मराठी साहित्य – विविधा ☆ ती, स्वप्न, आणि पणती ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

☆ विविधा ☆ ती, स्वप्न, आणि पणती ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆

अंधार  सरेल,उजाडेल आणि सार लख्ख प्रकाशमान होईल. मग सार मळभ सरून आसमंत स्वच्छ दिसेल. हवं ते मिळेल आपल्याला. मग येईल समाधानान जगता.  म्हणून तिने प्रसन्न मनाने खूप प्रतिक्षा केली. वाट पाहून पाहून ती थकली, कंटाळली, अखेर वैतागली.

असा अंधाराचा अंदाज घेत कसं, किती आणि कुठवर जायच ? पण आशा मनाची,मरत नव्हती.‌सरत नव्हती. चाचपडत चाचपडत जगताना मनात धैर्य ठेऊन वावरताना तिला एक पर्यायी तेजाची ठिणगी असणारी पणती सापडली. खूप आनंद  झाला तिला. आता आपल्या या अंधारलेल्या वाटेवर थोडाफार  प्रकाश  पडेल. अडखळत चालणं संपेल. आश्वासक  पावलं टाकता येतील आयुष्याच्या वाटेवर. म्हणून तिने ती पणती  हळुवार  हातात घेतली.  पदराआड लपवली. पणती अधीक तेजाळली. आकर्षक व मोहमयी दिसू लागली. आशाळभूत होऊन  लाचावली ती.  तिने आपले लालचुटूक महतप्रयासान जपून ठेवलेले ओठ पदराआडच पणतीच्या प्रखर ज्योती जवळ नेले. तिला दाह जणवला. ती मुळीच घाबरली नाही. मन मात्र खंबीर ठेवून ती ज्योतीला म्हणाली.

“आता तूच काय तो माझा भक्कम आधार  आहेस माझ्या पुढच्या अंधारलेल्या आयुष्यात”.

पणती  परकीय होऊन हलकेच  हसल्याचा भास झाला तिला. ती सुखावली मनातून.  तिला वाटलं   पणतीच्या प्रकाशात पुढची सारी जीवनवाट प्रकाशमय  होऊन न्हाऊन निघेल, वाटनिश्चीत करून मिळणा-या सांद्रमंद  प्रकाशात  ती पुढे पुढे  निर्वेधपणे

चालतं राहिली. पुढे जाण्यापुरता सहवासाचा उजेड मिळतोय याचाच आनंद  तिला समाधान देत होता. तोच उजेडाची स्वप्न  रंगवायला साथ देणार होता तिला.  आनंदाने अंगभर नटलेली ती स्वप्नसुखाच्या राजरस्त्यावर

पुढे पुढे चालत असताना तिच्या मागे अंधाराची जडशीळ पावले पाठलाग करत येत आहेत याचे भानच राहीले नाही तिला. तो अंधार तिच्या नकळत तिच्या

साम्राज्यात  पुन्हा  प्रवेश करणार होता. हे तिला उमजलच नाही. करण ती स्वप्नं पहाण्यात  रंगुन गेली होती.

ती बेसावध असताना अचानक पाठीमागून  तिच्या डोक्यावर जबरदस्त तडाखा बसला. हातातील  पणती हातातून   गळून पडली. फुठली. तिचे तुकडे इतस्ततः विखरून गेले. तेजोमय प्रखरतेने जळणारी प्रकाश देणारी

वात  बाजुला पडली. वात काही काळ धुपली. मग सावकाश  शांत  झाली. आणि निपचित  पडलेल्या तिच्या स्वप्नाळू विश्वा भोवती अंधाराने आपला अंमल सुरू केला.तिला त्या अंधारात  किती लागल, ती शुद्धिवर आली की तशीच संपून गेली. हे कुणाला कधीच  कळणार नव्हत.कारण हे सारं घडलं होतं अंधारात, आणि अंधाराला कुठे डोळे असतात. पुन्हा जे घडतंय ते पहाण्या साठी. आता ती, तिची स्वप्न, ती पणती, आणि पणतीत जळणारी वात काळोखाच्या खोल खोल डोहात कायमची समाधीस्थ होऊन गेली आहेत.

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 87 ☆ रिश्तों की तपिश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रिश्तों की तपिश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 87 ☆

☆ रिश्तों की तपिश ☆

‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट कहां रही है?

विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ प्राणी अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे  हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।

प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें?  सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राज महल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल  तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं। सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के संबंध, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं, उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता…वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।

परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप करना तो सामान्य प्रचलन हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या परिवार- व्यवस्था सुरक्षित रह पायेगी?

मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर, अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं।  हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने को स्वतंत्र हैं। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं।  कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर, उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।

इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है–  सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, वे उसकी हत्या कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन इन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।

इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे दोनों इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर, कैसे अपनी ज़िंदगी गज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे  उसके अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।

यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।

जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं, पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि मानव खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – न्यूक्लिअर चेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – न्यूक्लिअर चेन  ?

वे देख-सुन रहे हैं

अपने बोए बमों का विस्फोट,

अणु के परमाणु में होते

विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,

मैं निहार रहा हूँ

परमाणु के विघटन से उपजे

इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,

आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से

जिसमें छिपी है

अनगिनत अणु और

असंख्य परमाणु की

शाश्वत संभावनाएँ,

हर क्षुद्र विनाश

विराट सृजन बोता है,

शकुनि की आँख और

संजय की दृष्टि में

यही अंतर होता है।

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 39 ☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है”.)

☆ किसलय की कलम से # 39 ☆

☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆

कन्या भ्रूणहत्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों, आम तथा खास सभी को भ्रूणहत्या पता लगाने एवं रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। आज भी अशिक्षित व पिछड़े समाज में महिलाओं के प्रति नकारात्मक सामाजिक सोच के फलस्वरूप उस वर्ग की बेटियों में शिक्षा का वांक्षित स्तर नहीं बढ़ सका है। ऐसा यदा कदा अन्यत्र भी देखने मिल जाता है। दहेजप्रथा कन्या भ्रूणहत्या का मूल कारक माना जा सकता है। इसके विरुद्ध कठोर एवं प्रभावी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। बेटियों के प्रति माता-पिता के जेहन में असुरक्षा की भावना भी एक कारण है जिसके कारण बेटियों का घर से बाहर निकलना, विद्यालयों में आये दिन अश्लील हरकतों का प्रकाश में आना, अस्पतालों में चिकित्सकों से डर, सड़कों पर दोपाये  जानवरों की कुत्सित भावनाएँ, सरकारी एवं गैर सरकारी कार्य के दौरान अभिभावकों  में शंका- कुशंकाओं को जन्म देता है।

आज लक्ष्मी, मैत्रेयी, गार्गी, महादेवी जैसी विलक्षण महिलाओं के देश में बेटियों का पैदा होना चिंता का विषय बन जाता है, जबकि हमें स्वयं को गर्वित होना चाहिए कि बेटों की अपेक्षा बेटियाँ माँ-बाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी होती हैं। घर एवं समाज में बेटियों की अहमियत से सभी भलीभाँति परिचित हैं। आज के बदलते परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बेटियों का सुनहरा भविष्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेटा-बेटी में फर्क करने से सबसे पहले ममतामयी माँ का हृदय ही आहत होता है। ऐसे समय में माँ की दृढता, आत्मविश्वास एवं जवाबदेही और बढ़ जाती है। उसे समाज, परिवार और स्वयं पर भी जीत हासिल करना होगी। जब बेटियों को समाज और शासन आगे बढ़ने का मौका देने लगा है तब यह भेद कैसा? यह तो सृष्टि से बगावत ही कहा जाएगा। आज हमें स्वीकारना ही होगा कि कन्या भ्रूणहत्या, बेटों की चाह के अलावा और कुछ भी नहीं है जिसे पुरुष प्रधान समाज में बड़ी अहमियत के तौर पर देखा जाता है तथा बेटियों के विषय में हीनभावना के परिणाम स्वरूप कन्या भ्रूणहत्या की जाती है। यह तय है कि पुरुष प्रधान समाज में इस भावना की जड़ें अभी तक जमी हुई हैं।

यूनिसेफ के अनुसार भारत में करोड़ों बेटियाँ एवं स्त्रियाँ गायब हैं। विश्व के अधिकतर देशों से तुलना की जाये तो भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है। भारत में आज भी प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्याएँ अवैध रूप से होती हैं, जिससे बाल अत्याचार, विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा यौनजनित हिंसा को बढ़ावा मिला है। यह एक विकासशील राष्ट्र के लिए बुरा संकेत है। देश की पिछली जनगणनाओं में सामने आये आँकड़ों में कम शिशु लिंगानुपात ने देश की चिंता बढ़ा दी है। ऐसे में इस समस्या के निराकरण हेतु विशेष कार्ययोजना की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

जिस देश का इतिहास स्त्रियों की सेवा-भावना, त्याग और ममता से भरा पड़ा हो वहाँ अब उसी वर्ग के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना पुरुषों के लिए लज्जा की बात है। हीन विचारधारा एवं रूढ़िवादी प्रथाओं के कम होने पर भी कन्या भ्रूणहत्या का प्रतिशत बढ़ना हमारे समाज के लिए घातक हो सकता है। वंश परम्परा का प्रतिनिधित्व, बुढ़ापे में सहारा की निश्चिन्तता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए परिवार में बेटों को प्रधानता दी जाती है। इसी सोच ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं।

अब शिक्षा के सुधरते स्तर से इस कुप्रथा को उखाड़ फेकने की संभावना बढ़ी है परन्तु यह भावना अभी ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग तक पहुँचना शेष है। परमात्मा यदि सृष्टि निर्माता है तो नारी संतान का निर्माण करती है, जिससे समाज का अस्तित्व जुड़ा है, फिर बिना नारी के समाज का बढ़ना क्या संभव है?

वर्तमान में नारी का आत्मनिर्भर होते जाना, सकारात्मक योगदान एवं घर-बाहर सामान रूप से अपनी योग्यता का लोहा मनवाना क्या हमारे लिए प्रामाणिक तथ्य नहीं है? फिर कन्या भ्रूणहत्या किस मानसिकता का द्योतक है? कन्या विरोधी मानसिकता केवल अशिक्षित एवं पिछड़े वर्ग में ही बलवती नहीं है, इसकी जड़ में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दैविक मान्यताओं तथा रूढ़िवादी प्रथाओं का ज्यादा हस्तक्षेप समझ में आता है। हमें इन विद्रूपताओं से निपटने के लिए अब आगे आना बेहद जरूरी हो गया है। पारिवारिक कार्यों में सहभागिता, व्यवसाय-भागीदारी में विश्वसनीयता एवं उत्तराधिकार के साथ साथ बुढ़ापे में सहारे के रूप में बेटियों की अपेक्षा बेटों को ही समाज में मान्यता प्राप्त है। लड़का घर की उन्नति में सहयोग एवं श्रीवृद्धि करता है, जबकि बेटियाँ पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के खर्च के बाद एक दिन माता-पिता को दहेज के बोझ से दबा कर पराये घर चली जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में हिन्दु प्रथाओं के अनुसार केवल बेटे ही सहभागी बन सकते हैं। आत्मा की शान्ति हेतु बेटे द्वारा ही माता-पिता को मुखाग्नि देने की मान्यता है। ऐसे अनेक तथ्य गिनाए जा सकते हैं जो कन्या भ्रूणहत्याओं को बढ़ावा देने में सहायक बनते हैं।

ऐसा नहीं है कि शासन के प्रयास कम हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी के चलते अपेक्षित परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाते। वहीं हमारे समाज की उदासीनता भी आड़े आती है। समाज का इस विषय पर जागरूक होना अब अत्यावश्यक हो गया है। शासन के दहेज विरोधी कानून, शिशुलिंग की जानकारी के विरुद्ध कानून, बेटी की पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी के कानून एवं बेटियों के अधिकार के कानून लागू किये जाना इसके उदाहरण समाज के सामने हैं। यह मिशन तब सफल होगा जब नेता, अफसर और आम जनता में एक समन्वय स्थापित होगा।

पश्चिमी देशों के अंधानुकरण से भारत में भी अत्याचार, नारी अपमान, यौन शोषण की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में अब आध्यात्म एवं अहिंसा ने भी किनारा कर लिया है। कन्या भ्रूणहत्या एक अमानवीय तथा क्रूर कृत्य है। अहिंसा-प्रधान देश में कलंक है। यह सब हमारे दिमाग से उपज कर समाज में फैली कुप्रथाओं-परम्पराओं का कुपरिणाम कहा जा सकता है। हम कन्या जनित अपमान, बेबसी, दहेज, असुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित हो गए हैं, जो अब शिक्षित समाज से खत्म होना चाहिए। आज अत्याधुनिक तकनीकि ने कन्याभ्रूण परीक्षण के उपरान्त कन्या भ्रूणहत्या का औसत बढ़ा दिया है। यहाँ दुःख की बात यह भी है कि वह नारी समाज जो नारी अस्मिता, फ़िल्मी कल्चर, ब्यूटी काम्पटीशन, कालगर्ल एवं वेलेंटाइन कल्चर का पुरजोर समर्थन करता है, वही कन्या भ्रूणहत्या से जुड़े सवाल पर सकारात्मक तथा कड़ा प्रतिरोध क्यों नहीं करता ?

बेटी बचाओ अभियान के सन्दर्भ में कहा जाता है कि केन्द्र व राज्य सरकारें इस अभियान को सफल बनाने में जुटी हैं। अभी भी यह देखना बाकी है कि इस अभियान की रूप-रेखा, दिशा-निर्देश और कार्यान्वयन कितना कारगर हो पाता है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि सर्वप्रथम शासकीय, अशासकीय एवं देश की जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु भी कार्य योजना पर समग्र दृष्टिपात करना चाहिए।

बेटियों के सम्मान एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु देश में व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। कन्या भ्रूणहत्या के प्रति लोगों को हतोत्साहित करना इस मिशन का मुख्य मकसद है। यह ‘हतोत्साह’ समाज में कैसे और किन-किन सुविधाओं तथा कानून से संभव है। यह काम सरकार को प्रमुखता से करना होगा। पिछड़ी एवं गरीब जनता को सामाजिक सुरक्षा, सहायता, बेटियों की विकासपरक योजनायें कारगर हो सकती हैं। जब तक समाज कन्याओं को बोझ समझना बंद नहीं करेगा, तब तक इस मिशन पर अनवरत कार्य करने की आवश्यकता है।

जानकार सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि कन्या भ्रूणहत्या की दर बढ़ रही है। केवल डॉक्टरों पर अंकुश लगाने से इस भ्रूणहत्या का ग्राफ कम होने से रहा। कन्या भ्रूणहत्या करने वाले, कराने वाले तथा प्रत्यक्ष दर्शियों पर भी नज़र रखने हेतु शासन को कठोर कदम उठाने की जरूरत है। वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह कुप्रथा नहीं बढ़ रही होती तो बेटी का लिंगानुपात क्यों कम होता। कन्या-क्रच, स्ट्रिंग ऑपरेशन ग्रुप रैलियाँ, कन्या दिवस, लाड़ली लक्ष्मी योजना या फिर विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं को क्यों चलाना पड़ता। इसका सीधा सा अर्थ है कि अभी तक हम कन्या भ्रूणहत्या पर वांछित अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं।

भारत की 2001 एवं इसके बाद  की जनगणनाओं में सामने आये तथ्यों में बेटियों के घटते लिंगानुपात से चिंतित होकर शासन ने इस दिशा में अपने प्रयास तभी तेज कर दिए थे, फिर भी नई-नई भ्रूण परीक्षण की सुविधाओं एवं बच्चियों के प्रति उदासीनता के चलते इस अनुपात में गिरावट जारी है। अब तो मात्र 5 सप्ताह के भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किट ‘बेबी जेंडर केंडर’ के चलन से कन्या भ्रूण हत्या और भी आसान हो गई है। ऐसे परीक्षणों पर हमेशा प्रतिबंध रहना चाहिए।

आज जब बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में बेटों से भी आगे निकल चुकी हैं, तब ऐसे में बेटा बेटी में भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए और माँ-बाप को निश्चिन्त होकर हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी से सहमत होना चाहिए। बेटे के जन्म की तरह ही जब तक बेटी के जन्म पर समाज हर्षित नहीं होगा तब तक हमारे समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। हमारे  देश के विशेषज्ञों तथा शीर्षस्थों का भी कहना है कि कन्या भ्रूणहत्या अस्वीकार्य अपराध है, जिसे व्यापक रूप से नवीन तकनीकों के दुरुपयोग से बढ़ावा मिल रहा है तथा जिसका विचारहीन व्यापारिक दुरुपयोग रुकना चाहिए।

हमें भी अपनी मानसिकता को बदलना होगा और याद रखना होगा कि भ्रूण में भी जीव होता है जिसकी हत्या करना हिन्दु धर्मानुसार पाप माना गया है। इस पाप की सहज स्वीकृति परिवार के सारे सदस्य कैसे दे सकते हैं? अंधविश्वास, पाखण्ड एवं सामाजिक कुरीतियों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों एवं समाज की जागरूक जनता भी परस्पर समन्वय स्थापित करे। अभी तक बेटियों की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ नहीं हो पाई है। आज भी पिता होने का मतलब अपना सिर झुकाना ही कहलाता है। बेटियों के विवाह में आर्थिक बोझ पड़ता ही है। कभी-कभी तो विवशता में बेटी, पिता, माँ, भाई तक आत्महत्या तक करते पाए गए हैं।

वक्त धीरे धीरे बदल रहा है। भ्रूण हत्या के साक्षी होने पर हमें आगे आकर प्रतिरोध और कानूनी कार्यवाही में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए। केवल अफसोस भर करके चुप नहीं बैठना चाहिए। डॉक्टरों को चंद पैसों की लालच में कंस नहीं बनाना चाहिए। भ्रूण हत्या करने वाले परिवारों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाना चाहिए। इसलिए अब समय की यही पुकार है कि हम सब एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करें, तभी हम इस कन्या भ्रूणहत्या के घिनोने कृत्य पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। केवल बयानबाजी, भाषणबाजी, नारेबाजी, सभाओं, कार्यशालाओं से कुछ नहीं होने वाला। मेरे विचार से बेटी बचाओ अभियान सहित कन्या भ्रूणहत्या रोकने वाले समस्त प्रयासों को प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, नुक्कड़ नाटक, रैलियाँ, नारालेखन, पेम्पलेट्स, एस.एम.एस. के माध्यम से व्यापक प्रचारित-प्रसारित कर सफल बनाया जा सकता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 86 ☆ जिंदगी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता “जिंदगी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 86 – साहित्य निकुंज ☆

☆ जिंदगी ☆

जिंदगी की किताब

बहुत कुछ बोलती है

सुख और दुख के

पन्ने खोलती है।

जिंदगी में

बहुत कुछ घटता है

मन को कुछ भा जाता है

तो

तारीफों का मौसम आ जाता है

यदि कभी कोई  सुई चुभ जाती है.

तो तानों की बिजली गिर जाती है

जिंदगी के पन्ने पलटते जाते हैं

इस जीवन से इस जीवन में

न कुछ पाया जा सकता है

न कुछ ले जाया जा सकता है

फिर भी व्यक्ति का मानस

चिंतन में डूबा रहता है

जिंदगी है ही ऐसी

जो हर पल घटती ही जाती है

जिंदगी के पल में

लगने न दो टाट के पैबंद

देखो कहीं न कहीं

निकल ही आए खुशियों के लम्हे

खुशियां उधार ही जीना है तुम्हें

उन खुशियों के पल को

रखना है संभाल

जो है बस यही है जीवन

 

न रखना है कोई ख्वाहिशें

सभी की ख्वाहिशें

होती है बड़ी

आपस में लगती है होड

जीवन की किताब है बेजोड़

जीवन आनी जानी है

यही जिंदगी की कहानी है…………………..

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तुम जीत गए हो ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

(संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं वुमन आवाज सम्मानअटल सागर सम्मानमहादेवी सम्मान हैं।  हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  ‘तुम जीत गए हो’ )   

 ☆ कविता  –  तुम जीत गए हो ☆

तुम जीत गए हो,

बरसों पहले

मैं हार कर

बैठी सब कुछ प्रिय..!!

 

जिस माटी में ,

तुम थे, मैं थी

भाग्य में न थे

वे सुंदर सुख…!!

 

बीते कितने,

दिन-रात, औ

पहर-पहर

में घटता सा,…!!

 

साथी जैसा तेरा

उससे कुछ,

हटकर मेरा था..!!

 

नदियां, उपवन,

कंदराएँ भी,

तौल, मोल कर,

देते कुछ..!!

 

प्रकृति भरी हुई,

कितना कुछ,

देते लेते,

सदियां बीती अब

कहाँ देखे,

किसका मुख..!!

 

© डॉ मौसमी परिहार

संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर  महाविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश  में सहायक प्राध्यापक।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 76 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 76 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

चौपाल

नव युग के इस दौर में, बंद हुईं चौपाल

अदालतें ही आजकल, न्याय रहीं संभाल

 

टकसाल

माँ-बाप को समझ रहे, बच्चे अब टकसाल

पैसों की नित माँग रख, करते रोज सवाल

 

धमाल

समारोह सूने हुए, सूने सब पंडाल

बंदिश सब पर लग रही, करता कौन धमाल

 

उछाल

मॅहगाई नित भर रही, नित नव रोज उछाल

सरकारें लाचार हैं, जनता करे सवाल

 

मालामाल

निर्धनता बढ़ती गई, नेता मालामाल

सुध जनता की कौन ले, आता यही ख्याल

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१८॥ ☆

 

तन्मध्ये च स्फटिकफलका काञ्चनी वासयष्टिर

मूले बद्धा मणिभिर अनतिप्रौढवंशप्रकाशैः

तालैः शिञ्जावलयसुभगैर नर्तितः कान्तया मे

याम अध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृद वः॥२.१८॥

 

प्रविशिती हुई देखकर जालियों से

सुधा सदृश शीतल सुखद चंद्र किरणें

परिचित पुराने सुखद अनुभवों से

मुड़ उस तरफ पर तुरत मूंद पलकें

अति खेद से अश्रुजल से भरे नैन

मुंह फेरती क्लाँत मेरी प्रिया को

लखोगे घनाच्छन्न दिन में धरा पर

न विकसित, न प्रमुद्रित कमलिनी यथा हो  

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 79 – विजय साहित्य – सासू सून नात द्वाड.. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 – विजय साहित्य  ✒सासू सून नात द्वाड.. . . !✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

सासू सून नातं द्वाड

आपसात चढाओढ

हक्क राखण्या शाबूत

प्रसंगाला होई गोड. . . . !

 

सासू सून नातं द्वाड

विळी भोपळ्याची जोड

सख्य नसताना होई

तू तू में  में  सडेतोड. . . . !

 

सासू सून नातं द्वाड

विचारांची तोडफोड

स्वार्थासाठी होत असे

रागलोभ धरसोड. . . . !

 

सासू सून नातं द्वाड

कुरघोडी बिनतोड

नाही आजार तरीही

डोस औषधांचा गोड. . . !

 

सासू सून नातं द्वाड

वादातीत डोकीफोड

जुन्या नव्या बदलात

रोज नवी चिरफाड. . . . !

 

सासू सून नात द्वाड

जशी लोणच्याची फोड

जसे मुरते तसे रे

होई संसार तो गोड. . . . !

 

सासू सून नात द्वाड

जसे बाभळीचे झाड

काट्याकाट्यात फुलते

सुखी संसाराचे बाड. . . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ असं जगणं ☆ श्री प्रकाश लावंड

☆ कवितेचा उत्सव ☆ असं जगणं ☆ श्री प्रकाश लावंड ☆

या ठेप्यावर थांबू दोस्ता

भूतकाळाकडं वळून बघू

शिवारात धावाधाव करू

धूळमातीत मळून बघू

 

उन्हात तळू पावसात भिजू

अंग माखून घेऊ चिखलात

काळ्या आईच्या कुशीत लोळू

बसून बघू हिरव्या मखरात

बहरलेल्या शिवारावर

फांद्यांच्या चवऱ्या ढाळून बघू

 

मधाचे पोळे हुडकत जाऊ

हावळा हुरडा कणसं खाऊ

चिंचा बोरं कैऱ्या भोकरं

दोन्ही खिशांत भरून घेऊ

गाभुळलेला रानमेवा

जिभेवरती घोळून बघू

 

घडीभर विहिरीत डुंबत राहू

काठावरनं मुटका मारीत राहू

सुरपारंब्या शिवणापाणी

दांडूनं विट्टीला कोलत राहू

वयाला डालू डालग्याखाली

जरा पोरांसारखं चळून बघू

 

संकटांच्या अंगावर धावून जाऊ

अडचणींना कोंडीत पकडू

घटाघटा पिऊ महापुराला

दुष्काळाला फासात जखडू

भिती दाखवून मरणाला

असं जगणं खळखळून जगू

 

© श्री प्रकाश लावंड

करमाळा जि.सोलापूर.

मोबा 9021497977

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares