस्वीतेनंतर त्यांना फेडरेशनमध्ये सामील करून घेऊन ही पदयात्रां ची संकल्पना पुढे महासंघामार्फत संपूर्ण महाराष्ट्रभर राबवली गेली. चार पदयात्रांच्या माध्यमातून महाराष्ट्रातले जवळपास सर्व जिल्हे पादाक्रांत केले गेले.

महासंघाचे विविध कार्यकर्ते संलग्न संस्थांचे कार्यकर्ते आणि पदयात्रांच्या माध्यमातून हजारो कार्यक्रमांच्या आयोजनातून लाखो लोकांपर्यंत अवयवदानाचा विषय महासंघाने नेऊन पोहोचवला.

आज १७ मे २०२४ रोजी या संस्थेला सात वर्षे पूर्ण होत आहेत.

(अर्थात संस्थेचे कार्य नोंदणीपूर्वीच चालू झाले होते त्या दृष्टीने नऊ वर्षे म्हणता येतील. परंतु कोरोनाची दोन वर्षे सोडून देऊ. )  परंतु या सात वर्षात संस्थेने खूप मोठा पल्ला गाठला आहे.

वैद्यकीय संशोधनातून माणसाला मृत्यूच्या पाशातून सोडवण्यासाठी संशोधक झटत असले तरी त्याचा उपयोग व उपभोग माणसाला घेता यावा यासाठी समाज प्रबोधन व जनजागृतीची फार मोठ्या प्रमाणावर गरज असते. सामाजिक संस्था, रुग्णालये व प्रसिद्धी माध्यमांनाच यासाठी झटले पाहिजे.

ही गोष्ट वेळीच जाणून घेऊन दि फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन

ही संस्था या जनप्रबोधनाच्या कामामध्ये  कार्यरत होऊन राज्यभर विविध कार्यक्रमांच्या माध्यमातून आठ  वर्षे समाज प्रबोधन करत आहे.

प्रसिद्धी हे समाज प्रबोधनाचे अविभाज्य अंग आहे. यासाठी विविध प्रसिद्धी माध्यमांच्या सहकार्याचीही फेडरेशन ला गरज आहे. अनेक प्रसिद्धी माध्यमांनी हे सहकार्य दिले सुद्धा आहे.

महाराष्ट्र राज्या मध्ये अवयवदानाला समर्पित  आणि  अवयवदानाच्या समाज जागृती व प्रबोधन कार्याची मुहूर्तमेढ रोवणारी राज्यस्तरीय संस्था म्हणून दि फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन मुंबई. ही संस्था आज प्रामुख्याने  ओळखली जाते. महाराष्ट्र राज्यभर पसरलेल्या आपल्या विविध जिल्हा शाखांमार्फत ही संस्था कार्यरत आहे. अलीकडच्या काळात केंद्र व राज्य सरकारांनी सुद्धा या विषयात विशेष लक्ष घालण्याचे ठरवले असून तशा सूचना संबंधित कार्यालयांना दिल्या गेल्या आहेत. तरीही राज्यभर फेडरेशन मार्फत  या सर्व सरकारी संस्थांच्या समन्वयातून चालू असलेल्या कार्याला तोड नाही हे कबूल करावेच लागेल.

अनेक वर्षांपूर्वी तामिळनाडू सरकारमध्ये ना. सुश्री (कै) जयललिताजी मुख्यमंत्री असताना या चळवळीला तेथे सरकारी पाठबळ मिळालं आणि या  चळवळीने  तामिळनाडू राज्यात चांगलेच मूळ धरले.

भारत सरकारने सन १९९४ मध्ये अवयवदानाचा कायदा संमत केला. त्या नंतर आजपर्यंत सरकारी पातळीवर काही यंत्रणाही  निर्माण करण्यात आल्या आहेत.

अशा सर्व सरकारी यंत्रणांच्या समन्वयाने आणि त्यांना पूरक म्हणून दि फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन ही राज्यस्तरीय  संस्था आता राज्याबाहेर सुद्धा भरारी घेण्याच्या तयारीत आहेच, परंतु सध्या संपूर्ण भारत देशामध्ये विविध संस्थांच्या संपर्कात राहून फेडरेशन कार्याच्या कक्षा रुंदावत आहे.

कार्यकर्त्यांच्या प्रशिक्षण कार्यक्रमाच्या माध्यमातून या कार्यासाठी अधिकधिक  प्रशिक्षित कार्यकर्ते निर्माण व्हावेत म्हणून फेडरेशन सध्या भारतभर प्रशिक्षण कार्यक्रमांसाठी संपर्क साधून आहे. स्वतःच्या अनुभवांच्या फायद्याची देवाण-घेवाण  इतर संस्थांशी आणि कार्यकर्त्यांशी करण्यासाठी कार्यकर्ता प्रशिक्षणाचे एक प्रारूप संस्थेने बनवले आहे. तीनस्तरीय महादान (नेत्रदान, त्वचादान, देहदान, अवयवदान इत्यादी सर्व शारीरिक दाने)  प्रशिक्षणक्रमाचे हे प्रारूप संस्था राबवित आहे.

‌असे असले तरी जनजागृतीच्या बाबतीत आपण सगळेच अजून खूपच मागे आहोत हे पुढील आकडेवारीवरून लक्षात येईल. देशात प्रत्यारोपणासाठी दरवर्षी सर्वसाधारणपणे दोन लक्ष मूत्रपिंडांची  गरज असते त्यापैकी सध्या ६००० पेक्षा जास्त मूत्रपिंडे उपलब्ध होऊ शकत नाहीत. ३०००० पेक्षा जास्त यकृतांची गरज आहे पण फक्त १५०० च्या जवळपास यकृतेच उपलब्ध होऊ शकतात. साधारण ५०००० हृदयांची गरज आहे पण फक्त १०० च्या जवळपास हृदयेच उपलब्ध होऊ शकतात. १ लक्ष डोळ्यांच्या गरजे पैकी २५००० पेक्षा जास्त नेत्र उपलब्ध होऊ शकत नाहीत. सध्याची परिस्थिती पहाता व दिवसेंदिवस अवयवांच्या गरजेची वाढती संख्या पहाता दर वर्षी आवश्यकता व उपलब्धता या मधील दरी वाढतच आहे. ही वाढती दरी भरून काढायची असेल तर अवयवदानाचे प्रमाण मोठ्या प्रमाणावर वाढले पाहिजे. या सर्व परिस्थितीवर एकच उपाय म्हणजे जनजागृती !  आता ही जबाबदारी प्रामुख्याने सामाजिक संघटना, शैक्षणिक संस्था व प्रसिद्धी माध्यमांवरच येऊन पडते. म्हणूनच  दि फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन या संस्थेचे समन्वयाने प्रबोधन करण्याचे कार्य  आज सर्वांच्या डोळ्यात भरते आहे.

फेडरेशनला आज अनेकांच्या सक्रिय सहकार्याची आणि बरोबरीने वाटचाल करण्याची गरज आहे.

जनजागृती कार्यक्रमांना प्रसिद्धी माध्यमांकडून अधिक सहकार्य मिळावे. या  संबंधीच्या मजकुराला प्रसिद्धी माध्यमांमध्ये सुद्धा महत्वाचे स्थान मिळावे असे  वाटते. पण त्याच बरोबर प्रसिद्धी माध्यमांनी आणि विविध कंपन्या आणि व्यापारी संस्था यांनी सुद्धा स्वतःहून कांही उपक्रमांचे आयोजन करणे ही आज काळाची गरज आहे.

असे काही आयोजन कोणी करणार असल्यास फेडरेशन त्यांना सर्वतोपरी सहकार्य करण्यास कटिबद्ध आहे. फेडरेशनला सामाजिक दायित्व उपक्रम ( सी. एस. आर. ) यासाठी मंजूरी असून ज्या कंपन्यांकडे सीएसआर साठी निधी उपलब्ध असेल त्यांचे बरोबर समन्वय करून चांगले प्रकल्प राबवण्यासाठी फेडरेशन कटिबद्ध आहे.

फेडरेशन ला मिळणाऱ्या देणग्यांसाठी ८०जी कलमाखाली आयकराची सवलत प्राप्त आहे.

विविध खाजगी व सरकारी यंत्रणा, रुग्णालये, सामाजिक संस्था, शैक्षणिक संस्था व प्रसिध्दी माध्यमे यांनी एकमेकांना सहकार्य करून विविध उपक्रमांनी अवयवदानासाठी   लोक जागरणाची व्यापक मोहीम आखणे जरूर आहे. पण त्या नंतर सुद्धा सतत वरचेवर हा विषय व या विषयावरील चर्चा जागती ठेवली पाहिजे. निबंध स्पर्धा, वक्तृत्व स्पर्धा, भित्तीपत्रके (पोस्टर) स्पर्धा, पदयात्रा, सायकल रॅली, मोटारसायकल रॅली. चित्ररथ, घोषणा व फलकबाजी, पत्रके वाटप, पथनाट्ये, या विषयावरील कविता-गाणी, नाट्यछटा, एकांकिका, लेख, व्याख्याने वगैरे जे जे करता येईल त्या सर्व मार्गानी लोकांच्या पर्यंत या विषयाचे महत्व पोहोचवण्याची धडपड आज फेडरेशन करत आहे. हा विषय लोकांच्या डोक्यातून, कानातून मनात पोहोचला पाहिजे आणि मनामनात रुजला पाहिजे.

त्याही पुढे जाऊन मी म्हणतो, चांगले काम करायला औचित्य हवेच का ?   हवेच असेल तर

१७ मे हा महासंघाचा म्हणजेच फेडरेशनचा वर्धापन दिन आहे, हे औचित्य काय कमी आहे ?  

चला आपण जे कोणी सुजाण नागरिक आहोत, विचारवंत, समाज सुधारक जे कोणी आहोत त्या सर्वानी नक्की ठरवूया  की काळाचे हे आव्हान पेलण्यासाठी  आपण अवयवांची उपलब्धता व गरज या मधील दरी  कमी करण्या साठी झटून प्रयत्न करूया ! 

त्यासाठी आपण फेडरेशनशी संपर्क साधावा.

फेडरेशन ऑफ ऑर्गन ॲंड बॉडी डोनेशन

६०१, कैलाशधाम , जी. व्ही. स्कीम रोड नंबर ४ मुलुंड, मुंबई  ४०००८१

ई-मेल : [email protected] [email protected]

www. organdonation.net.in

पत्रव्यवहारासाठी पत्ता:

श्रीकांत कुलकर्णी (सचिव) 

३, श्रीनिवास गौरव अपार्टमेंट, ऑफ मयूर कॉलनी डीपी रोड, कोथरूड, पुणे ४११०३८

© श्री सुनील देशपांडे

(उपाध्यक्ष, फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन.) 

नाशिक मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “एल्गार…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“एल्गार…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

सप्त अधरातून सुर ते निनादले…

समुह गायनातून शब्द पेटून निघाले..

जोश गीताचा अर्थ भावनेचा पेटूनी उठलेला…

अन्यायाला वाचा फुटूनी डोळ्यात अंगार फुललेला…

भडकली माथी गात्रं झाली लालीलाल…

कवितेने फुंकले रान पेटले सारे भवताल..

जो तो करी क्रांतीचाच जयजयकार…

उठा उठा जागे व्हा हिच वेळ आहे…

क्रांतीचे शंख फुंकताच संघटीत होण्याची…

उलथवुनिया देण्या जुलमी सत्तापिसाटा़ंचीं

चेतवूया स्फुल्लिंग मना मनात…

उधळला वारू संघर्षाचा फडकवित

जरीपटका एल्गाराचा…

अटकेपार रोवायाला आता नाही सवड त्याला थांबायला..

घुसळले वारे क्रांतीचे  माणसांचे जग ते हादरले…

अशी ही आहे का बंडखोरीची भावना दडलेली आपल्यात..

आज प्रथमच  मनाला  मनातले स्फुल्लिंग जाणवले…

सप्त अधरातून सुर ते निनादले…

समुह गायनातून शब्द पेटून निघाले..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मदर्स डे – ☆ डॉ. शैलजा करोडे ☆

डॉ. शैलजा करोडे

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ मदर्स डे – ☆ डॉ. शैलजा करोडे

मे महिना, उन्हाची काहिली, अंगाची नुसती लाही लाही होत होती. वीजेचे पंखेही नुसती गरम हवा फेकत होते. या गरमीने जीवही खूप घाबरा होत होता. थोडा आराम वाटावा म्हणून मी लिंबू सरबत बनविले, त्यात बर्फाच्या दोन कूब्ज टाकल्या, छान गारेगार वाटले. हुssssश करत मी सुस्कारा सोडला. मनावरची मरगळ गेली. थोडं फ्रेश वाटलं.

शुभम, तुला काही बनवून देऊ काय ? काही हवंय काय बाळ ? ” ” नको, काही नको ” ” अरे दुपारचे चार वाजलेत. भूक लागली असेल, काही तरी खा बेटा “” नको म्हटलं ना, समजत नाही काय तुला ?” ” अरे, असं बोलतात काय आईशी ” ” मग, तूच शिकव कसं बोलायचं ते ” ” शुभम ” माझा आवाज चढला, तसा तो गप्प झाला, पण मी चुकलो, साॅरी मम्मी, असे शब्द जणू त्याच्या डिक्शनरीतच नव्हते.

काय करावं या पोराचं, कसं समजवावं, काय चुकतंय माझं. कोठे कमी पडतेय मी. काहीच कळत नाही. मी जितकं त्याच्याजवळ जाण्याचा प्रयत्न करते तितका त्याच्यातील आणि माझ्यातील दुरावा वाढतोय.

शुभमच्या बाबांशी बोलले तर म्हणाले, अजून लहान आहे तो, त्याचं भावविश्व निराळं, निरागस असतात लहान मुलं, एखादी गोष्ट मनात बसली कि तीच धरुन ठेवतात. त्याच्या कलेनं घे. कोणत्या गोष्टीची जबरदस्ती करू नकोस त्याचेवर, त्याच्याशी गोड बोलून त्याच्या मनाची निरगाठ सोडव. ” अहो, तेच तर करते मी. त्याच्याशी बोलायला जाते. तर तोच तुटकपणे वागतो, होय, ठीक आहे, करतो मी, अशी उत्तरे याच्याकडून मिळतात, संवाद वाढवू तरी कसा. ?” हे बघ, मीनाक्षी थोडं सबुरीने घे, होईल सगळं ठीक, काळजी करू नकोस, पुढील आठवड्यात आपण तुझ्या मामेभावाच्या लग्नासाठी गावी जाणार आहोत, लग्न समारंभ, व तेथील वातावरणात, समवयस्क मुलात रमेल तो, आणि होईल सगळं नीट.

विचारांच्या तंद्रीतून मी बाहेर आले, पाहिले तर घड्याळ्यात साडेपाच वाजलेले, ऊन कललं होतं. चला लग्नासाठी खरेदी करायचीय, मामा मामीसाठी आहेर, नवरदेवासाठी भेटवस्तू, शुभमसाठी एखादा नवीन ड्रेस खरेदी. मी तयारी केली. ” शुभम चलतोस काय रे माझ्यासोबत, चल काही खरेदी करायचीय ” ” नको मम्मी, तूच जा ” ” अरे चल रे, दिवसभराचा घरात आहेत, सायंकाळचं थोडं मोकळ्या हवेत फिरणंही होईल. घरात नुसतं कोंदटल्यासारखं नाही वाटत तुला ” ” नाही मी नाही येत, मी घरीच बुद्धीबळाची मॅच खेळतो लॅपटाॅपवर, तू जा ” ” अरे बाळा, मॅच नंतरही खेळशील, चल थोडं बाहेर ” ” नाही नको ” मग मी काही बोलले नाही, शुभमचे बाबा प्रकाशचे शब्द मला आठवले, ” थोडं सबूरीने घे, त्याच्या कलेनं घे, जबरदस्ती करू नकोस

मी एकटीच निघाले. मामीसाठी छान साडी, मामासाठी शर्ट पँटचं कापड, घेऊन झाले. आता राहिली होती भेटवस्तूंची खरेदी. नवीन नवीन अनेक प्रकारच्या भेटवस्तूंच्या व्हरायटीज होत्या. काय घ्यावे, मीच थोडे गोंधळले, निर्णय होईना.

“हॅलो काकी ” ” हॅलो रितेश, काय रे कसा आहेस, कोण आहे सोबत ” ” बाबांसोबत आलोय, परवा मदर्स डे आहे ना काकी, मम्मीसाठी भेटवस्तू व ग्रीटींग घेण्यासाठी आलोय. तिला सरप्राइज द्यायचंय. ” ” नमस्कार ताई, रितेशचे बाबा बोलत होते, मुलांचा हट्ट पुरवावाच लागतो, आणि आई प्रती चांगलं करताहेत मुलं तर प्रोत्साहन द्यायलाचं हवं ना ” ” होय भाऊ, बरोबर म्हणताय तुम्ही, कशा आहेत निताताई, बरेच दिवसात तुम्ही आला नाहीत आमचेकडे, या एकदिवस. ” होय, येऊ जरूर, चला निघतो “

शुभमने मदर्स डे ला मला कधीच ग्रीटिंग, भेटवस्तू तर दिलीच नाही पण ” Happy mother’s day, mamma ” अशा शुभेच्छाही दिल्या नाहीत.

कशानुळे इतका आकस असेल याच्या मनात. ” नाही, आकस कसला मीना, तुझाच मुलगा आहे तो, नसतो कोणाचा स्वभाव बोलका, ग्रीटींग, भेटवस्तू, शुभेच्छा दिल्या तरच तू त्याची आई असणार आहे काय ? नाही ना, ” माझे मी मलाच समजावले, विचारांच्या गर्तेत कोठल्या कोठे भरकटलो आपण.

आज रविवार, आठवडाभराची सगळी साचलेली कामे तर होतीच, सुटीचा दिवस म्हणून स्वयंपाकाचा मेनूही मोठा राहातो, ” मीनाक्षी, आज रविवार, गोड बनवतेय तर थोडा शिराही बनव, मदर्स डे आहे आज, आईला भेटून येतो वृद्धाश्रमात, तिच्या आवडीचा शिरा घेऊन जातो. ” ” बाबा मी पण येईन आजीला भेटायला, बघा तिच्यासाठी ग्रीटींगही बनवलयं मी स्वतः, कसं झालंय ? ” एक वृद्ध आजी, व तिच्यासमोर बसलेला तिचा नातू, छान चित्र रेखाटलं होत. पोरानं “

” होय बेटा, जाऊ आपण आजीकडे “

अच्छा, तर ही अढी आहे याच्या मनात. पण शुभम मी नाही पाठवलं रे तुझ्या आजीला वृद्धाश्रमात. “

लग्न होऊन मी गृहप्रवेश केला आणि सासूबाईंना वाटलं कि घराची सत्ता आता हिच्या हाती जाणार, माझा मुलगा हिचा होणार. मग कशावरुन ना कशावरून रोज घरात कुरबुरी होऊ लागल्या, मी काही मेनू बनवला तर सासूबाई त्यात त्रुटीचं काढायच्या. मी भेंडी मसाला केला तर मला हे नको, भरली वांगी हवीत. बरं रोजचा मेनू तुम्ही ठरवून द्या, मी तेच बनवीन, तर ते ही नको, ” आयुष्यभर केलं मी, आताही विश्रांती नको ” सणवार यांना अगदी साग्रसंगीत हवीत. पण माझी नोकरी व टाईमाचं गणित जमेना. चंपाषष्ठी अगदी दांपत्य भोजनासह झाली पाहिजे, माझी जवाबदारीची पोस्ट, मला आॅफीसमधून रजा घेणंही शक्य होईना. ” सासूबाई आपण चंपाषष्ठी रविवारी साजरी करूया, अगदी दांपत्य भोजनासह ” ” वाह म्हणजे आता तू सणावारांची तिथीही बदलणार तर, ” आणि वादाला सुरूवात. प्रकाशने माझ्यासाठी साडी आणली आणि आईसाठी नाही आणली असे कधी घडले नाही, पण सासूबाईंना ते ही सहन होईना. ” एक दिवस मी तापाने फणफणले. यांच्या पूजेची मी तयारी करू शकले नाही, नाही स्वयंपाक घरात काही काम ” ” नाटकं आहेत नुसती, काय धाड भरलीय, “. प्रकाशनेच चहा केला, आईला दिला, मला दिला, ” करा, करा सेवा, काय दिवस आलेत. नवर्‍यानेच बायकोची सेवा करायची “

प्रकाश काही बोलले तर, ” वाह छान, तू बायकोचीच बाजू घेणार, चूक माझीच असणार ना. माझंच नशीब खोटं ग बाई, म्हणत यांचं रडणं सुरू व्हायचं.

आणि एकदिवस तर कहरच झाला, मला नाही राहायचं या घरात माझ्या दोघी मैत्रिणी सुमा आणि उमा आहेतच वृद्धाश्रमात. घरच्या कटकटींपासून दूर, आनंदात जगत आहेत. मी जाईन तिथे.

उद्याच्या उद्या वृद्धाश्रम प्रवेशाची सगळी प्रक्रिया पूर्ण कर. ”  ” आई, ऐक माझं, नको असं करूस. मला पोरकं नको करूस. या घरावर तुझी माया राहू दे. “

” सासूबाई, नका असं करू. काही चुकलं माझं तर मुलगी समजून माफ करा ” ”  हं, पुरे झाला हा मानभावीपणा, तू  आलीस, आणि माझा मुलगा दुरावला ” ” माझे थोडे दिवस राहिलेत आता, आनंदाने जगू दे मला “

आणि माझ्या सासूबाई देविकाबाईंनी वृद्धाश्रमाची वाट चोखाळली.

विचाराच्या भोवर्‍यातून मी बाहेर आले.

” होय प्रकाश, मी बनवते शिरा, चांगला दूध, केळी, सुकामेवा घालून अगदी सत्य नारायणाच्या प्रसादासारखा. आणि ऐकलं काय, मी पण येईन तुमच्यासोबत वृद्धाश्रमात “

वृद्धाश्रमात सासूबाईंचे मैत्रिणीसोबत काही दिवस चांगले गेले, पण तेथील उपरेपण, एक प्रकारचं शिस्तबद्ध वातावरण, इतर वृद्धांच्या समस्या, त्यांची दुरावलेली मुले, त्यांचा समाचारही कधी न घेणारी, तर वृद्ध मंडळीच्या अंत्यसंस्कारही वृद्धाश्रमच करीत होतं. हे सगळं पाहून देविकाबाई हतबल होत. “त्यामानाने प्रकाश आणि मीनाक्षी ने तर नेहमी त्यांचा सन्मानच केलेला, काळजी घेतलेली, आणि येथे आपण स्वतःहून दाखल झालो, मुले नको म्हणत असतांना, पण हे उशीरा सुचलेलं शहाणपण. “देविकाबाई विचार करून सुन्नं होतं.

” देविकाबाई, बघा कोण आलंय तुम्हांला भेटायला, आश्रमातील सेवेकरी मधुकर माझा नातू शुभमला घेऊन आला. ” आजी ” म्हणत तो देविकाबाईंना बिलगला. तू एकटा आलास बाळ, ? ” नाही आजी, पप्पा आणि मम्मीसुद्धा आलीय ” ” काय सांगतोस पप्पा मम्मी आलेत ” ” होय आई, आम्ही आलोत ” आणि सासूबाई, तुमच्या आवडीचा शिरा आणलाय, खाऊन घ्या आणि आपलं सामान पॅक करा, आपल्याला घरी जायचंय. तोपर्यंत प्रकाश वृद्धाश्रमाच्या कागदपत्रांची पूर्तता करतील.

” गुणी गं, माझी बाळ ” म्हणत सासुबाईंनी मला आज जवळ घेतलं. त्यांचे भरलेले डोळे मी अलगद पुसले.

शुभम हे सगळं पाहात होता, मला व आजीला त्याने मिठीत घेतले. My mummy is best mummy in the world.. Happy mothers day mamma ” म्हणतांना त्याचा चेहरा अत्यानंदाने खुलला होता.

आज शुभमच्या मनाची निरगाठ सोडवण्यात मी यशस्वी झाले होते.

© डॉ. शैलजा करोडे

नेरुळ नवी मुंबई मो. 9764808391

ईमेल – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “रश्मी किरण…” ☆ श्री मिलिंद दिवाकर ☆

श्री मिलिंद दिवाकर 

परिचय 

समाजसेवक, वक्ते, लेखक, स्तंभलेखक, सातत्याने वृत्तपत्रात लेखन पालवी ह्या गाजलेल्या आत्मकहाणीचे लेखक

? मनमंजुषेतून ?

“रश्मी किरण…श्री मिलिंद दिवाकर

ए… खरं सांगू  खूप आवडतं मला तुझं ते निष्पाप कोवळं येणं

केव्हा केव्हा ना तुझे ते दाहक होणं रणरणतं, राकटपणसुद्धा मला आवडतं रे…

संध्याकाळी एक रोमान्स तू घेऊन येतोस नं  खूप रोमांचित होतो मी तुझ्या येण्याने….

निस्तब्ध एकट्या रात्रीनंतर तुझ्या येण्याच्या कोवळ्या चाहुलींनी

एक उबदार चैतन्य माझ्यात सळसळायला लागतं… असं वाटतं सोडूच नये तुझी साथ 

पण तू असा रागीट होत जातोस… दाहक व्हायला लागतोस, पण सांगू

तेही आवडतंय रे मला….

कारच्या काचेतून बघताना तुझं चालणारं तांडव पहात रहावसं वाटतं मला 

शृंगार घेऊन येतोस तू  फिरून संध्याकाळी, काय काय तुझ्या ठायी भरलंय रे….

जीवनाचा एक पटचं दाखवतोस तू आम्हांला

पण या करंट्या मनाला कळतंच नाही की 

जीवन कालचक्र तू  आम्हांला समजावून सांगतोयस !

तुझं सकाळचं निष्पापपण कुठे हरवतं कोणास ठाऊक,

दुपारी तू जुनाट व्हायला लागतोस, तेव्हा रखरखायला लागतोस आणि 

उताराकडे झुकतोस ना निरोप घ्यायला… तेव्हा शांत होतोस

सकाळच्या तुझ्या येण्याने जी मंगल सात्विकता माझ्यामध्ये भरलेली असते 

दुपारी पुन्हा ती घेऊन टाकतोस, दाह व्हायला लागतो कधीकधी 

पेटवतोस आपला अग्नी…. किती तुझे विभ्रम  

संध्याकाळ झाली की हलकेच रोमांचित करून जातोस 

ते संध्याकाळी तुझं जाणंसुद्धा विरहाकडे घेऊन जातं

मग पुन्हा वेध लागतात सकाळच्या त्या तुझ्या येण्याचे…

एक अतूट नातं झालंय तुझ्या अन् माझ्यामध्ये 

निस्तब्ध एकट्या रात्री मी आसुसलेला असतो 

सकाळच्या तुझ्या उबदार आगमनाची वाट बघत 

एक चैतन्य सळसळतं माझ्यामध्ये तुझ्या येण्यानं 

मीच काय ही सगळी वसुंधरा तुझ्यासाठी आसुसलेली असते…

कोण म्हणतं, ही धरा फक्त पावसाचीच प्रतीक्षा करते

तिच्या उदरातील बीजं ना, तुझ्या येण्याची वाट बघतात 

तुझा उष्मा त्यांना हवा असतो, अंकुरायला

तुझ्या उष्म्याने ती सवरतात… फुलतात… खुलतात…

पिकं डोलायला लागतात, त्या धरित्रीलाही तुझी गरज असते 

आणि मग आमच्यातलं चैतन्य जागवायला तू जेव्हा निरागस अवतरतोस

सकाळ मंगल करून जातोस आमचं जगणं… एक सात्त्विकतेचा उदय, चैतन्य संचारतं आमच्यात 

मग पुन्हा दुपारचं तुझं रखरखतं अस्तित्व…

सगळं बंद करून घरात शांत एकटेपणात, एकट्या जीवनाचं भान देतं

तुझ्या रुपानं जगणं शिकवतं आम्हाला, हे सगळं असंच चालत राहणारे अंतापर्यंत 

आदिम सनातन तुझ्या अस्तित्वाची ही कृपा आमच्यावर अशीच बरसत राहो 

कधीकधी तक्रार होते तुझ्याबद्दल मनात, तुझ्या त्या दाहक तांडवाची,

तुझ्या त्या रणरणत्या राकटपणाची पण असो…

हे सगळं समग्रतेच्या जीवनाचं दर्शन तुझ्या रुपानं रोज घडतंय 

आम्ही करंटे मात्र तुला नावं ठेवतं, तुझ्या अस्तित्वाची तक्रार करतं बोटं मोडत असतो 

माफ कर मित्रा! पण जगणं शिकवतोस लेका तू 

आणि हेही कळतं की तुझ्या असण्यामुळेच हे चैतन्य आहे 

मग कसा रोखू स्वतःला… तुझ्यापुढे कृतज्ञ होण्यापासून 

कसं रोखता येईल मला… मी कृतज्ञ आहे तुझा 

खूप खूप कृतज्ञ आहे.

© श्री मिलिंद दिवाकर

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “गोष्ट एका आईची…” ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

परिचय 

शिक्षण : बीएससी बीएड.

वडील नकलाकार पत्की म्हणून सोलापूर जिल्ह्यात प्रसिद्ध त्यांच्याबरोबर वयाच्या पंचविसाव्या वर्षापर्यंत नकलांचे कार्यक्रम  सादर केले जे लोकरंजनातून लोकशिक्षण देणारे होते अनेक नाटकात काम.. नाट्यछटा लिखाण एकांकिका आणि पथनाट्याचे लेखन कविता आणि नृत्य गीतांचे लेखन.. कवितांना पारितोषिके आणि नृत्य गीताना हमखास पहिला नंबर.

शास्त्र उपकरणे तयार करण्याची आवड– जवळपास दीडशे उपकरणे मी तयार केली असून दोन वेळा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त झालेला एकदा लखनऊ येथे माननीय राष्ट्रपती झैलसिंग  यांच्या हस्ते व दुसऱ्यांदा जम्मू कश्मीर येथे माननीय राष्ट्रपती श्री व्यंकट रमण यांच्या हस्ते. नापास यांची शाळा हा माझा विशेष प्रकल्प मी गेले 32 वर्षे चालवत असून सुमारे 2000 विद्यार्थी दहावीपासून शिक्षणाच्या प्रवाहात आणण्याचे काम  केले आहे स्त्रीमुक्तीचे कार्य  केले आहे. महिलांसाठी अनेक उद्योगांची उभारणी. 38 वर्ष छंद वर्गाचे नियोजन सातत्याने केले आहे सुमारे 3000 विद्यार्थी याचा लाभ घेत असत.

साक्षरता अभियान यासाठी मुख्यमंत्र्यांच्या शिफारसीने एक वर्ष डेप्युटेशनवर या प्रकल्पांतर्गत कार्यरत होते व त्यातून तीस हजार महिला आणि दहा हजार पुरुषांना साक्षर केले आहे. शैक्षणिक कार्य व महिलांची उन्नती यासाठी मी सतत कार्यरत राहिले आहे आजही वयाच्या 75 व्या वर्षी मी झोपडपट्टीतील विद्यार्थ्यांना लिहायला वाचायला शिकवण्यापासून त्यांची उत्तम तयारी करून घेते आणि नवोपक्रम या सर फाउंडेशनच्या उपक्रमांतर्गत मी केलेल्या तीन वर्षाच्या कामावर प्रोजेक्ट सबमिट केला आणि त्यासाठी मला राष्ट्रीय सन्मान प्राप्त झाला त्याचे वितरण जून मध्ये आहे आता अनेक विद्यार्थी शाळा संस्था यांना मदत मिळवून देण्याचे कार्य मी करीत आहे..

? मनमंजुषेतून ?

“गोष्ट एका आईची…सुश्री शीला पतकी 

साधारणपणे 2005 सालची गोष्ट होती. चौथीचे निकाल लागल्यावर आमच्याच प्राथमिक विभागाकडून ऍडमिशनसाठी पाचवीकडे दाखले पाठवले जातात.. हायस्कूल विभागाकडे. ते काम क्लार्कच्या मार्फत होत असतं. पण एका ऍडमिशनसाठी मात्र माझ्याकडे एक बाई आल्या आणि म्हणाल्या “ माझ्या मुलीचा प्रॉब्लेम आहे. प्राथमिक शाळेच्या मुख्याध्यापकांनी तिला घरीच ठेवा असे सांगितले आहे किंवा बाईंचा सल्ला घ्या म्हणून मी तुमच्याकडे आले. ”   मी म्हणाले “ का बरं पाचवीत तिला घरी का बसवून ठेवायचं तिचे शिक्षण बंद करण्याचा आपल्याला काय अधिकार?”  त्यावर त्या म्हणाल्या, “  तिचे मेंदूच एक ऑपरेशन झाले आहे आणि त्यामध्ये एक छोटी ट्यूब आहे. तिला ट्यूमर झाला होता. तिला फारशी दगदग करायची नाही, खेळायचे नाही. तेव्हा मी आपल्याला विनंती करायला आलेय की तिच्याबरोबर मी शाळेत दिवसभर बसले तर चालेल का?”  आता पाचवीतल्या मुलीसाठी आईने दिवसभर शाळेत बसून राहायचं मला जरा गमतीदार वाटत होतं. मी म्हणाले, “ पण काय गरज काय त्याची…” … “  नाही हो तिला इतर मुली खेळायला लागल्या की खेळावे उड्या माराव्या वाटतात पळाव वाटतं… पण या सगळ्याला तिला बंदी 

आहे “ मी थोडी गप्पच झाले. “ दहा वर्षाच हसत खेळत उड्या मारणारे लेकरू त्यांनी गप्प बसून राहायचं.. खरंच अवघड होतं ते. ते तिने करता कामा नये म्हणून मला इथे थांबणे भाग आहे त्याशिवाय तिला अचानक काही त्रास झाला तर तुम्ही कुठे धावपळ करणार माझ्याकडे तिची औषधे असतात…!”

मी विचार केला आणि म्हणाले “ ठीक आहे तुम्ही वर्गाच्या बाहेर असलेल्या मैदानाच्या बाजूला बसू शकता…”  जून महिन्यात शाळा सुरू झाली  त्यानंतर त्या बाई येऊन वर्गाच्या बाहेर बसायला लागल्या आठ दहा दिवसांनी एक दोन शिक्षक आले आणि म्हणाले “ बाई त्या मुलीची आई त्या बाहेर बसतात आणि आम्हाला उगाचच डिस्टर्ब झाल्यासारखं होतं तिचा प्रॉब्लेम मोठा आहे उगाचच त्या मुलीची काळजी वाटते तिला काही झालं तर काय करायच…”  मी त्यांना म्हणाले, “  काळजी करण्यापेक्षा काळजी घेणं जमतं का बघा.. ”  त्यांचं म्हणणं होतं की जोखीम आपण कशाला घ्यायची? मी म्हणलं “आपली मुलींची शाळा आहे मुलींच्या शिक्षणासाठी आपण प्रयत्न करतो आणि या मुलीला का आपण वंचित ठेवायचं आणि मला असं वाटतं की आपल्यापेक्षा जास्त काळजी इतर शाळेत कोणी घेणार नाही कारण आपण सगळ्या महिला आहोत मला एक मुलंबाळं नाहीत, पण तुम्ही तर आई आहात. तुम्ही त्याना खूप छान पद्धतीने समजून घेऊ शकाल.. विचार करा आपल्या पोटी असं पोर असतं तर आपण काय केलं असतं म्हणजे आपण आपल्या मुलाच्या बाबतीत जे केलं असतं तेच आपण त्यांच्यासाठी करू.. शाळेतनं कोणालाही काढणे शक्य नाही मला आपण त्या माऊलीला थोडी मदत करू!”  

या पद्धतीने शिक्षण सुरू झालं. मधे मधे त्या मुलीला त्रास व्हायचा तिची एक दोन ऑपरेशनस झाली मुलगी खूप गोड होती. आनंदी होती तिला आपल्या गंभीर दुखण्याची जाणीव नव्हती त्यामुळे आईला अधिक काळजी घ्यावी लागत होती साधारण सात साली मी रिटायर झाले आणि मग मी माझ्या कामाला लागले मुलगी तो पावतो सातवीत गेलेली होती पुढे मी काही फारशी चौकशी केली नव्हती पण आमचे सगळे शिक्षक खूप छान होते मदत करणारे मायाळू त्यामुळे पुन्हा काही त्यांना सांगावं असं मला मुळीच वाटलं मुख्याध्यापिका ही चांगल्या होत्या बरेच वर्षानंतर म्हणजे साधारणपणे दहावीचा निकाल लागल्यावर.. मी आमच्या नापास शाळेच्या संस्थेमार्फत नापास झालेल्या नववी आणि दहावीच्या मुलांना आणि पालकांना समुपदेशन करीत असे एक मीटिंग त्यासाठी फक्त लावलेली होती पालक आले प्रत्येकाचे प्रश्न जाणून घेतले त्याप्रमाणे त्यांना उपाय सांगितले आणि एका मुलीच्या आई नंतर थांबून राहिल्या त्या मला भेटल्या आणि त्या त्याच मुलीची आई होत्या त्या म्हणाल्या तुमच्यामुळे ती दहावीपर्यंत आली पण आता नापास झाली आहे आणि दोन विषय राहिले आहेत तुमच्याकडे काही सोय होईल का? मी म्हणलं माझ्याकडे ऑक्टोबरची व्यवस्था नाही पण माझ्या शिक्षकाकडे जर तुम्ही पाठवलं तर ते तिची तयारी करून घेतील त्या म्हणाला हरकत नाही मी पाठवते आता ती एकटी जाणे येणे करू शकते ठीक आहे त्यानंतर त्या म्हणाल्या बाई मला फार काळजी आहे या मुलीची आता सातत्याने मदत करणे तिला मला फार अवघड होत आहे या मुलीच्या दुखण्यामुळे पैसाही खूप खर्च करावा लागला त्यांनी दुसऱ्या अपत्याचा विचारही केला नाही असं बरच काही त्या मला सांगत होत्या त्या शेवटी म्हणाल्या खरं सांगू बाई मी जगातली एक वेगळी आई असेल किंवा एकमेवच अशी आई असेल की रोज संध्याकाळी देवाजवळ दिवा लावल्यानंतर आपल्या मुलीच्या मरणाची कामना देवापुढे करते मी रोज देवाला सांगते माझ्यासमोर हिला ने कारण आमच्या नंतर हिला इतकं समजून कोण घेणार आहे आता ती तरुण झालीये त्यामुळे जागोजागी मला सजग राहून तिची काळजी घ्यावी लागते तिच्या ट्यूमर मुळे काही वेळा थोडसं विस्मरण होतं अजून ते शंभर टक्के बरं झालेलं नाही मी त्याना म्हणाले असं करू नका देवाने प्रत्येकाला त्याचं त्याचे भाग्य दिले आहे तिचं जे नशीब असेल तेच होईल तुम्ही का काळजी करता त्यापेक्षा जमेल तेवढी काळजी घ्या मग मी आमच्या नापास शाळेतील दोन शिक्षकांवर तिचे जबाबदारी सोपवली मी त्या बाईंना सल्ला दिला खरा पण मी दिवसभर अस्वस्थ होते….. की एखादी आई आपल्या मुलीला परमेश्वरांन घेऊन जावे.. तिचे आयुष्य आपल्यासमोर संपावे यासाठी प्रार्थना करते आणि त्या पाठीमागेही आईचे प्रेम असावे.. यासारखे काय होतं दुसरं.. प्रेमाचा हा कोणता प्रकार ?.. हे असं सगळं फक्त आईच करू शकते  तिच्या हातातले सगळे उपाय संपतात आणि समाजातले वेगळेच प्रश्न तिला भेडसावायला लागतात तेंव्हा ती तरी यापेक्षा दुसरं काय करणार.. ? त्यानंतर ऑक्टोबर मध्ये ती पास झाली पुढे माझा संपर्क संपला नंतर 17 साली मी माझ्या संस्थेच्या माध्यमातून  एक पाककला स्पर्धा ठेवली होती त्यामध्ये जवळपास 40 एक महिलांनी भाग घेतला होता संस्थेच्या वर्धापन दिनानिमित्त स्पर्धा होती सर्व महिलांची नोंदणी क्लार्क करून घेत होती मी अन्य कामांमध्ये होते !सर्वांनी आपापली पाककृती सजवून मांडली.. शिक्षकांचे परीक्षण झालं.. सर्वांना दरम्यानच्या काळात अल्पोपहार आणि चहा देण्यात आला आणि हॉलमध्ये एकत्र करून मी आमच्या संस्थेबद्दल सर्वांना माहिती देत होते नापास शाळा.. महिलांसाठी करत असलेले कार्य इत्यादी माहिती मी देत होते  हे सगळं चालू असताना एक बाई उठून उभ्या राहिल्या आणि म्हणाल्या मी बोलू का… ?. माझ्या एकदम लक्षात आलं की ह्या त्याच मुलीची आहेत.. त्यांनी माईक हातात घेतला आणि त्या बोलू लागल्या…. माझी मुलगी बाईंमुळे दहावी झाली आणि माझ्याकडे वळून पाहत म्हणाल्या तुम्ही कामात होता त्यामुळे तुम्ही मला पाहिले नाही आणि कदाचित ओळखले नसेल पण शीला पत्की मॅडमने माझ्या मुलीसाठी खूप केले आहे या संस्थेमार्फत दोन शिक्षकानी तिची तयारी करून घेतली आणि ती दहावी झाली आणि बाई मला हे सांगायला अतिशय आनंद होतो कि आज माझी मुलगी बीए झाली आहे आणि आज ती या तुमच्या स्पर्धेमध्ये सहभागी झाली आहे मग तिने सर्वांना आपल्या मुलीची कथा सांगितली तिची मुलगी उभी राहिली आणि पुढे आली.. खूप सुंदर दिसत होती मी तिला पंधरा वर्षाची पाहिलेले आता ती छान वयात आलेली… गोरी पान देखणी युवती झालेली होती सर्वात पुढचं वाक्य त्यांचे खूप छान होतं त्या म्हणाल्या बाई माझी मुलगी पूर्णपणे बरी झाली असून डॉक्टरांनी तिचा विवाह करायलाही परवानगी दिलेली आहे आता मेंदूचा म्हणून तिला कोणताही त्रास नाही तिचा ट्यूमर पूर्ण बरा झाला संपूर्ण सभागृहा ने टाळ्या वाजवल्या टाळ्यांच्या कडकडाटा त्या बाईंचा जणू आम्ही सत्कारच केला मी तर अचानक घडलेल्या प्रसंगाने भांबावून गेले होते डोळ्यातून पाणी वाहत होते.. मी भाषणाला उभी राहिली आणि एवढेच म्हणाले हेच आमच्या संस्थेचे कार्य आहे की एखाद्याला हात देऊन उभे करणे आणि मी सर्वांना हेही सांगितले देव कनवाळू आहेच पण तो कधीकधी आईचही ऐकत नाही ते खूप छान आहे या बाई रोज आपल्या मुलीसाठी देवाला प्रार्थना करीत होत्या की देवा माझ्या मुलीला माझ्या आधी घेऊन जा पण देवाने त्या प्रार्थनेतला अर्थ जाणून त्या मुलीला सक्षम करून सोडले मी जे चित्र पाहत होते त्याच्यावर माझाच विश्वास नव्हता…. !

माझ्या संस्थेचा वर्धापन दिन इतका फलदायी सुंदर साजरा होईल असं मला कधीच वाटलं नव्हतं आजचा वर्धापन दिन काही वेगळाच होता खूप बळ देणारा आणि खूप प्रेरणा देणारा आणि माझी खात्री झाली की आईच्या प्रार्थनेत बळ असतं पण त्याहून अधिक तिच्या प्रेमात बळ असते हेच खरं…. !!!

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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