हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता उसूलों का जोड़ बाकी । ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆

 

खर्च हो गयी जिंदगी बेकार के असूलों को निभाने में,

उसूलों का जोड़ बाकी गुणा भाग सब अब शून्य हो गया ||

 

हिफ़ाजत से रखे थे कुछ उसूलों बुढ़ापे के लिए,

डॉक्टर ने बताया तुम्हारा जीवन अब बोनस में तब्दील हो गया ||

 

डॉक्टर ने कह दिया अब जिंदगी का हर दिन बोनस है,

जी लो जिंदगी अपनों के संग, हर दिन सुकून से बीत जाएगा ||

 

मौत करती नहीं रहम कभी पल भर का भी,

मिटा लो गिले शिकवे, दिल का बोझ दिल से उतर जाएगा ||

 

कल तक जिंदगी ठेंगा दिखाती रही मौत को,

आज मौत हंस कर बोली,आज हंस ले कल सब शून्य हो जाएगा ||

 

मौत ने कहा भगवान भी नहीं दिला सकता मुझसे निजात,

आज या कल हर कोई मेरे आगोश में आकर दुनिया छोड़ जाएगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ नई रोशनी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 5”। )

☆ संस्मरण ☆ नई रोशनी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

भारत सरकार का अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय, अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से छह दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन गैर सरकारी संगठन अथवा समितियों के माध्यम से करता है।  ऐसे कार्यक्रमों को 25 महिलाओं के समूह के लिए आयोजित किया जाता है और गैर अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं भी इसमें शामिल हो सकती हैं, लेकिन उनकी संख्या 25% तक सीमित है

महिला सर्वधर्म कालोनी समिति ने, ऐसे ही एक कार्यक्रम में , जिसे मकबरे वाली मस्जिद के पीछे बाग़ फरहत अफजा, भोपाल  में आयोजित किया था, बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र के श्री महेश सक्सेना तथा दीपांजलि आर्ट एंड क्राफ्ट वेलफेयर सोसायटी की श्रीमती नीता दीप बाजपेयी जी के साथ मुझे भी, आमंत्रित किया था।  यद्दपि कार्यक्रम स्थल काफी अन्दर था और पुरानी बस्ती में ऐसी जगह अवस्थित था, जहां अनेक लघु उद्योग इकाइयां संचालित थी, आवागमन दुष्कर था, तथापि किसी तरह पूंछते-पांछ्ते मैं पहुँच ही गया।  कार्यक्रम में 18 से 50 वर्ष के आयु वर्ग की 25 मुस्लिम महिलाएं थी, जिनकी शैक्षणिक योग्यता दसवीं कक्षा से ज्यादा न थी।  कुछ सिलाई, कढाई, जरदोजी आदि का काम अपने घर से करती हैं शेष घर सम्हालने में व्यस्त रहती हैं।  भोपाल के बटुए बना सकने वाली उनमे से कोई न थी।  सबसे बड़ी बात तो यह थी कि महिलाएं पर्दानशीन नहीं थी।  मैंने इस तथ्य की प्रसंशा की तो जवाब आया कि अब पर्दा काफी कम रह गया है।  लेकिन यह स्टेटमेंट कितना सही है यह तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि एक स्कूल में मुझे जाने का मौक़ा मिला वहाँ तो सभी शिक्षिकाएं पर्दानशीन थी।  कुछ अपने छोटे बच्चों के साथ भी थी पर उनकी चिल्ल पों सुनने कम ही मिली।  कुल मिलाकर मैं वहाँ कोई दो घंटे रहा और कार्यक्रम को उन सभी ने गहरी रूचि और ध्यान से सुना।

इस कार्यक्रम के तहत महिलाओं को 15 विभिन्न विषयों पर संस्थाएं प्रशिक्षण देती हैंऔर सरकार से इस एवज में मोटी धन राशि वसूलती हैं। प्रशिक्षण के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु जैसे महिलाओं के कानूनी अधिकार, स्वास्थ्य और  स्वच्छता, शैक्षिक सशक्तिकरण, महिलाओं और बालिकाओं के विरुद्ध हिंसा, डिजीटल भारत, जीवन कौशल, महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण आदि मेरी जानकारी में आये।

श्रीमती बाजपेयी ने उन्हें ऐसे छोटे-छोटे उद्योग लगाने की सलाह दी, जिसे महिलाओं के द्वारा आसानी से किया जा सकता है, जैसे बड़ी पापड, मुरब्बे-अचार बनाना, सिलाई, कढाई आदि।  श्रीमती बाजपेयी स्वयं उद्यमी हैं और महिला सशक्तिकरण के कार्य में संलग्न हैं।  आजकल वे दीपावली के दिए गोबर से बनाना सिखा रही हैं।   श्री सक्सेना ने शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला और बच्चों व महिलाओं दोनों को इस हेतु योग्यता बढाने की छोटी-छोटी पर मह्त्वपूर्ण टिप्स दी।  जब मेरी बारी आई तो आयोजकों की अपेक्षा थी कि मैं बैंक के विषय में उन्हें जानकारी दूं।  अब आयोजकों को क्या पता था कि मैंने कोई पच्चीस बरस पहले ग्रामीण व अर्ध शहरी शाखाओं में अपनी पदस्थापना के दौरान ऐसी इकाइयों को वित्त पोषण किया करता था और अब मैं सब कुछ भूल गया हूँ।  खैर, मेरी वाकशैली ने मेरा साथ दिया और मैंने महिलाओं को स्वयं सहायता समूह या सहकारिता समिति का गठन कर अपनी आर्थिक गतिविधियों को चलाने की सलाह दी और भारतीय स्टेट बैंक की मुद्रा ऋण योजना के विषय में विस्तार से बताया कि कैसे नए अथवा पुराने बचत खाताधारी भी शिशु अथवा किशोर श्रेणी में रुपये 5 लाख तक के ऋण ले सकते हैं।  मैंने उन्हें प्रशिक्षण हेतु मध्य प्रदेश सरकार की “मुख्य-मंत्री कौशल्या योज़ना” की भी जानकारी दी।  साथ ही मुफ्त की सलाह भी दे डाली की ऋण लेने भारतीय स्टेट बैंक ही जाना और थोड़े से अनुदान की लालच में प्रधानमंत्री रोजगार योजना अथवा मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के चक्कर में मत पडनाI

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 73 – गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 73 ☆

☆ गझल ☆

नको राग मानूस,बांधील हो तू

विसर सर्व काही ,क्षमाशील हो तू

 

इथे दाटला  फार अंधार आहे

प्रकाशास सांभाळ,कंदील हो तू

 

कुणाची कुणाला नसे आज चिंता

कशाचा तुला  घोर, गाफील हो तू

 

असा एकटा तू रहाशील कुठवर

प्रवाहात ये ,पूर्ण सामील हो तू

 

”प्रभा” कोण देतो सदा साथ येथे?

गझल तू , स्वतः एक मैफील हो तू

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्मृतीयात्रा ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ स्मृती यात्रा ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी☆ 

 मनाच्या प्रांगणावर उतरला पक्षी

उसवू लागला,स्मृतीरुप नक्षी

स्मृती आनंददायी

गात्रे गात्रे सुखविणार्य

स्मृती दुःख दायी

अंतःकरणास भिडणार्या

स्मृती निरोपाच्या

भावविश्व हलविणार्या

स्मृती स्वागताच्या

स्नेह जोपासणार्या

स्मृती सणवारांच्या

उत्साहास उधाण आणणार्या

स्मृती नातेसंबंधांच्या

कडु गोड बनलेल्या

स्मृती अशाही चिवट

नको नकोशा वाटणार्या

मन बनविणार्या बोथट

धारदार जिव्हेच्या

एकामागोमाग एक

जीवनपट उलगडणार्या

आपले नि परके यातील

सीमारेषा शोधणार्या

स्मृती यात्रा ही अपार

मनरुपी वारुवर

वेगाने होई स्वार

नेई मजला दूरवर.

 

सर्वांना दीपावलीच्या खूप खूप शुभेच्छा.

 © सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 2 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 2 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆ 

“दहा -पंधरा मिनिटात आटपेल माझं. मग बरोबरच जाऊया.” अचला अभिजितला म्हणाली.

“नको. मी निघतो. वेळेवर पोचलं पाहिजे.”

अभिजित निघाला. त्याच्या वक्तशीरपणाचं नवीनभाईंना कौतुक होतं. आणि नवीनभाईंना खूष करायची एकही संधी अभिजित सोडत नव्हता.

व्यावसायिक चित्रपटसृष्टीत नवीनभाईंमुळेच ब्रेक मिळाला होता त्याला. स्क्रिप्टरायटरच्या टिममधला एक होता तो. सर्वांचे तुकडे जोडून एक प्रेमकथा  तयार झाली होती. पण ती नेहमीसारखीच वाटत होती. काहीतरी वेगळेपणा हवा होता.

“ट्रॅजिक एन्ड करूया,”एकाने सुचवलं, “हिरो हिरोईन मरतात.”

“कशी?”

“कोणीतरी त्यांना मारतं. किंवा आत्महत्या, नाहीतर  ऍक्सीडेन्टमध्ये… ”

“ऍक्सीडेन्ट हा शेवट नवीनच आहे.”

“पण त्याला तसा अर्थ वाटत नाही. उगीचच मारल्यासारखं वाटतं त्यांना.”

“मग घरचा विरोध असल्यामुळे आत्महत्या… ”

“हीपण आयडिया घिसीपिटी आहे. ”

इतका वेळ गप्प  राहून विचार करत बसलेल्या अभिजितला एकदम सुचलं -“मला एक आयडिया सुचतेय.”

“बोला.”

“ते आत्महत्या करतात ;पण घरच्या विरोधामुळे नव्हे.

आपण असं करूया. हिरो, हिरोईन थोडे लहान दाखवूया. म्हणजे इनोसन्ट, भावुक वगैरे. त्यांचं एकमेकांवर खूप खूप प्रेम असतं. घरच्यांचा सुरुवातीला विरोध असतो;पण नंतर ते लग्नाला संमती देतात.”

बोलताबोलता अभिजित  थांबला. त्याने सगळ्यांच्या चेहऱ्यावरची उत्सुकता न्याहाळली. नवीनभाई गोंधळात पडल्यासारखे वाटत होते; पण अभिजितच्या बोलण्याकडे  त्यांचं पूर्ण लक्ष होतं.

“तर लग्नाचं नक्की होतं. पण हिरो -हिरोईनलाच वाटतं, की लग्न झालं, संसाराची रुक्ष जगरहाटी सुरु झाली, की त्यांचं एकमेकांवरचं  हे गाढ प्रेम कमी होईल. ओहटी लागेल त्याला. कोणी सांगावं, पुढेमागे त्यांच्या आयुष्यात तिसरी किंवा तिसरा ‘वो’ डोकावण्याचीही शक्यता आहे. एकंदरीत आत्ताचं हे प्रेम जन्मभर एवढंच उत्कट राहील, याची गॅरंटी नाही. एकदा का व्यवहाराचा सूर्य तळपायला लागला, की प्रेमाचं धुकं विरायला कितीसा वेळ लागणार?”

“तुम्ही बोलताय त्यात पॉईंट आहे.”

“ह्याs!मला तर ही आयडिया आऊटडेटेड वाटते. हल्ली प्रेमाला एवढं सिरीयसली  घेतं कोण? तू नहीं और सही, और नहीं….. ”

“तसं असतं, तर एवढ्या प्रेमकथा चालल्याच नसत्या. अजूनही आपला नव्वद टक्के सिनेमा  प्रेमाभोवतीच फिरतोय.”

मुख्य म्हणजे नवीनभाईंना अभिजितची आयडिया ‘एकदम ओरिजिनल’ वाटली. त्यांनी ती उचलून धरल्यावर विरोधाच्या जिभा गप्प झाल्या.

‘मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम’ चित्रपटाचं नाव ठरलं. लगेचच कामही सुरु झालं.

हिरो, हिरोईन दोघंही लहानच होती. दोघांचाही डेब्यू होता. पण त्यांनी कामं मात्र ताकदीने केली.

चित्रपट भराभर पूर्ण झाला. प्रोमो, साउंड ट्रॅक, पार्ट्या, प्रीमियरची तयारी…..

जाहिरातीचा केंद्रबिंदू ‘शेवट एकदम ओरिजिनल’ हाच होता.

चित्रपट सुपरहिट ठरणार, असा रंग दिसत होता.

क्रमश: ….

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ज..न..रे..श..न..गॅ..प..  ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर

☆ विविधा ☆ ज..न..रे..श..न..गॅ..प.. ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर ☆

थोड्या दिवसांपूर्वी माझ्या बहिणीशी गप्पा मारत होते, तेव्हा सहज विषय चालला होता, त्या ओघात ती म्हणाली “नवरा बायकोच्या वयात एक वर्षापेक्षा जास्त
अंतर नसावं. पाच-सहा वर्षे तर नाहीच. कारण मग विचार करण्याचा पद्धतीत जनरेशन गॅप राहतो “.

हल्ली हल्ली “जनरेशन गॅप “हा शब्दप्रयोग खूप कानांवर येतोय. म्हणजे ” दोन पिढ्यांमधलं अंतर. ” हा त्यांचा शब्दश: अर्थ होतो, पण व्यक्ती व्यक्तीप्रमाणे त्याचा अर्थ वेगळा असतो. म्हणजे देवाच्या बाबतीत आहे तसं, मानलं तर.  तो आहे ..च आणि तो वेगवेगळ्या रूपात आहे. तसेच.. काहीसे. काही वेगवेगळ्या वयोगटातील किंवा वेगवेगळा अनुभव घेतलेल्या काही लोकांचे म्हणणे ऐकून हे लक्षात येते.

वीस वर्षाची तरुणी : ” हो.. मला तर माझ्याहून पांच वर्ष लहान बहिणीच्यात आणि माझ्यात जनरेशन गॅप जाणवतो, ती माझ्या पेक्षा स्मार्टली ही टेक्नोलॉजी हाताळू शकते

85 वर्षांचे आजोबा : ” अंतर तर आहेच, आमची पिढी एकदम धीरगंभीर, ही पिढी म्हणजे नुसता धांगडधिंगा आणि धूडगूस. सगळे आपले वरवरचे. कुठे ही खोलपणा नाही, की गांभीर्य नाहीच..”.

चाळीशीच्या बाई: ” हो..खरंच ही पिढी हुशार आहे. आपल्याला छोट्या छोट्या गोष्टीसुद्धा अजून माहित नाहीत. ह्यांना त्या कधीच शिकवायला लागल्या नाहीत…”
तर हे असे मतमतांतर ऐकायला मिळते.. हे तर ठीक.. पण प्रत्येकाच्या त्याबद्दलच्या भावना वेगवेगळ्या. कोणाला त्याचे कौतुक, तर कोणाला कुतूहल, कोणाला हेवा आणि काही जणांना तर भारी रागच आहे.

आता हेच पहा ना एक गृहस्थांचे म्हणणे असे की “पुढच्या पिढीचे कौतुक करावे तेवढे थोडेच, ही मुले एकदम ध्येयनिष्ठ आहेत॰  एकदा मनांत आणलं तर ते करणारच “. तर एका आजोबांना त्यांचे खूप कुतूहल. म्हणाले की ” मी तर माझ्या नातवाशी सतत संवाद करत असतो, नवीन यंत्रणा त्याच्याकडून जाणून घेण्याचा प्रयत्न करत असतो. मला ह्या पिढीचा कधी कधी हेवाच वाटतो. ” एक जण जरा त्रासिक आवाजात म्हणाले “काही नाही हो… कुठलेही प्रयोजन नाही पुढच्या आयुष्याचे. मजूरा सारखं राबायचं आणि पैश्याची उधळपट्टी करायची.”

स्वतःचा अनुभव, वय, परिस्थितीप्रमाणे प्रत्येकाचे पिढीतील अंतराविषयीचे म्हणणे असते.

मला असे वाटते की दोन पिढ्यांमधे काळाचे अंतर हे असणारच आणि परिवर्तन ही काळाची गरज आहे. आधीच्या पिढीने अंतर ठेवून न रहाता त्याचा स्वीकार करून पुढच्या पिढीशी एकरूप व्हावे. बाकी आधीच्या पिढीनेच पुढच्या पिढीवर संस्कार केलेले असतात आणि शिकवणही दिलेली असते. म्हणजेच त्यांचात असणारे गुण व दोषही काही प्रमाणात…या गोष्टी पिढीजात असणार नाही का?

© सौ. स्मिता माहुलीकर

अहमदाबाद

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पुस्तक “मन मे है विश्वास” – श्री विश्वास नागरे पाटिल ☆ डॉ मेधा फणसळकर

डॉ मेधा फणसळकर

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पुस्तक “मन मे है विश्वास” – श्री विश्वास नागरे पाटिल ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

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पुस्तक  – मन मे है विश्वास

लेखिका – श्री विश्वास नागरे पाटिल  

प्रकाशक – राजहंस प्रकाशन  

मूल्य –  300  रु

“माझ्यासारख्या तळागाळातल्या, कष्टकऱ्यांच्या, कामगारांच्या घरातल्या अपुऱ्या साधन- सामुग्रीन आणि पराकोटीच्या ध्येयनिष्ठेने कुठल्यातरी कोपऱ्यात ज्ञानसाधना करणाऱ्या अनेक ‘एकलव्या’ ना दिशा दाखवण्यासाठी मी हा पुस्तक – प्रपंच केला आहे.”

सध्या सगळ्या तरुण मुलांचे आयडॉल बनलेले ‛विश्वास नांगरे पाटील ‘ यांच्या आत्मकथनपर पुस्तकाच्या मलपृष्ठावरील त्यांचे मनोगत सर्वाना प्रेरणा देणारे आहे. विद्यार्थीदशेपासून आजचा प्रशासकीय अधिकारी होण्यापर्यंतचा प्रवास , शिवाय 26/ 11 च्या हल्ल्यातील त्यांचे शौर्य या आत्मकथनात वाचायला मिळते.

सांगली जिल्ह्यातील ‛कोकरूड’ या अतिशय छोट्या गावातून आलेल्या या तरुणाने मारलेली भरारी बघताना अचंबित व्हायला होते. पण आत्ता जे प्रत्यक्ष दिसते आहे त्या मागची मेहनत प्रत्यक्ष पुस्तक वाचल्यावर लक्षात येते.

शहरात प्राप्त होणाऱ्या कोणत्याही सुविधा नाहीत, अभ्यासाची अपुरी साधने आणि आजूबाजूचा अर्धशिक्षित समाज या सगळ्या वातावरणातून एखाद्या मुलामध्ये ती अभ्यासू वृत्ती निर्माण होणे हा एक चमत्कारच म्हणावा लागेल. पण अनेक जणांकडे अनेक कला उपजतच असतात. तशीच ही अक्षरांची जादू विश्वासच्या मनावर भुरळ पाडत होती. तो त्यात रमत गेला. त्याच्या नशिबाने त्याला शिक्षकही तितकेच चांगले मिळाले आणि तो यशाच्या पायऱ्या चढत गेला. दहावीला थोडक्यात बोर्डात नंबर हुकला तरी केंद्रात पहिला येऊन त्यांनी बाजी मारलीच होती.

पण प्रत्येक यशस्वी मुलाच्या आयुष्यात येणारी एक फेज त्यांच्याही आयुष्यात आली. सायन्स ला प्रवेश तर घेतला पण मन रमत नव्हते. त्यामुळे अभ्यासाकडे दुर्लक्ष! परिणामी बारावीला मेडिकल किंवा इंजिनिअरिंगकडे जाण्याइतका स्कोअर झाला नाही. खूप विचाराअंती प्रथमवर्ष कला शाखेत प्रवेश घेतला. सर्वांनी खुळ्यात काढले ; पण लेखक आपल्या मताशी ठाम होते. त्यांच्याच भाषेत सांगायचे तर “पाहिले वर्ष अभ्यासाची दिशा ठरवण्यात आणि राजकारण व गुंडगिरीचे प्रशिक्षण घेण्यात कधी संपले ते समजलेच नाही.” पण दुसऱ्या वर्षी जगदाळे सर त्यांच्या आयुष्यात आले आणि स्पर्धा परीक्षेची दिशा त्यांना मिळाली.

पण तोही प्रवास तितका सोपा नव्हता. मात्र तो प्रत्यक्ष पुस्तक वाचूनच वाचकाने समजून घ्यावा. आजकाल स्पर्धापरीक्षांचे फुटलेले पेव आणि त्याचा फायदा करून घेणाऱ्या क्लासेसच्या  जाहिरातींच्या पार्श्वभूमीवर विश्वास पाटलांचे कष्ट खरोखर आजच्या तरुणांना मार्गदर्शक ठरणारे आहेत.

मुळातच अंगात असणारी हुशारी, नेतृत्वगुण आणि शारीरिक सामर्थ्य याच्या जोरावर विश्वास पाटलांनी यश मिळवले आणि तोच प्रवास प्रांजळपणे या पुस्तकात मांडला  आहे. आपल्या चुकाही तितक्याच परखडपणे नमूद केल्या आहेत. भाषेवर पहिल्यापासूनच प्रभुत्व असल्यामुळे ती ओघवती आहेच. म्हणूनच पुस्तक वाचताना कोठेही रटाळ वाटत नाही. सर्वांनी निश्चितच वाचण्यासारखे हे पुस्तक आहे. म्हणूनच 2016 पर्यंत त्याच्या चार आवृत्या निघाल्या.विशेषतः आजच्या तरुणाईने ते वाचवेच!

 

©️ डॉ. मेधा फणसळकर.

मो 9423019961.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (54) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥

 

मन प्रसन्न रख, शोक औ” इच्छाओं को त्याग

समदृष्टि से भक्ति मम , कर मुझमें अनुराग।।54।।

 

भावार्थ :  फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है॥54॥

Becoming Brahman, serene in the Self, he neither grieves nor desires; the same to all beings, he attains supreme devotion unto me.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆ जी चाहता है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “जी चाहता है”। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆

☆  जी चाहता है ☆

गले सितारों को लगाने को, जी चाहता है

पास महताब के जाने को, जी चाहता है

 

बड़ी ही सिरफिरी हवाएं हैं, मचल रही हैं

उनके साथ मचल जाने को, जी चाहता है

 

सुनाई नहीं देती आहट, ख़ामोशी है बड़ी

गाने को सरगम निराली, जी चाहता है

 

रात महके जुस्तजू से, अंदाज़ हैं निराले

पास से आसमान छू जाने को, जी चाहता है

 

समाई सी लगती है परिंदों की रूह मुझमें

आज फ़लक तक उड़ जाने को, जी चाहता है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ दीपावली विशेष – लुप्त होती परम्पराएं ☆ श्री अजीत सिंह

श्री अजीत सिंह जी

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। दीपावली पर्व के विशेष अवसर पर आपने एक विचारणीय आलेख  ‘लुप्त होती परम्पराएं साझा किया है। समय के साथ इन लुप्त होती परम्पराओं को जीवित रखने की आवश्यकता है। हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ दीपावली विशेष – लुप्त होती परम्पराएं ☆ 

ज़िक्र कपास के फाहे, मोरपंख के पटूवे, और पचगंडे  का

पौराणिक कथाओं से जुड़े, जनमानस में रमे बसे, दीवाली और गोवर्धन पूजा के त्यौहार साथ साथ ही आते हैं, पर हैं बिल्कुल अलग से। दीवाली भगवान राम से जुड़ी है तो गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण से।

हमारे गांव हरसिंहपुरा में दीवाली को बनियों की दीवाली कहा जाता था और इस दिन प्राय अग्रवाल समाज के लोग लक्ष्मी पूजा करते थे और दीपमाला करते थे।

किसान मज़दूर वर्ग की दीवाली गोवर्धन पूजा पर ही होती थी।

(सांझी लोक कला का एक नमूना)

गोवर्धन पूजा के लिए गोबर से एक लोथड़ा जैसी मानव आकृति बनाई जाती थी। उस पर कोई दर्जन भर सरकंडे के टुकड़े खड़े कर उन पर कपास के फाहे लगा कर कपास की फसल का प्रतीक बनाया जाता था। खेत से पहली बार काटकर पांच गन्ने लाए जाते थे और इन्हें गोवर्धन की आकृति के पास रखा जाता था। इन्हें पचगंडा कहा जाता था। परिवार के सभी लोग जिनमें चाचा, ताया, भाई भतीजे सभी शामिल होते थे, पूजा के लिए शाम को अंधेरा होते ही इकठ्ठा हो जाते थे। पंडित कभी आता था, कभी नहीं। एक पंडित, किस किस के घर जाए!

अक्सर मेरे पिता ही पूजा कर देते थे। उन्हे कोई मंत्र नहीं आते थे। वे सीधी साधी भाषा में कुछ इस तरह कहते थे,” हे कृष्ण भगवान, जैसी कपास और गन्ने की फसल इस बार दी है, वैसी ही आगे भी देना। हमारे बच्चों और गाय बछड़ों को बीमारी से दूर रखना, कोर्ट अदालत के झगड़ों से बचाना, सब को प्रेम प्यार का आशीर्वाद देना”। फिर वे कहते,”बोलो गोवर्धन महाराज की जय, बोलो भगवान कृष्ण की जय, बोलो भूमिया खेड़े की जय”

(दीवार पर बना लोक कला का नमूना)

 

सभी हाथों में ली हुई खील गोवर्धन की आकृति पर चढ़ा देते और पूजा संपन्न हो जाती। गन्ने और कुछ मिठाई अगली सुबह पंडित जी के घर पहुंचाई जाती।

पिताजी हमारे घर में पूजा संपन्न कर विस्तृत परिवार के हर घर में जाते और यही प्रक्रिया संपन्न कराते। पूजा के बाद मिठाई बांटी जाती। उसमें आजकल की कोई मिठाई नहीं होती थी। ज़्यादातर फीकी और मीठी खील होती थी, साथ में पतासे और मीठे खिलौने होते थे जिन्हे हम बड़े चाव से खाते थे। दरअसल ये खिलौनों की शक्ल में तैयार की गई शुद्ध खांड की मिठाई होती थी। पूजा के बाद भोजन में चावल, घी-बूरा और दाल होती थी। बड़ी सी टोकनी में चावल बनते थे। कभी किसी साल फीकी खीर भी बनती थी। हम उस पर शक्कर बुरका कर खाते थे। इसका स्वाद ही अलग है और मैं अब भी इसे खाना पसंद करता हूं। वैसे गन्ने के रस की खीर भी स्वादिष्ट होती है पर वह लोहड़ी के त्यौहार या ईख बिजाई के लिए सभी परिवारों से इकट्ठा हुए सदस्यों के लिए बनती थी।

गोवर्धन पूजा के दिन परिवार के इलावा हमारे खेतों में काम करने वाले साझी और उनके परिवार तथा घर से पशुओं का गोबर उठाकर बाहर कुरड़ी पर डालने वाली महिला का परिवार भी शामिल होता था। वे अपने बर्तन लेकर आते थे। कभी वहीं बैठकर खाते थे, कभी भोजन लेकर चले जाते थे। घर के बाहर व मुंडेरों पर मिट्टी के दिए तेल बाती डाल कर जलाए जाते थे। एक दीया  कुरड़ी  पर भी जलाया जाता था। खेतों को खाद तो वहीं से मिलता था। और हां, खेत में काम करने वालों को नौकर नहीं, साझी कहते थे। उन्हे वेतन नहीं मिलता था, फसल में एक चौथाई हिस्सा मिलता था। वे जी जान से काम करते थे।

कुम्हार मिट्टी के दीए सप्लाई करते थे। पैसे लेकर नहीं। उस समय तो कुछ अनाज दिया जाता था पर फसल आने पर उन्हे फसलाना मिलता था। नाई को भी मिलता था। मिट्टी के दीयों को  चुगड़े कहा जाता था।

एक बात और। हमारे गांव में मोर बहुत होते थे। खेतों में उनके मोरपंख गिरे हुए मिल जाते थे। इन्हे हम चंदे कहते थे। इनसे सुंदर पटूवे बनते थे और दीवाली के दिन बैलों के गले में बांधे जाते थे। गाय की पूजा कर उसके सींगों पर तेल लगाया जाता था। इस बार मेरे भतीजे सुरेंद्र ने अपनी कंबाइन हार्वेस्टर मशीन को दीवाली पर फूलों से सजाया था। यह मशीन 50 मजदूरों का काम कर सकती है। पता नहीं, इस मशीन के कारण बेरोज़गार हुए मजदूर किस शहर की झुग्गी झोपड़ी में जी रहे होंगे?

पुराने समय हमारे गांव में चावल या गेहूं खाने का रिवाज़ नहीं था। तीज त्यौहार और मेहमान के आने पर ही ये भोजन बनते थे। गेहूं की रोटी जिसे मांडा कहते थे, ऐसे ही विशेष अवसरों पर खाने को मिलती थी, घी-बूरे के साथ।

आम तौर पर हम गेहूं और चने के आटे से बनी मिस्सी रोटी खाते थे, कई बार मक्खन में नमक मिर्च मिलाकर। मुझे आज भी उससे बढ़िया कोई चीज़ स्वाद नहीं लगती। सर्दियों में मक्की की रोटी और सरसों व बथूए का साग चलता था। सब्ज़ी का चलन बहुत नहीं था, दाल ही बनती थी।

सामान्य दिनों में भी अक्सर शाम के वक्त कोई लड़की हमारे घर खाली कटोरी लेकर आती और मेरी मां से कहती,”ताई, म्हारे घर बटेउ आया है। एक कटोरी दाल की दे दे”।

अब मेरे गांव में लगभग सब कुछ बदल गया है। अब गन्ने, कपास, मिर्च , मक्की, बाजरे की खेती नहीं होती। बस केवल गेहूं और धान होता है। सब कुछ शहरों जैसा हो रहा है। साझी भी गए, नौकर आ गए हैं। गन्ना, कपास, गाय, बैल, मोर, हिरण, घोड़े, ऊंट भी गए। भैंस और ट्रैक्टर आ गए हैं। स्थानीय व्यक्तियों की जगह बिहारी मज़दूर आ गए हैं। ब्लड प्रेशर और शूगर की बीमारियां भी आ गई हैं।

मेरा गांव बदल गया है, सुख समृद्धि आई है, भाईचारा और प्रेम घट गया है। कहावत बनी है कि “पहले घर कच्चे थे, पर मन पक्के थे, अब घर पक्के हैं, पर मन कच्चे हो गए हैं”।

दीवाली और गोवर्धन त्यौहारों पर रामरमी की रसम होती थी। परिवार और गांव के युवा व बालक बुजुर्गों के पास जाकर राम राम कहते थे और “ज़िंदा रह बेटे, खुश रहो भाई”  का आशीर्वाद लेते थे। अब कुछ राजनैतिक लोगों ने इस रसम को अपने ढंग से ढाल लिया है।  नेता लोग निर्वाचन क्षेत्र में अपने घर या दफ्तर में आ जाते हैं जहां उनके समर्थक आकर रामरमी करते हैं। यह उनका जनसंपर्क कार्यक्रम भी हो जाता है।

बुज़ुर्ग अब पीछे चले गए हैं।

“कहां की रामरमी। अब तो गुडमॉर्निंग गुडमॉर्निंग करते हैं । आशीर्वाद के लिए पुचकारो, तो कहते हैं मेरा हेयर स्टाइल बिगाड़ दिया”, बुज़ुर्ग मास्टर ज़िले सिंह कहते हैं।

नवरात्रों में कच्ची  चिकनी मिट्टी से आभूषण व तारे बनाकर तथा उन्हे रंग कर किसी दीवार पर सांझी देवी के आकर्षक चित्र बनाए जाते थे। पुत्र की लंबी आयु के लिए होई माता का व्रत तो रखा जाता है पर दीवार पर होई माता का चित्र अब नहीं बनता। बाज़ार से छपे छपाए होई माता के पोस्टर मिल जाते हैं। लोकचित्र कला की ये दोनों विधाएं लुप्त प्राय हो गई हैं।

दीवाली और गोवर्धन पूजा की वॉट्सएप पर खूब बधाई आ रही हैं, मेरे भाइयों के पोते पोतियों की तरफ से। पोती पायल जो बी ए फाइनल ईयर में पढ़ती है, उसे टिक टॉक बनाने का शौक है। करवा चौथ पर उसने अपने मम्मी डैडी का रैंप वॉक का वीडियो भेजा था। पुरानी परंपराएं लुप्त हो रही हैं, नई उभर रही हैं।

मेरा गांव ‘तरक्की ‘ कर रहा है। मेरा गांव ज़िंदाबाद।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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