हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  यह इस कड़ी का अंतिम भाग है।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2 ☆

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल”

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल” एक नवोदित बालसाहित्यकार है. ये बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे है. उन का कहना है कि मेरे बचपन की यादगार होली रही है. यह बात वर्ष 1991 की है. तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था. होली पर मेरे गृहनगर शाहजहाँपुर में लाट साहब का जुलूस निकलता है.वैसे तो सड़क पर जा कर हर बार बड़ों के साथ मैं यह जुलूस देखता था, किन्तु उस वर्ष पहली बार मैं कुछ जान-पहचान के हमउम्र लड़कों के साथ जुलूस के साथ आगे चलता चला गया. ढोल व गाजे-बाजे के मधुर संगीत और चारों ओर बरसते रंगों का हम भरपूर आनन्द ले रहे थे.

परिवार के बड़े लोगों ने हमें ज़्यादा दूर जाने से मना किया था, पर होली के रंग-बिरंगे उल्लास में डूबे हम चलते-चलते ऐसे अनजान मोहल्ले में पहुँच गए जहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के शराब के नशे में धुत्त थे. वापस लौटते समय उन्हों ने हमें घेर लिया. अपशब्द कहते हुए हमारे कपड़े फाड़ दिए.

हमने बहुत हाथ-पैर जोड़े. पर, नशे में धुत्त उन लड़कों ने हमारी एक न सुनी. हम बहुत दुःखी हुए. बेहद शर्मिंदगी के साथ घर वापस लौटे.घर पर बड़ों से बहुत डाँट भी खानी पड़ी थी. तब पहली बार एहसास हुआ कि बड़ों की बात न मानना कितना भारी पड़ सकता है.

राजेंद्र श्रीवास्तव

राजेंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे कवि और लेखक है. आप बताते हैं कि अपने गाँव की एक होली हमें आज भी याद है.वे लिखते हैं कि हमारे गाँव में होलिका दहन के अगले दिन होली की राख और धूल लेकर बच्चे बूढ़े घर-घर जाते थे. उसे किसी भी आँगन या बंद दरवाजे पर फेंक कर आते थे.

दूसरे दिन का हम बच्चों को बेसब्री से रहता था. सुबह  लगभग नौ-दस बजे गाँव के बड़े-बूढ़े  घरों में बनाए गोबर के गोवर्धन का थोड़ा सा गोबर, होलिका स्थल पर लेकर जाते. तब तक हम बच्चे अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव की एक मात्र गली में मुखिया जी के घर के सामने की ढलान की ऊँचाई पर गोबर इकठ्ठा कर लेते.

जब गाँव के बड़े-बूढ़े लौटकर आते तो उन्हे रोकने के लिए गोबर के हथगोले बना कर उन पर फेंकते. उस तरफ से वह गुट भी टोकरी आदि की ओट लेकर हमारी ओर आने का जतन करते. ढपला, झाँझ व छोटे नगाड़ों के शोर में यह गोबर युद्ध तब तक चलता, जब तक हम लोगों का गोबर का भंडार खत्म न हो जाता. या कि गोबर खत्म होने से पहले ही गाँव के मुखिया किसी तरह बचते-बचाते हमारी सीमा में न आ जाते.

उसके बाद एक-दूसरे पर गोबर पोतते हुए दोपहर हो जाती. तब सभी अपने कपड़े लेकर नदी की ओर दौड़ जाते. जीभर नहाते. घर आकर अगले दिन होने वाली रंग की होली की योजना बनाने लगते.

इस तरह तीन दिन क्रमशः धूल, गोबर और रंग की होली की हुड़दंग में पूरा गाँव एक नजर आता. आजकल ऐसी होली नजर नहीं आती है.

इंद्रजीत कौशिक 

इंद्रजीत कौशिक एक प्रसिद्ध कहानीकार है. आप बच्चों को लिए बहुत लिखते हैं. आप को होली का एक संस्मरण याद आता है. आप लिखते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई के उपरांत मैं स्थानीय समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने लग गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा शहर— बीकानेर भांग प्रेमियों के लिए विख्यात है.

उसी वक्त की बात है कि होली का त्यौहार पास आता जा रहा था. समाचार पत्र के कार्यालय में नवोदित एवं वरिष्ठ साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था. उन के सानिध्य में मैंने लिखना शुरू भी कर दिया था. ऐसे ही एक दिन साहित्यकारों के बीच मिठाई और नमकीन के रूप में विश्वविख्यात बीकानेरी भुजिया का दौर शुरू हुआ. साहित्यकारों की टोली ने मुझे भी आमंत्रित किया तो मैं भी जा पहुंचा उन के बीच ।

” लो तुम यह लो स्पेशल वाली भुजिया ” मैं ने भुजिया देखी तो खुद को रोक न सका.भुजिया चीज ही कुछ ऐसी है जितना भी खाओ पेट भरता ही नहीं . अभी एक दो मुट्ठी भुजिया ही खाए थे कि  स्पेशल भुजिया ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल वे भाँग के भुजिया थे. यानी कि उन में भांग मिलाई हुई थी.

फिर क्या था,चक्कर आने शुरू हुए तो रुके ही नहीं. मुझे उस का नशा होता देख किसी ने सलाह दी,” अरे भाई, जल्दी से छाछ गिलास भर के पिला दो. नशा उतर जाएगा.”तब झटपट पड़ोस से छाछ मंगवाई गई.दोतीन गिलास मुझे पिला दी गई.नुस्खा कामयाब रहा. थोड़ी देर बात स्थिति सामान्य हुई. तब मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी बिना सोचे विचारे कोई चीज मुंह में डालने की नहीं सोचूँगा.

अच्छा तो यही होगा कि होली जैसे मस्त त्यौहार पर नशे पते से दूर ही रहा जाए. यही सबक मिला था उस पहली यादगार होली से.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बने हैं एकत्व को ☆ श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी  कविता “बने हैं एकत्व को।)

☆ बने हैं एकत्व को ☆

सृष्टि के निर्माता को वंदन हमारा

स्वीकार हो एक अनुनय प्यारा,

चाहत छोटी-सी है अपनी

बनें एक-दूजे का हम ही सहारा ।

 

बनें विशाल तन के कंकड़ हम,

हिमालयी चमकते ‘शूल’ बनों तुम।

बनें अथाह जलनिधि की बूंदें हम,

गरजती-इतराती ‘लहरें’ बनों तुम।

बनें उठती धूल के रजकण हम,

अंगार बरसे तूफानी ‘बयार’ बनों तुम।

बनें मिट्टी में ख़ुद समेटे जड़ें हम,

खुशबू बिखराए वो ‘फूल’ बनों तुम।

बनें मंडराते हल्के बादल हम,

असीम पथ ‘आसमान’ बनों तुम।

बनें धूप की हल्की-तेज किरण हम,

दे दुनिया को चमक ‘सूरज’ बनों तुम।

बनें शमशानी उठती लौ-राख हम,

जिंदगी को जिए हर ‘साँस’ बनो तुम।

कहोगे तुम,

माँगा तो क्या माँगा!

खिल्ली उडाएँगे फिर सभी,

दीन अरज पर हँसोगे तुम

हम निराश न होंगे कभी।

बने हैं एकत्व को हम और तुम,

न्योच्छावर जीवन तुमपर सभी ।

समझकर देखो बात को,

‘श्वर’ हैं हम और ‘क्षर’ हो तुम।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – एक नारियल की खातिर ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत विचारणीय , मार्मिक एवं भावुक लघुकथा  “एक नारियल की खातिर। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा नर्मदा तट पर बसे  उन परिवारों के जीवन का कटु सत्य बताती है जो भुखमरी की कगार पर जी रहे हैं साथ ही बच्चे  जो  अपना जीवन दांव पर लगा कर  चन्द   सिक्कों या नारियल के लिए  गहरी  नदी  में कूद जाते हैं। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 17 ☆

☆ लघुकथा – एक नारियल की खातिर ☆

 

नर्मदा की यात्रा के लिए आसपास की खोज के अन्तर्गत  शाला के विद्यार्थी ले जाये गए। सभी ने आसपास की खोज की। बहुत बातें पढ़ी लिखी और कुछ जानी पहचानी।

बहुत सारे बच्चे नदी तट पर खड़े थे।  तट से या नाव से पानी मे कूदते बच्चे आसानी से देखे जा सकते हैं। उनके शरीर पर मैले कुचैले बदबूदार कपड़े थे। वे पानी में तब छलांग  लगाते  जब कोई सिक्के डालता। सिक्के निकालने की होड़ सी लग जाती। बहुत सारे ऐसे बच्चे वहाँ यही काम करते बल्कि यूँ कहे कि उनका घर इन्हीं पैसो से चल रहा था।

किसी ने नारियल  पानी में उछाल दिया।  अचानक बहुत सारे गरीब बच्चे एक साथ वहां नदी किनारे आ गए और उस नारियल को पकड़ने दौड़ पड़े। इस ऊहापोह मे नारियल एक पतले दुबले से लड़के के हाथ लग गया। सभी बच्चे उससे खींचा तानी करने लगे, पर उस बच्चे ने वह नारियल न छोड़ा और बडे़ बड़े कदमो को पानी में मार बाहर निकल दौड़ने लगा। वही बच्चे जो नदी में थे, बाहर उसे घेर कर बाँस के बड़े बड़े लटठ लेकर मारने खड़े हो गये। वहाँ  यह बात हर रोज होती थी। वे नारियल छीनने लगे पर बच्चे ने कसकर नारियल पकड़ रखा था।

सो वे सभी उसे मारने लगे।  वह बहुत  मार खाता रहा पर नारियल न छोड़ा। किसी ने पास के तम्बु मे रहने वाली उसकी माँ को खबर दी। माँ दौड़ी दौड़ी उन बच्चों से अपने बच्चे को  अलग ले आई और रो रोकर कहने लगी- “क्यों कूदा नदी मे नारियल की खातिर? क्या होता यदि हम आज और भूखे रहते?”

बच्चा पिटने के कारण दर्द से कराह रहा था।  उसनें फिर भी नजर उठा देखा, कही वह बच्चे तो नहीं और फिर उसने पानी से उठाया नारियल अपनी माँ को दे चैन की साँस ली और अचेत हो गया। पर उसके चेहरे पर चिंता के भाव की जगह शान्ति के भाव थे और माँ नारियल हाथ मे ले सोच रही थी, आज मेरे  बच्चे भूखे न सोयेंगे।  कुछ तो पेट भरेगा उनका। और बेटे को गले लगा फफक फफक कर रो उठी।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #15 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #15 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

परोपकार ही पुण्य है, पर-पीड़न ही पाप । 

पुण्य किये सुख ही जगे, पाप किये संताप ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (5) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन )

 

श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।। 5।।

भगवान ने कहा-

अर्जुन देखो रूप मम शतशः और हजार

दिव्य भिन्न रंग-रूप के भिन्न भिन्न आकार ।। 5।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृतिवाले अलौकिक रूपों को देख।। 5।।

 

Behold, O Arjuna, My forms by the hundreds and thousands, of different sorts, divine and of various colours and shapes!।। 5।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ होली ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ (स्वर – श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान )

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ  गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर ‘ जी  की कविता  “होली ” और उनके मित्र श्री आर डी  वैष्णव जी के मधुर स्वर में  काव्य पाठ। ) 

 सस्वर काव्य -पाठ का  ई-अभिव्यक्ति ने प्रयोग स्वरुप एक प्रयास प्रारम्भ किया है।  प्रबुद्ध पाठकों के ह्रदय से स्नेह एवं प्रतिसाद के लिए आभार। 

आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया श्री आर डी वैष्णव जी के चित्र पर या यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनका सुमधुर काव्य पाठ अवश्य आत्मसात करें।

श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान 

यूट्यूब लिंक  >>>>  https://youtu.be/XdTDyW9J88k

  ☆ होली पर्व पर विशेष  – होली   

 

बन्द करके कीचड़ी व्यापार होली में

खेल लें कुछ रंग अबकी बार होली में

हर सियासी रंग पे जो रंग चढ़ जाए

बस रंग झोली में वही हो यार होली में

राधिका की लाठियों की मार भी मीठी

खानी हमें है प्यार वाली मार होली में

चढ़ गईँ नफ़रत की बेलें हैं बहुत लंबी

हो सके तो काट देना झाड़ होली में

नाव जो मझधार र्में है डूब जाएगी

थामे नहीं गँवार कोई पतवार होली में

फूल सहमे पत्तियों में छिप के बैठे हैं

हो न जाएँ डालियाँ खूँख्वार होली में

वास्तु के हैं या असल के साँप ही तो हैं

साफ़ करना ध्यान से घर बार होली में

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत,  गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30 ☆ मुसाफिर ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ मुसाफिर ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30☆

☆ मुसाफिर

ज़्यादा, ज़्यादा और ज़्यादा

बारिश के इस मौसम में

मैं तुम्हें खोना भी नहीं चाहती,

पर तुमने तो जाने की

ठान ही ली है, है ना?

 

चले जाओ!

न ही तुम्हें मैं आवाज़ दूँगी,

न तुमसे रुकने की

कोई नम्र गुजारिश करूंगी

और न ही कोई हठ करूंगी…

आखिर जाने वाले को

रोका भी नहीं जा सकता ना?

 

सुनो ए आफताब!

जा रहे हो तुम

अपनी रज़ामंदी से,

ज़रूरी नहीं

कि जब तुम वापस आओ

मैं तुम्हारी बाहों में सिमट जाऊं,

आखिर मेरी भी तो कोई मर्ज़ी है, है ना?

 

जब तुम वापस आओगे

देखती रहूँगी तुम्हें आसमान पर,

तुम बस आते और जाते रहना

जैसे किसी राह पर मिले

हम कोई मुसाफ़िर थे,

और भूल गए एक दूसरे को

कुछ पल साथ चलकर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

 ☆ होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆

मेरी कॉलोनी की महिलाओं ने पिछले माह एक अनूठे क्लब का गठन किया था और उसका नाम धरा ‘रीति तोड़क क्लब’। श्रीमती रीति वर्मा उस क्लब की संचालिका हुईं। क्लब की पहली बैठक में एक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ कि नारियों को भी साप्ताहिक अवकाश मिलना चाहिए। रीति वर्मा ने ही उस रीति को तोड़ने के लिए वह प्रस्ताव रखा था। उस प्रस्ताव को अभूतपूर्व समर्थन मिला। अभूतपूर्व इसलिए कि उससे पूर्व कोई प्रस्ताव ही पेश नहीं हुआ था। खैर, वह प्रस्ताव उसी भांति आसानी से पारित हो गया जिस तरह सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों के विधेयक आनन फानन पास हो जाते हैं। सदस्याओं के पतियों को उस प्रस्ताव की प्रति देकर आगाह कर दिया गया कि वे आने वाले रविवार को घर संभालने के लिए, कमर कस कर तत्पर हो जाएं। बेचारे हुए भी। अपन भी उन बेचारों में से एक थे। चालू माह में चार रविवार पड़े और अगले माह पांच पड़ेंगे, कलैंडर को पलट पति नामक जीव कंपायमान हो गया।

एक कलैंडर रीति वर्मा ने भी पलटा लेकिन उनका मकसद कुछ और था। वे क्लब की अगली बैठक की तिथि तय करने के साथ ही कोई नया रीति तोड़क प्रस्ताव भी लाना चाहती थी। अगले माह होली है। श्रीमती वर्मा की आंखें चमक उठीं। वे बुदबुदायीं, ‘‘अरे वाह! कुल छः छुट्टियां हो जाएगीं। पांच तो संडे ही होंगे और एक दिन होली का। होली के दिन पति संभालेंगे घर और हमारा क्लब खेलेगा होली…हुर्रे…।’’

संचालिका महोदय ने दूसरी दोपहर को ही क्लब की दूसरी बैठक बुला ली और वह प्रस्ताव रख दिया। उसे सुनते ही मीटिंग हॉल में भूचाल आ गया। वह, ठहाकों का भूकंप था। घर ही हिल उठा था। कुछ सदस्याएं तो उठ कर नाचने लगीं। एक ने रीति वर्मा को बांहों में भर लिया, ‘‘कसम से क्या मार्वलस ऑयडिया लायी है, डीयर!’’

वह प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ और उसका नोटिफिकेशन भी तत्काल तैयार किया गया क्योंकि होली अगले हफ्ते ही थी। शाम को घर में प्रवेश करते ही मैडम ने वह टाइपशुदा नोटिस मेरे हाथ में थमा दिया। उसे पढकर मैं हैरत से बोला, ‘‘अन प्रेक्टिकेबल प्रपोजल है, यह। इस शहर को जानती हो, यहां स्त्रियां नार्मल डेज में ही सेफ नहीं होतीं, वे होली के हुडदंगी माहौल में कैसे सुरक्षित रह सकेंगी?’’

‘‘अरे, मैं कोई अकेली ही थोड़े खेलूंगी, हमारा पूरा ग्रुप होगा।’’ पत्नी वीरोचित भाव से बोली।

‘‘देखो, हमारे घर से आज तक कोई घर से बाहर गया नहीं। मैं खुद नहीं निकलता।’’ मैंने समझाने का एक प्रयास और किया।

‘‘आप तो रहने ही दो। गुलाल का एक टीका लगाने से ही लाल-पीले हो जाते हो। कलर न खुद लगवाते और न हमें लगवाने देते। सच, मेरा तो बहुत मन करता है, किसी पर जी भर कर रंग डालने का। पीहर में खूब खेलती थी। शादी के बाद अब, अवसर आया है तो यह चौहान क्यों चूके।’’ अपनी ओर संकेत करते हुए, श्रीमतीजी खिलखिला गयीं और हमारा मन होलिका सा दहक गया।

होली दहन के दूसरे दिन ‘रीति तोड़क क्लब’ की सदस्याएं भोर होते ही क्लब के प्रांगण में पहुंच गयीं। अजब सा उछाह था, सबके मन में। रात को ही सारी तैयारी हो चुकी थी। महिलाएं किसी भी हाल में पुरूषों से पीछे नहीं रहना चाहती थीं। ठंडाई घुट रही थी। टबों में लाल-नीले-हरे रंग भरे हुए थे। उनके पास एक मेज पर लंबी लंबी पिचकारियां रखी थीं। उनके पास ही गुलाल भरी थालियां रखी थीं। सबने छक कर ठंडाई पी। रंगों से एक दूसरे को सरोबार किया। जी भर कर गुलाल मली। उल्लास के वातावरण में संयोजिका ने उद्घोष किया, ‘‘अब हम नगर फेरी को चलेंगे।’’ प्रौढ महिलाएं आगे आयीं। युवतियों को पीछे रखा। कॉलोनी की सड़कों पर होली के भजन गाता हुआ वह दल आगे बढा। उन स्वरों को सुनकर अनेक घरों के खिड़की दरवाजे खुल गए थे। जिस घर के सम्मुख कोई स्त्री दिख जाती तो उन्हें गुलाल का टीका अवश्य लगाया जाता।

कॉलोनी का अंत आ गया था। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वहीं से वापस होना था किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह हुजूम आगे बढता ही गया। सुरों का सरगम बेढब हो गया। सुरीले स्वर फटने लगे। कदम लहराने लगे। वस्त्र, अस्त-व्यस्त हो गए। किसी को सड़क के किनारे एक टूटा हुआ कनस्तर दिख गया। एक युवती ने उसे उठा लिया और उसे एक टहनी से पीटती हुई, भौंडे ढंग से कोई रसिया गाने लगी। कॉलोनी के पास ही कच्ची बस्ती थी। उस जुलूस का रूख उस ओर ही था। वहां एक झोंपड़ी के आगे कुछ युवक मद्यपान में लीन थे। अधनंगे बच्चे एक दूसरे पर धूल उड़ाते खेल रहे थे।

अपनी ओर नाचती गाती स्त्रियों को आता देख हिचकी लेता एक लड़का बोला, ‘‘..हे…हे…अरे देख…कितने सारे हिंजड़े।’’ टोली के पास आते ही एक युवक उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे…बुआ! आज किसे कत्ल कर डालने का इरादा है?’’

इससे पहले कि तथाकथित बुआ कोई जवाब दे एक मनचले ने एक युवती से ठिठोली कर दी। प्रत्युत्तर में उसने तमाचा रसीद कर दिया। ‘‘इनकी यह औकात जो हम पर हाथ उठाएं। अभी चखाते हैं, इन्हें मजा।’’, वहां घिर आए कई मर्द चीखे।

इससे पहले कि कोई गजब हो। होली पर पुलिस का गश्ती दल वहां आ गया और उन महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या करा दी। बाद में भेद खुला कि ठंडाई पीसने वालों ने अपनी आदत के मुताबिक उसमें भांग मिला दी थी।

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ होली पर्व विशेष – होली के रंग छंदों के संग ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आज होली के पर्व पर प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘ सलिल ‘ जी की विशेष रचना  ‘ होली के रंग छंदों के संग ‘।)

☆ होली पर्व विशेष – होली के रंग छंदों के संग ☆

 

हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे

हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे

हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे

मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे

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चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में

भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में

बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको

खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में

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करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना

पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना

सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता

बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना

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नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में

नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में

अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी

लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में

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ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में

लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में

मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना

रचे निर्माण हर, सुख का नया संसार होली में

≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡

न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में

न रूठो यार! लगने दो कवित-दरबार होली में

मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में

गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में

≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡

नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका

आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका

गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी

बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका

≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡  ≡

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ (होली पर्व विशेष) संजय दृष्टि – प्रहलाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

होली पर्व विशेष

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – प्रहलाद ☆

 

मेरे लिखे ख़त

जब-जब उसने

आग को दिखाए,

कागज़ जल गया

हर्फ़ उभर आए,

झुंझलाई,भौंचक्की-सी

हुई बार-बार दंग,

कई होलिकाएँ जल मरीं,

प्रहलाद सिद्ध हुआ

हर बार मेरे प्रेम का रंग..!

होली की ‘प्रह्लाद’ शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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