हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति।)

इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’ ☆

जन्म शब्द मानव जाति के लिए कभी न भूलने वाला वह क्षण है, जब इस जग में हमारा आगमन होता है। जन्मदिन किसी का भी हो महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम अपनों का जन्म दिवस बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं तब हमारे भगवान कृष्ण का जन्मदिन हो तो कहने ही क्या। कान्हा का जन्मदिन मनाने के लिए मन में कितनी श्रद्धा, भक्ति, आस्था, समर्पण और उत्साह होता है, इसे स्वयं आप हम सभी जानते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी अर्थात कृष्ण जन्माष्टमी की प्रतीक्षा सभी हिंदुओं को पूरे वर्ष रहती है। हरित वसुंधरा, पानी से लबालब झील, बावली, सरोवर और नदियों में उछलती मचलती व्यापक जलराशि के दृश्य देखकर प्रतीत होता है जैसे वसुधा का सौंदर्य चरम पर हो। ऐसे आनंदमय वातावरण में अपने कान्हा का जन्मदिन मनाना हर सनातनी के लिए गर्व की बात है। श्री कृष्ण ने अपने अवतारी जीवनकाल में जितने चमत्कार, लीलाएँ और धर्मसंस्थापनार्थाय कार्य किए हैं, शायद भगवान विष्णु के किसी अन्य अवतारी ने नहीं किये।

हम प्रतिवर्ष भगवान कृष्ण का जन्मदिन धार्मिक परंपराओं, आचार्य के निर्देशानुसार विधि विधान से मनाते हैं। झाँकियाँ सजाते हैं। भक्तिभाव से ओतप्रोत भजन गाते-सुनते हैं व्रत-उपवास रखते हैं। कृष्ण भक्ति में लीन रहते हैं। समाप्ति पर प्रभु से आशीष व प्रसाद लेते हैं। तदुपरांत कृष्ण जन्मोत्सव संपन्नम् कहकर स्वयं को धन्य मान लेते हैं।

ईश्वर की इस आस्था और भक्ति पर कोई भी टिप्पणी करना ईश निंदा जैसा होगा। टिप्पणी करना भी नहीं चाहिए लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि हम यह जन्मदिन क्यों मनाते हैं। इससे हमें वास्तव में कुछ अर्जित हो भी रहा है अथवा नहीं। यदि हम भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना रहे हैं तो कम से कम हमें उनके इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही चाहिए। यहाँ मेरा आशय यह है कि भले ही हमें उनसे संबंधित व्यापक जानकारी न हो परंतु हम भगवान श्री कृष्ण से इतने भी अनभिज्ञ न हों कि दूसरों के समक्ष हमें लज्जित होना पड़े। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता”. अर्थात अनंत श्रीहरि की कथायें भी अनंत हैं। इसलिए अनंत नहीं तो उनकी मूलभूत जानकारी होना ही चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि हम उनके बताये मार्ग का कितना अनुकरण कर पा रहे हैं, क्योंकि ऐसे में श्री कृष्ण के प्रति आस्था और विश्वास रखना आपका धार्मिक कर्तव्य होगा। मानव जाति को समाज में अपने हिसाब से रहने की स्वतंत्रता तो होना चाहिए लेकिन स्वेच्छाचारिता नहीं। हमारे ये पर्व और जन्मदिन हमें यही सीख देते हैं और यही उद्देश्य भी होता है। जब कृष्ण जन्माष्टमी हम सभी मनाते हैं तब आईये, उनसे संबंधित कुछ तथ्यों को जानते हैं।

भगवान श्री कृष्ण का जन्म वर्ष, गोकुल-वृंदावन और मथुरा की निवास अवधि। द्वारकाधीश बनने के समय में  मतैक्य नहीं है, फिर भी अंतरिम रूप से  स्वीकारते हुए उनके बारे में कुछ बातें जानते हैं। कुछ वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व लगभग 3100 ईस्वी में हुआ था। भगवान विष्णु के आठवें अवतारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारावास में देवकी और वसुदेव के पुत्र के रूप में हुआ था। वध के डर से पिता वसुदेव जी कृष्ण के पैदा होते ही उन्हें गोकुल में यशोदा-नंद के घर छोड़ आए थे। पूरे बाल्यकाल में इन्होंने अपनी बाल लीलाओं और चमत्कारों से सारे गोकुल और वृंदावन वासियों को चमत्कृत तथा सम्मोहित- सा कर रखा था। अनेक राक्षसों का वध तथा गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाकर स्वयं को अलौकिक बना दिया था। इनके बचपन से ही लोग इन्हें माखनचोर, मुरारि, गिरधारी, रासबिहारी के नाम से पुकारने लगए थे। गोप-गोपियों से प्रेम, रासलीला तथा राधा से पारलौकिक प्रेम मानव लोक में अद्वितीय कहा जा सकता है। इस अवतार में लक्ष्मी स्वरूपा राधारानी का विरह भी अकल्पनीय है। अपने जीवन के बारहवें वर्ष में श्रीकृष्ण ने वृंदावन छोड़ा और मथुरा जाकर अपने मामा कंस का वध किया। पुनः राजा अग्रसेन का राजतिलक कराया। जरासंध द्वारा अपने दामाद कंस का बदला लेने के उद्देश्य से मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया, लेकिन कृष्ण जी उसे हर बार जीवित छोड़ते रहे। कृष्ण जी अंतिम बार युद्ध छोड़कर भाग गए जिस कारण उन्हें भगवान रणछोड़ भी कहा जाता है। तभी परिवार और प्रजा सहित वे मथुरा छोड़कर द्वारका में जा बसे। करीब 36 वर्ष तक द्वारकाधीश बने रहे। इसी अवधि में महाभारत सहित धर्म की स्थापना हेतु अनेक कार्य करते हुए अपने अवतार को सार्थक किया।

यही से उनकी द्वारकाधीश कृष्ण की यात्रा शुरू होती है महायोगेश्वर, सुदर्शन चक्रधारी, विराट रूप धारी, सारथी और धर्म संस्थापक कृष्ण जैसी भूमिकाओं का उद्देश्यपूर्ण निर्वहन करते हैं। भगवान कृष्ण लगभग 36 वर्ष तक द्वारकाधीश के रूप में रहते हैं। 125 वर्ष की आयु में श्री कृष्ण जी वापस निजलोक गमन कर जाते हैं।

आज से लगभग 5230 वर्ष से हम निरंतर भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाते चले आ रहे हैं। यही हमारे सनातन संस्कार हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए आज भी जीवित हैं। इनसे भी हमें सीख मिलती है कि जब हम अपने आराध्य भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना कर उनके बताए आदर्श मार्ग व उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का विधिवत स्मरण करते हैं, तब हम अपने बुजुर्गों, पूर्वजों, पारिवारिक सदस्यों के भी जन्मदिन को हर्षोल्लास से मनायें। हम अपने महापुरुषों, मार्गदर्शकों, देशभक्तों के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता निवेदित करना अपना नैतिक धर्म मानें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 142 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 142 – मनोज के दोहे ☆

अच्युत प्रभु परमात्मा, सबका पालन हार।

जगत नियंता है वही, यह वेदों का सार।।

*

अलंकार से अलंकृत, करें यशश्वी गान।

गुणवर्धन यश अर्चना, मिले सदा सम्मान।।

*

सूर्यसुता में गंदगी, नाग-कालिया दाह।

उगल रही है झाग फिर, नहीं सूझती राह।।

*

द्वापरयुग में कृष्ण जी, गोरक्षक बलराम।

गोवर्द्धन संकल्प ले, किए विविध हैं काम।।

*

भाद्रमाह जन्माष्टमी, मुरलीधर घनश्याम।

दुख को हरने अवतरित, जय पावन ब्रज-धाम।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1 ?

(13 फरवरी 2020)

भ्रमण मेरा शौक़ है। इस बार हमने सोचा कि अपने देश के उन क्षेत्रों का दौरा किया जाए जो हमारे इतिहास और पुराणों में वर्णित हैं।

इस वर्ष हमने चुना गुजरात।

हम पुणे से सोमनाथ के लिए रवाना हुए। पुणे से सोमनाथ जाने के लिए सोमनाथ नामक कोई स्टेशन नहीं है। इसके लिए आपको वेरावल नामक स्टेशन पर उतरना होगा। पुणे से वेरावल तक रेलगाड़ी की सुविधाजनक व्यवस्था उपलब्ध है। विरावल से सोमनाथ का मंदिर सात किलोमीटर की दूरी पर है। हम पुणे से शाम को रवाना हुए और दूसरे दिन देर दोपहर को हम वेरावल पहुँचे।

गुजरात जानेवाली रेलगाड़ियों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। यह मेरा अनुभव रहा इसलिए हम पर्याप्त भोजन सामग्री साथ लेकर ही चले थे।

होटल पहुँचकर नहा धोकर हम मंदिर का दर्शन करना चाहते थे।

हमने शाम को ही सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। इसे प्रथम ज्योर्तिलिंग मंदिर माना जाता है। सुंदर, साफ़ – सुथरा विशाल परिसर जो समुद्र के तट पर ही स्थापित है। हमें संध्या के समय आरती में शामिल होने का अवसर मिला। मंदिर में स्त्री पुरुषों की कतारें अलग कर दी जाती है। मंदिर के गर्भ गृह का सौंदर्य देखते ही बनता है। आज अधिकांश हिस्सा चाँदी का बनाया हुआ है, पहले यही सब सोने से मढ़ा रहता था। आरती में उपस्थित रहकर मन प्रसन्न हुआ।

यह फरवरी का महीना था। डूबते सूरज की किरणों से मंदिर का कलश स्वर्णिम सा चमक रहा था। धीरे धीरे अस्ताचल भानु के साथ कलश का रंग मानो बदलने लगा। कुछ समय बाद केवल कलश पर ही सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई भक्त प्रभु की वंदना करके बिना पीछे मुड़े धीरे -धीरे प्रभु की ओर ताकते हुए मंदिर से विदा ले रहा हो। समुद्र जल में सूर्य विलीन हो गया। आसमान अचानक लाल-सुनहरी छटाओं से पट गया मानो शिवजी के सुंदर विस्तृत तन पर पारदर्शी सुनहरी ओढ़नी डाल दी गई हो। आकाश को देख मन मुग्ध हो उठा।

समुद्र की लहरें दौड़ -दौड़ कर मंदिर की दीवारों को ऐसे छूने आतीं मानो छोटा बच्चा माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहा हो और जब माँ उसे पकड़ना चाह रही हो तो नटखट फिर भाग रहा हो। साथ ही ठंडी हवा तन -मन को शीतल कर रही थी। समस्त परिसर में सुगंध प्रसरित थी।

शाम को सूर्यास्त के बाद लाइट एंड साउंड कार्यक्रम का हमने आनंद लिया। उसके विशाल इतिहास की जानकारी फिर एक बार ताज़ी हो गई। इस विशाल और आकर्षक मंदिर की रचना सबसे पहले किसने की थी इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु ऋग्वेद में इसके तब भी होने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है आज से कुछ 3500 वर्ष पूर्व चंद्रदेव सोमराज ने इस मंदिर की संरचना की थी।

जिस मंदिर की संपदा को एक ही विदेशी ताक़त ने सत्रह बार लूटा, वहाँ कितनी संपदा रही होगी जिसे वे लूटने बार -बार आए होंगे?

मेरे मन में सवाल उठता है कि इतना वैभवशाली राज्य ने एक-दो आक्रमण के बाद भी सुरक्षा बल तैनात रखने की आवश्यकता महसूस न की ? हमने क्या तब भी अपनी सुरक्षा की बात न सोची? क्या हम भारतीयों में सच में एकता का अभाव था जो विदेशी आ – आकर हमें लूटते रहे? हम देश के नागरिक इतने बेपरवाह से बर्ताव क्यों करते रहे !!

मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया, हिंदुओं की मूर्त्ति पूजा का विरोध यहाँ राज करनेवाले हर मुगल ने किया। आखरी बार औरंगजेब ने इसे बुरी तरह से ध्वस्त किया। हिंदू राजाओं ने बार – बार मंदिर का निर्माण भी किया। आज मंदिर पहले की तरह स्वर्ण से भले ही मढ़ा न हो पर उसकी भव्यता और सौंदर्य को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है।

आज हम जिस मंदिर का दर्शन करते हैं उसे सन 1950 में भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दोबारा बनवाया था। पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

आज यहाँ भारी सुरक्षा की व्यवस्था है जो गुजरात सरकार के मातहत है। फोटो खींचने तक की सख्त मनाही है। मोबाइल, कैमरा आदि जमा कर देने पड़ते हैं। काफी दूर तक चलने के बाद मंदिर का परिसर प्रारंभ होता है। मंदिर के बाहर मेन रोड है आज, शायद कभी वहाँ बाज़ार हुआ करता था।

यह वेरावल शहर समुद्रतट पर बसा होने के कारण शहर में घुसते ही हवा में मछली की तीव्र बू आती है। यहाँ भारी मात्रा में मछली पकड़ने का व्यापार किया जाता है। पचास प्रतिशत लोग मुसलमान हैं जो मछली पकड़ने का ही व्यापार करते हैं। यहाँ नाव बनाने और उनकी मरम्मत करने के कई कारखाने हैं। मूल रूप से लोग समुद्र से जुड़े हुए हैं।

यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं। सभी गुजराती और हिंदी बोलते हैं। सभी एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। दो धर्मों के बीच मतभेद कहीं न दिखाई दिया जो आमतौर पर टीवी पर टीआरपी बढ़ाने के लिए दिखाए जाते हैं। लोग मिलनसार हैं और सहायता के लिए तत्पर भी। आनंद आया सोमनाथ का दर्शन कर और वेरावल के निवासियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार पाकर।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani1556@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 168 ☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री चंद्रभान राही जी द्वारा लिखित पुस्तक “मानसी…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 168 ☆

☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – मानसी

उपन्यासकार – चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक – सर्वत्र, भोपाल

पृष्ठ – २७८, मूल्य – ३९९ रु

पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था। इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई। इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया। स्त्री अस्मिता, लिंग भेद, नारी-जागरण, स्त्री जीवन की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता, स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ, कहानियों, उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं। स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था। उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था। महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया। पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया। दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है। नार्याः यत्र पूज्यंते। । के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा, किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है। कानून, नारी आंदोलन, स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं, और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं। इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है। स्त्री मन को पढ़ने की, उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में, स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है। मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये, समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित, तुलसी सम्मान, शब्द शिखर सम्मान, पवैया सम्मान, देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान, श्रम श्री सम्मान, स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है। मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है। वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं। एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म करते हैं। अध्ययन, अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं, पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है। अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं। स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं। वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए। ” स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी’ के लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल, स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है। ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं। आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी, मुंडा, मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी, चकाचौंध की दुनियां वाली नैना, गिरधारीलाल, दिवाकर, रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है। उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है। यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है। पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं, भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों, स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों, पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है। यह लेखकीय सफलता है।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था, अब तो माध्यम बदल रहे हैं, कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं। उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये, अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति ” कुछ तो देखा है ” में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं। केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी, अतः कुछ अंश उधृत हैं। । ।

‘स्त्री’, जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है।

‘स्त्री’ जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको ‘वेश्या’ का नाम धर देता है।

‘स्त्री’ को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

‘स्त्री’ जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता।

“स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है। “

“मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। “

“मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है। “

“उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है। “

” दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती ‘तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई। ‘

‘स्त्री’, ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता। “

‘स्त्री’ कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है। ‘स्त्री’ कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता। “

मानसी’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया ‘वेश्या’ है। ‘स्त्री’ वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान क्यों? “स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है। “

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा। वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे। उपन्यास अमेजन पर सुलभ है, पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 456 ⇒ रिश्तों की धूप छांव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्तों की धूप छांव।)

?अभी अभी # 456 ⇒ रिश्तों की धूप छांव? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यहां कौन है तेरा,

मुसाफिर जायेगा कहां

दम ले ले घड़ी भर,

ये छैयाँ पायेगा कहां ..

हमें छाँव की आवश्यकता तब ही होती है, जब सर पर तपती धूप होती है, और पांव के नीचे पिघलता पत्थर, लेकिन अगर रास्ता ही बर्फीला हो, और कहीं सूरज का नामो निशान ही ना हो, तो हमारी गर्म सांसें भी जवाब दे जाती है, और बस बाकी रह जाती है, एक उम्मीद की किरण।

रिश्ते हमारी जिंदगी की धूप छांव हैं, रिश्ता उम्मीद का एक ऐसा छाता है, जो बारिश में भी हमारे सर को भीगने से बचाता है, और धूप में भी सूरज की तपती धूप में हमें छांव प्रदान करता है। लेकिन जब समय की आंधी चलती है, तो ना तो सर के ऊपर का छाता साथ देता है और ना ही अपना खुद का साया। ।

पैदा होते ही, हम रिश्तों में ही तो सांस लेते हैं, और पल बढ़कर बड़े होते हैं।

लेकिन बदलते वक्त के साथ अगर इन रिश्तों से आती खुशबू गायब हो जाए, रंग बिरंगे फूल अगर कागज के फूल निकल जाएं, तो एक प्यार के रिश्तों का प्यासा, इन कागज़ के फूलों को देखकर सिर्फ यही तो कह सकता है ;

देखी जमाने की यारी

बिछड़े सभी बारी बारी

क्या ले के मिलें

अब दुनिया से,

आँसू के सिवा

कुछ पास नहीं।

या फूल ही फूल थे दामन में,

या काँटों की भी आस नहीं।

मतलब की दुनिया है सारी

बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी

वक़्त है महरबां, आरज़ू है जवां

फ़िक्र कल की करें, इतनी फ़ुर्सत कहाँ…

मरने जीने से रिश्ता नहीं मर जाता, लेकिन जब इंसानियत मर जाती है, तो सारे रिश्ते भी दफ़्न हो जाते हैं। ।

साहिर एक तल्ख़ शायर था। शौखियों में फूलों के शबाब को घोलने का हुनर उसके पास नहीं था। उसकी तो ज़ुबां भी कड़वी थी और शराब भी और शायद इसीलिए गुरुदत्त जैसा संजीदा कलाकार हमारी इस नकली दुनिया में ज्यादा सांस नहीं ले सका।

होते हैं कुछ लोग, जो अकेले ही खुली सड़क पर सीना ताने निकल पड़ते हैं, फिर चाहे साथी और मंजिल का कोई ठिकाना ना हो। जो मिल गया उसे मुकद्दर बना लिया और जो खो गया, मैं उसको भुलाता चला गया। ।

काश सब कुछ भुलाना इतना आसान हो। काश हमारे रिश्ते किसी ऐसे फूलों के गुलदस्ते के समान हो, जो कभी मुरझाए ना। काश पुराने रिश्तों का भी नवीनीकरण हो पाता, कुछ निष्क्रिय रिश्तों में फिर से जान आ जाती, तो यह जिंदगी जीने लायक रह जाती। रिश्तों को ढोया नहीं, लादा नहीं जाए, उनको प्रेम की चाशनी में भिगोया जाए, धो पोंछकर चमकाया जाए। मतलब और स्वार्थ के नये रिश्तों में वह चमक, दमक कहां।

Old is gold…..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 98 – देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 98 ☆ देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मीडिया और सोशल ने राजनीति को इस कदर हवा दी है, कि अब वो काबू में नहीं हो पा रहा हैं। सोते जागते, खाते पीते और ये चोबीस घंटे समाचारों को सुनाने वाले चैनल, हमारे जीवन में राजनीति का विष घोल चुके हैं।

बाप बेटा, पति पत्नी सभी संबंधों की दूरियां बढ़ाने के लिए अब और कुछ भी नहीं चाहिए। यादि आप अपने किसी के रिश्तों में दरार डालना चाहते है, तो उस व्यक्ति की राजनैतिक सोच के विरुद्ध चले जाएं। संबंधों में वैमनस्यता स्वाभाविक रूप से आ जायेगी।

राजनीति, अब क्या, हमेशा से ही घृणित और नीच प्रवृत्ति की होती है। आज के इस दौर में जब सामाजिक सोच और मानवीय मूल्य पातललोक से भी नीचे जा चुके है, तब राजनीति की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

समाचार पत्र में उपरोक्त पंक्तियां पढ़ कर बहुत सुकून मिला, चलो अमेरिका जैसे देश में भी हमारे जैसी मानसिकता वाले लोग ही रहते हैं, और घटिया राजनीति में ही जीवन यापन करते हैं।

हम भी जब तीन चार मित्र मिलते हैं, तो ना चाहते हुए भी कब राजनीति वाली लाइन पकड़ लेते है, ज्ञात ही नहीं होता है। वो तो जब आवाज़ में गति और बुलंदी आ जाती है, तो समझ आता है कि राजनीति की तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी हैं। ये ही हाल परिवार मिलन के समय होता है।

व्हाट्स ऐप के समूहों पर ये ही लागू होता हैं। एडमिन के समझाने पर भी सदस्य राजनीति के घिसे पिटे मैसेज साझा करने से बाज़ नहीं आते हैं। कुछ सदस्य तो नाराजगी में समूह तक त्याग देते हैं। तैयार (बने बनाए) राजनीति और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले मैसेज प्रेषित कर अपने आप को धर्म और राष्ट्र के प्रति बहुत बड़ा और महान समझने लगते हैं।

हमें भी इंतजार है, हमारे देश में भी कब विवाह, भंडारे, जन्मदिन आदि में राजनीति करने वालों को ‘भोजन निषेध है’, कह कर रवाना कर दिया जायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #252 ☆ मळभ दाटते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 252 ?

मळभ दाटते…  ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

अंधाराला आधाराची गरज भासते

भयान शांती मनात माझ्या भिती साठते

*

भिती कशाची काही वेळा समजत नाही

कारण नसता स्वतःभोवती मळभ दाटते

*

निसर्ग राजा असा कसा तू सांग कोपतो

हादरते ही धरणी अन आभाळ फाटते

*

तडफडून हे मासे मरती तळे आटता

सूर्य कोपता पाणी सुद्धा बूड गाठते

*

भाग्यवान हे रस्ते आहे देशामधले

वृष्टी होता रस्त्यावरती नाव चालते

*

झेड सुरक्षा नेत्यांसाठी बहाल होता

देश सुरक्षित आहे त्यांना असे वाटते

*

बलात्कार हा झाल्यानंतर जागे होती

विरोधकांची नंतर येथे सभा गाजते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ व्यथा… ☆ सुश्री अरुणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरुणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ व्यथा… ☆ सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆

(वृत्त- दिंडी)

काय झाली हो चूक उभयतांची

एक पुत्रासी दूर धाडण्याची

स्वप्न एकच ते मनी जपुन होतो

प्राप्त करुनी यश पूत गृही येतो॥१॥

*

लेक भारी हो गुणी आणि ज्ञानी

अती लोभस अन् गोड मधुर वाणी

मान राखी तो वडील माणसांचा

गर्व नच त्यासी कधीही कशाचा॥२॥

*

काय जादू हो असे त्याच देशी

विसर पडतो का त्यास मायदेशी

परत येण्याचे नाव घेत नाही

जवळ वाटे का तोच गाव त्याही॥३॥

*

वदे आम्हासी का न तिथे जावे

“सर्व त्यजुनी का कसे सांग यावे

याच मातीतच सरले आयुष्य

याच भूमीतच उर्वरित भविष्य”॥४॥

*

नसे आम्हा तर अपेक्षा कशाची

पडो कानांवर खबर तव सुखाची

वृद्ध आम्ही रे आश्रमात जावे

एकमेकासह सुखाने रहावे॥५॥

*

 दुःख होते रे फार तुझ्यासाठी 

कुठे आहे ती आमुचीच काठी

कथा आहे ही बहुतशादिकांची

हरवलेल्या त्या जेष्ठ बांधवांची॥६॥

© सुश्री अरुणा मुल्हेरकर 

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आला श्रावण पाहुणा… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ आला श्रावण पाहुणा…  सुश्री नीलांबरी शिर्के 

सारीकडे पावसाचा 

सुरू आहेच धिंगाणा

त्यात आवडता मास

आला श्रावण पाहुणा

*

 पाणलोट वाढलेला

तो गिळे कितीकाला

 जीव देणारा पाऊस

 झाला जीव भ्यायलेला

*

 काही समजेना मना

पंचमहाभुताचा खेळ

 कसा काय जगण्याचा

सांगा लावायचा मेळ

*

 गुरे गोठ्यात बांधून

 पाण्याखालती वैरण

 गायीचे निरागस डोळे 

 तीची रिकामी गव्हाण

*

 पाणी वाढता चौफेर

 पंप गेले पाण्याखाली

 विजेचाही चाले खेळ

 आत्ता होती आत्ता गेली

*

 सारीकडे चिकचिक

 वाढे साम्राज्य डासांचे

 रोगराई वाढविण्या हे

 कारण असे महत्वाचे

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व गोपाळकाला !‘☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

☆ ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व गोपाळकाला !‘ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी !!! सुमारे पाच हजार वर्षांपूर्वी श्रावण वद्य अष्टमीला, रोहिणी नक्षत्र, बुधवार, चंद्र वृषभ राशीला असताना रात्री बारा वाजता कृष्णाचा जन्म झाला. तेव्हापासून संपूर्ण भारतात श्रीकृष्ण जन्म साजरा करण्यात येतो.

‘कर्षति आकर्षति इति कृष्ण:’ ( जो सर्वांना आकर्षून घेतो तो कृष्ण). असे कृष्णाचे वर्णन करता येईल.

आपल्याकडे जरी तेहतीस ‘कोटी’ देव असले तरी त्यातील राम-कृष्ण या प्रमुख अवतारी देवांनी भारतीय जनमानसाला भुरळ पाडली आहे. प्रत्येक मनात रामकृष्णांनी ‘घर’ केले आहे. श्रीकृष्णाचा जन्म अष्टमीचा म्हणून त्या दिवशी उपवास करण्याची तसेच त्याच्या दुसऱ्या दिवशी गोपाळ’काला’ करण्याची परंपरा आहे. आज सुद्धा ती परंपरा तितक्याच श्रद्धेनी सर्व ठिकाणी पाळली जाते. फक्त आता काही ठिकाणी गोपाळकाल्याचे रुपांतर ‘दहीहंडी’त झाले आहे असे म्हटले तर वावगे होणार नाही. दुर्दैवाने आज दहीहंडी ‘पैसाहंडीत’ रुपांतरीत झालेली नाही असे म्हणायचे धाडस कोणी करु शकेल असे वाटत नाही.

‘गोपाळकाला’ ह्या शब्दाचा अर्थ आज पुन्हा एकदा नव्याने समजावून घेण्याची आणि समजावून देण्याची गरज आहे असे वाटते. किती साधा शब्द आहे ‘गोपाळकाला’. ‘गो’ ‘पाळ’ आणि ‘काला’ असे तीनच शब्द आहेत. जसे गो म्हणजे गाय तसे ‘गो’ चा दुसरा अर्थ इंद्रिय असाही आहे. गायींचे पालन करणारा कृष्ण !! इंद्रियांचे पालन करणारा कृष्ण !! इंद्रियांवर जो अंकुश ठेवू शकतो तो कृष्ण!! तसेच त्याचा असाही अर्थ घेता येऊ शकतो जो इंद्रियांवर विजय प्राप्त करतो तो कृष्ण !! कृष्ण म्हणजे काळा. काळ्या रंगात सर्व रंग सामावले जातात. काळा रंग हा उष्णता शोषून घेणारा आहे. ज्याची ‘स्वीकार्यता’ (Acceptance) पराकोटीची आहे तो कृष्ण !! सर्वात कुशल व्यवस्थापक कोण असेल तर कृष्ण !! किंवा आपण त्याला ‘आद्य व्यवस्थापन कौशल्य तज्ञ’ असेही म्हणू शकतो. भगवंताने रणांगणात सांगितलेली ‘गीता’ ही व्यवस्थापन कौशल्याचा विश्वकोश म्हटला पाहिजे.

ज्या कृष्णाला जन्माला येण्याच्या आधीपासून त्याचाच मामा मारायला टपला होता, जन्म झाल्याझाल्या ज्याला आपल्या सख्ख्या आईचा वियोग सहन करावा लागला, पुढे ‘पुतना मावशी’ जीव घेण्यास तयारच होती. नंतर ‘कालियामर्दन’ असो की ‘गोवर्धन’ पूजा असो ), कृष्णाने प्रत्येक गोष्ट सामाजिक बांधिलकी ध्यानात ठेऊन आणि मनाची प्रगल्भता दाखवत केली आहे, त्यामुळे आपण त्याला आद्य समाजसुधारक म्हटले तर अतिशयोक्ती होणार नाही. सामान्य मनुष्याचे जीवन सुकर होण्यासाठी वेळ पडल्यास जीव सुद्धा धोक्यात घालायचा असतो तसेच प्रत्येक गोष्ट भगवंत अवतार घेऊन करेल असे न म्हणता आपणही आपल्या काठीला झेपेल इतकी सामाजिक जबाबदारी घेऊन आपले समाजाप्रती, देशाप्रती असलेले कर्तव्य पार पाडायचे असते ही शिकवण कृष्णाने वरील दोन घटनांतून दाखवून दिली आहे असे म्हणता येईल. कृष्णाचे अवघे जीवन समाजाला समर्पित असेच आहे. अख्ख्या आयुष्यात श्रीकृष्णाने एकही गोष्ट स्वतःसाठी केलेली नाही.

आपल्या जीवनातील प्रत्येक गोष्ट निस्वार्थपणे करणारा कृष्ण !! आपल्या भक्तासाठी आपण दिलेले वचन मोडणारा कृष्ण !! आपल्या गरीब मित्राचाही (सुदामा) सन्मान करणारा कृष्ण !! पीडित मुलींशी विवाह करुन त्यांना प्रतिष्ठा देऊन सन्मानाने जगायला शिकविणारा कृष्णच !! महाभारतातील युद्ध टाळण्यासाठी आटोकाट प्रयत्न करणारा कृष्ण !! युद्धात अर्जुनाला ‘कर्मयोग’ समजावून सांगणारा आणि त्यास युद्धास तयार करणारा कृष्णच !! स्वतःला बाण मारणाऱ्या व्याधास अभय देऊन कर्मसमाप्ती करणारा कृष्णच !!

श्रीकृष्णाचे जीवन म्हणजे सदैव सत्वपरीक्षा आणि कायम अस्थिरता !! किती प्रसंग सांगावेत ? सर्वच गोड !! कृष्णाचा प्रेम गोड! कृष्णाचे भांडण गोड!, कृष्णाचे मित्रत्व गोड!, कृष्णाचे शत्रुत्व गोड! कृष्णाचे वक्तृत्व गोड! कृष्णाचे कर्तृत्व गोड! कृष्णाचे पलायन गोड! कृष्णाचा पराक्रम गोड! कृष्णाची चोरी गोड! कृष्णाचे शिरजोरी गोड! अवघा कृष्णच गोड! मधुर !!!

कृष्णाचा जन्म हा रात्रीचा म्हणजे स्वाभाविक अंधारातील आहे. आईच्या गर्भात देखील अंधारच असतो. सामान्य मनुष्याला पुढील क्षणी काय घडणार आहे याचे किंचित कल्पना देखील नसते. एका अर्थाने त्याच्या समोर कायम अंधार असतो. या अंधारातून मार्ग कसा काढायचा? हा मनुष्यापुढील मूलभूत प्रश्न आहे. याचे उत्तर आपल्याला भगवान कृष्ण आपल्या चरित्रातून देतात. कृष्णचरित्र म्हणजे आयुष्यात घडणाऱ्या प्रत्येक गोष्टीला / घटनेला ‘प्रतिसाद’ देत ‘आनंदात’ कसे जगायचे ह्याचा वस्तुपाठच ! आज सुद्धा कृष्णासारखे आचरण करुन सामान्य मनुष्य ‘कृष्ण’ होऊ शकतो. कृष्णाला यासाठीच ‘पुरुषोत्तम’ असे म्हटले जाते.

राम-कृष्ण यांना ‘अवतारी’ पुरुष ठरवून, त्यांचे उत्सव साजरे करुन आपले ‘कर्तव्य’ संपणार नाही. मग तो रामाचा जन्म असो की कृष्णाचा. येथील प्रत्येकाने महापुरुषाने मनुष्य म्हणूनच या भरतभूमीत जन्म घेतला आणि आपल्या असामान्य कर्तृत्वाने त्यांनी ‘याची देही याची डोळा’ ‘सामान्य मनुष्य’ ते ‘भगवान रामकृष्ण’ असा दिग्विजयी प्रवास केला असे इतिहास सांगतो. आपला ‘इतिहास’ खरा रामकृष्णांपासून सुरु होतो पण दुर्दैवानेआपण त्याला ‘मिथक’ मानतो. हीच खरी आपली शोकांतिका आहे. ( भारतीय ‘मानचित्रा’तील

(सांस्कृतिक नकाशा) ‘श्रीकृष्णमार्ग’ आणि ‘श्रीराममार्ग’ बघितला तर हे दोन्ही नरोत्तम आपल्या सांस्कृतिक एकतेचे प्रतिक आहेत हे आपल्या सहज लक्षात येईल. ‘द्वारका ते प्रागज्योतिषपूर’ आणि ‘अयोध्या ते रामेश्वरम्’ असे हे भारताच्या चारी कोपऱ्यांना जोडणारे आणि राष्ट्रीय एकात्मता जपणारे पुरातन मार्ग आहेत.

सध्या असे मानले जाते की देवांची षोडशोपचारे पूजा केली, त्यांचे उत्सव धुमधडाक्यात साजरे केले म्हणजे आमची त्यांच्याप्रति असलेली इतिकर्तव्यता संपली. सध्या सर्व देवतांचे उत्सव आपण ‘समारंभ’ (इव्हेंट) म्हणून साजरे करीत आहोत असे म्हटले तर अतिशयोक्ती होणार नाही. सर्व उत्सवातील ‘पावित्र्य’ आणि उत्सव साजरा करण्याच्या पाठीमागील ‘मर्म’ आपण सध्या विसरुन गेलो आहोत की काय? असे वाटावे अशी आजची परिस्थिती आहे. ‘गोपाळकाल्या’ तील कोणत्याच शब्दाला आपण सध्या न्याय देऊ शकत नाही असे वाटते. आधुनिककाळानुसार गोपाळकाला साजरा करताना त्यात योग्य ते बदल नक्कीच करायला हवेत पण त्यातील ‘मर्म’ मात्र विसरता कामा नये. सध्याच्या उत्सवात ना ‘गो’ (गायींचे ना इंद्रियांचे) चे रक्षण होते ना कसला ‘काला’ होतो. सर्वांचे सुखदुःख वाटून घेणे किंवा सर्वांच्या सुखदुःखात नुसते सहभागी न होता समरस होणे म्हणजे ‘काला’. ज्याला ‘श्रीकृष्णाचा काला’ समजला त्याला वेगळा ‘साम्यवाद’ (मार्क्सवाद नव्हे!) शिकायची गरज नाही.

श्रीकृष्णाचा जन्म गोकुळात झाला हे खरेच आहे. ‘गोकुळ’ म्हणजे आपले शरीर ! श्रीकृष्णाने गीतेत सांगितले आहे की मन म्हणजे मीच आहे. ‘त्या’ गोकुळात झालेला श्रीकृष्णाचा जन्म आपण सगळे अनेक वर्षे साजरे करीत आहोत. श्री सदगुरु गोंदवलेकर महाराजांनी सांगितल्याप्रमाणे जेव्हा प्रत्येकाच्या मनात श्रीकृष्णाचा जन्म होईल तोच खरा सुदिन !!!

राम कृष्ण हरी ।।

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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