मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “मायेचं मोल…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “मायेचं मोल…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

हे हवं तेव्हढं पैकी घ्या तुमास्नी पर माझ्या लेकराला आपल्या मायची माया तेव्हढी तुमच्या देशात इकत घेऊन द्या…. आता तो लै मोठा सायेब झालाय न्हवं..

पार तिकडं सातासमुद्राच्या पल्याड… तिथं त्येला समंधी हायती घरची दारची गोतावळ्याची… घरात लक्ष्मीवानी बायकू दोन पोरं हायती… आनी बाकी मस हायती पैश्याला पासरी असल्यावानी… अन हिकडं म्या त्येची एकच आय हाय… तळहाताच्या फोडावानी जपला, वाढवला मोठा केला… त्यो चार वरसाचा असताना त्येचा बा ॲक्सिडंट मधी खपला.. तवापासून म्या एकटीनचं या माझ्या पोराचं केलं… तो दिसा माजी मोठा बापय गडी होत गेला नि म्या साडेतीन हाताचं मुटकुळं होऊन इथं एकलीच पडलेय… तुमच्या सारखी त्याचे मैतर येत जात असतात घराकडं त्याच्यकडनं सांगावा नि पैक्याची चवड आणून देतात… परं पोरगं एकदा बी नदरंला पडाया न्हाई… आपल्या अडानी, काळ्या रंगाच्या खेडूत आयची त्येला आता लाज वाटतीया… त्या गोऱ्या कातडीच्या बाईनं त्याच्यावर चेटू केलया.. त्यामुळं त्येला आपली आय, आपलं घर, आपलं गावं समध्याचा इसर पडलाया… त्येचा मैतर मला एकदा म्हनला मावशे रघुनाथ आता तिकडं घरजावई झालाय आनि इकडं कंदीच आयेला, गावाला भेटायला जायाचं न्हाई अशी शपथ घातलीया… तवा कुठं त्येला पैश्यापरी महलाची सुखं मिळतात… रघुनाथ सासूला नि सासऱ्यालाच आई बा मानतो… पन तुला अजून इसरला न्हाई म्हनून पैसंं तरी धाडतो… एव्हढी तरी काळजी घेतोय हे काय कमी हाय का… रघुनाथच्या मायन्ं त्या आलेल्या मैतराला त्यानं दिलेल्या पैश्यातलं एक बिंडोळं परत त्याच्या हाती देत म्हटलं तुमच्या तिकडं मायची माया जर इकत मिळत असलं तर तेव्हढी त्येला तुम्हीच इकत घेऊन देयाल का… एक आईचं तुटणारं आतडं तेव्हढ्यानं तरी कायमचं शांत होईल…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –nandkumarpwader@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विस्तार है गगन में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते…

दोस्ती, रिश्ता, व्यवहार बराबरी में ही करना चाहिए। जब तक एक स्तर नहीं होगा तो विवाद खड़े होंगे। हमारे बोलचाल में अंतर होने से समझने की क्षमता भी अलग होगी। जब भी सच्चे व्यक्ति को जान बूझकर नीचे गिराने का प्रयास होगा तो दोषी व्यक्ति को ब्रह्मांडअवश्य ही दण्ड देता है।

तकदीर बदल परिदृश्य तभी

बदलेंगे क़िस्मत के लेखे।

श्रम करना होगा मनुज सभी

जब स्वप्न विजय श्री के देखे।।

पत्थरों के जुड़ने से पहाड़ बन सकता है, बूंदो के जुड़ने से समुद्र बन सकता है तो यदि हम नियमित थोड़ा – थोड़ा भी परिश्रम करें तो क्या अपनी तकदीर नहीं बदल सकते हैं। अब चींटी को लीजिए किस तरह अनुशासन के साथ क्रमबद्ध होकर असंभव को भी संभव कर देती है।

जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ नोक – झोक कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को आधी रोटी पर दाल लेने में आनंद आता है ऐसा एक सदस्य ने विवाद को बढ़ाने की दृष्टि से कहा।

तो दूसरे ने मामले को शान्त करवाने हेतु कहा – जिंदगी के हर रंगों का आनन्द लेना भी एक कला है जिसे सभी को आना चाहिए तभी जीवन की सार्थकता है।

सबसे समझदार व अनुभवी सदस्य ने कहा क्या हुआ आप प्रेम का घी और डाल दिया करिये दाल व रोटी दोनों का स्वाद कई गुना बढ़ जायेगा।

ये तो समझदारी की बातें हैं जिनको जीवन में उपयोग में लाएँ, लड़ें – झगड़े खूब परन्तु शीघ्र ही बच्चों की तरह मनभेद मिटा कर एक हो जाएँ तभी तो हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित हो सकेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 19 – चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 19 – चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक छोटे से कस्बे में, रात के अंधेरे में, एक अजीबोगरीब स्कूल का उद्घाटन हुआ। कोई शासकीय स्कूल नहीं, कोई अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं, बल्कि यह था ‘चोरों की पाठशाला’। यहां का नारा था, “प्लेसमेंट गारंटी, परमानेंट जॉब्स!” फीस सिर्फ 2 से 3 लाख रुपए, और उम्र की सीमा? बस 12 से 13 साल। यह वह स्कूल था जहां ‘चोर बनने का सपना’ देखा जाता था, और उसे हर कीमत पर पूरा किया जाता था।

पाठशाला के दरवाजे पर कदम रखते ही छात्रों के चेहरे पर एक अलग चमक दिखाई देती है। कोई कक्षा के भीतर कुर्सी तोड़ रहा है, तो कोई दरवाजा। शिक्षक भी कम नहीं, उन्हें 20 साल का अनुभव था, लेकिन वह किसी विद्यालय में नहीं, बल्कि पुलिस के हवालात में। उनकी एक ही सीख थी, “शादी-ब्याह के मौके पर चुराना है तो हाथ में चूड़ी पहनना जरूरी है, ताकि ध्वनि सुनकर पता चल सके कि कंगन की आवाज कितनी मीठी है।”

पहली कक्षा में दाखिल होते ही विद्यार्थी सीखते हैं, “सिल्क की साड़ी कैसे पहचानें और कैसे उसे तेजी से गायब करें।” दूसरी कक्षा में उन्हें यह सिखाया जाता है कि “जेवर कैसे पहचानें और कैसे उसे जेब में डालें।” यहां किताबें नहीं, बल्कि तिजोरियों की नकली चाबियां और ताले होते हैं। बच्चों को सिखाया जाता है कि, “सफल चोर वही है जो खुद चोरी करता है और चोरी का इल्जाम दूसरों पर डालता है।”

शिक्षा का स्तर ऐसा था कि पाठशाला के विद्यार्थियों के लिए कोई भी शास्त्र अपरिचित नहीं था। संस्कृत के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को उन्होंने ‘सर्वे भवन्तु चोरीनः’ में बदल दिया था। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाते, “किसी भी शादी में दूल्हे की बहन का हार सबसे महंगा होता है, इसलिए पहले उसी पर हाथ साफ करो।”

कक्षा के अंत में एक वरिष्ठ विद्यार्थी ने उठकर कहा, “गुरुजी, अगर किसी शादी में हमारे अपने रिश्तेदार हों तो क्या करना चाहिए?” गुरुजी ने हंसते हुए जवाब दिया, “बेटा, रिश्तेदारों से ही शुरुआत करो, ताकि तुम सीख सको कि धोखा क्या होता है।”

फिर आया प्लेसमेंट का समय। यह वह क्षण था जब हर विद्यार्थी का सपना साकार होने जा रहा था। हर विद्यार्थी के चेहरे पर गर्व की भावना थी, क्योंकि 100 प्रतिशत प्लेसमेंट गारंटी के साथ वह अब एक प्रोफेशनल चोर बनने जा रहे थे। नौकरी की पहली पेशकश नामी गिरामी शहर में थी। पहला वेतन पैकेज? रुपए 5 लाख। गुरुजी ने कहा, “बेटा, अब तुम उड़ने के लिए तैयार हो। याद रखना, जीवन में ईमानदारी सिर्फ पुलिस की डायरी में ही अच्छी लगती है।”

एक दिन, पाठशाला के एक शिक्षक ने एक नया अध्याय शुरू किया, “किसी भी विवाह में मौजूद लोगों का ध्यान कैसे बांटना है?” उन्होंने बताया, “बेटा, जब दूल्हा और दुल्हन फेरे ले रहे हों, तो तुम चुपके से दूल्हे की जेब से उसका पर्स निकालो। अगर तुम यह कर सके, तो समझो तुम्हारी डिग्री पूरी हो गई।”

एक और विद्यार्थी ने पूछा, “गुरुजी, अगर पकड़े गए तो क्या करें?” गुरुजी ने अपनी मुठ्ठी बांधते हुए कहा, “बेटा, अगर तुम पकड़े गए तो यही तुम्हारा फाइनल एग्जाम होगा। याद रखना, जमानत पर बाहर आना कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात यह है कि जेल से बाहर आकर अगले दिन फिर से शादी में चुराने जाना।”

दिन ब दिन, यह पाठशाला पूरे प्रदेश में मशहूर हो गई। लोग दूर-दूर से अपने बच्चों को यहां भेजने लगे। वैसे भी किस माता-पिता का सपना नहीं होता कि उनका बच्चा भी ‘सफल’ हो?

इस पाठशाला की एक छात्रा ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, “यहां आकर मुझे एहसास हुआ कि जीवन में सफल होने के लिए सिर्फ मेहनत की जरूरत नहीं होती, बल्कि सही मौके की भी। शादी में जाने के लिए अब मैं तैयार हूं, और मुझे यकीन है कि मैं वहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगी।”

इस पाठशाला के शिक्षकों की यही सीख थी, “सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता, लेकिन चोरी करना एक बेहतरीन शॉर्टकट है।”

पाठशाला के हर छात्र ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से साबित कर दिया कि वह यहाँ सिर्फ चोर बनने नहीं, बल्कि ‘मास्टर चोर’ बनने आए थे। आखिरकार, जब शादी में सैकड़ों लोग मौजूद हों, तो कौन सोचता है कि उनमें से एक-दो चोर भी होंगे?

यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पाठशाला के एक विद्यार्थी ने, जिसने हाल ही में अपनी डिग्री प्राप्त की थी, किसी बड़ी शादी में चोरी की। उसने अपने शिक्षक की बताई हुई हर बात को ध्यान में रखा। जैसे ही वह शादी के समापन पर जा रहा था, उसने अपनी जेब से एक चूड़ी निकाली, और मुस्कुराते हुए बोला, “गुरुजी सही कहते थे, जीवन में असली मजा चुराने में है, पकड़े जाने में नहीं।”

इस कहानी का अंत क्या होगा? यह तो समय ही बताएगा, लेकिन एक बात तो तय है, इस पाठशाला के हर छात्र ने साबित कर दिया कि वह असली चोर है, और किसी भी शादी में जाने से पहले उन्हें याद रखना चाहिए, “सावधान! चोरों की पाठशाला के छात्र आ रहे हैं।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुराग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनुराग ? ?

तुम,

मेरे इर्द-गिर्द रहती हो,

सर्वदा, हर क्षण

आसपास अनुभव होती हो,

सुनो प्रिये,

किसी संकेत की आवश्यकता नहीं,

ना कभी दरवाज़ा खटखटाना,

जब मन चाहे, दौड़ी चली आना,

मुझे अनुरक्त पाओगी,

सदैव प्रतीक्षारत पाओगी,

जैसे हवा में होती है प्राणवायु,

नमी में बहता है जल,

घर्षण में बसती है आग,

ध्वनि में सिमटता है आकाश,

देह में माटी तत्व भरा होता है,

स्थूल में सूक्ष्म विचरता है,

वैसे ही हर श्वास में

नि:श्वास बनकर रहती हो तुम,

एक बात बताओ-

अपनी होकर भी,

इतनी डरी सहमी

दबे पाँव क्यों आती हो तुम?

केवल एक बार

नेह प्रकट करोगी तुम,

पर मैं बाहें फैलाकर खड़ा हूँ,

आजीवन तुम पर रीझा हूँ,

जब कभी हमारा मिलन होगा,

यह वचन रहा-

मुझ में समाकर

जी उठोगी तुम,

उस रोज़ सृष्टि में

जन्म लेगी नौवीं ऋतु…,

तुम, मुझे

सुन रही हो न मृत्यु..!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 7:35 बजे, 24 अगस्त 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆

? बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.

सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.

अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.

हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.

तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रार्थना और निवेदन।)

?अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 Prayer & request

प्रार्थना समर्पण और शरणागति की वह सर्वोच्च अवस्था है, जहां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वयं के कल्याण और पूरे जगत के कल्याण के लिए उस सर्वशक्तिमान घट घट व्यापक, अंतर्यामी परम पिता परमेश्वर से याचक बन कुछ मांगा जाए। जप, तप, ध्यान धारणा और समाधि से जो हासिल नहीं होता, वह केवल सच्चे मन से की गई प्रार्थना से अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है। कठिन परिस्थितियों में जब डॉक्टर भी घुटने टेक देते हैं, तो जीव के पास केवल प्रार्थना का ही सहारा होता है।

क्या प्रार्थना इतनी आसान है, कि आंख मूंदी और ॐ जय जगदीश हरे गा लिया। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें, ओम् जय जगदीश हरे। पूरा चार्टर ऑफ़ डिमांड्स है इस जगदीश जी की आरती में। आरती भी तो सामूहिक प्रार्थना का ही परिष्कृत स्वरूप है।।

ईश्वर की इस सृष्टि में एक संसार हमारा भी है। हमारे परिवार के हम कर्ता हैं, हमारा घर परिवार और संसार केवल आपसी प्रेम, अपेक्षा, आग्रह, अनुनय विनय, और निवेदन से ही तो चलता है। स्कूल कॉलेज में भर्ती और रोजगार के लिए आवेदन अथवा प्रार्थना पत्र के बिना कहां काम चलता है। समय आने पर गधे को बाप भी बनाना पड़ता है, और टेढ़ी उंगली से घी भी निकालना पड़ता है।

हम पर कब किसी आदेश, निवेदन अथवा प्रार्थना का असर पड़ा है। इधर हम अपनी मनमानी कर रहे हैं और उधर भी केवल ईश्वर की ही मर्जी चल रही है। जब संसार में स्वार्थ और खुदगर्जी बढ़ जाती है तो संकट के समय में सबको खुदा याद आ जाता है। कोरोना काल में पूरा संसार ईश्वर के आगे नतमस्तक था। वही तार रहा था, और वही पार लगा रहा था।।

अपने सांसारिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सबके कल्याण के लिए उसके दरबार में अरज लगाना ही सच्ची प्रार्थना है, अजान, अरदास है, और चित्त शुद्धि का एकमात्र उपाय है ;

गोविन्द हे गोपाल

हे गोविन्द हे गोपाल

हे दयानिधान

प्राणनाथ अनाथ सखे

दीन दर्द निवार

हे समरथ अगम्य पूरण

मोह माया धार

अंध कूप महा भयानक

नानक पार उतार।।

हे गोविन्द हे गोपाल

है गोविन्द हे गोपाल।

अब तो जीवन हारे,

प्रभु शरण हैं तिहारे ॥

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 218 ☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 217 ☆

बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चंदा मामा, चंदा मामा

हमने सुंदर चित्र बनाए

हम लाए कुर्ता , पाजामा

तुमको पहनाकर  हरषाए।।

देखो चित्र एक अपना तो

जिसमें सूत कातती माता

गोल पूर्णिमा की आभा से

धरती का हर जीव सुहाता

 *

खीर पेट भर खा लो मामा

काजू , किशमिस फल भी लाए।।

 *

देखो एक चित्र अपना तो

चपटी लगे कछुआ – सी पीठ

कभी नारियल – से भूरे हो

कभी लगते बच्चों – से ढीठ

 *

देख तुम्हारी सूरत , मूरत

रोज – रोज ही हम मुस्काए।।

 *

तरबूजे की खाँफ सरीखे

रसगुल्ला – से लगते सफेद

रूप बनाते न्यारे – न्यारे

और न कभी तुम करते भेद

 *

रात तुम्हारी मित्र अनोखी

रोज प्रेम से तुम बतलाए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #184 – बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- हौमेटो की आत्मकथा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 184 ☆

बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सब्जियों के राजा ने कहा, ‘‘चलो ! आज मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं.’’ सभी सब्जियों ने हांमी भर दी, ‘‘ ठीक है. सुनाओ. आज हम आप की आत्मकथा सुनेंगे.’’ बैंगन ने कहा.

हौमोटो ने अपनी कथा सुनाना शुरू की.

‘‘बहुत पुरानी बात हैं. उस वक्त मैं रोआनौक द्वीप पर रहता था. वहीं उगता था. वैसे मेरा वैज्ञानिक नाम बहुत कठिन है लाइको पोर्सिकोन एस्कुलेंटक. यह याद रखना बहुत कठिन है. मेरी समझ में नहीं आता है वैज्ञानिकों ने मेरा पहला नाम इतना कठिन क्यों रखा था.

इस नाम को बाद में सोलेनम लाइको पोर्सिकोन कर दिया गया. यह नाम मेरे पहले वाले नाम से बहुत ज्यादा कठिन नहीं है. मगर, मुझे क्या ? मुझे अपने काम से काम रखना है.

कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एंडीज नाम की जगह पर हुई थी. वहां मैं बहुतायात में पाया जाता था. मेरा हरालाल आकारप्रकार बहुत सुदंर था. इस कारण मुझे बहुत ज्यादा पसंद किया जाता था.

मैंक्सिको के मय जाति के लोग मुझे फिन्टो मेंटल कहते थे. वे मेरी इसी विशेषता के कारण मेरी खेती किया करते थे. वे मुझे मेरे कठिन नाम से नहीं पुकारते थे. ये तो वैज्ञानिक लोगों के लिए था. आम लोग तो कुछ समय बाद मुझे मेटल या हौमेटो कहते थे. बाद में यह नाम और सरल होता गया. लोग मुझे धीरेधीरे हौमेटो कहने लगे. यह हौमेटो कब टौमेटो में बदल गया पता ही नहीं चला.’’

‘‘ओह ! तो तुम हौमेटो से टौमेटो बने हो ?’’ आलू ने पूछा.

‘‘हां भाई. यह अटठारहवी शताब्दी की बात है. उस वक्त लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. मैं कमरे या दालान में सजाने के काम आता था. जैसे आज के लोग क्यारियों में फूल लगा कर अपना आंगन सजा कर रखते हैं. उसी तरह पुराने लोग मुझे क्यारियों में सजावटी पौधे के रूप में मुझे लगाते थे.

जब मैं मेरा फल यानी हौमेटो कच्चा रहता है तब वह हरा रहता था. जब यह हौमेटो पक जाता है तब लाल हो जाता है. इसलिए सजावटी क्यारियों में कहीं लाल टौमेटो होते थे कहीं हरे. इस से क्यारियां बहुत खूबसुरत लगती थी. जैसे फूलों की तरह यह नया फूल लगा हो.

इन्हें तोड़ कर कुछ व्यक्ति अपनी बैठक में मुझे सजा लिया करते थे. जैसे फूलों को गमलों में सजाया जाता है. वैसे मुझे प्लेट में सजा कर रख दिया जाता था. कालांतर में मैं  इधरउधर घुमता रहा. लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. उस समय तक मैं अखाद्य यानी नहीं खाने वाली चीज था.

मेरा उपयोग खाने में इसलिए नहीं होता था, क्यों कि लोग मुझे जहरीली चीज समझते थे. उन का मत था कि इसे कोई खा लेगा तो उस की मृत्यु हो जाएगी.  मगर, यह धारणा भी जल्दी टूट गई. इस धारण के पीछे एक व्यक्ति की जिद थी. वह व्यक्ति एक रंगसाज था.

हुआ यू कि अमेरिकी जहाज पर एक व्यक्ति काम करता था. वह जहाज को रंगरोगन व सजाने का काम करता था. यह सन 1812 के लगभग की बात है. वह मेरी खूबसूरती पर मोहित हो गया. यह चीज इतनी खूबसुरत है तो खाने में कैसी होगी ? इसलिए वह मेरा स्वाद जानना चाहता था. वह मुझे तोड़ कर खाने लगा.

उस के दोस्त भी जानते थे कि मैं एक जहरीली चीज हूं. जिसे कोई भी खाएगा वह मर जाएगा. इसलिए उस के दोस्तों ने उसे ऐसा करने से मना किया. उसे बहुत समझाया कि इसे खाने से तू मर जाएगा. मगर, वह माना नहीं. उस ने मुझे खा लिया. उसे मेरा स्वाद बहुत बढ़िया लगा.

जब उस के दोस्तों ने देखा कि मुझे खाने से वह व्यक्ति मरा नहीं. तब उन्हें यकीन हो गया कि मैं जहरीला नहीं हूं. तब उन्हों ने भी मुझे नमकमिर्ची लगा कर खाया. उन्हें मेरा स्वाद बहुत अच्छा लगा.

यह बात उस समय अचंभित करने वाली और अनोखी थी. कोई व्यक्ति जहरीला पदार्थ खा ले और मरे नहीं. यह सभी के लिए चंकित कर देने वाली होती है. फिर वही व्यक्ति कहे कि यह तो बड़ी स्वादिष्ठ चीज है. बस इसी कारण यह अनोखी घटना उस वक्त वहां के अखबार में प्रकाशित हुई थी. बात इतनी फैली कि लोगों ने मुझे खाना शुरू कर दिया . यह सब से पहली शुरूआत थी जब मैं सजावटी वस्तु से खाने वाली वस्तु में तब्दील हो गया.

कुछ एशियाई लोग मुझे हौमेटो नहीं बोल पाते थे. उन्हों ने टोमेटो कहना शुरू किया. फिर धीरेधीरे मुझे टमाटो बोलना शुरू कर दिया. कालांतर में मेरा हिन्दी नाम टमाटर पड़ गया. जो आज भी प्रचलित है.

यह बात कितना प्रमाणित है कि हिन्दी नाम टोमेटो से टमाटर कैसे पड़ा, यह मुझे पता नहीं. मगर, एशियाई देशों में मुझे टमाटर नाम से ही जाना जाता है. अंग्रेजी में मुझे आज भी टौमेटो ही कहते हैं.’’

‘‘और मैं बटाटो,’’ आलू ने कहा.

‘‘सही कहते हो भाई,’’ टमाटर ने कहना जारी रखा, ‘‘एक ओर मजेदार बात है. यह बात उस समय की है जब सन् 1812 में जेम्स नामक व्यक्ति ने सास बनाने की विधि खोज निकाली थी. वह विभिन्न चीजों को मिला कर चटनी बनाया करता था. उस समय मशरूम आदि चीजों से स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती थी. मछली और विभिन्न चीजों की मांसाहारी चटनी उस वक्त ज्यादा प्रचलित थी.

इस व्यक्ति ने मशरूम से बनने वाली चटनी में मेरा प्रयोग करना शुरू किया. मेरे प्रयोग से चटनी का स्वाद ओर अच्छा हो गया. तब से मैं चटनी के लिए उपयोग में आने लगा.

सन् 1930 तक मेरा प्रयोग मशरूम के साथ होता रहा. जब पहली बार मेरा प्रयोग मशरूम की जगह किया गया. इस से चटनी का स्वाद ओर बढ़ गया. तब यह पहला अवसर था जब मैं चटनी के रूप में स्वतंत्र रूप से उपयेाग में आने लगा. उस वक्त मुझे स्वतंत्र खाद्यसामग्री घोषित कर दिया गया.

उस के बाद मेरे दिन चल निकले. मैं हर सब्जी में स्वाद बढ़ाने के लिए डाला जाने लगा. यह देख कर हैज कंपनी ने 1872 में पहली बार मेरा कैचअप के रूप में प्रायोगिक इस्तेमाल किया. मेरा स्वाद लोगों को इतना भाया कि मैं ने अपना स्वतंत्र रूप ले लिया. आजकल मैं विभिन्न स्वादों और रूपों में मिलने लगा हूं. पहले मेरे अंदर रस ज्यादा रहता था. आजकल मैं बिना रस का भी रहता हूं.’’

‘‘ यह मेरी छोटीसी आत्मकथा थी. सुन कर तुम्हें अच्छी लगी होगी.’’ टमाटर के यह कहते ही सभी सब्जियों ने ताली बजा दी.

‘‘ वाकई तुम्हारी आत्मकथा अच्छी थी.’’ बहुत देर से चुप बैठी आलू ने कहा, ‘‘ अगली बार हम किसी ओर की आत्मकथा सुनना चाहेंगे.’’ कहते हुए आलू चुप हो गया. 

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16.07.2018

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – हे ! गिरिधर गोपाल  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

गीत – हे ! गिरिधर गोपाल ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

हे! गिरिधारी नंदलाल, तुम कलियुग में आ जाओ।।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

प्रेम आजअभिशाप हो रहा, बढ़ता नित संताप है।

भटकावों का राज हो गया, विहँस रहा अब पाप है।।

प्रेम, प्रीति की गरिमा लौटे, अंतस में बस जाओ। ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

अंधकार की बन आई है, बेवफ़ाओं की महफिल।

शकुनि फेंक रहा नित पाँसे, व्याकुल हैं सच्चे दिल।।

अब राधाएँ डरी हुई हैं, बंशी मधुर बजाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

आशाएँ तो रोज़ सिसकतीं, पीड़ा का  मेला है।

कहने को है प्यार यहाँ पर, हर दिल आज अकेला है।।

प्रीति-नेह को अर्थ दिलाने, मंगलगान सुनाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

गौमाता की हुई दुर्दशा, भटक रहीं राहों में।

दूध-दही, जंगल, नदियाँ, गिरि, बिलख रहे आहों में।

आकर अब तो प्रकृति सँभालो, पांचजन्य बजाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

दु:शासन, दुर्योधन अनगिन, द्रोपदियाँ बेचारी।

पार्थ नहीं, नहिं चक्र सुदर्शन, हर नारी है हारी।।

हे नटनागर ! रासरचैया, अग्नि-ज्वाल बरसाओ।

राधारानी को संग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – khare.sharadnarayan@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कृष्ण आहे… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी  ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

अल्प परिचय : 

मराठीत वाङ्मय पारंगत आहे.

काही काळ कारंजा व अकोला येथे वरिष्ठ महाविद्यालयात कंत्राटी प्राध्यापिका म्हणून कार्यरत.

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कृष्ण आहे… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

(वृत्त: आनंदकंद) 

स्वप्नात भासले मज दारात कृष्ण आहे

मी जागता कळाले विश्वात कृष्ण आहे

*

राधा सखी कितीदा मुरलीधरास शोधे

जाणीव होत गेली हृदयात कृष्ण आहे

*

वाटेत चालताना वाटाच बंद झाल्या

दिसतील मार्ग नक्की स्मरणात कृष्ण आहे

*

कृष्णास शोधते पण दगडात देव नाही 

साधेच नाम घेता ओठात कृष्ण आहे

*

युद्धास तोंड देते पळण्यात शौर्य नाही

साथीस आज माझ्या समरात कृष्ण आहे 

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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