आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (34) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना)

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्‌ ।

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्‌ ।। 34 ।।

 

द्रोण , भीष्म , जयद्रथ तथा कर्ण , अन्य कई वीर

मैनें मारे पूर्व ही जीत युद्ध रख धीर ।। 34 ।।

 

भावार्थ :  द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार। भय मत कर। निःसंदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा। इसलिए युद्ध कर॥34॥

 

Drona, Bhishma, Jayadratha, Karna and all the other courageous warriors—these have already been slain by Me; do thou kill; be not distressed with fear; fight and thou shalt conquer thy enemies in battle.

 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 2 ☆ महावीर भगवान आज तुम होते, तो कोरोना ना होता ☆ डॉ निधि जैन

भगवान् महावीर जयंती विशेष 

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांत के प्रणेता भगवान महावीर जी की जयंती पर आपकी  विशेष कविता  “महावीर भगवान आज तुम होते तो कोरोना ना होता”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 2 ☆

☆ महावीर भगवान आज तुम होते तो कोरोना ना होता ☆

(महावीर जयंती पर शाश्वत सुख पाने के लिए सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांत पर चलकर विश्व में कोरोना जैसी महामारी को हटाएं)

 

महावीर भगवान आज तुम कलयुग में होते तो,

विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

हिंसा से अहिंसा का मूल सिखाकर मांसाहार छुड़ाते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

स्वच्छता और सत्य का मानव को पाठ  पढ़ा जाते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

अपरिग्रह (संतुष्टि) की राह दिखाते, दान धर्म को सब अपनाते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

जिन (आत्मा) सब में एक है, तो जात पात का भेद मिटा देते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

तेरा मेरा छोड़ सब का खून का रंग एक है, सब की पीड़ा एक है, विश्व को सिखा जाते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती।

 

मन को जीता महावीर ने, विश्व को जीता बिन लड़ाई के, हम भी जीत जाते,

तो विश्व में कोरोना जैसी महामारी नहीं होती ।

 

आओ हम सब महावीर भगवान की राह पर चले जाएं,

मानवता को मानव बन कर जी जाएं,

और इस कलयुग में कोरोना जैसी महामारी को हमेशा के लिए मिटाएं ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जलाएँ एक दीप  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जलाएँ एक दीप  ☆

संजय दृष्टि के अंतर्गत आज की रचना प्रस्तुत करने के पूर्व हम आप सबका आभार प्रकट करना चाहेंगे। इस सन्दर्भ में श्री संजय भरद्वाज जी की  दीप प्रज्वलित करने हेतु आह्वान स्वरूप कविता को कृपया पुनः पढ़ें एवं उसमे निहित भावार्थ को आत्मसात करने का प्रयास करें।

जलाएँ एक दीप

उस दरवाजे, अंधविश्वास

जिसका प्रहरी हो,

एक दीप उस गली के आगे

भूख जहाँ आकर ठहरी हो,

एक दीप उस चबूतरे पर

भारतीयता का जिस पर बसेरा हो,

एक दीप उस कँगूरे पर

फहराता जहाँ तिरंगा मेरा हो,

एक दीप शहीदों की समाधि पर,

एक भीतर भीतर घुमड़ती

परिवर्तन की आँधी पर,

एक दीप आपदा के विरुद्ध जलाएँ,

एकता की शक्ति से

नभ-थल आलोकित हो जाएँ।

(कल  5 अप्रैल 2020 रात 9 बजे, 9 मिनट तक आपने अपने दरवाजे/बालकनी में दीप / मोमबत्ती जलाकर या मोबाइल की फ्लैश लाइट/ टॉर्च ऑन करके भारत की सामूहिकता का परिचय दिया ।इस जज्बे के लिए आप सबको सलाम। )

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक समसामयिक सटीक  व्यंग्य  “समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से अपनी  मौलिक शैली में  न  रच डालते हों ।  फिर वर्तमान परिस्थितियों में वर्क फ्रॉम होम से कई लोग खुश हैं तो कई नाखुश। आखिर नाखुश लोगों  की समस्याओं की भी विवेचना तो होनी ही चाहिए न, सो श्री शांतिलाल जी  ने वह विवेचना आपके लिए कर दी है। इस व्यंग्य को वर्क फ्रॉम होम के ब्रेक में पढ़ना भी वर्क फ्रॉम होम का हिस्सा है।  श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – ‘समस्याएँ कम नहीं हैं वर्क फ्रॉम होम में’

“हद्द है यार, ऑफिस का काम कोई घर से कैसे कर सकता है? आप ही बताईये शांतिबाबू कोई तम्बाकू थूके तो कहाँ थूके?”

सच कहा चंद्राबाबू ने. डेस्क के दायीं ओर जैसा कोना घर में तो होता नहीं. फिर, सत्ताईस बरस की नौकरी में एक आदत सी पड़ जाती है. सिर के उप्पर जाले लगे हों, छत के टपकते पलस्तर से बचने के लिए कहीं कहीं काली बरसाती बांध दी गयी हो, मरा-मरा सा घूमता छत का पंखा हो, टूटे हत्थों वाली कुर्सियाँ हों, स्टाम्प पेड की इंक के धब्बों वाले टेबल-कवर हों, समोसा खाकर लाल चटनी के पोंछे गये हाथ वाले परदे हों, सरकारी योजना के ध्येय वाक्यों से पुती बदरंग दीवारें हों, फाईलों के पहाड़ हों, उन पर ढेर सी धूल, कुछ कुछ सीलन सी हो. दफ्तर जैसा माहौल मिले तब तो मन लगाकर काम करे आदमी.

दफ्तर के अहाते में विचरते देसी कुत्तों को वे रोजाना पार्ले-जी बिस्कुट डालते हैं. मोती तो आस लगाये उनकी टेबल के नीचे ही बैठा रहता है. बिस्किट की हसरत पाले हुये बार बार ऑफिस में घुसते पिल्लै चंदू की लात खाते रहते हैं. तो श्रीमान, परेशानी नंबर एक तो ये कि काम करने का ऐसा प्रेरक माहौल मिस कर रहे हैं चंद्राबाबू. दूसरे, बार बार थूकने गैलरी में आना पड़ता है.

“ये तो सही कहा आपने, लेकिन घर से काम करने में बहुत सी चीज़ों का आराम भी तो रहता है”. – अपनी गैलरी से ही मैंने कहा.

चंद्राबाबू ने ध्यान से पीछे देखा. वाइफ दिखी नहीं, तब भी स्वर थोड़ा धीमे ही करके बोले – “चाय की दिक्कत है, अपन को लगती तो कट है लेकिन होना छोटे छोटे इंटरवल में. इसको बनाने में कंटाला जो आता है”.

“आपके दफ्तर के बाकी कर्मचारी भी घर से ही काम कर रहे होंगे ना?”

“भोत भोले हैं आप शांतिबाबू, जो दफ्तर में ही दफ्तर का काम नहीं करते वे घर से दफ्तर का काम क्या करेंगे.”

वार्तालाप सुनकर, वर्मा साब भी बाहर आ गये. वे एक अन्य दफ्तर में अफसर हैं. वर्क फ्रॉम होम को लेकर दुखी वे भी कम नहीं हैं. उनके दफ्तर का रामदीन गाँव चला गया है. था तो दिन में चपरासगिरी कर लेता था और सुबह शाम घर के काम देख लेता था. कोरोना का कहर बजरिये रामदीन के मिसेज वर्मा पर टूट पड़ा है. समय की मार देखिये श्रीमान, आज धुली नाईटी पे प्रेस करके देनेवाला रामदीन है नहीं और नजला वर्मा साब पर गिरा है.

दूसरा, वर्मा साब भावना मैडम को बुरी तरह मिस कर रहे हैं. वाईफ की कर्कश जुबां के मराहिलों से गुजरते हुवे वे जब दफ्तर पहुँचते थे तो भावनाजी के बोल कानों में मिश्री घोलते प्रतीत होते थे. ये लॉकडाउन और ये बिछोह. मन आर्द्र हो उठा उनका. साढ़े ग्यारह तक आती है. तो क्या हुआ, उसे घर भी देखना पड़ता है. काम पूरा न भी कर पाये लेकिन वर्मा साब से बिहेव प्रॉपरली करती है. वैरी फ़ास्ट इन लाईफ – लंच में निकलती है तो बाज़ार जाकर सब्जी, किराना, पनीर-शनीर ले कर दो घंटे से कम में लौट आती है, फाल-पिको के लिये साड़ी डाल आती है, बच्चों का होमवर्क निपटा लेती है, शहनाज़ पर रुककर आई-ब्रो बनवा लेती है, पीहर में वाट्सअप चैट कर लेती है. तीन किटी ग्रुप में मेंबर है, दफ्तर से निकलकर जल्दी-जल्दी अटेंड करके साढ़े चार तक वापस भी आ जाती है. वेरी एक्टिव, वेरी एजाईल. हम आज ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे हैं, वो बेचारी तो कब से ‘होम फ्रॉम वर्क’ कर रही है. फ़िज़ूल खर्ची नहीं करती – बच्चों के लिए पेन, पेन्सिल, शार्पनर ऑफिस से ले जाती है, कभी संकोच नहीं किया. मैडम है तो जिंदगी में रस है. ख्यालों पर ब्रेक लगा तो पान की तलब लगी. बाबा चटनी, किवाम, एक सौ बीस का मीठा पत्ता अभी कहाँ मिलेगा. दफ्तर में हों तो पप्पू चौरसिया ध्यान रख लेता है, शाम को घर के लिये भी बाँध देता है. ‘नास हो चीनियों का’ – बुदबुदाये और मजबूरी में पूछा – “चंद्रा, राजश्री रखे हो क्या?”

आठ बजे जननायक ने लॉकडाउन की घोषणा की और आठ पाँच पर चंद्राबाबू बनारसी की दुकान पर थे. थोक में राजश्री वोई रखता है. सौ वाला कार्टन उठा लाये. दूरदर्शिता से काम लिया तो आज सुख है. चंद्राबाबू ने साधकर वर्मासाब की गैलरी में दो फैंके. आपने सेवा का अवसर प्रदान किया, आभार आपका जैसे भाव मन में लाये और कृतज्ञ अनुभव किया. संकट की घड़ी में इंसान ही इंसान के काम आता है. बोले – ‘आप भी खाया करो शांतिबाबू, कोरोना का वायरस फेफड़े में उतरने से पहले तीन चार दिन तक गले में ही रहता है. तम्बाकू खाने से मर जाता है. इटली वाले ज्यादा मरे ही इसलिए – साले राजश्री नहीं खाते हैं ना’.

चंद्राबाबू यूं तो जननायक के समर्थक थे मगर इस बार खिन्न थे. जो लॉकडाउन की घोषणा एक दिन लेट की होती तो वे बुढार के दौरे पर निकल चुके होते. ससुराल है वहां. ठाठ से रहते, टीए के साथ-साथ डीए इक्कीस दिन का मिलता. होम इकॉनमी स्ट्रेस में चल रही है.

लॉकडाउन ने वर्मा साब और चंद्राबाबू दोनों की निजी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाला है. घर से ही बिल तो निकाल दिये, कट बाकी है. सोशल डिस्टेंसिंग के बहाने ठेकेदार, वेंडर, सप्लायर मिलने में कन्नी काट रहे. घर का फिस्कल डेफिसिट बढ़ रहा है, परकेपिटा इनकम कम हो रही है. सत्ताईस साल में पहली बार मार्च की बेलेंसशीट रेड में जायेगी. घर से काम करते रहो तो साला कोई ओवरटाइम भी नहीं देगा. बड़े साब मोबाइल पर देर शाम को भी कोई काम बोल देते हैं. समस्या की जड़ तो बस दो – चाईनीज़ वायरस और चाईनीज़ मोबाइल. मन किया फेंक ही दें इसको. फिर ध्यान आया कि धनराज कांट्रेक्टर का दिया हुआ है तो क्या, है तो पैतीस हज़ार का.

इस बीच वर्मा साब के घर की डोअर बेल बजी. कुड़ाकुड़ाये मन में. दफ्तर में ठाठ से बेल बजाते हैं, यहाँ बेल सुननी पड़ती है. उन्होंने एक बार इधर-उधर देखा. मेरे अलावा कोई बाहर था नहीं. मेरी परवाह उन्होंने की नहीं. राजश्री थूका और बोले – ‘शाम को बात करते हैं’. आदमी पढ़ा-लिखा ओहदेदार हो तो थूकने में कांफिडेंस आ ही जाता है. वे अन्दर चले गये.

मैं कभी उन खाली गैलरियों को, कभी सड़क पर पड़े थूक को देख रहा हूँ. वर्क फ्रॉम होम कराने की इतनी कीमत तो देश को चुकानी ही पड़ेगी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 41 ☆ .. गिलहरी ….. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक सोचती समझती गिलहरी द्वारा सन्देश देती एक कविता   “.. गिलहरी …..  । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की  रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 41

☆ .. गिलहरी …..  ☆ 

एक गिलहरी

आंगन में

आती-जाती,

उछलकर फिर

भाग जाती।

कुछ कहती

कुछ सुनती,

खूब जानती ।

 

क्यों है खामोशी,

सेल्फी लेना चाहते

तो उचकती भागती,

दाना पानी देखकर

वो समझ जाती।

 

डरे हुए आदमी पर

दूर खड़ी हंसती,

उछल कूदकर

कुछ सिखा जाती।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 42 – कसे जगावे तिने ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  आपकी अत्यंत प्रेरक कविता ” कैसे जगावे  तिने ” . वास्तव में यह यक्ष प्रश्न है कि झाँसी की रानी और जीजा माता जैसी उन महान वीरांगनाओं को  आज की परिस्थितयों के लिए कैसे जगाया जाये। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 42 ☆

☆ कसे जगावे तिने ☆

 

देश असे हा झाशीवाली आणि माय जिजाऊ मातेचा।

कसे जगावे तिने नसे हा प्रश्न तिच्या त्या कुवतीचा।।धृ।।

 

कुसूमाहुनी भासे  कोमल …अंगी कणखर बाणा रे।

अखंड जपते परंपरांना,  संस्कृतीचा ती कणा रे

स्वराज्याचे स्वप्न घडविले , हा ध्यास तिच्या त्या हिंमतीचा।।१।।

 

तळहातावरी प्राण घेऊनी प्राणपणाने लढली रे।

स्त्री हक्काची नांदी गर्जत,..  ती साऊ रुपाने घडली रे।

शेण उष्टावणे पुष्प मानले धैर्य  तुझ्या त्या हिंमतीचे।।२।।

 

तमा तुजला ना लाख संकटे उंच भरारी घेताना।

कवेत घेशी अंबरास तू   स्वर्ग जगाचा करताना ।

तरी भूवरी पाय सदोदीत  भान तुला या संस्कृतीचे।।3।।

 

जरी बायकी पशू  माताले भ्याड हल्ल्याने छळती ग।

रणचंडी तव रूपं दावता  भूई मिळेना पळती ग।

दाणवास या दंड  देऊनी … ताडण कर या विकृतीचे।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 40☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)  

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 40 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

दूर रहे दुर्भावना, द्वेष होंय सब दूर ।

निर्मल-निर्मल चित्त में, प्यार भरे भरपूर ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (33) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना)

तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्‍क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌ ।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌ ।। 33 ।।

 

तो उठ , यश पा , जीत अरि , भोग राज्य समृद्ध।

मैनें पहले ही हने , निमित्त मात्र कर युद्ध ।। 33 ।।

 

भावार्थ :  अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन! (बाएँ हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होने से अर्जुन का नाम ‘सव्यसाची’ हुआ था) तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा॥33॥

 

Therefore, stand up and obtain fame. Conquer the enemies and enjoy the unrivalled kingdom. Verily, they have already been slain by Me; be thou a mere instrument, O Arjuna!

 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ अत्यंत महत्वपूर्ण संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचाते रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(आज के अंक के माध्यम से  श्री संजय भारद्वाज जी से आपसे एक महत्वपूर्ण संवाद  करना चाहते हैं। आप सबसे विनम्र निवेदन है कि इस संवाद से स्वयं को जोड़ें तथा मानवीय  एवं राष्ट्रीय हित  में  इस  अभियान  के सहभागी बनें। )

☆ संजय दृष्टि  – अत्यंत महत्वपूर्ण संवाद  ☆

 

विवादों की चर्चा में

युग जमते देखे,

आओ संवाद करें

युगों को पल में पिघलते देखें।

 

मेरे तुम्हारे चुप रहने से

बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें

रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें।

 

कोविड-19 से संघर्ष में संवाद महत्त्वपूर्ण अस्त्र सिद्ध हो सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस अस्त्र के महत्व और शक्ति पर आज अपने पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद प्रस्तुत है।

इस संवाद का यूट्यूब लिंक दिया है।

यूट्यूब लिंक >>>>>>

श्री संजय भारद्वाज जी का आपसे प्रत्यक्ष संवाद

कृपया इस अभियान से जुड़ें, अधिक से अधिक साथियों को इससे जोड़ें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

5 अप्रेल 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 44 ☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘उसूल वाला आदमी ’  निश्चित ही  आपको कार्यालयों में कार्यरत उसूलों वाली कई लोगों के चरित्र को उघाड़ कर रख देगा । मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  ऐसे कई उसूल वाले लोगों के चरित्र को उजागर कर दिया है ।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 44 ☆

☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆

 

उस दफ्तर में घुसते ही एक खास गंध आती है। सच तो यह है कि ज़्यादातर दफ्तरों से यह गंध आती है। अहाते में घुसते ही वहाँ घूमते कर्मचारी आँखें सिकोड़कर मुझे नापने-तौलने लगते हैं। सबकी आँखों में एक तराजू टंगा है, आदमी की हैसियत की नाप-तौल करने वाला।

मैदान के कोने से एक आदमी मेरी तरफ बढ़ता है। उसकी आँखों में चालाकी और लोभ की पर्त है जिसके पार उसके भीतर के आदमी को खोज पाना मुश्किल है। मेरे पास आकर झूठी विनम्रता से पूछता है, ‘मेरे लायक सेवा, हुज़ूर?’

मैं पूछता हूँ, ‘आप क्या करते हैं?’

वह हाथ फैलाकर कहता है, ‘बस जनसेवा करता हूँ हुज़ूर। कमिश्नर से लेकर मामूली कारिन्दे तक कोई काम हो, मुझे मौका दीजिए। महीनों का काम घंटों में कराता हूँ। दरअसल दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं है। दिक्कत यह है कि लोग सही रास्ता अख्तियार नहीं करते।’

मैं समझ गया कि वह दलाल था। ग्राहक से लेकर बड़ा टुकड़ा  ऊपर पहुँचाता था और छोटा टुकड़ा अपने पेट में डालता था,या शायद छोटा टुकड़ा ऊपर पहुँचाता था और बड़ा टुकड़ा खुद गटक जाता था।

वह बड़ी उम्मीद से मुझे देख रहा था। मैंने कहा, ‘मुझे नौरंगी बाबू से मिलना है। ‘

नौरंगी बाबू का नाम सुनते ही उसके चेहरे की चमक किसी फ्यूज़्ड बल्ब की तरह बुझ गयी। कुछ निराशा के स्वर में बोला, ‘ऊपर चले जाइए हुज़ूर। नौरंगी बाबू उसूल वाले आदमी हैं। उनके काम में कोई दखल नहीं देता। सीधे उन्हीं से मिल लीजिए। काम ज़रूर हो जाएगा।’

वह मुझसे निराश होकर किसी दूसरे ग्राहक की खोज में निकल गया और मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

नौरंगी बाबू मेरे लिए अपरिचित नहीं थे। सलाम-दुआ का रिश्ता था, लेकिन उनसे दफ्तर में मिलने के सौभाग्य से मैं अभी तक वंचित था।

नौरंगी बाबू को ढूँढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। वे कई मेज़ों के पार अपनी कुर्सी पर आसीन थे। बीच वाली मेज़ों के लोगों ने उम्मीद की नज़रों से मेरी तरफ देखा और मुझे आगे बढ़ते देख नज़रें झुका लीं। नौरंगी बाबू ने मुझे दूर से चश्मे के ऊपर से देखा और फिर वापस फाइल पर निगाहें टिका दीं। जब बिलकुल नज़दीक पहुँच गया तब फिर आँखें उठाकर देखा और हँसकर नमस्कार किया।

मुझे बैठाने के बाद वे स्नेह-पगे स्वर में बोले, ‘कैसे तकलीफ की?’

मैंने अपना काम बताया तो वे बोले, ‘हाँ,आपकी फाइल मेरे पास है। मैं उम्मीद भी कर रहा था कि आप किसी दिन पधारेंगे। ‘

उन्होंने कागज़ों के ढेर से मेरी फाइल का अन्वेषण किया और उसकी धूल झाड़कर उसे उलटा पलटा।

मैंने पूछा, ‘तो कब तक काम हो जाएगा?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘अरे, जब हमारे पास है तो काम तो हो गया समझो। ‘

फिर वे कुछ क्षण मौन रहकर बोले, ‘दरअसल मैं एक धर्मसंकट में फंस गया था। इसीलिए आपकी फाइल रुक गयी।’

मैंने पूछा, ‘कैसा धर्मसंकट?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘धर्मसंकट ऐसा है भइया, कि पहले मैं अपने परिचितों दोस्तों की सेवा बिना किसी लालच के कर देता था और अपरिचितों से अपने पेट के लिए कुछ दक्षिणा ले लेता था। लेकिन इस भेदभाव की नीति के कारण मुझे कई बार नीचा देखना पड़ा, कई बार लोगों की बातें सुननी पड़ीं। एक से लें और दूसरे से न लें,यह तो अन्याय वाली बात हो गयी न?तो मैंने उसूल बना लिया कि सबसे समान व्यवहार करना, चाहे अपनी आत्मा को कितना भी कष्ट क्यों न हो। दोस्तों से लेने में आत्मा को कष्ट तो होगा न?’

मैंने सहमति में सिर हिलाया तो वे बोले, ‘अब मेरे उसूल की रक्षा करना आप लोगों का काम है। आप लोग नाराज़ हो जाओगे तो हमारा उसूल कैसे निभेगा?’

फिर वे कुछ याद करते हुए बोले, ‘मेरे परिचित एक विभाग के इंस्पेक्टर थे। पक्के उसूल वाले। सबके साथ एक सा व्यवहार। एक बार एक आदमी से दो सौ में सौदा हुआ। वह आदमी आया और उनकी मुट्ठी में पैसे दबाकर चला गया। इंस्पेक्टर साहब ने मुट्ठी खोलकर गिने तो पाँच रुपये कम थे। तुरन्त स्कूटर पर भागे और आदमी को दूर चौराहे पर पकड़ा। दस बातें सुनायीं और वहीं पाँच रुपये वसूल किये। ऐसे होते हैं उसूल वाले लोग। ‘

वे फिर बोले, ‘पहले हम अपने उसूल में कच्चे थे। कभी कभी लोगों को माफ कर देते थे। फिर एक दिन हमने राजा हरिश्चन्द्र की कथा पढ़ी कि उन्होंने कैसे उसूल की खातिर अपनी पत्नी से आधा कफन मांग लिया था। तब से हमने सोच लिया कि उसूल से रंचमात्र नहीं डिगना है। राजा हरिश्चन्द्र मेरे आदर्श हैं। ‘

वे थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘एक बार मेरे गुरूजी आये थे। उन्होंने मुझे कॉलेज में पढ़ाया था। मैंने उन्हें भी अपना उसूल बताया और चरण छूकर आशीर्वाद माँगा कि अपने उसूल पर डटा रहूँ। गुरूजी उस दिन गये तो आज  तक लौटकर नहीं आये। उनकी फाइल मेरे पास पड़ी है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। ‘

मैंने पूछा, ‘तो मेरे काम में क्या करना है?’

वे बोले, ‘करना क्या है?काम तो आपका जैसे हो ही गया। बस दो लाइन का नोट देना है। वही उसूल वाला मामला आड़े आ रहा है। आप दोस्त को भेंट मानकर सौ रुपये दे जाइए। मेरे उसूल की रक्षा हो जाएगी और आपका काम हो जाएगा। ‘

वे फिर बोले, ‘दरअसल अब उसूल के मामले में इतना पक्का हो गया हूँ कि सगे बाप और भाई के मामले में भी उसूल नहीं छोड़ता। अब सोचिए कितनी तकलीफ भोगता हूँ। ‘

मैंने उठकर कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। ‘

नौरंगी बाबू हाथ जोड़कर बोले, ‘ज़रूर आइए। ‘

वे मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आये। दरवाज़े पर बोले, ‘काम की चिन्ता मत कीजिएगा। काम तो समझिए हो ही गया। वह उसूल वाला मामला न होता तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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