हिन्दी साहित्य – कविता ☆ युद्ध ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – युद्ध ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

दो खड्ग

दो मन

दो विचार

दो आचार

भयाक्रांत पुष्प

तारामंडल तमग्रस्त 

अपरिचित अपराजेय 

घटित अघटित

म्यान नियंत्रण

तोड़ समाप्त

खींच बाहर

खनक खनक….

*

खनक खनक

टूट टूट

रक्त रक्त

सिक्त आसक्त

पवित्र अपवित्र

खनक खनक …

*

छल कपट

नाश विनाश

साम दाम

दंड भेद

बाहू युद्ध

बुद्धि युद्ध

शक्ति युद्ध

भाव युद्ध

नेत्र युद्ध

मौन युद्ध

खनक खनक …

*

लहू लुहान

श्वास आह

उर मस्तिष्क

ध्वस्त विध्वस्त

युद्ध परास्त

नाद अनहद

पुकार सत्य

खड्ग अंत

खनक खनक …

*

तार छेड

तृप्त स्वर

लय सुर

ताल गति

प्रेम विशुद्ध

निरीह अबाध

*

स्व युद्ध

आत्म युद्ध

तन तर्पण

मन तर्पण

स्नेह अर्पण

अहं अर्पण 

श्री शिव

श्री सत्

श्री चरण

श्री सरन

झंकार नुपुर

अनुनाद ब्रह्म

*

नवनिर्माण

कर विहान

हो श्रेयस 

हो प्रेयस 

समस्त गगन

गूँज अनुगूँज

वर्धिष्णु 

त्रिलोचन

वर्धिष्णु 

आत्मज्ञान

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

23 अगस्त 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / preranaubale2016@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धर्मपत्नी पर व्यंग्य।)

?अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा ?

वैधानिक चेतावनी – पति पत्नी के बीच हँसी मजाक और नोक झोंक आम है, लेकिन पत्नी की हँसी अथवा उसका मजाक उड़ाना गलत है। अपनी धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखने के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

हंसना सेहत के लिए अच्छा है। कोई एक हास्य कवि पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा हैं, जो खुद गंभीर होकर अपनी ही घराड़ी, यानी घर वाली की हंसी उड़ाते हैं, और श्रोताओं से दाद बटोरते हैं। काका हाथरसी ने भी अधिकतर हास्य के कारतूस काकी पर ही छोड़े हैं। इन दोनों की पत्नियों को आपने कार्टून के रूप में ही देखा होगा, कभी पत्नी के रूप में नहीं। हम इसे हास्य बोध नहीं मानते। हां, कभी एक डा.सरोजनी प्रीतम हुआ करती थी, जिनकी हंसिकाएं भी अधिकतर महिलाओं पर ही केंद्रित होती थी और पुरुषों पर कम।

व्यंग्य एक गंभीर विधा है और इसका उपयोग पति पत्नी के नाजुक संबंधों पर नहीं किया जा सकता। विसंगति पर तो व्यंग्य लिखा जा सकता है, लेकिन जो धर्मपत्नी अथवा जीवन संगिनी है, उस पर व्यंग्य लिखना, ना केवल टेढ़ी खीर है, अपितु बड़ी हिम्मत का काम है।।

जिस तरह डायन भी एक घर छोड़ देती है, हर व्यंग्यकार अपनी धर्मपत्नी को छोड़ आन गांव पर व्यंग्य लिख सकता है। उसकी व्यंग्य दृष्टि राजनीति, धर्म, भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही और समाज और विश्व में होने वाली सभी घटनाओं पर पड़ सकती है, लेकिन उसकी पास की दृष्टि जवाब दे जाती है, जब उसकी धर्मपत्नी पास होती है।

और तो और कुछ ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने गृहस्थी का स्वाद ही नहीं चखा, वे भी इस मामले में फूंक फूंक कर कदम रखते हैं।

उनकी तर्क की खान और उनके व्यंग्य बाणों में इतनी ताकत कहां, जो अपनी कलम की धार किसी के घरेलू मामले की ओर भी कर दे।।

अव्वल तो पति की मात्रा ही छोटी होती है, और पत्नी की बड़ी। वजन में भी अक्सर पत्नियां, पति की तुलना में भारी ही होती है।

पति अगर हॉफ तो पत्नी बैटर हॉफ। वैसे आम तौर पर तो हास्य कवि ही मोटे देखे गए हैं, व्यंग्यकार तो बस, किसी तरह ठीकठाक ही होते हैं। अगर कहीं गलती से पत्नी दुबली और वे मोटे निकल गए, तो व्यंग्य की सुई भी पति की ओर ही घूम जाती है।

वैसे हम अगर शब्द बाण और व्यंग्य बाणों की चर्चा करें, तो पत्नी के शब्द अचूक रामबाण होते हैं, जिसके आगे कोई भी धुरंधर धनुर्धर, व्यंग्यकार, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग शरणागत हो जाता है। पत्नी द्वारा निष्काम व्यंग्य की गीता का श्रवण पाठ सुनने के बाद ही, पति कलम उठाता है। धर्मपत्नी पर केवल प्रेम वर्षा ही संभव है, व्यंग्य बाण के लिए पूरा जगत पड़ा है।।

धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखना अंगारों पर फूंक फूंक कर कदम रखने से भी अधिक जोखम भरा काम है। जब घर में चूल्हा नहीं जलता तब धर्मपत्नी अपने व्यंग्यकार पति की छपी रचनाएं जला जलाकर चाय गर्म करती है। बड़ी अलबेली होती है, व्यंग्यकार के घर की सरकार। यह एक ऐसी सरकार होती है, जो सिर्फ तारीफ और प्रशंसा के बल पर ही चलती है। यहां व्यंग्य सिर्फ चूल्हा जलाने के ही काम आता है।

कभी कभी गंगा उल्टी भी बहने लगती है, जब ऊंट पहाड़ के नीचे आता है, और घर की पत्नी ही व्यंग्य में डूबी कलम उठा लेती है। तब पतिदेव को घर गृहस्थी के सभी काम दफ्तर के काम की तरह ही करने पड़ते हैं। क्योंकि सैंया कोतवाल नहीं, यहां सजनी व्यंग्यकार जो हो जाती है। पत्नी तो रूठकर मायके जा सकती है, पति तो बेचारा सिर्फ दफ्तर ही जा सकता है।।

व्यंग्यकार की कलम और धर्मपत्नी की जुबां के बीच जब भी युद्ध हुआ है, कलम हमेशा नतमस्तक हुई है। वास्तव में कुछ ना कहने की छटपटाहट ही तो व्यंग्य को जन्म देती है। कालिदास हो अथवा तुलसीदास, सबकी महानता के पीछे उनकी पत्नी का ही तो हाथ है।

आदमी संत, सन्यासी अथवा एक अच्छा व्यंग्यकार यूं ही नहीं बन जाता। जब हर सफल व्यक्ति के पीछे एक महिला का हाथ होता है, तो क्या एक व्यंग्यकार की सफलता का श्रेय उसकी पत्नी नहीं ले सकती। पत्नी की जली कटी सुनने के बाद जो व्यंग्य में पैनापन आता है, वह देखते ही बनता है। धर्मपत्नी की तारीफ से बड़ा कोई व्यंग्य नहीं। जो व्यंग्यकार अपनी बीवी से करे प्यार, वह उसकी तारीफ से कब करे इंकार।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆ ।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆

।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

हे वीणा वादिनी जीवन में क्या अच्छा बुरा संज्ञान दे।।

*****

विद्या की देवी  हर समस्या   के लिए ज्ञान विज्ञान दे।

हे मां सरस्वती कैसे हो यह भवसागर पार वो भान दे।।

कैसे बने सरल जीवन की कठिन राह वो अनुमान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

***

हे मां बागेश्वरी रहें विद्या विद्यार्थी मत हमें अभिमान दे।

कैसे करें हम सदा   रक्षा राष्ट्र की  वह स्वाभिमान   दे।।

कैसे रहें तन मन से शुद्ध मां वीणापाणी हमें वह ध्यान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

*****

हे हंसवाहिनी विद्यादायनी भीतर मानवता का संचार कर।

श्वेत कमल विराजनी धैर्य बुद्धि विवेक का उपचार कर।।

मां भारती महाश्वेता देवी  उत्तम वर्तमान का वरदान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आदमी भगवान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आदमी भगवान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत आदमी भगवान है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जानता तो है कि वह दो दिनों का मेहमान है

पर सँजो रक्खा है कई सौ साल का सामान है।

जरूरत से ज्यादा रखता और कोई दिखता नहीं

आदमी सा भी कहीं दुनियाँ में कोई नादान है !।। १ ।।

*

आदमी को अपने उपर जो बड़ा अभिमान है

व्यर्थ उसका दम्भ झूठा ज्ञान औ’ विज्ञान है ।

खुद तो डरता, दूसरों की मौत से पर खेलता ।

आने वाले पल का तक उसको नहीं अनुमान है ।। २ ।।

*

हर घड़ी जिसके कि मन में स्वार्थ का तूफान है

नष्ट करने औरों को जिसने रचा सामान है

प्रेम से अपनों के पर जो साथ रह सकता नहीं

वह ज्ञान का धनवान है इंसान या शैतान है ? ।। ३ ।।

*

काम करना कठिन है कहना बहुत आसान है

प्रेम से उंचा न कोई धर्म है न ज्ञान है।

आदमी को इससे हिलमिल सबसे रहना चाहिये

सबको खुश रख खुश रहे तो आदमी भगवान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ काही नेम नाही… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ काही नेम नाही … ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

काही नेम नाही,

फसव्या मृगाचा.

फसवा पाऊस,

फसव्या ढगांचा.

*

कधी कृष्णमेघ,

कधी स्वच्छ हे आभाळ.

जरी चार थेंब,

तरी पाऊस सांभाळ.

*

तुझे माझे आता,

आकाश वेगळे.

वेगळा पाऊस,

वेगळे सोहळे.

*

नको करू आता,

नवी मांडवली.

लखलाभ तुला,

तुझी भातुकली.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ टपोरी व्हायाचं… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ टपोरी व्हायाचं… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं

चार – पाच टपोर्‍या पोरी घेऊन झुंडीनं र्‍हायाचं ॥

*

सगळीकडे महिलांसाठी आहेच ना आरक्षण

तरी पण त्यांना सांग कुठे असते गं संरक्षण

आता तुझ्यावर अन्याय करणार्‍याला उभं तू जाळायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

रहा तू बिनधास्त जगात हातात अस्त्र बाळगून

महिषासूर मर्दिनी, काली पहा जरा निरखून

शिरजोर होऊ लागताचं कोणी त्याला आडवं चिरायचं 

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

अन्याय करणार्‍यांना कठोर शासन होत नाही

न्यायदेवता आहे आंधळी – पांगळी

तू का नाही याचा फायदा घेत?

काढ राक्षसांच्या कोथळी

काळकोठडीत गेलीस तरी अब्रूनच रहायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

एक एका राक्षसाला तूच आता गाठ

झुंडीनं हल्ला चढव दाखव स्मशान घाट

कालिकेचं रूप तुझं नराधमांना दावायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘मनाच्या लहरी‘☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

☆ मनाच्या लहरी… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

मनाच्या लहरी की लहरी मन !!!

अर्थात वरील विषय वाचल्या वाचल्या आपल्या मनात देखील असाच विचार आला असेल. हो न ? अहो, साहजिकच आहे. कळायला लागल्यापासूनची मनुष्याला असलेली मनाची सोबत मनुष्याच्या अखेरच्या श्वासापर्यंत कायम असते.

मन कसं असतं ? याची विविध उत्तरे देता येतील. आणि ही सर्व उत्तरे जरी खरी असली तरी मोठी गमतीशीर आहेत. कोणी त्याला चंचल म्हणेल, कोणी अचपल म्हणेल. कोणी अधीर म्हणेल तर कोणी बधिर म्हणेल. कोणी मनाला धीट म्हणेल तर कोणी सैराट म्हणेल. इतकं सार वर्णन केलं तरी कोणीही मनाचे इत्यंभूत वर्णन केले आहे असे छातीठोक पणे सांगू शकत नाही. कारण समर्थ रामदास स्वामी म्हणतात त्या प्रमाणे आपले मन कसे आहे ? तर

“अचपळ मन माझे नावरे आवरीता’

आपले मन हे समुद्रासारखे विशाल असते, अथांग असते. कधी कधी तर स्वतःला देखील आपल्या मनाचा थांगपत्ता लागत नाही. एकाच वेळेला मन हे खंबीरही असते आणि तितकेच नाजूकही असते. ज्या प्रमाणे समुद्राच्या लाटांमध्ये फेस असतो, वाळू असते आणि लाटांबरोबर वाहून येणारे ओंडके सुद्धा असतात. अर्थात या ओंडक्याचा समुद्राच्या स्वाभाविक गती-प्रगती मध्ये फारसा फरक पडत नाही. पण मनुष्याच्या बाबतीत बरेच वेळा उलट घडते. कारण मनुष्याला आपले मन सागरा इतके विशाल करणे जमतेच असे नाही. ज्याप्रमाणे शरीराचे स्नायू मजबूत होण्यासाठी किंवा योग्य त्या प्रमाणात ताणण्यासाठी व्यायामाची गरज असते, अगदी त्याचप्रमाणे मनाचे व्यायाम करणारा मनुष्य आपले मन योग्य त्या वेळी योग्य त्या प्रमाणात ताणू शकतो, विशाल करू शकतो. अर्थात हा सरावाचा भाग आहे, पण अशक्य मात्र नक्कीच नाही.

गुंतणं हा आणिक एक मनाचा रंग आहे किंवा स्वभाव आहे. मनाच्या ह्या स्वभावाचा गैरफटका बरेच वेळा मन धारण करणाऱ्या देहाला सोसावा लागतो, मग त्याची इच्छा असो व नसो.

मन हे एक न दिसणारं तरीही असणार मानवाचे महत्वाचे इंद्रिय आहे. आजपर्यंत भलेभले थकले, पण मनाचा अंत खऱ्या अर्थाने लागला असे म्हणणारे अतिदुर्मिळ!! मला मन कळलं, मी कोणाच्याही मनातलं जाणू शकतो असे म्हणणे म्हणजे मोठी गंमत. कारण मनुष्य स्वतःच स्वतःचे मन जाणू शकत नाही तिथे दुसत्याचे मन काय जाणणार ? भगवद्गीतेमध्ये श्रीकृष्णाने म्हटले आहे की मन म्हणजेच ‘मी’ आहे. त्यामुळे भगवंताचा शोध आणि ‘मी’ चा शोध यामध्ये मूलभूत फरक काहीच नाही. पण व्यक्तिसापेक्ष त्यात फरक मानला जातो. म्हणून काही लोकं बाहेर देव शोधतात, तर काही आपल्या अंतरात देवाचा शोध घेतात.

सर्व संतांनी मनाचे वर्णन केले आहे.

“अचपळ मन माझे नावरे आवरीता”

 – समर्थ रामदास

मन वढाय वढाय 

उभया पिकाताल ढोर

किती हाकल हाकलं

फ़िरि येत पिकावर

 – संत कवयित्री बहिणाबाई

“मन करा रे प्रसन्न, सर्व सिद्धिचे कारण”,

–  संत तुकाराम महाराज

“तुझे आहे तुजपाशी परी तू जागा चुकलासी”, अशी काहीशी अवस्था प्रत्येक मनुष्याची असते. मनाचे वर्णन कितीही केले तरी कमीच पडेल. मनाच्या लहरी किती आणि कशा कार्यरत असतात याचे नेमके असे कोष्टक नाही. मन स्थिर करणे म्हणजे एका अर्थाने त्या लहरींवर स्वार होणे. दैनंदिन जीवनात सामान्यपणे मनाच्या लहरी मनुष्यावर स्वार होतात आणि मनुष्याची अक्षरशः फरफट होते. खरंतर मनुष्याने या चंचल लहरींच्या छाताडावर स्वार होऊन जीवनाचा आनंद उपभोगला पाहिजे. थोड्याश्या प्रयत्नाने हे सहज साध्य होऊ शकते, फक्त तशी प्रबळ इच्छाशक्ती मात्र हवी.

“मनातल्या मनात डोकावता यावे।

मनातल्या शक्तीला जागवता यावे।

लहरी मनाच्या जाणता यावे, आणि।

जाणलेल्या लहरींवर स्वार व्हावे।।”

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ माझं काय चुकलं ??? — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ माझं काय चुकलं ???  — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

शाळेपासूनच्या त्या दोघी घट्ट जिवलग मैत्रिणी. एका बाकावर बसणाऱ्या अभ्यास एकत्र करणाऱ्या आणि वर्गात मोठमोठ्यांदा हसल्याने बाईंची शिक्षा सुद्धा एकत्रच खाणाऱ्या. सगळ्या शाळेत यांची जोडी अगदी प्रसिद्ध होती. शाळेच्या गॅदरिंगमध्ये सख्या पार्वत्या, हरतालका असे फिशपॉंड्सही याना मिळालेले! मोना आणि सीमा यांची जोडी होतीच तशी. जवळच रहायच्या दोघीही आणि अजिबात करमत नसे एकमेकांशिवाय दोघीना. खरं तर मोना जास्त हुशार होती. तिचं गणित म्हणजे अतिशय उत्तम आणि सीमाच्या भाषा उत्कृष्ट ! निबंधाचे बक्षीस सीमाला दर वर्षी ठरलेलेच ! मोनाची आर्थिक परिस्थिती चांगली होती. सीमाला आई नव्हती आणि भाऊ फारसा न शिकता कुठे तरी नोकरी करायचा. पण सीमा फार समजूतदार होती. आहे त्यात आनंदी रहायचा स्वभाव होता सीमाचा.

मुली मोठ्या झाल्या आणि मोना कॉलेजला सायन्सला गेली. सीमा आर्टस्ला. दोघींच्या वाटा वेगळ्या झाल्या पण मैत्रीत कधी अंतर नाही पडलं. कायम भेटत राहिल्या दोघीही. सीमा बी ए झाली आणि तिनं बी एड केलं. तिला एका चांगल्या शाळेत नोकरीही मिळाली. मोना एका कॉलेज मध्ये लेक्चरर म्हणून लागली. मोनाला तिच्याच कॉलेज मधल्या एका सहकाऱ्याने मागणी घातली आणि मोनालाही तो आवडला होताच. आईवडिलांचीही या जावयाला पसंती होती आणि मोनाचं लग्न थाटामाटात झालं देखील. मोना आपल्या संसारात रमून गेली.

सीमाच्या लग्नाचं बघायला मात्र कोणीच नव्हतं आणि तिच्या मावश्या मामांना सीमा कधी फारशी चिकटून नव्हतीच. वय वाढत गेलं आणि सीमा शाळेतही प्रिंसिपल होणार होती काहीच वर्षात. मोनाला या काळात दोन मुलं झाली आणि अजूनही सीमाची आणि तिची मैत्री घट्ट होतीच.

मोनाच्या घरी वेगळीच कथा होती. घरचे लोक, भाऊ, आईवडील सगळ्यांच्या मनाविरुद्ध जाऊन मोनाच्या मोठ्या दिरानं एका पंजाबी मुलीशी लग्न केलं मुंबईला बदली करून घेतली. संतोषला नोकरी चांगली होती. चार वर्षे चांगली गेली आणि नंतर मात्र सतत भांडणं होऊ लागली त्यांची ! एक दिवस ती मुलगी न सांगता सगळे दागिने पैसे घेऊन निघूनच गेली. सगळं घर धुवून नेलं तिनं. ऑफिस मधून येऊन बघतो तर अक्षरशः घर रिकामे. तिने त्याला घटस्फोटाची नोटीस पाठवली आणि संतोषचा एक वर्षात घटस्फोट झाला. घरचे सगळे हताश झाले. हे होणार हे माहीतच होते सगळ्याना, पण त्यावेळी संतोष कोणाचे ऐकण्याच्या मनःस्थितीतच नव्हता. आता मात्र आईवडिलांना त्याची काळजी वाटायला लागली. तरुण मुलगा एकटा असा कसे आयुष्य काढणार असं वाईटही वाटू लागलं त्यांना.

मोनाला हे सगळं दिसत होतं. ती सीमाच्या घरी गेली आणि म्हणाली ‘चल. बाहेर कुठेतरी मस्त खाऊया काहीतरी. आज मी डबा विसरले न्यायला ! तू नको आता घरी करत बसू बरं का. चल बघू. ‘ मोनाने सीमाला बाहेरच काढले. एका छानशा हॉटेल मध्ये गेल्या दोघी. ‘सीमा, तुझ्या लग्नाचं बघायला तर कोणाला सवडच नाही. तिशी उलटून गेली आपली. करणारेस का लग्न कोणी मिळाला तर?’ सीमा म्हणाली, ‘ मिळायला नको का? करीन मला त्याने पसंत केले तर. मला नाहीये का ग हौस संसाराची? पण कोण बघणार मला स्थळ?’

मोना म्हणाली, “ हे बघ सीमा. नीट ऐकून घे. माझे भावजी अतिशय चांगले आहेत. करतेस का त्यांच्याशी लग्न? “ मोनाने तिला सगळी हकीगत सांगितली.

त्यांचे पहिले लग्न, मग घटस्फोट, सगळं नीट सांगितलं आणि म्हणाली, “ बघ निर्णय तुझ्या हातात आहे. माझी जबरदस्ती तर मुळीच नाही. पस्तिशी उलटलेल्या बाईला आता प्रथमवर मिळणंही अवघडच. पाहिजे तर भावजीना भेट, बोला दोघे आणि मगच निर्णय घ्या. हे काही नवथर तरुण मुलांचं लग्न नाही तर तडजोडही आहेच सीमा. सावकाश सांग घाई नाही. ”

सीमा संतोष बाहेर चार वेळा भेटले. , सीमा म्हणाली “ मोना माझी आणि संतोषचीही हरकत नाही लग्नाला. मला नोकरी सोडावी लागेल पण मी दोन वर्षे पुरी करीन म्हणजे मला ऐच्छिक निवृत्ती घेता येईल आणि पेन्शन मिळेल. संतोष मुंबईहून अप डाऊन करील. चालेल ना? मी मग तुझ्या घरीच राहीन. कधीकधी मी जाईन मुंबईला. हे चालेल का?आधीच तुझ्या घरात खूप माणसं आहेतच. ” 

मोना म्हणाली “काही हरकत नाही सीमा!भावजी आणि तुझंही घर उभं रहाणार असेल तर ही तडजोड तू जरूर कर. नोकरीचे सगळे फायदे घे आणि मग जा मुंबईला. दोन वर्षे कशीही जातील ग. ‘

मोना अतिशय सरळपणे म्हणाली. घरी जाऊन सासू सासऱ्यांना हे सांगितले आणि सीमा संतोष पण तयार आहेत लग्नाला हेही सांगितले. सगळ्याना खूप आनंद झाला. ओळखीचीच मुलगी घरी येणार याचा आनंद आणि विश्वास सुद्धा होता सगळ्याना.

अगदी साधं लग्न करून सीमा मोनाच्याच घरात आली. तिचीही नोकरी चालू ठेवणार होतीच ती. मोनाची तर सकाळी केवढी धावपळ असायची. पोळ्याच्या बाई उशिरा येत त्या आधी मोना आपल्या पुरत्या चार पोळ्या करून घेई आणि बाकी सगळं बाई आल्या की उरकत. सासूबाई खूप मदत करायच्या मोनाला. बाईंकडून सगळं करून घ्यायचं, मुलांचे डबे भरून द्यायचे. सगळं नीट सुरळीत चालायचं. सीमा संतोष आठ दिवस बाहेर फिरून आले. चार दिवसांनी संतोष मुंबईला जाणार होता आणि सीमा पण शाळेत जाणार होती.

मोना घाईघाईने आवरून डबे भरून निघून गेली. सासूबाई उठून बघतात तर सीमा अजून उठली नव्हतीच. त्या मुकाट्याने स्वयंपाकघरात गेल्या आणि बाकीचे काम चालू केले त्यांनी.

आठ वाजता सीमा उठून स्वयंपाकघरात आली. सासूबाई म्हणाल्या, “ चहा घेतेस ना? घे आणि उद्यापासून लवकर उठ. तिकडे काय करत होतीस तू डब्याचे? “.. “ मी माझ्या पुरत्या दोन पोळ्या भाजी करून नेत होते. शाळा 11 वाजता असते माझी. लवकर उठून काय करायचं असतं मला? “

“ हे बघ. इथे तू सासरी आली आहेस ना. मोना काहीच बोलणार नाही पण मी सांगते. मला मदत करत जा आणि अशी एकटीपुरती भाजी पोळी नाही करून चालणार. बाई येतीलच पण त्यांनाही मदत लागते ती करायला हवी. उद्या येताना मोनाला विचारून किती लागते काय लागते ते सामानही आण. सीमा, घर हे सगळ्यांचं असतं. नशीब थोर म्हणून अशी चांगली मैत्रीण आणि चांगलं घर मिळालं तुला. ” सासूबाई तिथून निघून गेल्या.

सलामीलाच ही चकमक झाली तर आता पुढं कसं व्हायचं असा विचार पडला सासूबाईंना. होईल ते बघावे असा विचार करून त्या गप्पच बसल्या. तयार असलेली भाजीपोळी घेऊन सीमा निघून गेली. ना तिने मागचे आवरले ना जाताना सांगून गेली कोणाला ! 

मोना संध्याकाळी घरी आली. सासूबाईंनी हे सगळं सांगितलं आणि म्हणाल्या, ” कठीण आहे हो मोना.. अग, काय तुझी मैत्रीण !अशीच का वागायची ही माहेरी? “ मोना म्हणाली, “ जाऊ द्या हो आई. बघूया काय काय होते ते. आपलं जाऊ दे. , भावजींचा संसार झाला म्हणजे पावलं. ” संध्याकाळी सीमा घरी आली. संतोष मुंबईला गेलेला होता. आता सीमाला दोन वर्षे मोनाकडे राहून काढायची होती. मोना संध्याकाळी तिच्या खोलीत गेली. “ घे ग मस्त गरम चहा. चल, बाल्कनीत बसून घेऊया “

सीमा म्हणाली, “ मोना, मला कामाची सवय आहे पण माणसांची नाही. मला समजत नाही कसं वागायचं ते. आमच्या घरी तू बघतेस ना बाबा, मी आणि भाऊ. कोणी कोणाच्या अध्यात मध्यात नसते. मला इतक्या माणसात वावरायची सवय नाही ग. तू शिकव मला मी शिकेन. ” मोना बरं म्हणाली. मनात म्हणाली, माणूस संगतीला आणि पंक्तीला आल्याशिवाय समजत नाही हेच खरं.

दुसऱ्या दिवशी मोनाला सुट्टी होती. तिने सीमाला हाक मारली. अजून उठली नव्हतीच ती. “ सीमा, आज आपल्या बाई येणार नाहीयेत. चल दोघी मिळून करून टाकूया स्वयंपाक “. मोना म्हणाली.

सीमा म्हणाली, “ काय करायचं ते सांग मला. मला सगळं उत्तम येतं करता. आज बघ मी करते ते आवडतं का. तू बस ना बाहेर. फक्त मला अंदाज सांग हं मोना. मला समजणार नाही म्हणून. ” मोनाने सगळं सांगितलं आणि ती स्वयंपाकघराच्या बाहेर आली.

सासूबाई हळूच म्हणाल्या, ” बाई ग. करणार का ही नीट सगळं? पिठलं भात करायची वेळ येते आपल्यावर? “ हसून मोना म्हणाली “ बघूया. मलाही माहीत नाही हो तिला काय येतं ते “.

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – ८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टूडे – संपर्क क्र. ९८६९४८४८०० )

(काही तांत्रिक कारणामुळे ” माझी जडणघडण ” या लेखमालिकेचा भाग आठवा दि. २७/८/२४ रोजी प्रकाशित होऊ शकला नाही, तो आजच्या अंकात प्रकाशित करत आहोत. वाचकांनी कृपया नोंद घ्यावी.)

 आनंद
आमच्या घरासमोर “गजाची चाळ” होती. वास्तविक चाळ म्हटल्यावर जे चित्र डोळ्यासमोर येते तशी ती चाळ नव्हती. एक मजली इमारत होती आणि वरच्या मजल्यावर गजा आणि दोन कुटुंबे आणि खालच्या मजल्यावर तीन कुटुंबे राहत होती. पण तरीही गल्लीत ती “गजाची चाळ” म्हणूनच संबोधल्या जात असे. गजा मालक म्हणून तो राहत असलेला घराचा भाग जरा ऐसपैस होता. वास्तविक गल्लीतल्या कुठल्याच घराला (आमच्याही) वास्तू कलेचे नियमबद्ध आराखडे नव्हतेच त्यावेळी. कुठेही कशाही लांब अरुंद खोल्या एकमेकांना जोडल्या की झाले घर. पण अशा घरातही अनेकांची जीवने फुलली हे महत्त्वाचे.

गजाच्या घरात त्याची आई आणि त्याच्या लांबच्या नात्यातील बहिण “शकू” राहायचे आणि येऊन जाऊन बरीच माणसं असायची तिथे. कधी कधी गजाचे वडीलही दिसायचे मात्र गजा आणि शकू या बहीण भावांच्या नात्याबद्दल मात्र बऱ्याच गूढात्मक चर्चा घडायच्या.

गजाकडे आम्हा मुलांचं फारसं जाणं-येणं नव्हतं, पण गजाच्या शेजारी राहणाऱ्या दिघ्यांच्या कुटुंबातला आनंद आमच्यात खेळायला यायचा. आनंद, दिवाकर, अरुणा आणि त्याचे आई वडील असा त्यांचा परिवार होता.

आनंदची आई भयंकर तापट होती आणि सदैव कातावलेली असायची. त्यामुळे आम्ही आनंदच्या घरी खेळायला कधीच जात नसू पण आनंद मात्र आमच्यात यायचा. आम्ही त्याला आंद्या म्हणायचो. पुढे तोच “आंद्या” “आनंद दिघे” नाव घेऊन शिवसेनेचा एक प्रमुख नेता म्हणून नावारूपास आला ते वेगळं. पण माझ्या मनातला “आनंद” मात्र त्यापूर्वीचा आहे.

बालवयात आम्हा साऱ्या मुलांना फक्त खेळणं माहीत होतं. भविष्याची चिंताच नव्हती. पुढे जाऊन कोण काय करेल, कसे नाव गाजवेल याचा विचारही मनात नव्हता आणि “आनंद” अशा रीतीने लोकनेता वगैरे होण्याइतपत मजल गाठेल असे तर स्वप्नातही वाटले नाही कारण साध्या साध्या खेळात सुद्धा तोच प्रथम आऊट व्हायचा आणि आऊट झाल्यावर कोणाच्यातरी घराच्या पायरीवर गालावर हात ठेवून, पाय जुळवून पुढचा खेळ पहात बसायचा तेव्हा तो अगदी “गरीब बिच्चारा” भासायचा.

आज हे लेखन करत असताना खूप आठवणी उचंबळत आहेत. “आनंदची” खूप आठवण येत आहे. पुन्हा लहान होऊन त्याच्याशी संवाद साधावासा वाटतोय. तो आता या जगातही नाही. मनात दाटलेल्या भावना पत्रातूनच व्यक्त कराव्यात का ? कदाचित पत्र लिहिताना क्षणभर तरी त्याच्याशी बोलल्यासारखे वाटेल म्हणून.

प्रिय आनंद,
स. न. वि. वि.
खरं म्हणजे मला, तुला पत्र लिहिताना “सनविवि” वगैरे ठरलेले मायने नव्हते घालायचे. कारण त्यामुळे आपल्या मैत्रीच्या नात्यात उगीचच औपचारिकपणा जाणवतो. आपल्या मैत्रीत आपलं निरागस, आनंदी, खेळकर बाल्य अशा पारंपरिक शब्दांनी उगीचच बेचव होतं. आणि मला ते नको आहे.
मी तुझा बायोपिक पाहिला. आवडला. तुझ्या भूमिकेतल्या त्या नटाने सुरेख अभिनयही केलाय. संहिता लेखन छान. तुझ्या राजकीय आणि सामाजिक जीवनावर वास्तववादी प्रकाश पाडलाय. पण चित्रपट बघताना मला मात्र, ’टेंभी नाका, धोबी गल्ली ठाणे’ इथला अर्ध्या, खाकी चड्डीतला, मळकट पांढर्‍या शर्टातला मितभाषी, काहीसा शेमळट, भित्रा, गरीब स्वभावाचा पण एक चांगल्या मनाचा आनंद नव्हे आंद्या आठवत होता. जो माझा बालमित्र होता. तो मात्र मला या चित्रपटात सापडला नाही. आणि मग माझं मलाच हंसू आलं अन् वाटलं तो कसा सापडेल ? इथे आहे तो एक जनमानसातला प्रमुख राजकीय नेता आणि माझ्या मनातला आनंद होता तो माझ्याबरोबर, विटीदांडु खेळणारा, गोट्या, डबा ऐसपैस, थप्पा, लगोरी खेळणारा आनंद.. आईची रागाने मारलेली हाक ऐकली की खेळ अर्धवट सोडून पटकन घाबरत, धावत घरी जाणारा आनंद. लहान भाऊ, बहिणीला सांभाळणारा आनंद.
एकदा मी तुला विचारलं होतं “तू आईला इतका कां घाबरतोस ?”
तू एव्हढंच म्हणाला होतास, “मला तिला आनंदी ठेवायचे आहे.. ”
आनंद, तुझ्या नावात आनंद होता पण तू कुठेतरी अस्वस्थ, खिन्न होतास का ? लहानपणी कळत नव्हते रे या भावनांचे खेळ.
एक साधं गणित मी तुला सोडवून दिलं होतं आणि तुझी खिल्लीही उडवली होती.
“काय रे ! इतकं साधं गणित तुला जमलं नाही ? इतका कसा ढब्बु ?” तू वह्या पुस्तकं घेऊन फक्त निघून गेलास.
पण नंतर तू किती मोठी राजकीय गणितं सोडविलीस रे..
पुढच्या काळात तुझ्याविषयीच्या पेपरात येणार्‍या बातम्या, फोटो. लोकप्रियता वाचून मी थक्क व्हायची. अरे ! हाच का तो आनंद ? मी कधी विश्वासच ठेऊ शकले नाही.
मी माहेरी ठाण्याला असताना एक दोनदा तुला भेटलेही होते. पण तू घोळक्यात होता. माझा बालमित्र आनंद, तो हा नव्हता. वाईट वाटले मला.
पेपरात जेव्हां तुझ्या निधनाची बातमी वाचली, उलट सुलट चर्चाही वाचल्या. एका राजकीय नेत्याचे ते निधन होते. पण माझ्यासाठी फक्त माझ्या बालमित्राचे या जगात नसणे होते हे तुला कसे कळावे आणि त्यासाठी माझ्या डोळ्यात अश्रू होते.
चित्रपट बघून मी घरी आले. मैत्रीणीचा फोन आला.
“कसा वाटला मुव्ही ?”
“छानच”
अग ! आनंद आमच्या धोबी गल्लीत आमच्या घरासमोर रहायचा…
पण हे काही मी नाही सांगितले तिला.
कारण आपलं वेगळं नातं मी मनात जपलंय. उगीच एका राजकीय नेत्याशी असलेल्या नात्याचं मला मुळीच भांडवल करायचं नव्हतं आणि नाही. माझ्यासाठी फक्त ढब्बु आंद्या. कसं असतं ना लहानपण ? मुक्तपणे एकमेकांशी भांडणे, वाट्टेल ती नावे ठेवणे, टिंगलटवाळी करणे आणि तरीही मैत्रीच्या नात्यात कधीही न येणारी बाधा.. म्हणून का ते रम्य बालपण ?
पण आनंद मला मनापासून तुझा अभिमान आहे. तुझ्या बालवयातल्या प्रतिमेसकट.

तुझी
बालमैत्रीण.

माझं पत्र वाचून तुला नक्की काय वाटेल याचा विचार करत असताना मला आताही “गजाची चाळ” आठवते.
काही वर्षांपूर्वी बदललेल्या धोबी गल्लीत गेले होते तेव्हा “गजाच्या चाळीचा” चेहराच बदलला होता. त्या संपूर्ण इमारतीचं शिवसेनेच्या कार्यालयात रुपांतर झालं होतं. त्या कपाळावर गंध, दाढीधारी प्रतिमेत लपलेला आनंदचा चेहरा मी शोधत राहिले…

क्रमश: भाग आठवा.

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मी घर आवरत्येय… मोकळी होत्येय की गुंतत्येय !!!!! ☆ डॉ. माधुरी जोशी ☆

डॉ. माधुरी जोशी

? मनमंजुषेतून ?

मी घर आवरत्येय… मोकळी होत्येय की गुंतत्येय !!!!! डॉ. माधुरी जोशी 

अखेर सह्या झाल्या. बिल्डिंग री डेव्हलपमेंटला गेल्याचं शिक्कामोर्तब झालं…. थोडा अवधी होता हातात… नवीन जागा मिळण्याचा भविष्यातला आनंद खुणावत होता…. आणि या भिंती मधला सारा भूतकाळ सतत सामोरा येत होता… आता चमचा नॅपकिन्स पासून कागदपत्रांपर्यंत किती आणि काय काय आवरायचं होतं. मनात ही वास्तू, आणि काही वस्तू सोडून जायची हलकीशी वेदना होती… पण घर आवरायलाच हवं होतं आणि खरं म्हणजे मनही!!! कामाला लागले आणि लक्षात यायला लागलं आवरणं कमी होतंय आणि आठवणींच्या साम्राज्यात गुंतणंच वाढतंय…

किती खोलवर रुजलेल्या, रुतलेल्या स्मृती.. एकेक आठवणींचं गाठोडं…. समोर आलेली फोटोंची पिशवी तर मनाला सगळ्यात जीवंत करणारी… सणवार, वाढदिवस, लग्नकार्य, ट्रीप्स, बक्षिस समारंभ, ट्रॉफ्या, एअरपोर्टवर मुलांना शिक्षणासाठी जातांना भरल्या डोळ्यांनी हासत दिलेले निरोप, दृष्टी आड, काळाच्या पडद्याआड झालेले वडीलधारे, कुणी सोबती, कुणी अगदी क्वचित भेटलेले तरी जवळचे, वाड्यातले, किती किती आठवणी…

तर काही कागदावर पेनानं उमटलेली अक्षरं, मनातल्या विचारांना सजवणारी… सुख दुःखाची, यशापयशाची, मन मोकळं करणारी…. कधी वर्तमानपत्रांनी दाद देऊन छापलेली, काही कविता, कार्यक्रमाची निवेदनं, त्यावरंच कुठल्याशा कोपऱ्यात लिहीलेले पत्ते, फोन नंबर्स…. चाललं मन गुंतत….

आणि अभ्यास, नोट्स, नोंदी, फेअर वर्क…. माझं संगीतातलं, मुलांचं इंजिनिअरिंगचं, यांचं गड किल्ल्यांचं… सुटत चाललेले, पिवळे पडलेले, क्वचित तुकडे पडणारे…. किती किती जुने कागद…. खूप दिवसात सापडंत नव्हतं ‘ ते ‘ पुस्तक…. कशात तरी दडलेलं. आनंदाच्या भरात तेच चाळलं… गुंतलं वेडं मन… अचानक सामोऱ्या येणाऱ्या जुन्या पावत्या… बिलं…. जगण्यातला इतक्या वर्षांचा आर्थिक आलेख मांडणाऱे… फोडायचंच राहिलेलं एखादं आहेराचं पाकिट आणि अमक्याकडून केंव्हातरी आलेला पण आज मिळालेला आहेर… आपलेच पैसे परत छुपा आनंद देणारे… मग ते पाकिट देणाऱ्यांच्या आठवणी… एखादी कपड्याखाली जपून ठेवलेली अन् आता चलनातंच नसलेली नोट…. चाललं… चाललं मन हिंडायला…. गंमत म्हणजे हे सारं आपल्या जागी होतंचकी.. निवांत, शांत पहुडलेलं…. या इथून निघण्यानी ते निघालं जागेवरून…. मोकळा श्वास घेतला कागदांनी…. स्मृती वगैरेंचे कागद परत आत गेले पाऊचमधे आणि सटरफटर गेले केराच्या टोपलीत… किती पसारा, , किती कागद, , किती काय जपलेलं, चुकून राहिलेलं, उगीच सांभाळलेलं…. आवरलं ते सगळं खरं पण मन मात्र आठवणींच्या गुंत्यात गुंतलेलं राहिलं….

इथून निघेपर्यंत स्वयंपाकघरात जेवणखाण बनणार होतं… ते शेवटी आवरू असं ठरवलं खरं…

पण रोज लागणाऱ्या भांड्यांपेक्षा किती तरी जास्त काही भांडी होतीच…. अनेक वर्ष जमवलेली. भांडी…. २५ लोक आले तरी घरात तयार असणारी वेळोवेळी घेऊन जमवलेली, हौसेची, आवडीची, मुलांची मुद्दाम नावं घालून घेतलेली, तर काही आहेरात आलेली, नावं नसलेली पण पदार्थ घालून शेजारपाजारची आलेली कन्फ्यूज्ड भांडी, मी जपून ठेवून मालक शोधणारी, काही तर बॉक्स मधूनही न निघालेली… कप, मग्ज्, न लागणाऱ्या बशा, दह्या दुधाचे सट, गंज, कल्हई लावलेली पितळी पातेली… लोखंडी तवे कढया पळ्या…. बापरे…. ४६ वर्षांचा पसारा…. सासुबाईंच्या वजनदार पितळी, स्टीलच्या भांड्यापासून अगदी निर्लेप तरीही हवाहवासा…. प्राणपणानी जपलेला, वाढवलेला पसारा… सारं सोबत होतं इतकी वर्षं….

पण आता मन आवरायला हवं होतं… मोजकं, गरजेचं, चांगलं, ठेवून मोकळं व्हायचं होतं… आणि मग भांडी निवडली…. गुंतलेल्या माझ्याच मनाविरुद्ध जणू लढंत राहिले….

मग असेच नातवंडांचे खेळ, कपडे, अगदी बॉक्स सुद्धा न उघडलेल्या गिफ्टस्,…. सगळं काढतांना मन अस्थिर… टाकणाऱ्या हाताला परत मागे खेचणारं… कधी आठवणींची कासाविशी कधी दुर्लक्ष झाल्याचा अपराधीपणा….

आवरणं कसलं…. मनाचं धावणं चारही दिशांना…. भूतकाळात.. कसं आवरायचं? आठवणींच्या गुंत्यातून कसं अलगद, न दुखावता सोडवायचं?यातलं काय ठेवावं? काय टाकावं? आता कुणाला दाखवायच्या आहेत त्या ट्रॉफ्या, सर्टीफिकेट्स, पत्र, लेख….. मुलं तर सगळ्यातून दूर… १००% प्रॅक्टीकल सल्ला देणारी…. नवीन पिढीच अशी… न गुंतणारी… स्पष्ट…..

आम्ही फार गुंतलोय का ? फारच भावनिक आहोत का?चुकलं का?

नाही नाही…. मन कबूल होत नाही…. कारण आम्ही आयुष्याच्या प्रत्येक टप्प्यावर क्षण अन् क्षण जगलो…. जे, जसं, जेंव्हा, जेवढं मिळालं त्यात आनंदात राहिलो. म्हणून तर पुढे श्रीमंत सिल्क नेसलो तरी आईच्या मायेचा चिटातला फुलांचा फ्रॉक, खणाचं परकर पोलकं आजही मनाजवळ आहे…. मुलांच्या घरात बॉयलर आले तरी तांब्याच्या लालभडक बंबाच्या ठिणग्या आणि पत्र्याच्या बादलीतल्या वाफाळत्या पाण्याची ऊब सोबत आहे… मिक्सर आले तरी पाटावरवंट्याचं खसखशीत वाटंण चवीत आहे…. वस्तू नाहीत पण आठवणी घट्ट आहेत…. मन गुंतून राहिलंय आजवर…

बरं या आठवणींचं तरी असं आहे…. आज फ्रीज जवळ गेलं की क्षणात विसरायला होतं काय घ्यायला आलो होतो ते… पण त्याच मनात ५वी, ६वी मधल्या नाना वाड्यातल्या शाळेत काव्य गायनासाठी गायलेल्या कविता लख्खं स्मरणात आहेत. किती उतारे, नाटकातले संवाद, समुहगीतं, अभंग, भावगीतं बंदिशी, तराणे…. मग शिक्षिकेची नोकरी करतांना मुलींचं यश, ते आलेले नंबर, त्या घोषणा…… हे सगळं आठवणीत आहे कारण सारं मन लावून, जीव ओतून केलंय. आज हे फोटो, सर्टिफिकेट्स पुन्हा ४० /५० वर्ष मागे नेतात ते त्या जिव्हाळ्यामुळे…

तेच स्वैपाकात.. प्रेमानं, मायेनं खाऊ घालण्याच्या भावनेत आहे. मग ती लोखंडी, पितळी, जाडजूड स्टीलची जुनी भांडी पण मऊ स्पर्श देतात. केवढी सेवा दिली त्यांनी…. ती टाकायची, नाकारायची कशी? ते कागद, पत्रं फोटो, ती पत्र, सर्टीफिकेट्स, भांडी, कपडे साऱ्यांनी तर सोहळा केला जगण्याचा…. पण मग मी मनाची समजूत घालते…. परत परत चाळण लावते…. मोजकं ठेवते…. काही दूर सारते… डोळे भरून पाहून घेते. तासाभरात आवरुया असं ठरवते सकाळी आणि दिवस कलायला येतो तरी मी त्याच पसाऱ्यात असते. पत्रं, भांडी, फोटो, पावत्या, पुस्तकं, कपडे सगळं सगळ्यांकडे आहेच…. एक गोड पसारा आयुष्यभर मांडलेला…

… सगळ्यांचं असंच होतं असेल का?आवरायला काढलं खरं…

पण किती प्रसंग, विषय, घटना, आनंद, दु:ख, यश अपयश… कुठेकुठे मन हिंडून येतं… हिंडवून आणतं….

पण भावनिक मनाला प्रॅक्टिकल मन समजावतं…. आवरायला लावतं सामान आणि भावना !!! तरी भावनिक मन चोरून याच्या नकळत काही पिशवीत भरतंच…………… आवरण्यातली ही गुंतवणूक !!

© डॉ.माधुरी जोशी

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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