आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (19) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।।19।।

 

भगवान बोले –

अच्छा मुख्य विभूतियाँ बतलाउँगा तात

क्योंकि अखिल अनंत है अद्धुत सब की बात।।19।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है।।19।।

 

Very well, now I will declare to thee My divine glories in their prominence, O Arjuna! There is no end to their detailed description.।।19।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆ जोश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जोश”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆

☆ जोश

जब सीली रात के झरोखे से

पूनम का चाँद मुस्कुराया,

चांदनी की जुस्तजू ग़ज़ब थी!

 

मैं भी उड़कर

पहुँच गयी आसमान की गोद में

और पी ली मैंने भी

दूधिया चांदनी!

 

तब से न जाने

मेरे ज़हन में जोश की

कई शाखाएं उग आयीं

और बन गयी मैं एक हरा दरख़्त

जो अपनी ख़ुशी ख़ुद ही ढूँढ़ लेता है!

 

अब तो इस दरख़्त में

कई गुल खिल उठे हैं

और ये सारे जहां को महकाते हैं

और देते हैं छाँव

उन सारे मुसाफिरों को

जो तनिक भी ग़म से पीड़ित हो उठते हैं!

 

कभी-कभी

मैं भी बैठ जाती हूँ

उसी दरख़्त के नीचे

और चूसने देती हूँ उमंग के फल

अपने ही जिगर को,

कि कहीं मेरी शाखाएं

कोई तोड़ न दे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदानीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सदानीरा  

 

देख रहा हूँ

गैजेट्स के स्क्रिन पर गड़ी

‘ड्राई आई सिंड्रोम’

से ग्रसित पुतलियाँ,

आँख का पानी उतरना

जीवन में उतर आया है,

अब कोई मृत्यु

उतना विचलित नहीं करती,

काम पर आते-जाते

अंत्येष्टि-बैठक में

सम्मिलित होना

एक और काम भर रह गया है,

पास-पड़ोस

नगर-ग्राम

सड़क-फुटपाथ पर

घटती घटनाएँ

केवल उत्सुकता जगाती हैं

जुगाली का

सामान भर जुटाती हैं,

आर्द्रता के अभाव में

दरक गई है

रिश्तों की माटी,

आत्ममोह और

अपने इर्द-गिर्द

अपने ही घेरे में

बंदी हो गया है आदमी,

कैसी विडंबना है मित्रो!

घनघोर सूखे का

समय है मित्रो!

नमी के लुप्त होने के

कारणों की

मीमांसा-विश्लेषण

आरोप-प्रत्यारोप

सिद्धांत-नारेबाजी

सब होते रहेंगे

पर एक सत्य याद रहे-

पाषाण युग हो

या जेट एज

ईसा पूर्व हो

या अधुनातन,

आदमियत संवेदना की

मांग रखती है,

अनपढ़ हों

या ‘टेकसेवी’

आँखें सदानीरा ही

अच्छी लगती हैं।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 8.2.18, प्रात: 9:47 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆ कथा-कहानी ☆ नेत्रार्पण ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6

☆ कथा कहानी  – नेत्रार्पण ☆

समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।

सबकी आँखें बरबस ही भर आईं।  माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई।  उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।

अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।

जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।

अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“

“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“

“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“

अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।

वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।

उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी  अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।

अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?

मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन-यज्ञ-वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

एक आग का दरिया

माँ के आंचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह-मण्डप

यज्ञ-वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहां हैं ’वे’?

कहां हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस,

एक गम है।

सांस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ।

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता?

हँसता ….. खेलता

खिलखिलाता या रोता?

 

किन्तु,  मां!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो,

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

 

मेरी विदा के आंसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं।

माँ !

बस अब और नहीं।

 

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं।

दान तो वह करता है,

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।

और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।

किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे?  नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।

निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए।  आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 25 ☆ नाटक – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह) – सुश्री मंजूषा मन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुश्री मंजूषा मन जी के  हाइकू -तांका  विधा में रचित काव्य संग्रह  “मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.   श्री विवेक जी ने  आज जापानी कविता की इस विधा पर श्री विवेक जी ने विस्तृत चर्चा की है। हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना के प्रवाह बौद्ध धर्म और प्रकृति पर आधारित  कविता की इस विधा पर अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 25☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह  –  मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)

पुस्तक – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह) 

लेखक – सुश्री मंजूषा मन

प्रकाशक –पोएट्री पुस्तक बाजार , लखनऊ

पृष्ठ  – ९६

मूल्य –रु १४०.००

☆ काव्य संग्रह   – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)– सुश्री  मंजूषा मन  –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है।

जब वृक्षो के भी बोनसाई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। कविता विश्वव्यापी विधा है। मनोभावों की अभिव्यक्ति किसी एक  देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकती।  जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलवाई ।

जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यक्ति है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई । किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।

दिल्ली के डॉ हरे राम समीप ,जनवादी रचनाकार है उनका हाइकू संग्रह चर्चित रहा है। जबलपुर से  सुश्री गीता गीत ने भी हाइकू खूब लिखे हैं। अन्य अनेक हिन्दी कवियो की लम्बी सूची है जिन्होने इस विधा को अपना माध्यम बनाया। बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की सुश्री मंजूषा मन कविता, कहानियों के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं. “मैं सागर सी” उनका पुरस्कृत हाईकू तांका संग्रह है।

उदाहरण स्वरूप इससे कुछ हाइकू देखे-

मन पे मेरे

ये जंग लगा ताला

किसने डाला

..

चला ये मन

ले यादों की बारात

माने न बात

..

हुई बंजर

उभरी हैं दरारें

मन जमीन

..

बासंती समां

मन बना पलाश

महका जहाँ.

..

इंद्र धनुष

मन उगे अनेक

रंग अनूप

 

मन के विभिन्न मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति पुस्तक की इन नन्हीं कविताओ में परिलक्षित होती है. किताब एक बार पठनीय तो हैं ही. मंजूषा जी से सागर की अथाह गहराई से मन के और भी मोतियों की अपेक्षा हम रखते हैं.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #36 – चंद्र पौर्णिमेचा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “चंद्र पौर्णिमेचा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 36☆

☆ चंद्र पौर्णिमेचा ☆

 

माझ्या नभातला हा तारा कसा निखळला

आकाश फाटले अन् टाकाच हा उसवला

 

ओल्या बटा बटातुन गंगा कुठे निघाली

केसातुनी तुझीया पारा कसा निथळला

 

हिरव्या चुड्यात किणकिण नाजूक  मनगटांवर

येता वसंत दारी मुखडा तुझा उजळला

 

होतेस विश्व माझे सारेच तू उजळले

ही पाठ फिरवता तू अंधार हा पसरला

 

हा भेटण्यास येतो मज चंद्र पौर्णिमेचा

या लक्ष तारकांनी मांडव पुन्हा सजवला

 

रात्रीत या कळीचा विस्तारला पदर अन्

श्वासात गंध माझ्या होता इथे मिसळला

 

केवळ तुझ्याचसाठी झालो तुषार मीही

ओल्या मिठीत तूही मग देह हा घुसळला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ The benefits of Laughter: A Scientific View – Video #17 ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ The benefits of Laughter: A Scientific View☆ 

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #17

The benefits of Laughter are amazing. It decreases the negative effects of stress on your body which is the root cause of all illness. Laughter deals with physical, mental and emotional stress simultaneously. It also strengthens the immune system, lowers blood pressure, controls blood sugar and keeps your heart healthy. It is a powerful antidote against depression – the number one sickness today.

Laughing promotes a healthy heart. In a good bout of laughter, there is a dilation of blood vessels all over the body. We’ve all seen or experienced this as a flushed appearance and feeling of warmth. Pulse rate and blood pressure rise as the circulatory system is stimulated before settling down, below the original levels. In a nutshell, laughter helps tone the circulatory system of the body.

Diabetes is emerging as a major health hazard worldwide. Japanese scientist Murakami’s experiment to ascertain the effect of laughter on the blood sugar levels has affirmed that laughter has a lowering impact on blood sugar. Murakami indentified 23 genes that can be activated with laughter. In addition, it also reduces the stress hormone cortisol responsible for increase in sugar levels and stabilizes the immune system, which if weakened, can affect the production of insulin in the pancreas.

Laughter has a profound positive impact on allergies, with many practitioners reporting complete disappearance of all symptoms of asthma, skin and other allergies. Though not an intervention for countering physical causes of allergies; Laughter Yoga is a definite tool to remedy stress. It helps to reduce the risk factors by boosting the immune system, encouraging deep breathing and flushing the lungs of stale air and generating a feeling of wellness.

Depression is often associated with physical pain, feelings of despair, loss of appetite, immobility, insomnia and other cardiovascular problems. Practicing Laughter Yoga regularly helps to resolve most of these ailments as it is one of the fastest ways of boosting heart rate, reducing blood pressure, providing an excellent cardio workout and alleviating pain. Extended hearty laughter is a body exercise with powerful body-mind healing effects.

Scientific studies have proved that a few days of laughter exercises and deep breathing lowers blood pressure thus reducing the risk of a heart attack. Having too much cholesterol in the blood can lead to the hardening and narrowing of the arteries in the major vascular systems. A daily dose of laughter opens the arteries and allows the blood to flow freely to all parts of the body thus preventing a cardiac failure.

Stress is the number one killer today, and most illnesses are stress related. Laughter Yoga is an instant stress buster which takes care of physical, mental and emotional stress simultaneously. It has been scientifically proven that laughter reduces the level of stress hormones like cortisol and epinephrine and enhances positive emotions.

 

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (18) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

( अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना )

 

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।

भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌।।18।।

 

कहें जनार्दन योग औ” निज विभूति तो आप

बिना सुने विस्तार से मन को चैन अप्राप्त।।18।।

 

भावार्थ :  हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात्‌सुनने की उत्कंठा बनी ही रहती है।।18।।

 

Tell me again in detail, O Krishna, of Thy Yogic power and glory; for I am not satisfied with what I have heard of Thy life-giving and nectar-like speech!।।18।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ कालजयी कविता ☆ दे जाना उजास वसंत ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “दे जाना उजास वसंत”।  मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। गांव की मिटटी की सौंधी खुशबू से सराबोर हैं एक एक शब्द । संभवतः इसी लिए निःशब्द हूँ  । सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए इस कालजयी रचना का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे आज के अंक में आप निम्न लिंक पर भी पढ़ सकते हैं। )

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 
  4. नदी नीलकंठ नहीं होती 
  5. झांनवाद्दन

☆ दे जाना उजास वसंत ☆

 

तुम्हें देखा है कई बार वसंत

फूलों वाली बगिया में टहलते हुए

सूनी टहनियों पर चुपचाप

मासूम पत्तियाँ सिलते हुए

अनमने हो गए जी को आशा की ऊर्जा पिलाते हुए

बड़े प्यारे लगे मुझे तुम

 

जोहड़ की ढाँग पर तैरती गुनगुनी धूप में

घास के पोरुए सहलाते हुए

मेहमान परिन्दों के कंठ से फूटते हो सुर सम्राट से

 

पर सुनो वसंत

इस बरस तुम संवर जाना हमारे खेतों में बालियों का गहना बनकर

वरना खाली रह जाएंगे कुठले अनाज के

और माँ को लगभग हर साँझ ही भूख नहीं होगी

और नहीं दे पाएगी एक चिंदिया भी मेरी धौली बछिया को

 

तुम झूल जाना इस बरस आम के पेड़ों की फुनगियों पर ज़रूर

जीजी के तय पड़े ब्याह की तारीख पक्की कर जाना अगेती सी

उसकी आँखों के इंतज़ार को हराकर,

तुम उनमें खिल उठना वसंत

मेरे भैया के खाली बस्ते में ज़रूर कुलबुलाना

नई – नई पोथियां बन

 

सुनो बसंत,

सूखी धूप पी रही है कई बरसों से

मेरे बाबू जी की पगड़ी का रंग

तुम खिले – खिले रंगों की एक पिचकारी

उस पर ज़रूर मार जाना वसंत

 

पिछले बरस तुम नहीं फिरे थे हमारे खेतों में

मेरी दादी की खुली एड़ियों में

चुभ गए थे कितने ही निर्मम गोखरू

 

कितनी ही बार कसमसा दी थी चाची

पड़ौसन की लटकती झुमकियों में उलझकर

हो गया था चकनाचूर सपना चाचा का

मशीन वाली साइकिल पर फर्राटा भरने का

इस बरस मेरे दादा जी की

बुझी – बुझी आँखों में दे जाना पली भर उजास

वरना बेमाने होगा तुम्हारा धरती पर आना

निर्मम होगा हमारे आँगन से बतियाये बगैर ही

हमारे गलियारे से गुज़र जाना

 

मैं थकने लगती हूँ साँझ पड़े

महसूस कर चुपचाप अपने घर की थकन

पर तुम किसी से कहना मत वसंत

वरना माँ जल उठेगी चिंता में

जीजी की तरह मेरे भी सयानी हो जाने की ।

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कथासरित्सागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कथासरित्सागर

 

बचपन में पिता ने उसे ‘कथासरित्सागर’ लाकर दिया था। छोटी उम्र, मोटी किताब। हर कहानी उत्कंठा बढ़ाती पर बालमन के किसी कोने में एक भय भी होता कि जिस दिन इस किताब के सारे पृष्ठ पढ़ लिये जाएँगे, कहानियाँ भी समाप्त हो जाएँगी। तब कैसे पढ़ेगा कोई नयी कहानी?

बीतते समय ने उसके हिस्से की कहानी भी लिखनी शुरू कर दी। भीतर जाने क्या जगा कि वह भी लिखने लगा कहानियाँ। सरित्सागर के खंड पर खंड समाप्त होते रहे पर कहानियाँ बनी रहीं।

अब तो उसकी कहानी भी पटाक्षेप तक आ पहुँची है। यहाँ तक आते-आते उसने एक बात और जानी कि मूल कहानियाँ तो गिनी-चुनी ही हैं। वे ही दोहराई जाती हैं, बस उनके पात्र बदलते रहते हैं। जादू यह कि हर पात्र को अपनी कहानी नयी लगती है।

कथासरित्सागर के पृष्ठ समाप्त होने का भय अब उसके मन से जाता रहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 7.55 बजे, 16 मई 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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