हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह


(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक  प्रेरक संस्मरण  ‘कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

कोरोना टीकाकरण – ‘लग भी गया, पता भी नहीं चला’

☆ आलेख ☆ कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

सोमवार पहली मार्च को दिन में एक बजकर नौ मिनट पर मुझे व मेरी पत्नी सुमित्रा जी के नाम फोन पर दो एसएमएस मेसेज आए जिनमें हमें कोरोना का टीका लगवाने के लिए मुबारकबाद दी गई थी। टीका लगाने वाली सिस्टर नर्स मंजीत का फोन नंबर दिया गया था कि अगर  दवा का कोई दुष्प्रभाव हो तो उनसे संपर्क किया जा सकता है।

कोई आधा घंटे पहले ही हमने टीका लगवाया था। टीका लग गया तो पता भी नहीं चला कि लग चुका है। इसके बाद आधा घंटा वहीं पर बिठाया गया और फिर दो गोलियां दे कर हमारी छुट्टी कर दी गई। कहा, बुखार वगैरा हो तो इन्हे ले लेना।

वहीं बैठे एक दंपति से हमारी बात हुई तो उन्होंने बताया कि पहले टीके के बाद उन्हे दो दिन हल्का बुखार हुआ था, फिर सब कुछ ठीक रहा। हमें अगले 24 घंटे बाद भी ये गोलियां लेने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।

साफ सुथरे एक कमरे में तीन नर्स , एक डॉक्टर व कई युवा हाथ में स्मार्ट फोन लिए फुर्ती से काम कर रहे हैं। बड़ी समस्या रजिस्ट्रेशन की है। अस्पताल के गेट के पास दाईं तरफ जहां आयुष्मान भारत के मरीजों के लिए काउंटर बना है, वहीं पर कोरोना टीके का रजिस्ट्रेशन होता है। सब सलीके से हो रहा है।

टीकाकरण केंद्र में उपस्थित डॉ सुनील सोखल व अन्य से हमने यह जानने को कौशिश की कि लोग टीका लगवाने से क्यूं झिझकते हैं, पर किसी के पास कोई सही उत्तर न था। एक ग्रामीण दंपति ने आकर हमसे पूछा कि आंखों का डॉक्टर कहां बैठता है। जब हमने कहा कि यहां तो कोरोना का टीका लगता है, तो वे एक दम जल्दी से पीछे मुड़ गए। कोरोना का ज़िक्र हो तो आदमी को करंट से लगता है। इतना डरते हैं कि टीका लगवाने के लिए किसी भीड़ वाली जगह भी जाना नहीं चाहते।

मैंने फोन कर गांव में जब 72 वर्षीय छोटे भाई जगबीर को टीका लगवाने की सलाह दी तो कहने लगे, गांव में किसी को कोरोना नहीं हुआ। यह नरम लोगों की बीमारी है। देखो, यह न तो किसानों को होती है, न मजदूरों को। ये अमरीका वाले भी नरम आदमी हैं, पसीने का काम नहीं करते। इसलिए ज़्यादा मर रहे हैं। भाई जगबीर की बातों में तर्क तो लगता है, पर मामले तो गावों में भी होने लगे हैं। सावधानी बेहतर रहेगी। टीका लगवाना चाहिए। हिसार अग्रसेन कॉलोनी के हमारे पड़ोस में तीन व्यक्ति कोरोना से मरे। दस बारह बीमार हुए पर ठीक हो गए। परेशानी उन्हें भी खूब हुई।

न लगवाने से बेहतर है, लगवा लिया जाए। सावधानी में ही सुरक्षा है।

वेक्सिन के तीसरे चरण में 60 साल से ऊपर आयु के वरिष्ठ नागरिकों  को टीके लगाए जाने का अभियान पहली मार्च सोमवार को शुरू हुआ। हमने सुबह नौ बजे रजिस्ट्रेशन खुलते ही ऑनलाइन अपना व पत्नी सुमित्राजी का नाम लिखवा दिया। साढ़े 11 बजे सिविल अस्पताल पहुंचे तो वहां कुछ ही व्यक्ति टीका लगवाने पहुंचे थे। इनमें अधिकतर पहले व दूसरे चरण में पहला टीका लगवा चुके स्वास्थ्य व पुलिस विभाग के  कर्मी थे जो दूसरा टीका लगवाने आए थे।

हम डेढ़ बजे घर लौट आए।

बेहतर है एक दिन पहले ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवा कर जाएं। वैसे अस्पताल में जाकर भी रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। आधार कार्ड साथ अवश्य ले जाएं।

पहला दिन, पहला शो’, साठ के दशक में स्कूल व कॉलेज के जवानी के दिनों में यह कहावत किसी नई फिल्म के देखने को लेकर कही जाती थी। अब 75 साल की उम्र में हमने ऐसा ही कुछ कोरोना की वैक्सीन को लेकर किया।

बुजुर्गों को टीका अवश्य लगवाएं। उन्हे कोरोना का सबसे ज़्यादा खतरा है। अच्छी व्यवस्था है। कोई परेशानी नहीं होगी।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆

दुनिया को जितना देखोगे

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा

दुनिया को जितना समझा

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी अपनी सुरंगो में कैद ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक  बेहद सार्थक रचना   ‘अपनी अपनी सुरंगो में कैद ’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय  रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 97☆

? अपनी अपनी सुरंगो में कैद ?

उत्तराखंड त्रासदी में बिजलीघर की सुरंगों में ग्लेशियर टूटने से हुए अनायास जलप्लावन से अनेक मजदूर फंस गए ।

थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे बच्चे और उनका कोच सकुशल निकाल लिये गये थे. सारी दुनिया ने राहत की सांस ली.हम एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व कर सकते हैं क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया है वरन कहा है कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बधाई , भारत की ही देन है.अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.  इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे किशोर बच्चो की थाईलैंड की फुटबाल टीम बहुत भाग्यशाली थी, जिसे बचाने के लिये सारी दुनिया के समग्र प्रयास सफल रहे.वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है.सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है.छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं.  कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा , और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है , जिसके लिये मजदूरो , किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो ,आश्वासनो, वोट की राजनीति के तंबू में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है. बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई गोताखोर हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 57 ☆ जनता जनार्दन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “जनता जनार्दन…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 57 – जनता जनार्दन…

एक हाथ से लेना दूसरे हाथ से देना , ये तो अनादिकाल से चला आ रहा। आप यदि किसी को कुछ नहीं देते हैं तो भी वो अपनी योग्यता अनुरूप हासिल कर ही लेगा, तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धोने के साथ -साथ स्नान भी कर लिया जाए। वो कहते हैं न मन चंगा तो कठौती में गंगा। ये गंगा भी श्रीहरि के चरणों से निकलकर, ब्रह्मा जी के कमण्डल तक जा पहुँचीं , फिर वहाँ से निकलकर भोले नाथ की जटा  में समा गयीं। अब भगीरथ को तो अपना कुल तारने के लिए गंगा जल की ही आवश्यकता थी। सो शिव की जटाओं से निकलकर भगीरथ के पीछे- पीछे वे गंगोत्री तक जा पहुँची और अलकनंदा से बहते हुए हरिद्वार, प्रयागराज , काशी से पटना (बिहार), झारखंड,,पश्चिम बंगाल होती हुई हिंद महासागर में समाहित हो गयीं।

ये सब कुछ केवल नदियों के साथ होता है , ऐसा नहीं है , हम सभी इसी तरह अपने को गतिमान बनाए हुए ,ये बात अलग है कि हमारा कर्म क्षेत्र सीमित है , हम स्वयं को तारने में ही सारा जीवन लगा देते हैं। कहते यही हैं कि तेरा तुझको अर्पण पर राम कहानी कुछ और ही होती है। आजकल तो जिस दल की हवा चल पड़ी समझो सारे लोग उसी में जाकर समाहित होने का ढोंग करने लगते हैं। ये हवा प्रायोजित होती है ,इसके मार्ग का चयन आयोजक करते हैं और प्रायोजकों को ढेर सारे धन के साथ पद लाभ भी देने का वादा करते हैं। फिल्मी तर्ज पर इसमें प्रोड्यूसर व कहानी लेखक का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। मजे की बात तो ये की दोनों में जनता ही जनार्दन होती है। चाहे बॉक्स ऑफिस में सौ करोड़ की कमाई का आँकलन हो या  पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की भीड़। सभी किसी न किसी के भाग्य लिखने का माद्दा रखते हैं।

मिशन 2021 से लेकर 2024 तक चारों ओर अपना ही डंका बजता रहना चाहिए तभी तो आगे की राह सरल होगी। वैसे बाधा आने पर सुंदर से प्रपात भी बनाए जा सकते हैं। कृत्रिम झीलों का निर्माण तो बाँध बनाने के दौरान हो ही जाता है। कितनी साम्यता है प्रकृति के कण – कण में सजीव, निर्जीव , जीव -जंतु, पशुपक्षी व मानव सभी इसी राह के अनुयायी बन ,अनवरत कर्मरत हैं।

छाया सक्सेना प्रभु

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 64 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है तृतीय अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 64 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 3

कर्मयोग क्या है ?  भगवान कृष्ण का  अर्जुन से कुछ इस तरह संवाद हुआ

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में कहा –

केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।

कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1

 

व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।

मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा

अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।

एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3

 

कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।

सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4

 

आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।

शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5

 

करे दिखावा भक्ति का,औ’ विषयों का ध्यान।

अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6

 

 

कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।

कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7

 

कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।

कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8

 

कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।

प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9

 

ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।

इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10

 

यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।

इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11

 

बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।

हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12

 

जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।

पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13

 

जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत

कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14

 

जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।

सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15

 

सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।

कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16

 

करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।

यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17

 

आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।

ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18

 

अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।

ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19

 

जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।

परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20

 

श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।

देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21

 

अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।

फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22

 

मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।

जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23

 

नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।

कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24

 

हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।

ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25

 

ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।

वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना  निष्प्राण।। 26

 

सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।

कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27

 

त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।

ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28

 

त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।

मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29

 

अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।

कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30

 

दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।

मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31

 

दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।

ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32

 

हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।

करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33

 

रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।

ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34

 

करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।

धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 35

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।

बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36

 

श्री भगवान उवाच

हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।

भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37

 

धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।

गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38

 

काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।

विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39

 

मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।

ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ’ त्राण।। 40

 

रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।

ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41

 

तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।

मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42

 

सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।

मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय ” कर्मयोग” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२॥ ☆

हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं

नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः

चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं

सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥२.२॥

 

लिये हाथ लीला कमल औ” अलक में

सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला

जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर

स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला

कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी

तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से

 सीमान्त शोभित कदम पुष्प से

जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कोंडमारा ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

☆ कवितेचा उत्सव ☆ कोंडमारा ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

यशाचं शिखर

परदेशात प्राप्त केलस

तिथं आपलं अस्तित्व दाखवलस

 

फोनवरून बोलतोस

नेटवरून भेटतोस

याने तुझ्या आईचे

समाधान होत नाही

 

मनातली अस्वस्थता

कोणाला ही दाखवत नाही

 

उगीचच घरातून

सैरावैरा धावते

तुझ्या आठवणीने

डोळ्यात पाणी येते

 

येणाऱ्या जाणाऱ्या ना

तुझ्या खोड्या सांगते

मोडक्या तोडक्या

खेळण्यात तुझे

बालपण शोधते

 

माझ्यांने तिचे हाल

पाहावत नाहीत

तिला धीर देण्याची

माझ्यात हिंमत नाही

 

एकदा तू येवून जा

तिच्या मायेला

पूर येवू दे

मनाचा कोंडमारा

रिता होवू दे

 

मनाचा कोंडमारा

रिता होवू दे

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 68 – ग़ज़ल…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #68 ☆ 

☆ ग़ज़ल…! ☆ 

(मात्रावृत्त .)

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लाल गुलाबाची भेट..भाग-1 ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ लाल गुलाबाची भेट..भाग-1☆ श्री बिपीन कुलकर्णी ☆ 

एका रम्य सायंकाळी फेरफटका मारून यावं म्हणून घराबाहेर पडलो. रस्त्यावरच्या वळणाच्या बाजूला एका बंगली  वजा घर असलेल्या बागेत एक टपोरा आणि अतिशय मोहक असा गुलाब फुललेला दिसला. गडद लाल आणि हिरवाकंच देठ असलेलं ते फुल पहाताना अक्षरशः ब्रम्हानंदी टाळी लागली.

त्या बागेत इतरही फुलं होती, पण गुलाब तो गुलाबच. राजेशाही थाट त्याचा … नजाकत तर औरच. कुणीही प्रेमात पडावं असं देखणं रूप . उगीच नाही प्रेमी युगुलांचा जीवश्च सहचर म्हणत. अहो, नव्याने प्रेमात पडलेल्या तरुण तरुणीचा जणू हक्काचा आधारच .. तिच्या रागावरचा एकमेव उत्तम उपाय. ती रागावली की रुसवा काढण्यासाठी पहिली हटकून आठवण येते ती ह्या राजेशाही फुलाची.

देहभान हरपून मी त्या गुलाबाकडे बघत होतो आणि क्षणात ती नजरेसमोर आली. काळ थांबला … एखादं सुस्पष्ट चित्र दिसावं तसं दिसू लागलं.

कॉलेज नुकतंच सुरु झालं होतं. अजून कुणाशी नीटशी ओळखही नव्हती झाली. आणि एक दोन दिवसांनी वर्गात गुलाबाचा मंद सुगंध घेऊन एक मुलगी शिरली. अत्यंत सुस्वरूप, उंच शिडशिडीत … केसांची लांब वेणी पाठीवर झुलवत ती मुलगी येऊन वर्गात बसली. मला खात्री होती की सगळ्यांचं लक्ष त्या मुलीकडे असणार. मी मात्र तिने केसात खोवलेल्या  टपोऱ्या लाल गुलाबाच्या फुलात नजर अडकवून बसलो होतो. त्या मुलीला बहुतेक ते कळलं असावं. कारण, तिच्या नजरेत एक आश्चर्र्याचा भाव उमटला. कदाचित आपल्यापेक्षा गुलाबच ज्यास्त सुंदर आहे की काय असं वाटलं असावं.

दिवस भुर्रकन उडून चालले होते. आमच्या ग्रुप मध्ये ती अगदी सहजरित्या मिसळली आणि हळूहळू मला उमगायला लागली. सुमती … त्या मुलीचं नांव … अत्यंत सधन अश्या घरातली एकुलती एक. पण घरच्या श्रीमंतीचा बडेजाव तिच्या पासून शेकडो मैल दूर होता. मितभाषी, आणि समोरच्यांशी बोलताना कुठेही श्रीमंतीचा डौल न बाळगणारी ती रूपयौवना … मला सुमतीचं नेहमी कौतुक वाटायचं. ही मुलगी इतकी वेगळी कशी ह्याचाच मी विचार करीत असे.

जसजसे दिवस पुढे सरकत राहिले तसतसे मी आणि सुमती एकमेकांना ज्यास्त ओळखू लागलो ..जाणू लागलो . कारण एकच … कविता , लेखन, जुन्या चित्रपटातील गाणी, नाटकं हे सगळं आमच्या दोघांचाही वीक पॉईंट होतं . पी एल आणि व पु म्हणजे आमची अत्यंत आवडती व्यक्तिमत्व. त्या दोघांच्या लिखाणावर आमची कित्येक तास चर्चा व्हायची. स्वामी कादंबरी तर आमचा श्वास ….  रमा- माधव ह्यांच्या बद्दल आम्ही काहीच न बोलता खूप काही बोलायचो… अनुभवायचो. ती शांतता आम्हाला एका वेगळ्याच विश्वात घेऊन जायची.

त्या वेळेस मी नुकतंच लेख, कविता लिहायला सुरवात केली होती. अर्थात सुमतीची ओळख होण्या अगोदर माझी बऱ्यापैकी साहित्य सेवा झाली होती. पण हे जेव्हा सुमतीला कळलं तेव्हा तर तिने सगळं वाचायला दे म्हणून माझा पिच्छाच पुरवला.

तुझं लेखन, कविता वाचण्यासाठी मी उद्याच  तुझ्या घरी येणार… अचानक एक दिवस सुमतीचं फर्मान सुटलं आणि मी धाडकन जमिनीवर आलो. घरी येणार ? त्या चाळीतल्या खोलीत? झरर्कन सगळं डोळ्यासमोरून हललं. मी इतका गुंतलो होतो की काय तिच्यात ?? आणि समजा,  जरी स्वतःच्या मनाविरुद्ध खोटं बोलता येत नसलं तर मग सुमतीचं काय? ती ही गुंतली असेल का माझ्यात? तीचही माझ्यावर प्रेम असेल कां? आणि समजा नसलं तर? तेवढ्यात एक मन म्हणालं.. समजा असलं तर ? माझा भोवरा झाला होता … डोक्यात भुंगे चावत होते. त्या असण्या-नसण्याने मला कुरतडून टाकलं होतं.

दुसऱ्याच दिवशी मी माझ्या कवितेच्या आणि लेखांच्या वह्या सुमतीच्या पुढ्यात ठेवल्या. तिला नवल वाटलं. म्हणाली सुद्धा ; अरे मीच येणार होते नं तुझ्याघरी वाचायला ? माझा चेहरा पडला… अगतिक झाला. तिला काहीच कळेना. मी एकदम इतका नर्व्हस का झालो ते. सुमतीने मला विचारण्याचा प्रयत्न केला. अगदी मनापासून केला. मीच काहीतरी सांगून वेळ मारून नेली. सवयी प्रमाणे आजही माझी नजर सुमतीच्या केसांकडे गेली. आज मात्र तिच्या केसातला तो शाही गुलाब माझ्याकडे बघून कुचेष्टेने हसतोय असा मला भास झाला.

क्रमशः …

© श्री बिपीन कुळकर्णी

मो नं. 9820074205

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

इथून पुन्हा जगदीश्वरच्या मंदीराकडे येताना एका महत्वाच्या पायरीकडे लक्ष जाते, ते म्हणजे ‘हिरोजी इंदूळकर’ ह्यांच्या. हिरोजींनी मोठ्या हिकमतीने, निष्ठेने रायरीच्या डोंगराचा ‘रायगड’ असा कायापालट केला आणि महाराजांनी त्यांच्यावर जो विश्वास दाखवला होता तो सार्थ केला. महाराज जेव्हा हा दुर्ग बघायला आले तेव्हा हिरोजींनी सोन्यासारखा घडवलेला बेलाग ‘रायगड’ पाहून प्रसन्न झाले. त्यांनी हिरोजींना विचारले “तुम्हाला काय इनाम हवे?” त्यावर हिरोजी म्हणाले “मला सोने नाणे इनाम काही नको. फक्त मंदिराकडे येणार्‍या भक्तांस माझ्या नावाची पायरी दिसेल अशी ठिकाणी ती बांधण्याची परवानगी द्यावी!”

स्वामीनिष्ठ हिरोजींना मानाचा मुजरा करून पुढे आम्ही गाठले ते टकमक टोक! स्वराज्यातील गुन्हेगारांना, विश्वासघातक्यांना इथून कडेलोटाची कठोर शिक्षा दिली जात असे. पण इथेही काही पर्यटकांनी प्लास्टिकच्या बाटल्यांचा कडेलोट करून कड्याच्या टोकावरच कचरा केला आहे. असो.

इथेच घडलेली एक ऐकायला मजेशीर पण प्रत्यक्षात थरारक कथा नेहमी सांगितली जाते. ती म्हणजे, महाराज ‘टकमक’ टोकावर आले असताना त्यांच्यावर छत्री धरणारा एक सेवक वार्‍याच्या झंझावातबरोबर हवेत उडाला. सुदैवाने त्याने छत्री घट्ट पकडून ठेवल्याने तो हवेवर तरंगत, भरकटत, अलगदपणे शेजारील निजामपूर गावात सुखरूप उतरला. तेव्हापासून त्या गावाचे नाव निजामपूर छत्रीवाले असे ठेवण्यात आले. बसने पुण्यास परतीच्या मार्गावर असताना मला ह्या गावाचे नावंही एका फाट्यावर वाचायला मिळाले.

टकमक टोकावरून आमची वरात पुन्हा होळीच्या माळावर आली आणि तिथून महाराजांच्या पुतळ्यामागे असलेल्या राजदरबार, सदर पाहायला निघाली. हा परिसर मात्र चांगलाच भव्य आहे. दरबारात सिंहासनावर बसलेल्या महाराजांचा मेघडंबरी पुतळाही आहे. पण इथे काही फुटांवरून दर्शन घ्यावे लागते, अगदी जवळ जायला आता मनाई आहे. ह्याला कारण म्हणजे काही वर्षांपूर्वी कुणा समाजकंटकांनी तलवारीचा तुकडा तोडून पळविला होता.

त्यामागे आले असता दिसतात ते म्हणजे महाराजांचा राजवाडा, राण्यांचे महाल, शयनगृह इ. इथे मात्र सर्व भग्नावशेष पाहून मन खिन्न झाले. नुसतीच जोती पाहून महालांची ऊंची कशी कळणार? आपण नुसत्या कल्पनेचे महाल उभारायचे. राजवाड्याची एकंदर भव्यता मात्र जाणवल्यावचून राहत नाही. येथील एका बाजूच्या मेणा दरवाजाने तुम्हाला गंगासागर तलाव आणि मनोर्‍यांकडे जाता येते तर दुसर्‍या बाजूने धान्य कोठार व तसेच पुढे उतरून ‘रोप वे’च्या वरच्या स्थानका कडे जाता येते.

एव्हाना दोन वाजल्यामुळे जनतेला भूक लागली होती. सर्वजण जेवणाची आतुरतेने वाट पाहत होते जे थोड्याच वेळात ‘रोप वे’ ने दोघे जण घेऊन आले. मेणा दरवाज्याच्या बाहेरील मोकळ्या जागेत अंगतपंगत मांडून पोळी, फ्लॉवर-मटार-बटाटा अशी तिखट रस्सा भाजी, बटाट्याची सुकी भाजी, पापड आणि ‘गिरीदर्शन’ क्लबतर्फे ‘चितळे’ श्रीखंड अशा चविष्ट जेवणावर यथेच्छ ताव मारून झाल्यावर गंगासागर तलावाचे मधुर पाणी पिऊन आम्ही ‘दुर्गदुर्गेश्वर रायगडा’चा निरोप घेतला.

आता उर्वरीत दोन-तृतीयांश ‘रायगडा’चे दर्शन कधी मिळते आहे ह्याची मी रांगेत उभा राहून वाट पाहतो आहे. जगदीश्वर मजवर कृपा करो आणि हा योगही लवकर जुळून येवो, हीच प्रार्थना!

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

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