English Literature – Poetry – ☆Tearful Adieu ☆– Ms Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

☆Tearful Adieu  ☆

(Thousand salutes to Ms. Neelam Saxena Chandra’s pen to pen down such emotional poem. Only an author/mother poet like Ms Neelam ji can write such poem. I could not stop my tears while reading this poem being a human being and an author/father of a daughter who is now mother.)

 

Mom, so secured was I in your womb;

My life inside you was a real miracle!

My tiny feet swam in glee; my little hands cuddled you merrily;

My toothless mouth would often giggle and cackle!

 

Mom, so happy was I in your womb;

But, one day, some quivering clatters I could hear –

I heard someone scream and roar, “I don’t want daughters anymore!”

I sobbed as I listened to your helpless tears…

 

Mom, how could I smile in your womb

When I had understood that being a daughter was so bad?

My little eyes cried and heart yelled; something in me had already failed

Alas, I realized that I would soon be dead!

 

Mom, although I shall no longer dwell in your womb,

Your warmth and affection I shall surely miss….

To you, I shall not lie; I had not expected to die:

But fate had in store for me this deathly kiss!

 

Mom, so happy I am to have been a part of your womb,

Although the togetherness was destined as a short boon !

As death pounces and approaches near, I bid you a tearful adieu mom dear,

May a hundred sons be born to you soon!

 

© Ms Neelam Saxena Chandra

 

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆सांप कौन मारेगा? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

☆ सांप कौन मारेगा ?☆

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  ने बड़ी  दुविधा में डाल दिया।  एक तो “बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा?” इस मुहावरे से परेशान थे  और  अब पाण्डेय जी  ने ये मुहावरा  कि “साँप  कौन मारेगा?” बता कर डरा  दिया।  यहाँ तो कई लोगों की जान पर आ पड़ी है। लो, अब आप ही तय करो कि साँप कौन मारेगा?”

विक्रम और बेताल पहले जैसे अब नहीं रहे। जमाना बदला तो जमाने के साथ वे दोनों बदल गए। झूठ झटके का सहारा लेकर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते। बात बात में चौकीदार और चोर पर बहस करने लगते। चौकीदार की गलती से एक बैंक में सांप घुस गया। चौकीदार गेट पर बैठकर ऊंघता रहा और एक छै – सात फुट का जहरीला काला नाग धीरे से बैंक के अंदर घुस गया। हडकंम्प मच गया। उसी समय बैंक के बाहर से विक्रम और बेताल गुजर रहे थे। भगदड़ मची हुई थी तभी विक्रम ने बेताल से पूछा – बताओ बेताल… यदि किसी बैंक में सांप निकल आये, तो सांप मारने की ड्यूटी किसकी है ?

बेताल प्रश्न को सुनकर दंग रह गया फिर बहस करने लगा कि जब पिछली बार बैंक में माल्या और नीरव जैसे कई लोग घुस कर तीस पेतींस करोड़ ले उड़े थे तब तो ये प्रश्न नहीं पूछा था अब बेचारा सांप घुस गया है तो टाइम पास करने के लिए नाहक में हमसे आंखन देखी सुनना चाह रहे हो। विक्रम नाराज हो गया तब बेताल थोड़ी देर सोचता रहा फिर याद आया तो अपनी पुरानी शैली में बताने लगा – देखो भाई…… एक बार हम एक बैंक घूमने गए रहे, चौकीदार से कुछ पूछा तो उसने दाढ़ी में हाथ फेरते हुए हाथ मटका कर आगे तरफ ऊंगली दिखा दी। आगे बढ़े तो काऊंटर की मेडम ने हमें बिना देखे आगे जाने को कहा, फिर आगे वाले से पूछा तो उसने ईशारे से आगे तरफ के लिए ऊंगली दिखा दी। आगे गए तो वहां बाथरूम था सोचा चलो इत्मीनान से धार मारके एक काम निपटा दें। सब हाथ मटका कर ऊंगली दिखाते रहे और कोई काम बना नहीं। बाहर निकलने लगे तो चौकीदार प्रधानमंत्री स्टाइल में चौकीदार की खूबियों पर भाषण दे रहा था और भाषण सुनते सुनते एक सांप धीरे से घुसकर एकाउंटेंट की टेबिल के सामने फन काढ़कर खड़ा हो गया। बैंक में हड़कंप मच गया। कैश आफीसर और काउंटर वाले कैश खुला छोड़कर आनन फानन बैंक के बाहर भागने लगे। ग्राहक सांप – सांप चिल्ला कर भागे। बड़े बाबू और चौकीदार खिड़की से मजे ले लेकर झांकने लगे। अंदर फन फैलाए सांप और डरावना सन्नाटा……..

ब्रांच मैनेजर को सन्नाटे की हवा लगी तो वह कुर्सी में बैठा बैठा सन्न रह गया, उसने आव देखा न ताव इमर्जेंसी बेल बजाना चालू कर दिया। कोई असर नहीं हुआ कोई नहीं आया तो वह भी कुर्सी पटक कर जान बचाने बाहर भागा। बाहर भीड़ में सांप और खतरनाक सांप के किस्से कहानियां रहस्य और रोमांच से कहे और सुने जा रहे थे। जैसे ही ब्रांच मैनेजर बाहर पहुंचा कुछ बिना रीढ़ वाले लोग चमचागिरी के अंदाज में बोले – सॉरी सर… आपको खबर नहीं कर पाए कि ब्रांच में सांप…………

चौकीदार ने खिड़की से झांक कर ब्रांच मैनेजर को बताया कि एक काला जहरीला नाग फन काढ़कर अपने एकाउंटेंट के सामने खड़ा है, एकाउंटेंट अपनी कुर्सी में ‘काटो तो खून नहीं’ की मुद्रा में डटे हुए हैं।

समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए छोटी जगह थी यहां कोई सांप पकड़ने वाला भी नहीं था। वन विभाग के कुछ कर्मचारियों ने बताया कि सांप को मारने से आपके ऊपर जे और जे धारा लग जाएंगी। बहुत देर से सोचा -विचारी चल रही थी और खतरनाक सांपों के नये नये दिलचस्प किस्सों में सब व्यस्त थे बेचारे एकाउंटेंट की कोई बात ही नहीं कर रहा था। बहुत देर हो गई तो पुराना बदला निकालने का मौका पाकर नेता टाइप के बड़े बाबू ने खीसें निपोरते हुए एक जुमला फेंका। बोला – साब, सांप को मारने का प्रबंध किया जाए….. बहुत काम पड़ा है और जल्दी जाना भी है क्योंकि आज की चुनावी सभा में चौकीदार साहब का भाषण भी सुनना है। बड़े बाबू के व्यंग्यगात्मक जुमले को सुनकर सब हें हें करने लगे तो ब्रांच मैनेजर ने गुस्से में आकर बड़े बाबू को आदेश दिया कि वो जल्दी से जल्दी सांप मारके बाहर लाये। कर्मचारी संघ के नेताओं के कान खड़े हो गए, सब आपस में एक दूसरे को देखने लगे, पीछे से आवाज आई सांप मारना एकाउंटेंट की ड्यूटी में आता है। अधिकारी संघ के नेता ने सुना तो उसने एकाउंटेंट का बचाव करते हुए बैंक का सर्कुलर का संदर्भ दे दिया कि बैंक का इनीसियल वर्क करना अधिकारी की ड्यूटी में नहीं आता सांप जब मर जाएगा तो अलटा पलटा के उसके मरने की घोषणा ब्रांच मैनेजर करके  सांप मारने का श्रेय वो चाहे तो ले सकता है। टेंशन बढ़ रहा था और मामला यूनियनबाजी का रूप ले रहा था और उधर सांप और एकाउंटेंट आपस में एक दूसरे पर नजर गढ़ाए राजनैतिक हथकंडों की बात सुन रहे थे।

मामला बिगड़ता देख ब्रांच मैनेजर रूआंसा हो गया था। उसने रीजनल आफिस को फोन लगाकर बताया कि बैंक में जहरीला नाग घुस गया है, ये छोटी जगह है यहां सांप मारने वाला कोई नहीं है और वन विभाग के कुछ लोग सांप मारने पर लगने वाली खतरनाक धाराओं पर चर्चा कर रहे हैं।

पहले तो रीजनल मैनेजर ने ब्रांच मैनेजर की हंसी उड़ाई कहने लगा – डिपाजिट लाने की कोई कोशिश करते नहीं हो अब सांप आ गया तो उससे भी नहीं निपट सकते। सांप का ब्रांच में घुसना यह संकेत है कि कोई बड़ा डिपाजिट तुम्हारे यहां आने वाला है। सांप की पूजा करो दूध – ऊध पिलाओ, अगरबत्ती लगाओ…… और ये बताओ कि तुम्हारे रहते ये सांप ने घुसने की हिम्मत कैसे कर ली। किसी बात पर कंट्रोल नहीं है तुम्हारा….. तुम्हारा चौकीदार क्या कर रहा था चौकीदार के रहते सांप बिना पूछे कैसे घुस गया। ये चौकीदारों ने ही मिलकर बैकों को लुटवा दिया। तीस चालीस करोड़ लेकर भाग गए।ऐसे समय ये चौकीदार लोग आंख बंद कर लेते हैं। सांप के बारे में ठीक से पता करो कहीं वो रूप बदल कर तो नहीं आया है। चौकीदार का तुरंत एक्सपलेशन काल करो तुरंत मेमो दे दो, और सुनो तुम्हारे यहां का चौकीदार के बारे में बताओ…….

… सर, हमारा चौकीदार एक नंबर का झटकेबाज है चुपके से चोरी भी करवा देता है और हर ग्राहक को अपने हाथ में चौकीदार लिखने की सलाह देता है। हमारा चौकीदार कहता है कि हर आदमी के अंदर एक चौकीदार रहता है और हर व्यक्ति कभी तन से कभी मन से चोरी करता है।

सर जी, चौकीदार सांप को मारने पर राजनीति कर रहा है सबको सांप मारने की ड्यूटी बता रहा है और सांप को मजाक बना लिया है।

-सूनो ब्रांच मैनेजर.. यदि सांप मारने कोई तैयार नहीं है,  तो तुम सांप को मारो और कन्फर्म करो।

सर जी, सांप को मैं कैसे मार सकता हूं मैं तो यहाँ का ब्रांच मैनेजर हूं। ब्रांच मैनेजर सांप मरेगा तो बैंक की चारों तरफ छबि खराब हो जाएगी और वन विभाग वाले मुझ पर धाराएं लगाकर मेरी नौकरी चाट लेंगे।

तो ठीक है ब्रांच मैनेजर….

जांच कमेटी बना कर जांच करायी जाए कि सांप को घुसेड़ने में किसकी राजनीति है। जांच रिपोर्ट लेकर एक घंटे में किसी को रीजनल आफिस भेजा जाए।

जी सर।

ब्रांच मैनेजर ने रीजनल मैनेजर से हुई चर्चा को सब स्टाफ को बताया और रिपोर्ट लेकर कौन रीजनल आफिस जाएगा इसके लिए सबसे पूछताछ की। ब्रांच मैनेजर ने सबके सामने खड़े होकर पूछा कि जो भी स्टाफ बैंक खर्चे से तुरंत रीजनल आफिस जाना चाहता है वो अपना हाथ हाथ उठाए…..

ब्रांच मैनेजर और ग्राहक देखकर दंग रह गए कि एकाउंटेंट की कोई चिंता नहीं कर रहा और बैंक खर्च पर सब शहर जाना चाह रहे हैं।

तब विक्रम ने बेताल से पूछा – क्यों बेताल सभी ने तुरंत अपने अपने हाथ क्यों उठा दिये?

तब बेताल ने बताया कि बैंक का रीजनल आफिस पास के शहर में था और हर स्टाफ शहर जाकर अपने व्यक्तिगत कार्य निपटाना चाहता था तो बैंक खर्चे पर टीए डीए बनाने का मोह सबके अंदर पैदा हो गया।

फिर विक्रम ने बेताल से पूछा – फिर आखिर रीजनल आफिस कौन गया ?

बेताल ने बताया कि सबको तो भेजा नहीं जा सकता था जिसका हाथ नहीं उठा था वहीं जाने का हकदार था। इसलिए ब्रांच मैनेजर के सिवाय कौन जाता उसके भी बाल बच्चे बीबी शहर में रहते हैं और उनके सब्जी भाजी का भी इन्तजाम करना जरूरी था।

विक्रम ने  पूछा कि फिर सांप का क्या हुआ ?

सांप रीजनल आफिस के आदेश के इंतजार में अभी भी खड़ा है और एकाउंटेंट मूर्छित होकर कुर्सी पर लटक गया है। बाहर चौकीदार चौकन्ना खड़ा पब्लिक से पूछ रहा हैकि इस बार किसकी सरकार बनेगी…

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

अवाच्यवादांश्च बहून्‌वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग

करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।।36।।

 

Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this! ।।36।।

 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Why one should not speak a deliberate lie even in jest ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Why one should not speak a deliberate lie even in jest.
[1]
One day  the Buddha came to Rahula, pointed to a bowl with a little bit of water in it, and asked: “Rahula, do you see this bit of water left in the bowl?”
Rahula answered: “Yes, sir.”
“So little, Rahula, is the spiritual achievement of one who is not afraid to speak a deliberate lie.”
[2]
Then the Buddha threw the water away, put the bowl down, and said: “Do you see, Rahula, how that water has been discarded?
“In the same way, one who tells a deliberate lie, discards whatever spiritual achievement he has made.”
[3]
Again, he asked: “Do you see how this bowl is now empty?
“In the same way, one who has no shame in speaking lies is empty of spiritual achievement.”
[4]
Then the Buddha turned the bowl upside down and said: “Do you see, Rahula, how this bowl has been turned upside down?
“In the same way, one who tells a deliberate lie turns his spiritual achievement upside down and becomes incapable of progress.”
[5]
Therefore, the Buddha concluded, one should not speak a deliberate lie even in jest.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-20 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–20       

 

आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:

(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )

 

ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

आग का एक दरिया

माँ के आँचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह मण्डप

यज्ञ वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहाँ हैं – ’वे’?

कहाँ हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस

एक गम है।

साँस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता/होती ?

हँसता/हँसती  ….. खेलता/खेलती

खिलखिलाता/खिलखिलाती या रोता/रोती?

 

किन्तु, माँ!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

मेरी विदा के आँसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं

माँ !

बस अब और नहीं

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं

दान तो वह करता है

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

रचना  – 2 दिसम्बर 1987

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7  अप्रैल 2019

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆

 

या विषयावर विचार प्रकट करताना, आठवतात ओळी, ‘पाण्या तुझा रंग कसा? ‘ एखाद्या व्यक्तीवर जीव जडतो. त्याचं शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सौंदर्य मनाला भुरळ घालत.  अशा व्यक्तीच्या सहवासात मन रमत.  आणि सुरू होतो प्रेमाचा प्रवास. प्रेम हे पाण्याइतकच जीवनावश्यक. जीवनदायी. प्रेमाचा अविष्कार नसेल तर,  आयुष्य निरर्थक, निरस, कंटाळवाणे होईल.

प्रेम दिसत नसले तरी,  त्याचे रंग अनुभुतीतून जाणवतात. कुणाच्या नजरेतून, कुणाच्या स्पर्शातून, कुणाच्या काळजीतून,  कुणाच्या आचारातून , कुणाच्या विचारातून, कुणाच्या सेवेतून, कुणाच्या त्यागातून, कुणाच्या आधारातून प्रेमरंगाच्या विविध छटा  अनुभवता येतात. असं हे रंगीबेरंगी प्रेम,  ह्रदयात जाणवत. . . आणि व्यक्त होताना कुणाचं तरी ह्रदय हेलावून टाकत. हा प्रवास  असतो. . सृजनाचा. माणूस माणसाशी जोडला जातो. परस्परात नातं निर्माण होत.  अनेक विध नात्यातून व्यक्त होणारे प्रेम माणसाला पदोपदी एकच संदेश देत. . . तो म्हणजे. . . ”तू माणूस  आहेस. . ”

एकदा का व्यक्तीला स्वत्वाची जाणिव झाली कि तो स्वतःवर, नात्यांवर,  देशावर प्रेम करायला लागतो. प्रेम हे एक रेशमी कुंपण  असते.  आपणच आपल्या आत्मीयतेने हा परीघ स्वतःभोवती निर्माण करतो. नात्यांचे भावबंध गुंफत  असताना, गुणदोषासकट आपण प्रेमाची बांधिलकी स्विकारतो. वेळ, काळ, पद, पत,  पैसा प्रतिष्ठा,  तन, मन, धन,  सारं काही पणाला लावतो. या प्रेमाच्या रंगात आपण स्वतः तर रंगतोच पण  इतरांनाही रंगीत करतो.

एकतर्फी प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा,  आदर, यांच्या पलीकडे जाऊन दुसर्‍या वर हक्क प्रस्थापित करू पहात. . . तेव्हा ते घातक ठरत. कुंपण शेत खात या म्हणीनुसार,  एकतर्फी प्रेम  आधी व्यक्ती, मग कुटुंब, मग समाज,  यांना गोत्यात  आणत. प्रेमाचा  उगम हा सरितेसारखा. प्रेम ह्ददयातून उत्पन्न होत असलं तरी त्याचं मूळ नी प्रिती च कूळ शोधायला जाऊ नये. ही सहज सुंदर तरल भावना,  आपले जीवन  उत्तरोत्तर  अधिकाधिक रंगतदार करत असते.

प्रेमाच्या विविध छटा, त्याचे पैलू, नानाविध  अविष्कार हे आपलेच जीवन रंग  असतात. जीवना तू असा रे कसा, याचा शोध घेतला की  आपोआपच या प्रेमरंगाच्या रंगान आपण निथळू लागतो. विविध ऋतूंप्रमाणे हे जीवन स्तर प्रत्येकाच्या आयुष्यात असतात. . फक्त ते अनुभवता  आले पाहिजेत. अडीच अक्षरात सामावलेलं हे प्रेम,  वळल तर सूत, नाही तर भूत. . या  म्हणीचा प्रत्यय देते. प्रेमाचा रंगीत  अविष्कार कुणाला मानव करतो. . तर कुणाला दानव. . . हे प्रेम रंग किती द्यायचे, किती घ्यायचे. . .  अन् कसे किती उधळायचे,  इतकेच फक्त कळले पाहिजे.

स्वतःचे मी पण हिरावून नेणारे हे प्रेम रंग  जात्यातच असतात मनोहारी. . . ! आईचे काळीज म्हणजे प्रेमरंगाचा वात्सल्य भाव.  आठवणींचा पसा पसरून संस्काराचा वसा वेचत माणूस घडविण्याचं कार्य हा प्रेमरंग करतो. बापाचं काळीज म्हणजे फणसाचा गरा. त्याची आठळी म्हणजे  अमृताचा कोष. . पण ती  आठळी सदैव बाजूला पडते. त्याच्या नजरेचा धाक वाटतो पण त्या धाकात त्याच्या लेकराचा घट घडत  असतो. बाप लेकाचे प्रेम हे सुई दोरा  सारखे. . फक्त जोडणीचा होरा चुकायला नको.

बहिण भावंडे यांच रेशमी कुंपण,  प्रेमाच्या गुंफणीत माया ममतेचं अलवार नातं निर्माण करत. ही गुफण मग सुटता सुटत नाही.  आज्जी, आजोबा काका, काकू, मामा, मामी, हे आधाराचे हात बनून जीवनात येतात.  अनेक संकटांवर लिलया मात केली जाते. ती याच हातांकरवी. सारे आप्तेष्ट, मित्र परिवार यांच्या प्रेमरंगाच्या अंतराला जाणवणारा दंगा हा वर्णनातीत आहे. . . तो ज्यान त्यान अनुभवण्यात जास्त रंगत आहे.

गुरू शिष्य नाते स्नेहभावाचे. पैलू विना हिर्‍याला चमक नाही तसे ज्ञानार्जन माणसाला ज्ञानी करते. सारे जग प्रेमाच्या रंगात रंगत जाताना  आपले अंतरंग फुलून येते. जाणिवा नेणिवा,  साद, प्रतिसाद, राग, लोभ, मोह, द्वेष, मत्सर, सारे षड्विकार प्रेमरंगाला आपापल्या जाळ्यात ओढू पहातात. हे जीवनरंग अनुभवताना  काळजाची भाषा  उमजायला हवी.

प्रेमरंगात रंगताना त्यात होणारी देव घेव प्रेमाचं यशापयश ठरवते. फक्त प्रेमात व्यवहार नसावा. रोख ठोक हिशोब नसावा. . . शेवटच्या श्वासापर्यत स्वतःवर आणि प्रिय व्यक्तीवर  विश्वास ठेवला की हे सारे प्रेमरंग अनुभवता येतात. हा जीवन रस,  हे जीवन सौख्य  अखेर पर्यंत  आपल्या सोबत  असत. त्याचा  अविरत प्रवास

सुरू  असतो. . . .  अंतरातून  अंतराकडे . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ । 35।।

 

महारथी जो समझते , तुझको वीर महान

तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।

 

भावार्थ :  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।।35।।

 

The great car-warriors will think that thou hast withdrawn from the battle through fear; and thou wilt be lightly held by them who have thought much of thee. ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Happiness and Well-Being – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

The Art and Science of Happiness

I teach what everyone seeks but finds it difficult to achieve. It remains more and more elusive as one chases it. Everyone believes he knows everything about it but is, in fact, ignorant and often misguided. I am talking about happiness and well-being.

According to Sonja Lyubomirsky, Professor of Psychology at the University of California, Riverside, “One of the greatest obstacles to attaining happiness is that most of our beliefs about what will make us happy are in fact erroneous. Yet they have been drummed into us, socialized by peers and families and role models and reinforced by the stories and images ever present in our culture. Many of the presumed sources of happiness seem so intuitive and commonsensical that all of us – even happiness researchers! – are prone to fall under their spell.”

The happiness myths need to be understood and overcome. You can teach yourself to be happy. The art and science of happiness and well-being can be learned and taught.

At LifeSkills, we have gone deep to blend the best of the modern science of Positive Psychology with the ancient wisdom of Yoga and Meditation. We have added a dash of Laughter Yoga into the cask to make it sparkle. Our programmes show the pathway to authentic happiness, well-being and fulfillment. We help you to flourish!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सवाल एक – जवाब अनेक – 4 – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जवाब अनेक (4)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  चौथा उत्तर  दैनिक विजय दर्पण टाइम्स , मेरठ से कार्यकारी संपादक श्री संतराम पाण्डेय जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

मेरठ से श्री संतराम पाण्डेय जी  ___4  

(श्री  संतराम पाण्डेय जी मेरठ से दैनिक  विजय दर्पण टाइम्स के कार्यकारी संपादक हैं।) 

सवाल-आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज   के घोड़े की आंख है या लगाम?

-संतराम पाण्डेय-

मूल प्रश्न पर आने से पहले हम एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। लेखक है क्या? वह क्या कर सकता है? इसका जवाब यही है कि लेखक में बहुत शक्ति है। वह कुछ भी कर सकता है।

संत तुलसीदास का कार्यकाल (1511-1623 ई.) ऐसा समय था, जब भारतीय समाज भटका हुआ था। इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि उस वक्त देश में लोदी वंश, सूरी वंश, मुगल वंश (1526 से लेकर 1857 तक, जब मुगल वंश का शासन समाप्त हुआ) का शासन था। भारतीय समाज बिखरा हुआ था। उसमें एक डर बसा हुआ था। वह खुलकर अपनी बात भी नहीं कह सकता था। ऐसे वक्त में उसे कोई राह दिखाने वाला भी नहीं था। तब संत तुलसीदास का जन्म हुआ। संत बनने के बाद निश्चित रूप से उन्होंने समाज की दयनीय हालत को देखा होगा। लेकिन, एक संत क्या कर सकता था। वह किसी से न तो खुद लड़ सकता था और न ही किसी को लडने की सलाह दे सकता था। ऐसे में उन्हें यह समझ में आया होगा कि इस वक्त भारतीय समाज को एक सूत्र में बांधने और उसके मन से डर निकालने की जरूरत है और उसी वक्त उनके द्वारा राम चरित मानस की रचना की गई। भारतीय समाज उसमें रच बस गया। वह कहीं एकत्र होता तो अपनी गुलामी की बात न करके राम के प्रति भक्ति की बात करता। उन्होंने समाज को एक दिशा दी। समाज बदलने लगा था।

आते हैं लेखक के समाज के घोडे की आंख होने या लगाम होने की। एक लेखक निश्चित रूप से समाज के घोड़े की आंख है। शर्त यही है कि उसका लक्ष्य तय हो। समाज के घोड़े की आंख। यानी, घोड़े की आंख आजाद नहीं होती। इच्छा यही रहती है कि वह उतना ही देखे, जितना समाज चाहे। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि समाज की जरूरत के हिसाब से ही घोड़ा देखे। घोड़े की आंख की प्रकृति यह है कि उसकी दृष्टि का दायरा लगभग 180 डिग्री तक है। इसलिए घोड़े की दृष्टि में आसपास का क्षेत्र और कुछ हद तक पीछे का भी रहता है। ऐसे में घोड़ा बहुत कुछ देखता है। इसलिए उसके भटकने की संभावना ज्यादा रहती है। बहुत कुछ देखकर घोड़ा बिदक जाता है और इससे नुकसान की गुंजाइश बन ही जाती है।

घोड़ा तो घोड़ा है। लेखक में घोड़े की प्रकृति तो है लेकिन वह आत्मनियन्ता है। उसमें स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता होती है, घोड़े में नहीं। जिस लेखक में स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं होती, उसके भटकने की प्रबल संभावना रहती है और समाज को नुकसान पहुंचाने का कारण बन जाता है। इसलिये यह कहना उपयुक्त है कि लेखक सशर्त समाज के घोड़े की आंख है।

अब लगाम की बात करते हैं। एक लेखक अपनी लेखनी से समाज की दिशा तय करने की सामथ्र्य रखता है। वह समाज को नियंत्रित भी करता है। समाज को भटकने से बचाता भी है। जैसे कि संत तुलसीदास ने अपने समय में समाज को भटकने से बचाया। क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम? तो माकूल जवाब मेरी नजर में यही है कि एक आदर्श लेखक समाज के घोड़े की आंख भी है और लगाम भी।

आज के संदर्भ की बात करते है तो पाते है कि कुछ लेखक न तो समाज के घोड़े की आंख ही बन पा रहे है और न ही लगाम। वह न घर के हो रहे हैं और न ही घाट के। स्वार्थ ने ऐसे लेखकों को भटका दिया है। इसके बावजूद अधिकांश लेखक ऐसे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समझौता नहीं किया और वह समाज के घोड़े की आंख भी बने और लगाम भी। घोड़े की आंख पर चश्मा बांधकर उसकी दृष्टि के दायरे को 30 डिग्री तक सीमित किया जा सकता है लेकिन एक लेखक की दृष्टि के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता। उसकी आंख पर पट्टी नहीं बंधी जा सकती। वह सब कुछ देखता है और विषम परिस्थितियों में भी वह अपने भटकने की संभावना को स्वयं ही खारिज कर देता है। समाज हित में भी यही है कि एक लेखक समाज की आंख का घोड़ा भी बना रहे और लगाम भी।

बता दें कि इंसानी जीवन में घोड़े का इस्तेमाल इंसान अपने फायदे के लिए करता आया है और लेखक का भी इस्तेमाल समाज हित में ही हुआ है। वर्तमान संदर्भ में लेखक बहु उद्देशीय बन गया है। वह बहुत कुछ एक साथ करना चाहता है और देखना चाहता है। ऐसे में वह भटकाव का शिकार भी हुआ है। इससे बचने की जरूरत है। जरूरत यह भी है कि लेखक समाज के घोड़े की आंख भी बना रहे और लगाम भी।

 

-संतराम पाण्डेय

कार्यकारी संपादक, दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ

मो. 9412702596, 8218779805

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पोस्टर्स ☆ – श्रीमति सुजाता काले

श्रीमति सुजाता काले

☆ पोस्टर्स ☆
(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी  की एक भावप्रवण कविता जो उजागर करती है शायद आपके ही आसपास  के पोस्टर्स  की दुनिया की एक झलक।)

 

वर्षा ऋतू खत्म हुई,
पुनः स्वच्छता अभियान शुरू हुआ है,
पालिका द्वारा रास्ते, गलियों की
सफाई जोरों से हो रही है ।
शैवाल चढ़े झोपड़ों की
दीवारें पोंछी गई हैं …!

सुन्दर बंगलों की चारदीवारी
साफ़ की गई हैं … !
उन्हें रंगकर उनपर गुलाब, कमल
के चित्र बनाये गए हैं … !
दीवारों पर रंगीन घोष वाक्य लिखे गए हैं :
‘स्वस्थ रहो, स्वच्छ रहो।’
‘जल बचाओ, कल बचाओ।’
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’

जगह- जगह पोस्टर्स लगे हुए हैं;
सूखा और गीला कचरा अलग रखें !
पांच ━ छह वर्ष के बच्चें ,
कचड़े में  अन्न ढूँढ रहे हैं… !
झोंपड़ी की बाहरी रंगीन दीवार देखकर,
दातुन वाले दाँत हँस रहे हैं !
अंदरूनी दीवारों की दरारें,
गले मिल रही हैं !
कहीं-कहीं दीवारों की परतें,
गिरने को बेताब हैं !

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ लिखी –
दीवार के पीछे सोलह वर्ष की
लड़की प्रसव वेदना झेल रही है !
बारिश में रोती हुई छत के निचे,
रखने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं।
‘जल बचाओ’ लिखी हुई दिवार,
चित्रकार पर हँस रही है…..!

बस्ती के कोने में कचड़े का ढेर है ।
सूखे और गीले कचड़े के डिब्बे,
उलटे लेटे हुए हैं !
पालिका का सफाई कर्मचारी,
तम्बाकू मल रहा है !
‘जब पढ़ेगा इंडिया, तब आगे बढ़ेगा इंडिया’
का पोस्टर उदास खड़ा है …..!

यह कैसी विसंगति लिखने में है !!
इन झोपड़ियों के अंदर का विश्व,
पोस्टर्स छिपा हुआ है,
कोई कहीं से दो पोस्टर्स ला दे मुझे
जो गरीबी और बेकारी
ढूँढकर ……. हटा दे उन्हें !!!

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

 

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