(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।
प्रस्तुत है रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )
रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 6 ☆ संजय भारद्वाज
रमेश- वाह मान गए मधु वर्मा। वेरी गुड शॉट विद क्लासिक टच ऑफ सेंटीमेंट्स एंड रियलिटी।
मधु-थैंक्यू।
रमेश- बाय द वे आय एम रमेश अय्यर। हिंदी ‘नवप्रभात’ का संपादक हूँ। (मधु हाथ मिलाती है।) मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे।
मधु- हैलो।
अनुराधा- हैलो।
मधु- प्लीज हैव ए सीट।
रमेश-मधु लगता है इस बार तुम आलोचकों का मुँह बंद कर दोगी। मधु को अभिनय नहीं आता, मधु इंग्लिश टोन में संवाद बोलती है… इंग्लिश टोन की हिंदी तो छोड़ो, ठेठ भोजपुरी में संवाद!
मधु- क्रिटिक्स? क्रिटिक्स की तो…( हँसती है।) छोड़ो यार तुम भी तो क्रिटिक हो। मुझे क्रिटिक्स पर बहुत गुस्सा आता है पर कुछ बोल दूँगी तो कल फिर हेडलाइंस होंगी कि मधु घमंडी है। अभी फ्लॉप है तो यह हाल है, कल अगर हिट हो जाएगी तो क्या होगा, वगैरह-वगैरह..( हँसती है।) कहो कैसे याद किया? मेरे बारे में कोई नया गॉसिप छपा है क्या?
अनुराधा- मधु जी, हम एक इंटरव्यू सीरीज़ तैयार कर रहे हैं।
मधु- कैसी इंटरव्यू सीरीज़? वैसे माफ कीजिएगा मैंने आपको पूछा नहीं कि क्या लेंगे? यहाँ कोल्ड ड्रिंक्स से लेकर… रादर सॉफ्ट ड्रिंक्स से लेकर हार्ड ड्रिंक्स तक सब मिल जाएगा।
रमेश- नो थैंक्स। फिलहाल तो इंटरव्यू के सिवा दूसरा कुछ नहीं लेंगे।
मधु- (हँसती है।)
अनुराधा- मधु जी, आपने उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन को तो देखा होगा।
मधु- भिखारिन? आप फिल्मस्टार मधु वर्मा के पास किसी भिखारिन की बात लेकर आए हैं। आर यू ऑलराइट?
रमेश- वी आर वेरी मच ऑलराइट मिस मधु वर्मा। लेट मी एक्सप्लेन इट। ऐसा है मधु कि पिछले कुछ दिनों से मेनपोस्ट वाली वह भिखारिन इन काफी चर्चा में थी।
मधु- रमेश आप उस न्यूड भिखारिन की बात कर रहे हैं?
रमेश- हाँ वही। वह भिखारिन आज अपनी मौत के बाद भी एक इशू है इस शहर के लिए। हमने सोचा कि समाज के अलग-अलग लोगों से उनकी रिएक्शन्स जानी जाएँ इस मामले पर।… हमने एसीपी भोसले का इंटरव्यू किया। प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का इंटरव्यू किया। फिल्म इंडस्ट्री से आपको चुना।
मधु- ओह थैंक्यू! पूछिए, क्या पूछ रही थीं आप?
अनुराधा- मधु जी आपने उस भिखारिन को देखा था?
मधु- हाँ देखा था। मैं कामत के स्टूडियोज में जा रही थी। कार सिग्नल की वज़ह से मेनपोस्ट पर काफी देर रुकी थी इसलिए उस भिखारिन को देखने का मौका मिल गया।
अनुराधा- जब आपने उसे देखा तो वह क्या कर रही थी?
मधु- क्या कर रही थी? (जोर से हँसती है।)..वॉट डू यू मीन? भिखारी क्या कर सकता है?
अनुराधा-आय मीन लोगों से भीख मांग रही थी। लोग उसे भीख दे रहे थे। या ऐसा ही कुछ..?
मधु- नहीं, ऐसा कुछ नहीं। यू नो मैंने जब उसे देखा तो उसने बदन के ऊपर के हिस्से पर कुछ भी नहीं पहना था। न खुद को हाथों से ही ढकने की कोशिश की थी। वह तो मेेनपोस्ट की दीवार का सहारा लिए चुपचाप आसमान को देख रही थी।
अनुराधा- लोग उसे भीख दे रहे थे?
मधु- शिट..। उसे देखने के बाद ऐसी घटिया बातें सोच में आ ही नहीं सकती थीं। शी वॉज़ मारवेलेस, ब्यूटीफुल, मोनालिसा ब्यूटी, वीनस टच..। यू नो, ज़िंदगी में पहली बार किसी औरत की ख़ूबसूरती से जलन हुई। अ पीस ऑफ इटरनल ब्यूटी, अ सिम्बल ऑफ सेक्स। अगर किसी प्रोड्यूसर की नज़र पड़ जाती उस पर तो वह औरत करोड़ों में खेलती।
अनुराधा- आपने उसे कुछ भीख देनी चाही?
मधु-वॉट डू यू एक्सपेक्ट फ्रॉम मी? फिल्म स्टार मधु वर्मा अपनी गाड़ी से उतरकर एक भिखारिन को भीख देने जाए? पॉसिबल ही नहीं था…और होता भी तो मैं नहीं देती।
अनुराधा- क्यों?
मधु- शी वॉज़ सो ब्यूटीफुल। मैं तो उसे अपनी नज़रों में भर रही थी। उसकी वह फिगर, वे फीचर्स सब मेरे ख़याल में हैं। मूवी में चांस मिला और रोल की डिमांड हुई तो मैं अपने ऑडियंस के लिए ऐसा सीन करना पसंद करूँगी पर…. साला यह सेंसर बोर्ड बीच में आ जाता है। (हँसती है।)
अनुराधा- कोई और कमेंट उस भिखारिन के बारे में?
मधु- नहीं बस वही ब्यूटी… क्या कहते हैं आप लोग हिंदी में…सुंदर-सुंदरया.. ऐसा कुछ वर्ड है न!
रमेश- सौंदर्य।
मधु- हाँ, हाँ, वही। यू नो हिंदी इज़ वेरी टफ़ यार। सौंदर्या का अद्भुत नमूना, मेनपोस्ट की अधनंगी भिखारिन। (हँसती है।)…….अच्छा हुआ, मर गई नहीं तो कई हीरोइनस् को खतरा पैदा हो जाता।…(जोर से हँसती है।)
(पार्श्व में वही अँग्रेज़ी धुन। मधु दोनों पत्रकारों को विदा करती है। फिर अपने रिहर्सल में जुट जाती है।)
।।इति प्रथम अंक।।
क्रमशः …
नोट-‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण, किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
9890122603
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा एक भावप्रवण कविता “कृष्ण कन्हैया“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#49 – असंम्भव कुछ नही ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक समय की बात है किसी राज्य में एक राजा का शासन था। उस राजा के दो बेटे थे – अवधेश और विक्रम।
एक बार दोनों राजकुमार जंगल में शिकार करने गए। रास्ते में एक विशाल नदी थी। दोनों राजकुमारों का मन हुआ कि क्यों ना नदी में नहाया जाये।
यही सोचकर दोनों राजकुमार नदी में नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी।
विक्रम तैरते तैरते थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।
विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था।
अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई विक्रम की ओर उछाला।
लेकिन दुर्भागयवश विक्रम इतना दूर था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।
इतने में सैनिक वहां पहुँचे और राजकुमार को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे, यहाँ से निकलना नामुमकिन है।
यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुनकिन है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं आ रहा था। काफी समय बीत चुका था, विक्रम अब दिखाई भी नही दे रहा था.
अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था।
अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?
सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्यूंकि इसे वहां कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुनकिन है”
इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।
दोस्तों हमारी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही होता है, जब दूसरे लोग किसी काम को असम्भव कहने लगते हैं तो हम भी अपने हथियार डाल देते हैं क्यूंकि हम भी मान लेते हैं कि ये असम्भव है। हम अपनी क्षमता का आंकलन दूसरों के कहने से करते हैं।
आपके अंदर अपार क्षमताएं हैं, किसी के कहने से खुद को कमजोर मत बनाइये। सोचिये विक्रम से अगर बार बार कोई बोलता रहता कि यहाँ से निकलना नामुमकिन है, तुम नहीं निकल सकते, ये असम्भव है तो क्या वो कभी बाहर निकल पाता? कभी नहीं…….
उसने खुद पे विश्वास रखा, खुद पे उम्मीद थी बस इसी उम्मीद ने उसे बचाया।
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 15 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
मेरी नृत्य की यह यात्रा शुरू थी। उसमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उसी वक्त मेरे आयुष्य में कुछ अच्छी घटनाएं भी हो रही थी। इस मधुर और मनोहर यादों में मुझे समझने वाले दर्शकों का भी सहयोग मिला था। इन सब की यादों की माला में मेरी ताई, गोखले चाची, श्रद्धा, मम्मी-पापा, टी.म.वी. की अनघा जोशि मॅडम, मेरे भाई बहन, मेरे काम में मदद करने वाली मेरी प्यारी सहेलियां, रिक्षा चलाने वाले चाचा और दर्शक भी थे।
ताई की बहुत मिठास याद मुझे बताने का मन हो रहा है। नृत्य सीखने से पहले स्तर पर रहने के बाद बहुत बरस के बाद कौन सा चित्र देखने को मिलेगा यह मालूम नहीं था। समाज की प्रतिक्रिया कैसी होगी यह भी मालूम नहीं था। नृत्य शुरू रहेगा या नहीं ऐसे द्विधा मनःस्थिति में रहती थी। मुझे अचानक कहा गया कि दीपावली के बाद ‘सुचिता चाफेकर’ निर्मित ‘कलावर्धिनी’ की तरफ से होने वाली नृत्यांगना कार्यक्रम में तुझे ‘तीश्र अलारूप’ याने नृत्य का पहला पाठ पेश करना है, पुना मे ‘मुक्तांगण’ हॉल में, सुनकर मैं सोच में पड़ गई। क्योंकि खुद ताई ने पुणे के कार्यक्रम के लिए मेरा नाम दिया था। पुणे में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं था। दीदी मुझे अपने मायके लेकर गई। उधर खाना करके आराम करने के बाद हम हॉल में आ गए। मैं सज-धज के मेकअप रूम में तैयार होकर बैठी थी। बाहर से इतने भीड़ से दीदी आगे आ गई। उन्होंने मुझे टेबल पर बिठाया और खुद नीचे बैठकर मेरे हाथ और पांवों को आलता लगाया। यह मेरे जिंदगी का बहुत बड़ा सम्मान था।
मेरे नृत्य का कार्यक्रम बहुत रंग में आया था और खुद सुचेता चाफेकर और पुणे के दर्शक मेरे पीठ थपथपाकर प्रशंसा करने लगे, मेरी तारीफ करने लगे। वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय है।
वैसे ही दोपहर की कड़ी धूप में अपना सब काम छोड़कर, संसार की महत्व का काम बाजू में रखकर तीन बजे धूप में मेरी एम.ए. की पढ़ाई करने के लिए तैयार करवाने वाली मेरी गोखले चाची को इस जीवन में कभी भी भूल नहीं पाती।
खुद की कॉलेज की पढ़ाई करते करते मेरे लिए एम.ए. की रायटर मन से हंसते-खेलते मुझे साथ देने वाली मेरी सहेली, मेकअपमेन, श्रद्धा म्हसकर, मेरे अपूर्वाई की सहेली बन गई मेरी भाग्य से।
टि.म.वी की अनघा मैडम ने मुझे जो चाहे मदद की थी। उसी के साथ ही मेरी दूसरी सहेली ‘सविता शिंदे’ मेरी जिंदगी के अधिक करीब आ गई। मुझे घूमने को लेकर जाकर मेरे साथ अच्छी अच्छी बातें करते करते हम एक दूसरों की कठिनाईयां समझकर दूर करते थे।
जब हमारे घर से क्लास तक छोड़ने कोई नहीं होते थे तो काॅर्नर के रिक्षा वाले चाचा मेरे पापा जी को कहते थे कि हम शिल्पा जी को क्लास तक छोड़ कर फिर वापस लेकर घर छोड़ देंगे। पिताजी लोगों की परख करके ही मुझे उनके साथ जाने को कहते थे।
मेरे मन में ऐसी सोच आती है, सच में मुझे आंखें नहीं होती तो भी बहुत सी आंखों ने मुझे सहारा दिया है। जिसकी वजह से मैं अनेक आंखों से दुनिया देख रही हूँ, सुबह देख रही हूँ, खुशियाँ मना रही हूँ।
☆ जीवनरंग ☆ भरली वांगी – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
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“शालन आली होती का गं ‘चम्मतग’ला?”
“नव्हती आणि त्या आधीच्या ‘चम्मतग’ ला तरी कुठे होती? मोबाईलवर फोन केला तर कध्धी उचलत नाही. ती एकीकडे आणि तिचा मोबाईल कुठे दुसरीकडे ठेवलेला. तिच्या लँडलाईन वर फोन करायचा म्हणजे आपल्या सहनशक्तीची परीक्षा!”
“का बरं”?
“पुटुपुटु येऊन तिच्या सासूबाईच फोन घेतात आणि साऱ्या जगाच्या चौकशा करीत राहतात. नाहीतर तेच तेच पुन्हा नव्याने सांगत बसतात.”
“वय फार वाढलं की कठीण होत जातं जगणं. नव्वदीच्या पुढे असतील ना आता त्या?”
“हो तर! पण त्यांची गंमत माहितीये ना तुला?”
“कसली गंमत?”
“महिन्यापूर्वी त्या घरातच पडल्या थोड्याशा. शालनच्या मिस्टरांनी डॉक्टरांना बोलावून कुठे हाडबिड मोडलं नाही ना याची खात्री करून घेतली. डॉक्टरांनी सांगितलं की,’ आता तुम्ही आजींना चालताना काठी वापरायला सांगा. ‘तर नातवाने लगेच दुसऱ्या दिवशी ऑफिसमधून येताना छान चार पायांची काठी आणली. ती कशी वापरायची याचं आजीकडून प्रात्यक्षिक करून घेतलं. आजींनी दोन-तीन दिवस ती काठी वापरली. मग लागल्या पुन्हा पहिल्यासारखं तुरुतुरु चालायला. ते बघून नातवानं विचारलं, ‘अगं आजी, काठी कुठाय तुझी? डॉक्टरांनी चालताना काठी वापरायला सांगितलेय ना?’ तर त्या म्हणाल्या,” नको अरे! काठी घेऊन चाललं की म्हातारं झाल्यासारखं वाटतं.”
“शाब्बास. ग्रेटच आहेत अगदी. दोन दिवसांपूर्वी मोहिनी भेटली होती. ती तिच्या नणंदेकडील वेगळीच गंमत सांगत होती. नणंदेच्या नवीन सुनेच्या माहेरचे लोक ‘हरेराम ‘च्या पंथाला लागलेले.ती सून सुद्धा कांदा-लसूण काही खात नाही. दर रविवारी सकाळपासून बाहेर. कधी मंदिरात भजन-कीर्तन तरी असतं नाहीतर कुणाकडे तरी साजुक तुपातल्या 108 पदार्थांचा अन्नकोट. मूर्तीवर गुलाब पाकळ्यांचा अभिषेक करायचा आणि प्रसाद म्हणून सर्वांनी ते नाजूक-साजूक ड्रायफ्रूटचे पदार्थ, फळं खायची. ती सूनपण नेते एखादा पदार्थ करून. कांदा-लसूण, मसाले काही नाही. कपाळभर गंधाचा मळवट भरायचा आणि पांढऱ्या साड्या नेसायच्या!नस्ती एकेक थेरं. साधे घरात शेंगदाणे भाजले तरी त्याचा भोग दाखवायचा. प्रत्येक भोगाच्या वाट्या वेगवेगळ्या. त्या इतर कशाला वापरायच्या नाहीत.
“मी म्हटलं ना तुला, की आपल्या साळुंख्या पुष्कळ बर्या.”
“पुढच्या महिन्यात आपल्याला चारूच्या मुलाच्या लग्नाला जायचंय ना, त्या आधी आपण एखाद्या पार्लरमध्ये जाऊन यायचं का? बघूया तरी तिथे काय काय प्रकार असतात ते! आपण घरी रंगवलेल्या केसांचा काही दिवसांनी तिरंगा झेंडा तयार होतो. केसांचा मूळ रंग,रंगवलेल्या केसांचा अर्धवट उडालेला रंग आणि मधे मधे डोकावणारे पांढरे केस.”
“चालेल-चालेल. आपली विद्या नेहमी फेशिअल करून घेते. तेही करून बघूया.”
“चल, ठेवते फोन. इतका वेळ मी फोन अडवून बसलेय म्हणून फोनकडे आणि माझ्याकडे रोखून बघत यांच्या अस्वस्थ येरझाऱ्या सुरू झाल्या आहेत. आजची पत्त्यांची बैठक कुणाकडे ठरली ते विचारायला मोबाईल वरून फोन करून ते त्यांचा बॅलन्स कमी करणार नाहीत. मागच्या रविवारी आमच्याकडे होता तो पत्त्यांचा गोंधळ अच्छा, पाठव लवकर मसाला.”
“पाठवते. पण आपल्या गप्पांची ‘भरली वांगी ‘अगदी मसालेदार झाली नाही?”
डाॕ संगीता गोडबोले, बालरोगतज्ञ कल्याण येथे तीस वर्षे प्रॕक्टिस.
कोरोना काळात रुक्मिणीबाई रुग्णालयात मार्च २०२० ते आॕगस्ट २०२० पर्यंत कल्याण डाॕक्टर आर्मीतर्फे काम केले.
गेल्याच वर्षी ‘मनस्पर्शी’ हे ललितबंधांचे इ बुक इ साहित्यने प्रकाशित केले. सकाळ, कुबेर, आहुती, कल्याण नागरिक दिवाळीअंकात लेखन. कविता लेखन. त्यांच्या एका कवितेचे गाणे आशुतोष कुलकर्णी या संगीतकारांनी केलेय.
संगीतकारांवरील ‘सृजन परंपरे’चा एक वर्षाचा प्रवास यावर असलेल्या डॉक्युमेंटरीचे संहितालेखन त्यांनी केले आहे.
लोकमत मध्ये लेखन, ‘ख्याल’ या पारनेरकर ट्र्स्टच्या संगीत व कलाविषयक त्रैमासिकासाठी लेखन.
नव्या वर्षात दर रविवारी महाराष्ट्र टाईम्स ठाणे पुरवणीत ‘मी शब्दसखी’ या नावाने लेखमाला येतेय.
पहिला लेख तीन जानेवारीला आलाय. ही मालिका वर्षभर चालेल.
शास्त्रीय संगीताची आणि नाट्याभिनयाचीही आवड आहे. सोलापूर येथे राज्यनाट्य स्पर्धेत १९८७ – ८८ साली उत्कृष्ट अभिनयासाठीचे पारितोषिक मिळाले होते.
आॕल इंडिया रेडिओ अस्मिता वाहिनीवर ऐसी अक्षरे रसिके या कार्यक्रमात स्वलिखित ललितबंधांचे सातवेळा वाचन.
☆ विविधा ☆ परब्रह्म ☆ डाॕ संगीता गोडबोले ☆
परब्रम्ह म्हणजे काय गं आई???
५/६ वर्षाची असताना आईला विचारलं होतं ..
क्षणभर ती चमकली होती या अनपेक्षित प्रश्नानं ..पण नेहेमीप्रमाणे जरी माझ्या आकलनापलीकडे असले तरी मला समजणाऱ्या भाषेत तिने समजावले होते..
म्हणाली डोळे मीट आणि मला देव दिसतोय असा विचार कर. काही दिसले??
नाही गं आई …काहीच नाही…..
मग आता दत्तगुरु दिसताहेत असा विचार कर….
ब्रम्हा विष्णू महेशाची सगुण साकार देवघरातली दत्तगुरुंची मूर्ती आली मनःचक्षूपुढे ..अगदी त्यांच्या चार श्वान आणि गाईसकट…
मग म्हणाली आता श्रीकृष्ण आहे समज.. काही दिसतय??
अधरावर बासरी घेतलेला, शिरी मोरपीस धारण केलेला सुंदर शामल कृष्ण दिसला ..रांगणारा बाळकृष्ण दिसला नि अर्जुनाला गीता सांगणारा त्याच्या रथाचा सारथी श्रीकृष्ण दिसला..
रोज अठरा अध्याय मुखोद्गत म्हणणाऱ्या आजोबांनी भगवद्गीतेवरच्या श्रीकृष्णाची ओळख फार लवकर करुन दिल्याने ते रुप फार जवळचं नि ओळखीचं होतं.
मग म्हणाली ,आता पुन्हा प्रयत्न कर परब्रम्ह पहाण्याचा…अन् काय आश्चर्य …
कधी दत्तगुरु कधी कृष्ण येत राहिले डोळ्यापुढे…
आतून खोलवर काही गवसल्याचा आनंद…
म्हटल आई परब्रम्ह म्हणजे देव का गं?
म्हणाली, परब्रम्ह म्हणजे श्रद्धास्थान… ते कोणत्या रुपात आपण पहातो तसे दिसते. मूर्तीकडून अमूर्ताकडचा प्रवास …
मोठी झालीस की कळेल हळूहळू सारं… पण त्याच्या शोधात रहा…
८/९ वर्षांच्या अर्धवट वयात स्वामी स्वरूपानंदांच्या प्राणशिष्याने, वासुदेवानंद सरस्वतींनी लावलेली समाधी पाहिली होती. कुंडलिनी जागृत करतात म्हणे.. दोन भुवयांच्या मधोमध पडलेला खड्डा दिसला होता मला. अत्यंत तेजःपुंज अशी त्याची छबी आजही स्पष्ट आठवतेय. दोन तास पूर्ण समाधिस्त अवस्था… मग बाहेर येताना कोणी मालकंस गा रे म्हटल्यावर मालकंस शोधण्यासाठी झालेली यजमानांची धावपळ… एक वेगळीच अनुभूती …
काय जाणवले ते सांगता येत नाही .पण फार छान वाटले होते. शांत वाटले होते. आजही त्याचे स्पष्टीकरण देता येणार नाही पण त्या क्षणी गवसलं होतं ते परब्रम्ह होतं का?
९वीत असताना स्वामी पुरुषोत्तमानंद सरस्वतींच्या तोंडून गीतेच्या १५ व्या अध्यायाचे निरुपण ऐकले होते तेव्हाही असंच शांत आणि काही गवसल्याचं समाधान होतं… ते परब्रम्ह होतं का?
माझ्या उदरातून जन्म घेतलेल्या पिल्लांनी पहिल्यांदा आई म्हणून संबोधलं तेव्हा उचंबळून आलेल्या मनाला परब्रम्ह भेटलं होतं का???
वडीलांनी मृत्यूचे भय नं बाळगता अत्यंत समाधानाने अखेरचा श्वास घेतला तेव्हा त्यांना परब्रम्ह भेटलं होतं का?
मृत्यूच्या दाढेतून ओढून काढलेला एखादा पेशंट आपल्या पायांनी घरी चालत जातो तेव्हा मिळालेला आनंद म्हणजे परब्रम्ह भेटीचा आनंद का?
आज काहीसं वाटतय ..
अत्युच्च आनंदाची परिसीमा गाठणारी, परमेश्वराच्या जवळ नेणारी, अद्भूत शांती देणारी मनाची अवस्था म्हणजेच परब्रम्ह असावं …
त्याच्या शोधात जंगलात जाऊन अथवा हिमालयाच्या टोकावर समाधी लावून बसल्यावरच ते सापडेल असे नाही….
दैनंदिन जीवनातही परब्रम्ह भेटण्याचे अनंत प्रसंग येतात ..
फक्त ते शोधण्याचं कसब अंगी बाणवलं की परब्रम्हाशी भेट फार दूर रहाणार नाही….
☆ विविधा ☆ हे चित्र आणि ते चित्र ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆
रेखा, अजय, त्यांची छोटी रितू, आई बाबा छान छोटंसं सुखी कुंटुंब. तसे कुटुंब मोठं होतं. अजयचा एक भाऊ दोन बहिणी. पण ते आपापल्या घरी. अजय मोठा म्हणून तो आईबाबांकडेच रहायचा. बहिणीची लग्नं झाली. त्या आपल्या घरी सुखांत नांदत होत्या. धाकटा विजय नोकरीच्या निमित्ताने बॅगलोरला त्यामुळे लग्नानंतर तो बॅगलोरलाच रहात होता.
एकंदरीत काय आईवडिलांबरोबर अजयचे कुटुंब रहात होते. आईवडील रितूला छान सांभाळत होते. शाळा, क्लास सगळं आजोबा सांभाळत होते. आजी बाकी तिची वेणीफणी, जेवणखाणं त्यामुळे रेखा अजय बिनधास्त. पण पण ते आईवडिलांना गृहीत धरुन. केलं तर झालं काय? घरांत तर असतात दोघही रिकामटेकडे.
हळूहळू वयोपरत्वे त्या दोघांना कामं होईनाशी झाली. मग ख-या कुरबुरी सुरु झाल्या. नंदीबैल, अजय रेखाच्या सांगण्यावरून त्यांना सांगू लागला. तुम्ही चार महिने विजूकडे जा. कधीतरी ताई माईकडे जा. तुम्हाला पण थोडी हवापालट, बदल. कधीतरी आपल्या गावाकडच्या घरावर नजर टाकून या. रितू काय आता मोठी झाली आहे. ट्यूशनच्याच बाईंकडे राहील. रेखा येता येता आणेल घरी तिला. घरं वडिलांचे, बरं त्यांची पेन्शन होती म्हणजे अजयवर अवलंबून दोघंही नव्हती. वरुन विजय, दोघी बहिणी दर महिन्याला त्यांना पैसे देत होत्या ते वेगळेच. त्यामुळे खरंतर अजय रेखाचा पगार बॅकेत सेफ. रेखाची नोकरी कसली नावापुरती. पण घरची कामं टाळायला, सासू सास-या बरोबर अख्खा दिवस राहण्यापेक्षा बरी. सकाळी एकदा जेवण उकडवून ठेवलं की रान उंडारायला मोकळे. रोज कोण बघायला येतं? वर मी नोकरी सांभाळून सासूसास-याचे करते.
पण प्रत्यक्षात ना कधी त्याचं पथ्यपाणी पाळलं ना कधी त्याच्याशी प्रेमाने वागली नाही. डायाबिटीस, ब्लडप्रेशरची दोघं म्हातारी तरी. घरी बटाटेवडे, कधी रितूसाठी गुलाबजामुन ते पण बाहेरून आणून. चपात्या बनवायचा आळस म्हणून तिन्हीत्रिकाळ भात नाहीतर पाव. शेवटी आजारी दोघंही पडली. तरीही नोकरीच्या निमित्ताने त्यांना बघितलं पण नाही.
बाकीची भावंडे आळीपाळीने येऊन बघायची. कधीतरी बहिणी ने चारच दिवस रहायचं म्हटलं पण ही बया त्याना येऊ पण राहू द्यायची नाही आणि स्वतः पण रजा घेऊन घरी रहायची नाही. आई जेवू घालीना बाप भीक मागू देईना. अजय तर बुगु बुगु नंदीबैल. त्या दोघांना भिती वाटत असावी भावंडांनी आई बाबांची सेवा करून त्यांनाच आईबाबांनी जागा, सोनंनाणं दिलं तर! शेवटी काही म्हाता-याना खायची इच्छा झाली तर खालून मागवून खायचे बिच्चारे.
झालं दोघंही पिकली पानं गळाली. आता रेखानी नोकरी सोडली. वर बुगु बुगुला पढवलं. पोपट बोलला, “आईबाबा गेले. रितुकडे लक्ष द्यायला घरचं माणूस नाही म्हणून रेखाला मनाविरुद्ध नोकरी सोडावी लागली. म्हणजे वर्ष भर आधी एकट्याच्या पगारात भागणार नाही म्हणून आजारी म्हाता-या सासूसास-यांना ठेवून जाणारी रेखा. तेव्हा घरची माणसं असून रितुला ट्यूशनवालीकडे ठेवायची तयारी होती. आणि आता सगळं व्यवस्थित असताना नोकरी सोडली. व्वा व्वा!
झालं आता रेखाच्या आईवडिलांची पाळी. डोबिंवलीला रेखाचं माहेर. वडिल अचानक हार्ट अटॅकनी गेले. त्या धक्यानी आईनी अंथरुण धरले. रेखाची वहिनी चांगली गृहिणी होती. सासूसासरे, आले गेले व्यवस्थित सांभाळायची. परत हसतमुख. रेखा स्वभावानुसार सतत तिच्या कागळ्या करे. “ती हेच करत नाही. माझ्या आईला काय लागते? सकाळ संध्याकाळ दोन दोन चार चपात्या त्या पण तिला बनवायचा आळस. आम्ही नाही का सकाळी नाश्ता,दोन वेळा ताजा स्वयंपाक करत.” रेखा तेव्हा सासूसास-याच्या काळात स्वतः काय वागायची ते सोईस्कर विसरली. बुगु बुगु पण माझ्या बायकोने नोकरी सोडली ते फार बरं केल. सकाळी नाश्ता रोज वेगवेगळा बनवते. वेगवेगळे पराठे काय. जेवणात पण किती त-हा?”
अरे बाबा, आता बनवते तिच्या मुलीसाठीं आणि नव-यासाठीं. एक वर्षं आधी हे केलं असतं तर तुझ्याचं आईबाबांनी आणखी चार वर्षे आनंदात काढली नसती का?
.आता बोलून काय फायदा?
रेखाची आई सारखी आजारी पडू लागली. आता रेखा सांताक्रूझहून डोंबिवलीला दोन दोन गाड्या बदलून, पाऊसपाण्याची सुध्दा रोज जाऊ लागली. ज्या बाईला एका घरांत राहून करता येत नव्हते ती अशी कसरत रोजची करु लागली. कारण शेवटी ती तिची आई होती ना रक्ताची. जाताना तिच्या आवडीचे बनवून घेऊन जायची. प्रेमाने गोड गोड बोलून दोन घास तिच्या पोटात घालायची. तिचे स्पंजिंग करायची. ज्या बाईला आजारी सासूसास-याची बाजूला फिरायची घाणं वाटायची. आईला जुनीजुनी गाणी ऐकवायची. गोष्टी वाचून दाखवायची. रात्री उशीरा घरी येऊन पण गुपचूप स्वयंपाक करायची. नव-याने काही बोलू नये म्हणून. तो म्हणा काय बोलणार बिशादच काय होती. नाहीतर येतानाच त्याच्या आणि रितूच्या आवडीचे हाॅटेलमधून काही आणले की आवाज बंद. अशी दोन वेगळी चित्र बरेच ठिकाणी असतात. ज्याच्या त्याच्या अकलेनी, संस्कारानी, बुद्धीने वागणारे चित्रकार चित्र रेखाटतात.
मी मात्र नशीबवान. नशीब अपना अपना किंवा पेराल तसं उगवेल त्या प्रमाणे सांगायला अजून तरी अभिमान वाटतो. एका प्रेमळ, कर्तव्यदक्ष, उद्योगी सुनेची मी सासू आहे. आम्ही दोघी गुण्यागोविंदाने एकत्र सात वर्षे मजेत राहतो. मुलगा आणि आमचे हे म्हणतात. कि दोघीही एकमेकाचे नंदीबैल आहात चालेल. तसे दोन माणसं म्हटली की मतभेद होतात. पण आम्ही दोघीही एकमेकाला समजून घेतो. अर्थात आम्ही अगदी अति पाघळत पण नाही अट्टाहास पण करत नाही. सून ही मुली सारखी आणि सासूमध्ये आई बघायचं. पण तरी आमचे नातं एकदम घट्ट आहे आणि ते असंच राहो हीच ईश्वरचरणी प्रार्थना ?
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीने का हुनर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 90 ☆
☆ जीने का हुनर ☆
‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात नि:संकोच सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला से भी अवगत होना चाहिए, जिसके लिए उसमें संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।
‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सबसे दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि ‘गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।
आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते; आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलें, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलें, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।
सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दाँव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते; सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था, विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि- नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में जैसी भी विषम परिस्थितियां हों; मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए… सम-भाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लाँघ जाता है, जिसका खामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं; उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानुकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग करना उसी प्रकार अपेक्षित है, जैसे हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे; उसे ग्रहण कर शेष को त्याग देना बेहतर है। अक्सर क्रोध में मानव कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो; सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं और उनके इलाज के लिए कोई मरहम नहीं होती।
हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा हैं… उसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लें, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वास्तव में यह मानव मन में गहराई से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित होकर ‘हैलो-हाय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम-सा पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।
अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करें और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहें। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है– सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास करके, मन की बात न कहने का संदेश प्रेषित किया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। सगे-संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों को दूर से दुआ-सलाम कीजिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।
‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हाँट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, तो हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+ वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं–दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।
अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते; क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते; भूल जाइये। हर क्षण को जीएं, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्-प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि वह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है; नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण कर धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह, संशय व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है। परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो और फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय।’ सो! भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।