हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ४ – बाप-बेटा – भूख और मौत ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ४ ☆

☆ कथा कहानी ☆ ~ बाप-बेटा – भूख और मौत ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

खेत में काम करते-करते करीब तीन बज गए थे। सूरज भी यह देखकर हैरान था कि यह आदमी है या दानव। बिना कुछ खाए पिये, सुबह से लगा तो शाम तक लगा ही रह गया। रोटी तो दूर, एक गिलास पानी भी उसे अभी तक नसीब नही हुआ था। ऐसा बिल्कुल नही था कि दीनानाथ को भूख प्यास नही लगी थी। दीनानाथ को जोर की भूख के साथ साथ प्यास भी लगी थी। लेकिन उनका बेटा किशन, यदि अपनी जिद्द पर अड़ा तो अड़ा ही रह गया। अपने बाबूजी को खेत में खाना – पानी लेकर नही गया तो नही गया। किशन की माँ गिडगिड़ाते गिडगिड़ाते थक गयी, लेकिन किशन को क्या, उसको तो अपने मित्रों के साथ कहीं और जाना था, तो जाना था, उसके लिये यह बात बिल्कुल सामान्य बात थी।

 थक हार कर सुरसतिया खाना लेकर खेत में पहुंची, तो उसे दीनानाथ कहीं भी दिखाई नही दिए। लू के थपेड़ो ने दीनानाथ पर जो कहर बरपाना था, बरपा दिया था।

टूटे पेड़ की जड़ के नीचे ऐठे हुए दीनानाथ को अब धूप नही लग रही थी। क्योंकि उनके साँसों ने भी साथ छोड़ दिया था। सुरसतिया की चीख पुकार सुनकर गांव के लोग भाग कर खेत में आये और दीनानाथ को उठाकर घर ले आये।

घर पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। सुरसतिया का रो रो कर बुरा हाल था। लोगों के बीच से किसी की आवाज आयी कि यदि दीनानाथ को भूख से मरा घोषित करा दिया जाय तो पाँच लाख की सहायता राशि मिल जायेगी।

यह बात किशन के कानों तक पहुंची तो उसकी बेचैनी बढ़ गयी। गांव के लेखपाल पवन मौर्या कही दूर के नही रहने वाले थे। वे भी बगल के गांव नौताल के रहने वाले थे। दीनानाथ की मृत्यु की खबर सुनकर वे भी द्वार करने आये थे।

किशन के कान में भूख से मरने वाली बात गूँज रही थी। अब वह पवन लेखपाल के पीछे ही पड़ गया। साहब, कुछ ले देकर बस यही रिपोर्ट लगा दीजिए। मेरा बड़ा काम हो जाएगा।

 गांव के कुछ नौजवान यह सब देख रहे थे। मनोज से जब नही रहा गया तो, उसने किशन पर चिल्लाते हुए कहा। अबे नालायक! पहले अपने बाबूजी के क्रिया – कर्म की तैयारी कर, उनका अंतिम संस्कार कर, फिर भूख से मरने और पैसे की बात करना -कराना। मनोज की बातों का कुछ भी असर किशन पर नही पड़ रहा था। वह तो अपने बाबूजी का पोस्टमार्टम करवाना चाहता था। क्योंकि भूख से मरने की पुष्टि तो पोस्टमार्टम में ही होती। पवन लेखपाल के मन में रह रह कर लालच आ रहा था, लेकिन उसकी चिंता यह थी की एस0 डी0 एम0 साहब तो इस बात पर कभी भी राजी नही होंगे, कि यह रिपोर्ट लगे कि दीनानाथ भूख से मर गया क्योंकि अब देश विकास की गति में आगे निकल चुका है। देश की सरकार हर एक नागरिक को राशन की दुकान से अन्न एवं अन्य सुविधा देने के लिये कृत संकल्पित है। पवन कई बार यह बात एस0 डी0 एम0 साहब के मुँह से सुन चुका था कि कोई ऐसा काम नही होना चाहिए जिससे सरकार की छवि को नुकसान हो। यह तो इस सरकार में भूख से मरने वाली बात है, जो बहुत बड़ी बात हुई। वैसे दीनानाथ का भी राशन कार्ड बना था और वह हर महीने राशन की दुकान से राशन उठाता था।

 सुरसतिया को अच्छी तरह से पता था कि आज उसके पति दीनानाथ की मौत भूख प्यास से तो हुई है, लेकिन राशन की कमी से नहीं हुई है। इसलिए वह ऐसी रिपोर्ट लगवाने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थी।

लेकिन दीनानाथ का एकलौता बेटा किशन अपने बाबूजी को भूख के कारण ही मरना सुनना चाह रहा था।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

आंजनेय पर्वत पर सीढ़ियों खत्म होते ही सामने हनुमान जी का मंदिर है। एक दरवाजे से सीधे मंदिर में प्रवेश करके दूसरे द्वार से बाहर निकलते हैं तो मंदिर के पीछे एक बड़ी पानी की टंकी में नल लगा हुआ है। वही जल आपके पीने योग्य है। जिसमें नीचे से मोटर द्वारा तुंगभद्रा नदी का पानी भरता रहता है। वहीं नज़दीक नारियल की नट्टी निकालने वालों की बैठक है। वे नट्टी, छूँछ और गूदा अलग करके रखते जाते हैं। उनसे पूछने ओर ज्ञात हुआ कि इस कार्य हेतु ठेका दिया गया है। इन चीजों का औद्योगिक उपयोग किया जाता है। ठेके से प्राप्त रकम मंदिर न्यास में जाती है।

पहाड़ी पर मंदिर से थोड़ी दूर महंत विद्यादास जी महाराज का आश्रम नुमा छोटा सा मकान बना है। राजेश जी की व्यवस्था अनुसार महंत जी की गादी के पीछे रामायण केंद्र का बैनर लगा दिया गया। सबसे पहले महंत जी ने हम श्रद्धालुओं को आरती के समय मंदिर में दर्शन कराए। वापस उनके आश्रम में उनके प्रवचन उपरांत राजेश जी और रामायण केंद्र के प्रतिनिधियों ने विचार प्रकट किए।

मंदिर के दाहिनी तरफ़ चार महिलाएं दाल-भात तैयार करने में लगी थीं। तब तक तीन बज चुके थे। वहीं नज़दीक स्टील थालियाँ का ढेर था। एक नल से पानी की व्यवस्था भी थी। महंत जी का आदेश हुआ कि प्रसाद ग्रहण किया जाए। अभी तक भूखे पेट भजन हो रहा था। कहने भर मी देर थी। सभी तीर्थ यात्री तुरंत पालथी मार कर बैठ गए। कोई परस करने वाला नहीं दिखा तो हम दो तीन लोगों ने अपनी थाली सहित सभी को भात-दाल परसना शुरू किया ही था, तभी वहाँ प्रसाद हेतु आतुर श्रद्धालु भीड़ आ पहुँची। महंत जी ने उन्हें रुकने का इशारा किया। हम लोगों ने पेट भर भोजन किया। उसी समय सामने की खुली जगह में चार लोग खिचड़ी के बड़े कढ़ाव लेकर आ पहुँचे। उन्होंने पत्तलों में खिचड़ी प्रसाद बाँटना शुरू किया। भक्तों की भीड़ खिचड़ी पर टूट पड़ी। जब खिचड़ी समाप्त हुई तब बचे खुचे भक्तों ने आश्रम की तरफ़ रूख किया। हम लोगों ने भोजन समाप्त होने तक प्रसाद वितरण कर धर्म लाभ कमाया। भोजन ग्रहण करने वाले तृप्त हुए फिर भी भोजन बचा रहा।

भोजन उपरांत तो भजन होने से रहा। भोजन से तृप्त मन और आलस्य पूर्ण देह ने दरी पर पसरने को मजबूर किया। कुछ लोग पसर गए। कुछ आसपास घूमने लगे। जब मन और देह से तृप्त आलस्य दूर हुआ तो हनुमान जी पर चर्चा चल पड़ी।

एक साथी बोले – कुछ सालों तक महिलाओं को हनुमान जी की पूजा की मनाही थी। महिलाएं  हनुमान मंदिर नहीं जाती थीं। अब तो गर्भग्रह में महिलाओं की भारी भीड़ है।

दूसरे बोले – हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं। इसलिए शायद यह व्यवस्था रही होगी।

चर्चा में भाग लेते हुए, उन्हें बताया – सनातन संस्कृति सतत परिवर्तन शील है। हनुमान जी कलयुग के सबसे उपास्य देव बनकर उभरे हैं। सांस्कृतिक विकास समझने हेतु हमें राजनीतिक इतिहास की तरह धर्म का इतिहास भी समझना चाहिए।

मूर्ति शिल्प के विकास में गुप्त काल (35-550 ईस्वी) का महत्वपूर्ण योगदान है। जब शिल्प कला का विकास आरम्भ हुआ था। भारत में विष्णु और शिव की प्रस्तर मूर्तियाँ उसी काल से गढ़ना आरम्भ हुई थीं। इसके पूर्व अनगढ़ मूर्तियां होती थीं। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि शिव आराधना आर्यों और अनार्यों में कुछ भेद के साथ उपलब्ध थी। कालांतर में दोनों संस्कृति ने शिव को अनादि देव स्वीकार कर लिया। भारतीय संस्कृति का समन्वयात्मक स्वरूप अस्तित्व में आने लगा था। गुप्त कालीन पुराण युग के बाद बारहवीं-तेरहवीं सदी में विष्णु और उनके अवतारों की पूजा शुरू होती है, तब से भक्ति युग आरंभ होता है। उसके बाद सूरदास और मीरा ने कृष्ण भक्ति की अलख जगाई और सोलहवीं सदी में तुलसीदास ने राम भक्ति को जनता में प्रचारित किया। राम दरबार के साथ हनुमान भी पूजित होने लगे।

तुलसीदास ने हनुमान चालीसा लिखा। वे जहाँ भी प्रवचन को जाते, वहाँ हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति स्थापित करते थे। उन्होंने पहला हनुमान मंदिर राजापुर में स्थापित किया था। इसके बाद उत्तर भारत में हनुमान मंदिर स्थापित होना शुरू हुए। दक्षिण भारत में हनुमान मंदिर नहीं के बराबर हैं। पूरी हम्पी में आंजनेय पर्वत को छोड़कर कहीं हनुमान जी का मंदिर नहीं दिखता। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को अखाड़ों से जोड़कर पहलवानी से संबद्ध कर दिया। विधर्मियाँ से निपटने हेतु शक्ति का आव्हान और कसरत अनिवार्यता थी। अखाड़ों में नगधडंग पहलवानों के समझ देवी स्थापना तो की नहीं जा सकती थी। वैसे भी देवी पूजन का वैष्णवों में कोई विधान नहीं था। शाक्त देवी पूजते थे। शाक्त बंगाल तक सीमित थे। इस तरह उत्तर भारत में हनुमान शक्ति के देवता स्थापित हो गए। महिलाएं ब्रह्मचर्य के प्रतीक हनुमान जी के सामने जाने में संकोच करती थीं।

इसका एक और कारण समाज का अर्थ प्रधान होता जाना है। आज़ादी के बाद हर वर्ग धनोपार्जन को लालायित हुआ। शिक्षा का उद्देश्य भी धनोपार्जन होने लगा। हनुमान बल, बुद्धि और विवेक के प्रतीक हुए। वे युवकों से लेकर बुजुर्गों तक सभी के उपास्य देव बन गए। वे शनिदेव की साढ़े साती और अढ़ैया दशा का निवारण करने में भी सक्षम सहायक हैं।

समाज शास्त्रियों द्वारा मानवीय जीवन के सम्पूर्ण  जीवन वृत्त का अध्ययन करने पर एक नया सिद्धांत पाया गया ‘मध्य जीवन संकट’। मध्य जीवन संकट (मिड ऐज क्राइसिस) की परिभाषा जीवन में परिवर्तन की अवधि है जहां कोई व्यक्ति अपनी पहचान और आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करता है। यह 40 वर्ष से लेकर 60 वर्ष की आयु के बीच कहीं भी होता है। पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करता है। मध्य आयु संकट कोई विकार नहीं है बल्कि मुख्यतः मनोवैज्ञानिक पहलू है।

मनुष्य की चालीस से साठ वर्ष की उम्र में एक तरफ़ माँ-बाप बीमारी बुढ़ापा ग्रसित हो मृत्यु का ग्रास बनने की कगार पर होते हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चों की ज़िम्मेदारियों का बोझ सर्वाधिक महसूस होने लगता है। मनुष्य को खुद स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें दरपेश होने लगती हैं। उसे भी स्वयं की मृत्यु का बोध सताने लगता है। इसमें यदि आय पर कुछ संकट होता दिखे तो मनुष्य टूटने लगता है। उसे किसी संबल की ज़रूरत होती है।

मध्य आयु संकट के लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं। आम तौर पर, उनमें चिंता, बेचैनी, जीवन से असंतोष और महत्वपूर्ण जीवन परिवर्तनों की तीव्र इच्छा की भावनाएँ शामिल हो सकती हैं।

मध्य जीवन संकट और अवसाद के कुछ सामान्य लक्षण हैं, जिनमें ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन और लापरवाह व्यवहार शामिल हैं। यदि लक्षण लगातार बने रहते हैं और हर दिन दिखाई देते हैं, तो यह अवसाद होने की अधिक संभावना है। यदि स्थिति साढ़े साती शनि बनकर सामने आती है। शनि के प्रभाव को कम करने हेतु हनुमान जी से उत्तम औषधि कुछ नहीं है। जीवन संग्राम में हनुमान सर्वाधिक पूज्य देव बनकर उभरे हैं। इसमें महिला-पुरुष का भेद खत्म हुआ है, क्योंकि महिलाएं भी तेजी से कमाई करके परिवार का आर्थिक केंद्र बनती जा रही हैं। उन्हें भी हनुमान रक्षा कवच की आवश्यकता महसूस हुई है। यही सब चर्चा करते पहाड़ी से नीचे के लुभावने दृश्य देखते रहे।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नेकी कर, यूट्यूब पर डाल।)

?अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होते हैं इस संसार में चंद ऐसे नेकचंद, जो नेकी तो करते हैं, लेकिन नेकी की कद्र ना करते हुए उसे दरिया में बहा देते हैं। दरिया के भाग तो देखें, नेकी की गंगा तो दरिया में बह रही है और राम, तेरी गंगा मैली हो रही है, पापियों के पाप धोते धोते। फिर भी देखिए, एक संत का चित्त कितना शुद्ध है, चलो मन, गंगा जमना तीर। हम कब नेकी की कद्र करना जानेंगे।

जिस तरह जल ही जीवन है, उसी तरह अच्छाई, जिसे हम नेकी कहते हैं, वह भी एक लुप्तप्राय सद्गुण हो चला है, इसे सुरक्षित और संरक्षित रखना ही समय की मांग है, इसे यूं ही दरिया में बहाना समझदारी नहीं।।

अच्छाई का जितना प्रचार प्रसार हो, उतना बेहतर। किताबों के ज्ञान की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है। कहां हैं आजकल ऐसे लोग ;

भला करने वाले,

भलाई किए जा।

बुराई के बदले,

दुआएं दिए जा।।

हमारा आज का सिद्धांत, जैसे को तैसा हो गया है। कोई अगर आपके एक गाल पर चांटा मारे, तो बदले में उसका मुंह तोड़ दो। नेकी गई भाड़ में। देख तेरे नेकी के दरिये की, क्या हालत हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।

कहते हैं, आज की इस दुनिया में बुराई और पाप बहुत बढ़ गया है। पाप का घड़ा तो कब का भर जाता। कुछ नेकी और कुछ नेकचंद, यानी कुछ अच्छाई और कुछ अच्छे लोग आज भी हमारे बीच हैं, जिनके पुण्य प्रताप से हम अभी तक रसातल में नहीं समाए। लोग भी थोड़े समझदार और जिम्मेदार हो चले हैं। नेकी की कद्र करने लगे हैं। कुछ लोग नेकी को आजकल दरिया में नहीं व्हाट्सएप पर अथवा फेसबुक पर भी डालने लगे हैं।।

व्हाट्सएप पर तो मानो फिर से नेकी का ही दरिया बह निकला है। व्हाट्सएप भी हैरान, परेशान, बार बार संकेत भी देने लगता है, forwarded many times, लेकिन नेकी है, जो बहती चली आ रही है। किसी ने नेकी को व्हाट्सपप से उठाकर फेसबुक पर डाल दिया। खूब लाइक, कमेंट और शेयर करने वाले मिल रहे हैं नेकी को। नेकी की इतनी पूछ परख पहले कभी नहीं हुई, जितनी आज सोशल मीडिया में हो रही है। हाल ही में एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया, एक बनेंगे, नेक बनेंगे और मुझे बिना मेरी जानकारी के उसमें शामिल भी कर लिया। जब मैंने पूछा, तो यही जवाब मिला, नेकी और पूछ पूछ।

टीवी पर दर्जनों धार्मिक चैनल इस नेक काम में लगे हुए हैं, कितने सामाजिक, धार्मिक और पारमार्थिक संगठन और एन.जी. ओ. नेकी की मशाल से जन जागृति फैला रहे हैं। लोग तो आजकल अपनी प्रकाशित पुस्तकें भी अमेजान पर डालने लगे हैं। हमारे मुकेश भाई अंबानी ने भी जिओ नेटवर्क की ऐसी नेकी की मिसाल पेश की है कि हमारा भी मन करता है, हम भी कुछ नेकी यू ट्यूब पर डाल ही दें। आपसे उम्मीद है आप हमारे चैनल को लाइक, शेयर और सब्सक्राइब अवश्य करेंगे।

आप भी आगे से ध्यान रखें, व्यर्थ दरिया में डालने के बजाए, नेकी करें और यूट्यूब पर बहाएं और दो पैसे भी कमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 156 ☆ मुक्तक – ।। परदा गिरने के बाद भी ताली यूं ही बजती रहे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 156 ☆

☆ मुक्तक – ।। परदा गिरने के बाद भी ताली यूं ही बजती रहे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

स्वीर इक दिन, दीवार पर टंग जाना है।

दुनिया से दूर हमें सितारों, सा रंग जाना है।।

कर जाएं सार्थक जीवन, अपना सत्कर्मों से।

बस यही सब ही उपर, हमारे संग जाना है।।

=2=

यह न जलती है और, यह न ही गलती है।

दुयाओं की यह दौलत, कभी नहीं मरती है।।

मत संकोच करो कभी, दुआ लेने और देने में।

जिंदगी के साथ और, बाद भी यह चलती है।।

=3=

इत्र की महक दामन में, नहीं किरदार में लाओ।

काम आकर सबके आदमी, दिलदार कहलाओ।।

नेकी बदी सब जिंदा रहती , हर एक दिल में।

बन कर जिंदगी के तुम, वफादार ही जाओ।।

=4=

अहम गरुर चाहत सब, इक राख बन जाती है।

मिट्टी की देह इक दिन, बस खाक बन जाती है।।

धन दौलत शौहरत नहीं, जबान मीठी है भाती।

यही चलकर तेरा नाम, सम्मान नाक बन जाती है।।

=5=

कर जाओ ऐसा, कि डोली यादों की सजती रहे।

मिलने को यह दुनिया, राह तेरी तकती रहे।।

हर दिल में जगह बन जाए, जरूर तेरे नाम की।

परदा गिरने के बाद भी, ताली यूं ही बजती रहे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #221 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – अनुपम भारत… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – अनुपम भारत। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 221

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – अनुपम भारत…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

अपने में आप सा है, भारत हमारा प्यारा

जग में चमकता जगमग जैसे गगन का तारा।

*

हैं भूमि भाग अनुपम नदियाँ-पहाड़ न्यारे

उल्लास से तरंगित सागर के सब किनारे ।

*

ऋतुएँ सभी रंगीली, फल-फूल सब रसीले

इतिहास गर्वशाली, आँचल सुखद सजीले।

*

है सभ्यता पुरानी, परहित की भावनाएँ

सत्कर्ममय हो जीवन है मन की कामनाएँ।

*

गाँवों में भाईचारे का सुखद स्नेह व्याप्त था।

हवाएँ नरम थीं, मौसम सुहावना था।

*

लोगों में सरलता है दिन-रात सब सुहाने

त्यौहार प्रीतिमय हैं, अनुराग सिक्त गाने।

*

रामायण और गीता ज्ञान की अद्वितीय पुस्तकें हैं जो

मन को विचलित नहीं होना, बल्कि स्थिर रहना सिखाती हैं।

*

ये देश है सुहाना, धर्मों का यहां पर मेला

असहाय भी न पाता, खुद को जहाँ अकेला।

*

आध्यात्मिक है चिन्तन, धार्मिक विचारधारा

संसार से अलग है, भारत पुनीत प्यारा।

*

है ‘एकता विविधता में’ लक्ष्य अति पुराना

भारत ‘विदग्ध’ जग का आदर्श है सुहाना ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पहाटेस…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पहाटेस…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

पहाटेस अजूनही

उगवते माझी व्याकुळता

जशी गादीवर धुक्याच्या

सरल्या सांजेची मुग्धता

*

फिरतात आताशा हात

रिकाम्या अंतरात

शोधती कान माझे

तुझ्या कंकणांची साद

*

पुढे गेलीस तू

मागे सोडून ती पहाट

आता उरले चालणे

दिवसाची ही वाट

*

त्या क्षणात बद्ध अन या क्षणात स्तब्ध

तुझे ते कोमल सामर्थ्य

त्या क्षणात निःशब्द अन या शब्दात बद्ध

हे माझे आर्त काव्य

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आई अंगाई गातांना ☆ सौ. मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आई अंगाई गातांना ☆ सौ. मंजिरी येडूरकर

(आपण बाळांना नेहमीच अंगाई म्हणून झोपवतो. पण खरंच त्या बाळाला अंगाई ऐकताना काय वाटत असेल?)

 गोड गळ्यातील सूर लाघवी

लोभस माया झोका हलवी

स्वर्ग सुखाची जाणीव काना

आई अंगाई गाताना सूर लाघवी

*

चंद्र, चांदण्या, काऊदादा अन् चिऊताई

कोण आले, कोण गेले, नाही कळले बाई

आपणही मग घेते ताना ——-

*

ठाऊक नाही गाईचे ते हंबरणे

मनी माऊचे लपलप दूध पिणे

विसरुनी जातो भूक हा तान्हा ——

*

तिन्हीसांजेला दिवा लाविता आई

भिती काळजातली दूर ही जाई

बोचे गादी, न रुचे पाळणा ——

*

आकांत मी करते, रडू कोसळते

उचलुनी घेता आपसूक हसते

ही तर जादू स्पर्शाची ना ——–

*

म्हणे लबाडा, लटक्या रागे, मांडीवर घेता

आणि कळते, खरेच आई, थकली आता

म्हणूनच झोपी जाई हा राणा ———-

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ५ – संत कान्होपात्रा…☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

🔅 विविधा 🔅

☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ५ – संत कान्होपात्रा… ☆ सौ शालिनी जोशी

पंढरपूर जवळील मंगळवेढा हे संतांच गाव. संत दामाजी, संत चोखामेळा या मंगळवेढ्याचे होते. येथेच १५ व्या शतकात शामा गणिकेचे पोटी कान्होपात्रेचा जन्म झाला. चिखलात उमललेले कमळच हे. अप्रतिम लावण्य आणि गोड गळा तिला लाभला होता. साहजिकच आपलेच काम आपल्या मुलीने करावे अशी तिच्या आईची इच्छा होती. पण पूर्व पुण्याईने कान्होपात्रेला लहानपणापासूनच विठ्ठलाची ओढ होती. तिला नृत्य, गायन शिकवणारे गुरुजीही भजने शिकवत असत. त्यामुळे सतत हरिनामात दंग राहणे हाच तिचा छंद झाला. सौंदर्यामुळे मोठमोठ्या सावकारांच्या तिला मागण्या येत असत, पण ती नकार देत असे. त्यामुळे तिचा छळही झाला.

शामा नायकिणीने चिडून तिला अंधाऱ्या खोलीत कोंडून ठेवले. पण विठ्ठलाच्या कृपेने तिच्यासाठी तो एकांत ठरला. ती अखंड नामस्मरणात गुंतली. एकादशीचा दिवस होता. वारकऱ्यांचे अभंग ऐकून तिला स्वस्त बसवेना. तिने खिडकीतून उडी मारली आणि वेश बदलून वारीत सामील झाली. हातात वीणा घेऊन वारकऱ्यांबरोबर पंढरीला पोहोचली. चंद्रभागेत स्नान करून, नामदेव पायरीचे दर्शन, घेऊन राऊळी धावली. देहभान विसरून, विठ्ठलाचे अनुपम रूप तिने डोळ्यात साठवले. चरणाला मिठी मारली. नामभक्ती सांगताना ती म्हणते,

घ्यारे घ्यारे मुखी नाम l अंतरी धरोनिया प्रेम ll

माझा आहे भोळा बाप lघेतो ताप हरोनी ll

कान्होपात्रीने मंगळवेढ्याहून पंढरपूरला दर्शनासाठी येण्याचे धाडस केले. ती परत मंगळवेढाला गेली नाही. उलट तीच विठुरायाला प्रश्न करते,

‘पतित पावन म्हणविसी आधी l

मग भक्ता मागे उपाधी कां बरे लावतो?ll’

नामस्मरणातून सुरू झालेल्या कान्होपात्रेचा प्रवास अनुभूती पर्यंत पोहोचला. पांडुरंगाच्या चरणी ती आनंदाने विसावली. कान्होपात्राचे अप्रतिम सौंदर्य बिदरच्या बादशहाच्या कानावर गेले होते. ती लावण्यवती आपली अंकित असावी, अशी ईर्षा बादशहाच्या मनात निर्माण झाली. कान्होपात्रा पंढरपूरला आहे हे कळतात तिला नेण्यासाठी बादशहाचे शिपाई आले. कान्होने मंदिराचा आश्रय घेतला. सरदार शिपायानी मंदिरापर्यंत तिचा पाठलाग केला. मंदिराच्या व्यवस्थापकांना मंदिर ताब्यात घेण्याची धमकी दिली. तेव्हा मंदिर उध्वस्त होण्यापेक्षा मी यवनांसोबत जाते. अशी तयारी कान्होपात्रेने दर्शविली. आणि शेवटचे म्हणून विठ्ठलाच्या चरणावरती डोके ठेवले. तिच्या शुद्ध, अनन्य भावभक्तीला भगवंत पावला. तिची आळवणी ऐकून तिला सगुण रूपात दर्शन दिले. निर्भय केले. पाहता पाहता कान्होपात्रा अदृश्य झाली. दोन चैतन्ये एक झाली. उरले ते शुष्क कलेवर. भक्तीत अडसर आणणाऱ्या यवनाला हात हलवत जावे लागले. त्याप्रसंगी तिने केलेला विठ्ठलाचा धावा,

नको देवराया अंत आता पाहू l प्राण हा सर्वथा जाऊ पाहेll१ll

हरिणीचे पाडस व्याघ्रे धरियेले l मजलागी झाले तैसे देवा ll२ll

मोकलून आस झाले उदास l घेई कान्होपात्रेस हृदयांतरी ll३ll.

तुजविण ठाव न दिसे त्रिभुवनी l धावे हो जननी विठाबाई ll ४ll

आपल्या अनन्य भक्ताची आळवणी भगवंतापर्यंत पोहोचली. भगवंताने आपले ब्रीद खरे केले. पंढरपूरच्या मंदिराच्या दक्षिण दरवाजात तिला पुरण्यात आले. तेथे एक तरटीचा वृक्ष उगवला. कानोपात्रीच्या भक्तीची व संतत्वाची ग्वाही तो देतो. त्या झाडाखाली तिची छोटीशी मूर्ती आहे. मंगळवेढा गावात तिचे छोटेसे देऊळ आहे.

अशाप्रकारे कान्होपात्रेचे आयुष्य अनेक नाट्यपूर्ण घटनांनी भरलेले होते. तिचा शेवटही तसाच थरारक. जन्मजात प्राप्त झालेले उपभोग्य म्हणून जगणे तिने नाकारले. तिने स्वतःची वारकरी संप्रदायातील स्त्रीभक्त, अभंग रचनाकार अशी नवी ओळख निर्माण केली. तिच्या नावे ३३ अभंग आहेत. वारकरी संप्रदायाने तिला मान दिला. कान्होजी संत कान्होपात्रा झाली. कुणी गुरु नाही, काही परंपरा नाही, भक्तीचे वातावरण नाही. तरीही केवळ भक्तीने तिने ईश्वराजवळ स्थान मिळवले. तोच तिचा सखा, मायबाप, बंधू, भगिनी आणि तारणहार झाला. ‘दिनोद्धार ऐसे वेदशास्त्रे गर्जती बाही’ दिनोद्धार करावा असे वेदच सांगतात. त्यामुळे मी कुळहीन असले तरी मला भक्तीचा अधिकार आहे. भक्ती मधून स्वतःचा उद्धार करावा असे वेदांत सांगितले आहे. अशी भूमिका घेऊन कान्होपात्रेने भक्ती करण्याचा अधिकार प्राप्त करून घेतला. पतीताना पावन करणाऱ्या विठ्ठलावर सर्व भाग टाकून निष्काम भावनेतून भक्ती केली. भक्तीचे बळ यवन बादशाहालाही कळलं.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ राजवैद्य — भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ राजवैद्य — भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(शिर्के साहेब मुंबईला जाताना बरोबर त्या गोळ्या घेऊन गेले आणि नियमित घेऊ लागले. त्यांची इतर पत्ते चालू होतीच.) – इथून पुढे —- 

दर दोन महिन्यांनी शिर्के साहेब आपल्या डॉक्टर कडे तपासून घेत असत. नेहमीप्रमाणे शिर्के साहेबांनी लिव्हरची सोनोग्राफी केली आणि सर्व पॅथॉलॉजी मध्ये जाऊन लिव्हर टेस्ट केल्या.

डॉक्टर मोटवानी लिव्हर वर उपचार करणारे डॉक्टर बॉम्बे हॉस्पिटलमध्ये होते. शिर्के साहेब नेहमी त्यांचे कडून तपासून घेत असत. नवीन केलेली सोनोग्राफी आणि लिव्हर टेस्ट घेऊन शिर्के साहेब मोटवानी ना भेटायला गेले. डॉक्टर मोटवानी सोनोग्राफी चे रिझल्ट पाहायला लागले आणि आश्चर्यचकित झाले, तसेच त्यांनी पॅथॉलॉजी मधील केलेल्या लिव्हर टेस्ट बघितल्या, त्यांच्या आश्चर्याचा धक्का बसला.

डॉ मोटवानी – मिस्टर शिर्के, धिस इज मिराकल, your bilrubin reched normal level, युवर सोनोग्राफी टेस्ट अल्सो शोज युवर युवर लिव्हर इज नियर टू नॉर्मल. हाऊ दिस हॅपेंड?

शिर्के साहेबानं खूप खूप आनंद झाला, सर्व डॉक्टर नी त्यांच्या लिव्हर च्या रिकव्हरी बद्दल नकारघंटा लावली होती, आणि आपले पाहुणे आनंदराव यांच्या शब्दाखातर आपण राजवैद्यना रिपोर्ट दाखवले, आणि राजवैद्य आणि मोठे आश्चर्य आपल्या बाबतीत घडवले. असे वैद्य अजून आहेत यावर आपला विश्वास नव्हता. राजवैद्य आणि ही जादू केली आहे.”

“डॉक्टर, मी कामानिमित्त एका शहरात गेलो होतो, माझ्या एका नातेवाईकाने त्यांच्या संस्थांच्या राजवैद्ययाना बोलावून घेतले आणि माझे रिपोर्ट्स दाखवले. या राज्यवैद्ययांचे आजोबा 60 70 वर्षांपूर्वी राजांच्या पदरी होते. त्यांच्याकडे अजूनही काही आश्चर्यकारक औषध आहेत. ते त्याचा फारसा प्रसार करत नाहीत. ‘

डॉ मोटवानी – मिस्टर शिर्के, या अशा जादू सारख्या औषधांचा इतर लोकांना पण फायदा व्हायला पाहिजे. तुम्ही जर या राजवाड्यांचा पत्ता मला दिलात तर इतरही पेशंटसाठी मी ते औषध त्यांचे कडन घेऊ शकतो. हे आपल्या समाजाचे काम आहे. जास्तीत जास्त पेशंट बरे व्हायला पाहिजेत. “

शिर्के साहेबांनी त्यांना आनंदरावांचा आणि राजवैद्य यांचा पत्ता दिला. शिर्के साहेब बाहेर जातात डॉक्टर मोटवानी यांनी बेंगलोर मधील जया ड्रग कंपनीचे मालक नियाज शेख यांना फोन लावला. जया ड्रग कंपनी ही आयुर्वेद मधील भारतातील पहिल्या तीन आतली कंपनी होती. डॉक्टर मोटवानी त्यांचे एक डायरेक्टर होते.

जया ड्रग कंपनीचे मालक मियाज शेख शक्यतो कुणाचा फोन घेत नसत, पण डॉक्टरमोटवानी हे त्यांच्या कंपनीचे डायरेक्टरच होते म्हणून त्यांनी फोन घेतला.

डॉक्टर मोटवानींनी मियात शेख यांना सांगितले माझ्याकडे एक शिर्के नावाचा पेशंट गेली दहा वर्षे येत आहे. त्याची लिव्हर पूर्ण खराब झाली होती. इंग्लंड मधून येणाऱ्या औषधावर तो जगत होता. परंतु आज तो तपासणीला आला तेव्हा त्याची लिव्हर जवळजवळ रिकव्हर झाली आहे. मला याचे आश्चर्य वाटले आणि मी चौकशी केल्यानंतर कळले महाराष्ट्रात एका शहरात एका माजी संस्थांनाचे राज्य वैद्य राहतात. ही त्यांची तिसरी पिढी आहे. त्या त्या राजवैद्याने शिर्के साहेबांना हे औषध दिले. मला वाटते लिव्हरच्या उपचारासाठी ही एक जादू आहे. आपण जर ते औषध मिळवले तर आपलं सबंध भारतभर धंदा करू शकतो, या औषधाला सध्या तरी स्पर्धा नाहीये. त्यामुळे कोणी ते औषध मिळवण्याआधी आपण ते औषध मिळवायला हवे. यासाठी तातडीने हालचाल करायला हवी ‘.

डॉक्टर मोटवानी ही बातमी देतात, नियाज शेखचे डोळे चमकले, त्याच्या तीन पिढ्या या व्यवसायात मोठया झाल्या, डॉक्टर मोटवानी हे मुंबईतील मोठे प्रस्थ, लिव्हर समस्येवर मुंबई मधील विशेषतःज्ञ्, त्यांचा अंदाज आणि मत चुकीचे ठरणार नाही. हे आयुर्वेदिक औषध लिव्हर समस्येवर जादू आहे हे शेखने जाणले.

त्याने तातडीने हालचाल सुरु केली. सर्व डायरेक्टर्सना बोलाविले, मोटवानींनी कळवलेल्या माहितीबद्दल सर्वांना सांगितले. हे आयुर्वेदिक औषध आपल्याला मिळाले तर आपण भारतात नंबर वन वर पोहोचू असा विश्वास सर्वांना दिला. याकरिता ते औषध आपल्याला मिळायला हवी. त्या वैद्य राजा पर्यंत पोहोचण्यासाठी चांगला माणूस हवा होता. त्यांच्या एका डायरेक्टरनी त्यांच्या कंपनीच्या पुन्हा विभागाचा मुख्य ज्ञानेश सबनीस याचे नाव सुचवले. सर्वांनी ज्ञानेश च्या नावाला एकमताने संमती दिली.

ज्ञानेश ला बेंगलोरला बोलवले गेले. त्याला सर्व माहिती आणि वैद्य राजांचा पत्ता दिला गेला. हवे तेवढे पैसे खर्च करण्याची मुभा दिली गेली. ज्ञानेश्वर मराठी असल्याचा त्यांना फायदा होता. वैद्य राजांबरोबर बोलू शकणार होता. शिवाय त्याला महाराष्ट्रातील सर्व माहिती होती.

ज्ञानेश त्या शहरात आला आणि एका मोठ्या हॉटेलात उतरला, त्याच संध्याकाळी तो बापूसाहेबांना भेटायला गेला.

ज्ञानेश – बापूसाहेब मी ज्ञानेश सबनीस जया ड्रग कंपनीचा सेल्स मॅनेजर, तुम्हाला माहिती असेलच आमची कंपनी भारतातील अग्रगण्य आयुर्वेदिक कंपनी आहे. आमच्या कंपनीचा विस्तार भारतभर आहे. मुंबईचे जे शिर्के नावाचे एक लिव्हर पीडित पेशंट तुमच्याकडे आले होते, ते मुंबईच्या डॉक्टर मोटवानी चे पेशंट होते. तुमच्याकडचे औषध घेतल्यानंतर त्यांचा आजार जवळजवळ संपला. हे एक मोठे आश्चर्य घडले. मोटवानीने चौकशी करता करता शिर्के म्हणाले या शहरातील आयुर्वेदाचार्य राजवैद्य बापूसाहेब यांच्या औषधाने हा चमत्कार झाला. तुम्ही जी वनस्पती या आजारासाठी वापरलात ती जर आमच्या कंपनीला दिलीत तर कंपनी तुम्हाला त्याचे योग्य मोबदला देईल.

बापूसाहेब – शिर्के साहेबांची लिव्हर बरी झाली याचे श्रेय माझे नव्हे. माझा एक जंगलात राहणारा मित्र आहे, जो शेळ्या मेंढया राखतो, त्याचे हे ज्ञान आहे. त्याच्या आज्यानं ही विद्या त्याला दिली आहे.

ज्ञानेश – मग बापूसाहेब, तुमच्या त्या मित्राला बोलवाल तर बरं होईल. त्यांनी जर त्या वनस्पतीची माहिती आम्हाला दिली तर त्यांना आम्ही मोबदला देऊच पण तुम्हाला पण देऊ.

बापूसाहेब – ज्याचं श्रेय माझं नाही, त्याचा मोबदला मी कसा घेऊ? पण केरबाला जर तुम्ही पैसे देणार असाल तर त्याने ते घ्यावे. म्हणजे त्याचे दारिद्र्य मिटेल.

बापूसाहेबांनी त्यांचा मुलगा दिलीप याला बोलावून केरबा धनगर ला आणायला सांगितले. दिलीप केरबायला भेटायला गेला आणि येताना गाडीतून त्याला घेऊन आला.

आता बापूसाहेबांच्या घरात ज्ञानेश सबनीस, बापूसाहेब आणि केरबा समोरासमोर बसले होते.

बापूसाहेब – केरबा, तु जी झाडाची मुळी मला दिली होतीस, मी ती माझ्या औषधास मिसळून मुंबईच्या शिर्के साहेबांना दिले. त्यामुळे त्यांची लिव्हर एकदम बरी झाली. त्या औषधाच्या शोधात हे एका औषध कंपनीचे माणूस माझ्याकडे आले आहेत. ते औषध जर तू त्यांना दाखवलं, तर तुला ते दोन कोटी रुपये द्यायला तयार आहेत. त्यांचं म्हणणं आहे, या औषधामुळे अजून अनेक लिव्हरच्या पेशंटला फायदा होईल. त्यामुळे तू त्याचा विचार करावा.

केरबा –असल्या पैशावर थुंकतो मी बापूसाब, मी हाय तो झोपड्यात बरा हाय. या मुळीचा मी बाजार करणार न्हाई, माज्या आज्यान मोठया विश्वासन माझ्याकडं ही मुळी दावली, तेचा व्यापार करू? न्हाई जमायचं.

ज्ञानेश – केरबा कंपनी तुम्हाला शहरात घर देईल. तुमच्या मुलाला नोकरी देईल.

केरबा –अरे हट, मान कापली तरी मुळी दवणार न्हाई. मला तुमच पैस नग, घर नग. नोकरीं नग. माझा शेळ्या मेंढया विकायचा धंदा हाय तो बरा हाय. बापुसो, मी चाल्लो.’

म्हणत केरबा निघून गेला.

बापूसाहेब पण गप्प बसून होते. बापूसाहेबांना पण मनातल्या मनात समाधान वाटत होतं. पैशाला न बोलणारी अजून माणसे आहेत याचे त्यांना समाधान वाटले. ज्ञानेश गप्प बसून होता. पण तो मनातल्या मनात पुढची आखणी करत होता. कंपनीने त्याच्यावर मोठी जबाबदारी दिली होती. आणि ती पुरी करण्याची त्याची जबाबदारी होती.

– क्रमशः भाग दुसरा

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ रंगछटा… ☆ सुश्री नीला महाबळ गोडबोले ☆

सुश्री नीला महाबळ गोडबोले

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☆ रंगछटा… ☆ प्रस्तुती – सुश्री नीला महाबळ गोडबोले

“बाबा, किती जुनं दिसतय आपलं घर..! ! बदलून टाकायचं का? “

लेकीनं एखादा कपडा किंवा चपला बदलून टाकायच्या सहजतेनं विचारलं..

आम्हाला ते सहज पचणारं नसलं तरी तिचं वय आणि तिची पिढी विचारता घेता ते फारसं अयोग्य नव्हतं.

मधला मार्ग म्हणून आम्ही घर रंगवायचं ठरवलं..

रंगाच्या निवडीची प्रक्रिया सुरू झाली.

 

लेकीनं जांभळा, पिवळा, हिरवा असे व्हायब्रंट रंग निवडले..

मी पांढरा, आकाशी, क्रीम अशा मंद रंगांना पसंती दिली..

नव-याला रंगाशी देणंघेणं नव्हतं..

“मला रंगातलं काही कळत नाही ” म्हणत तो मोकळा झाला..

त्याला फक्त काम लवकर नि चांगलं व्हायला हवं होतं..

“घर रंगवायचय की वृद्धाश्रम.. का मंदिर..? ” म्हणत लेकीनं पांढरा रंग निकालात काढला..

“संपूर्ण घराला एकच रंग लावूया म्हणजे घर मोठं दिसतं नि घराला कंटिन्युटी येते.. “

या पेंटरच्या सल्ल्यावर कशी कुणास ठाऊक पण आम्हा दोघींत एकवाक्यता झाली..

नि एक फिकटसा रंग आम्ही फायनल केला..

 

एका शुभदिनी रंगकामाला सुरुवात केली..

घरातल्या सा-या सामानानं आपापल्या जागा सोडून एखाद्या सभेला हजेरी लावावी त्याप्रमाणे दिवाणखान्यात गर्दी केली..

उड्या मारत, धडपडत, ठेचाकाळत चालावं लागू लागलं..

आमचा एककक्षीय (एका खोलीतला) संसार सुरू झाला..

 

“तुम्ही दोघी खाटेवर झोपा, मी खाली झोपतो.. ” म्हणत नव-याने जमिनीवर पथारी पसरली..

 

घरातल्या समस्त उशा, पांघरुणे, बेडशीट्स खाटेवर मुक्कामाला आल्याने आम्ही दोघी अंग चोरून कशाबशा झोपलो होतो..

मध्यरात्री लेक सरळ झाली नि तिची मला धडक बसली..

मी थेट खाली कोसळले ते नव-याच्या अंगावर..

त्याच्या किंचाळण्याने गल्ली जागी झाली..

पण वाचला बिचारा..

अडचण एवढी की मला उठता येईना.. ना त्याला..

शेवटी लेकीनं मला ओढून कसंबसं वर काढलं..

या प्रकरणाचा तिने एवढा धसका घेतला की 

“आता इंटर्नशिप करायला हवी ” म्हणत रंगकामाची पुरस्कर्ती लेक सुट्टीतही काढत्या पायाने पुण्यास रवाना झाली..! !

टुथपेस्ट सापडली तर ब्रश न सापडणं, पावडर सापडेपर्यंत कंगवा गायब होणं..

वरणभात आणि पिठलंभाकरी सोडून इतरही पदार्थ असतात, याचा विसर पडणं..

कधीही घराकडे ढंकुनही न पहाणारी पाहुणे मंडळी नेमकी या काळात टपकणं..

पेंटरबाबुंची रोजची पैशाची मागणी..

मालाच्या एस्टिमेटची पानफुटीप्रमाणे होणारी अखंड वाढ आणि पैशाचा बाहेरच्या दिशेने वाहणारा अखंड झरा…

यामुळे आम्ही दोघे नवरा-बायको रोज

“कुठून या नस्त्या फंदात पडलो.. नि सुखातला जीव दु:खात घातला.. “

या मंत्राचा अखंड जप करू लागलो..

मला तर स्वप्नंही रंगकामाची पडू लागली होती..

एखाद्या भिंतीचा रंग सगळा खराब झालाय…

असलं काहीतरी बेकार स्वप्न पडून मी ओरडत उठत असे नि झोपमोड केल्याबद्दल नव-याच्या शिव्याही खात असे..

याच काळात पेंटरमामांची आजी वारली, वडिलांना दवाखान्यात अॅडमिट करावं लागलं, त्यांचे किती दोस्त आणि शेजारी मयत झाले.. याला तर गणतीच नाही..

” आता तुम्ही स्वत: मयत व्हायच्या आधी आमचं काम पूर्ण करा.. “.

अशी आम्ही त्यांना विनंती केली..

तेंव्हा कुठे दहा दिवसात पूर्ण होणारं आमचं रंगकाम दीड महिन्यांंनी पूर्ण झालं..! !

रंगकामाचं घोडं एकदाचं गंगेत जाऊन न्हालं…!!

रोडावलेल्या बॅंकबॅलन्समुळे नव-याचं वजन चार-पाच किलोंनी घटलं असलं तरी मी मात्रं खुशीत होते..

नवीन फर्निचरचे, शोपिसेसचे बेत डोक्यात घोळत होते..

पैसे कमी झाले असले तरी उगीचच शेजारणींपेक्षा आपण श्रीमंत झाल्यासारखं वाटत होतं..

“संक्रांतीचं हळदीकुंकु करून सगळ्या शेजारणींना बोलवायचं नि त्यांना जळवायचं. “.

अशी कल्पना जेंव्हा मनात जन्मली तेंव्हा झालेला सगळा त्रास विरून गेला आणि मनमोर. नुसता थुईथुई. नाचू लागला..! !

याच आनंदात मी नवीन रंग पहायला खोल्याखोल्यांतून हिंडू लागले..

आणि लक्षात आलं की प्रत्येक खोलीतला रंग वेगवेगळा दिसतोय…

नव-याला बोलावलं..

“प्रत्येक खोलीतला रंग वेगळा दिसतोय.. बघ नां..! ! “

“सुरू झाली का तुझी किरकिर.. कितीही पैसा खर्च करा.. त्रास सहन करा.. या बाईला समाधान म्हणून नाही.. रंग वेगळा कसा दिसेल?” माझ्यावरच करवादत घालवलेले पैसे मिळवायला नवरोबा तडक निघून गेले.

“तुला प्रत्येक खोलीतले रंग वेगळे दिसतायत का बघ गं.. ” कामवाल्या सुमनला मी विचारलं..

“बाई, तुम्ही इथं लाल न्हाईतर पिवळाजर्द रंग द्यायला पायजे हुता.. आमच्या जावेच्या भैनीकडं तसलाच दिलाय.. कसला भारी दिसतुय.. तुमास्नी रंगातलं कळत न्हाई बगा..”

सुमननं नेहमीप्रमाणे ती कशी हुशार… आणि मला कसं काही कळत नाही.. हे दाखवायची नि मला डिप्रेस करायची, हिही संधी सोडली नाही..

दुपारी पुन्हा एकदा पाहणी केली..

आता तर रंग आणखी वेगळा वाटत होता..

अन् रात्री दिव्यांच्या प्रकाशात अजूनच वेगळा..

स्वयंपाकघरातला डार्क, हॉलमधला फिकट, बेडरूम्समधला थोडासा डल्…

आता मात्रं मी चक्रावून गेले.

सकाळी उठल्याबरोबर पेंटरकाकांना फोन केला..

“पैसे घेऊन जायला लगेच या.. “

पैशाच्या लालचेने पेंटरकाका दहा मिनिटांत हजर झाले..

“काका, आपण सगळीकडे एकच रंग वापरायचं ठरवलं होतं नं.. मग प्रत्येक खोलीतला रंग वेगळा कसा दिसतोय?”

पेंटरकाका थोडं गूढंसं हसले..

“ताई, रंग एकच आहे सगळीकडं..

पण प्रत्येक खोलीचा आकार वेगळा आहे. भिंतीच्या पोतात फरक आहे..

आणि मुख्य म्हणजे प्रत्येक खोलीत येणारा प्रकाश वेगवेगळा आहे..

स्वयंपाकघरात एकच खिडकी आहे.. हॉलमधे चार खिडक्या आहेत..

शिवाय स्वयंपाकघर लहान आहे.. हॉल मोठा आहे.. म्हणून हॉलमधे रंग फिकट आणि ब्राईट वाटतोय.. तर स्वयंपाकघरात डार्क..

बेडरूमच्या बाहेर झाडं आहेत.. प्रकाशच येत नाही.. म्हणून तिथला रंग डल् वाटतोय..

शिवाय खोलीतल्या फर्नीचरच्या रंगाच्या रिफ्लेक्शननं भिंतीचा रंग वेगळा दिसतो..

ताई, रंगाच्या छटा त्याच्या मुळच्या रंगावर अवलंबून असतातच पण त्यापेक्षाही इतर अनेक गोष्टींवर अवलंबून असतात..

या सा-या गोष्टी सारख्या करा.. मग रंगही समान दिसेल..!!

अजून काही महिन्यांनी बघा.. रंग अजूनच वेगळा दिसेल..

शिवाय पहाणा-याच्या नजरेवरसुद्धा रंगाचं आकलन अवलंबून असतं..

साहेबांना नाही वेगळेपणा जाणवला..

तुम्हाला जाणवला.. कारण तुमचा जीव या भिंतीत आहे.. या घरात आहे..! !

मी मंत्रमुग्ध होऊन ऐकत होते..

त्या अशिक्षीत माणसाकडून केवढं मोठं तत्त्वज्ञान मला समजलं होतं.. रंगाच्या निमित्ताने..!!

माणसाचंही असच आहे नाही..

खरंतर प्रत्येक माणूस सारखाच…

पंचमहाभुतापासूनच बनलेला..

पण प्रत्येकाचा रंग.. म्हणजे स्वभाव, वागणूक, मन, बुद्धी, आचार, विचार किती वेगळं..

मग आपण. लावून टाकतो..

हा चांगला..

ती वाईट

ती उदार

तो कंजुष

तो दुष्ट

ती दयाळु

ती हुशार

तो मठ्ठ

तो कोरडा

ती प्रेमळ

अशी अनंत लेबलं..

 

तो माणुस जन्मत:च असा आहे, असं आपण ठरवूनच टाकतो..

आणि तो असा बनायला सभोवतालच्या कितीतरी गोष्टी जबाबदार आहेत, याचा आपल्याला विसर पडतो..

तो उद्या बदलेल.. हे मानायला आपण तयारच होत नाही..

निसर्गाकडून मिळालेलं शरीर, बुद्धी, बालपणीचे संस्कार, मिळालेलं प्रेम किंवा तिरस्कार, वाट्याला आलेली गरिबी किंवा लाभलेली श्रीमंती, लाड किंवा भोगावे लागलेले अत्याचार..

किती किती गोष्टींच्या प्रभावामुळे बनलेली अनंत छटांची अनंत व्यक्तीमत्त्वे…

काळी, पांढरी, करडी, हिरवट, पिवळी, निळी नि गुलाबी…!!

यातल्या कुणाला चांगलं म्हणत कौतुक करणं.. नि कुणाला वाईट म्हणत हेटाळण्यापेक्षा..

जाणीवेच्या शोभादर्शकातून पाहिलं तर रंगीबेरंगी नक्षीचं नयनसुख मिळेल..

नि सारं जग सप्तरंगी इंद्रधनुष्यासारखं सुरेख होऊन जाईल…!!

 

© सुश्री नीला महाबळ गोडबोले 

सोलापूर 

फोन नं. 9820206306,  ई-मेल- gauri_gadekar@hotmail. com; gaurigadekar589@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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