मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

या अकरा भागात मी तुम्हाला माझी जीवनकथा थोडक्यात सांगितली, म्हणजे ढोबळमानाने माझं जगणं….हे असंच आहे.सगळेच बारकावे, खाचाखोचा शब्दांकित करणं केवळ अशक्य!

पण खोटं, गुडी गुडी असं काहीच लिहिलं नाही, मी आहे ही अशी आहे,  साधी- सरळ, आळशी,वेंधळी,काहीशी चवळटबा ही,मी स्वतःला नियतीची लाडकी लेक समजते,खूप कठीण प्रसंगात नियतीने माझी पाठराखण केली आहे. ….मी नियती शरण आहे! गदिमा म्हणतात तसं,”पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा” याचा प्रत्यय मी घेतला आहे!

अनेकदा मला माझं आयुष्य गुढ,अद्भुतरम्य ही वाटलेलं आहे….अनेकदा असं वाटतं, इथे प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्धच घडणार आहे का ?……पण पदरात पडलेलं प्रतिभेचं इवलंसं दान ही आयुष्यभराची संजीवनी ठरली आहे.अनेकदा माणसं उगाचच दुखावतात,अर्थात वाईट तर वाटतंच, पण कुणीतरी म्हटलंय ना, जब कोई दिलको दुखाता है तो गज़ल होती है……

कविता, लेखन आयुष्याचा अविभाज्य घटक!

सुमारे वीस वर्षापूर्वी माझ्याकडे अनेक वर्षे काम करणा-या कामवाल्या मावशींबरोबर हरिमंदिरात जाऊ लागले, नंतर बेळगावला जाऊन  कलावती आईंचा अनुग्रह घेतला, सरळ साधा भक्तिमार्ग, नामस्मरण, भजन, पूजन!शिवभक्ती, कृष्ण भक्ती! संसारात राहून पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग  स्वीकारता येत नाही. मनाला काही बांध घालून घेतलेले…..आयुष्य पुढे पुढे चाललंय, जे घडून गेलं ते अटळ होतं, त्याबद्दल कुणालाच दोष नाही देत, मी कोण? पूर्वजन्म काय असेल? भृगुसंहितेत स्वतःला शोधावसं अनेकदा वाटलं,पण नाही शोधलं, आई म्हणतात, भविष्य विचारू नका कुणाला, सत्कर्म करत रहा, कलावतीआईंचा भक्तिमार्ग सरळ सोपा….त्या मार्गावर जाण्याचा प्रयत्न, दोन वर्षांपूर्वी मणक्याचं ऑपरेशन झालं, हाॅस्पिटलमधून कोरोनाची लागण झाली..सगळं कुटुंब बाधित झालं, हे सगळं आपल्यामुळे झालं असं वाटून प्रचंड मानसिक त्रास झाला, यातून नामस्मरण आणि ईश्वर भक्तीनेच तारून नेलं!

“मी नास्तिक आहे”  म्हणणारी माणसं मला प्रचंड अहंकारी वाटतात.कदाचित कुठल्याही संकटाला सामोरं जायची ताकद त्यांच्यात असावी.

पण ज्या ईश्वराने आपल्याला जन्माला घातलं आहे त्याला निश्चितच आपली काळजी आहे असा माझा ठाम विश्वास आहे.कोरोनाबाधित असताना मनःशांतीसाठी ऑनलाईन अनेक मेडिटेशन कोर्सेस केले, ऑनलाईन रेकी शिकायचा प्रयत्न केला.पण ते काहीच फारसं यशस्वी झालं नाही.

आपल्या आतच सद् सद्विवेक बुद्धी वास करत असते ती सतत जागृत ठेवून दिवसभरात एकदा केलेलं ईश्वराचं चिंतन, दुस-या कुणा व्यक्तीबद्दल द्वेष, मत्सर, ईर्षा न बाळगणे हेच सुलभ सोपं आध्यात्म आहे असं मला वाटतं!

लेखमाला समाप्त ?

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

असहायों को लूट कर, बनते श्री संपन्न ।

आँसू  उन्हें गरीब के, पल में करें विपन्न।

 

 आँसू निकले हर्ष में, आँसू  कहे विषाद ।

आँसू  का मतलब कभी अपने प्रिय की याद ।।

 

आँसू का क्या उत्स है, या पीड़ा या प्यार।

आँसू में ही भीग कर, चलता है संसार ।।

 

आँसू क्यों जन्मा भला, क्या कुछ थी दरकार।

 आँसू  निकलें जीत के, बतलाते हैं हार।।

 

जतलाता है अश्रु ही, परमात्मा का प्यार।

जड़ जीवन को सौंपता, सत्य शील, श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 78 – “एक पहेली माँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “एक पहेली माँ  …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “एक पहेली माँ  …”|| ☆

कैसे भी दिन हों,  सिरहाने-

रखे हथेली माँ ।

संतति की रक्षा का संबल

एक अकेली माँ ।।

 

ठंड पड़े  तो रात देखती

क्या उघडा है तन-

बेटे का, सूखा रखती है

किसी तरह सावन

 

मौसम की हर उठा-पटक

से उसे बचाती है,

बरसों से ही सर्द-गर्म की

रही सहेली माँ ।।

 

जीवन की कठिनाई की

कितनी ही तलवारें

या कि  रोज-मर्रा की

टेढ़ी-मेढ़ी दरकारें

 

जो भी होनी-अनहोनी

सब उसकी छाती पर

अचल-अडिग झेला

करती है बनी नवेली माँ ।।

 

झुका कमर बिन थके

लगी रहती है कामों में

उसकी गिनती भाग्यवान

कितने ही नामों में

 

घूमा करती है पहिये सी

बिना रुके, शायद

पुरातत्व के लिये अनौखी

एक पहेली माँ ।।

 

शहर-दर-शहर पीड़ाओं का

समाहार करती

लोग-कई उपमाएँ देते

कहते हैं धरती

 

है उदाहरण भारी-भरकम

ममता के ऋण का

फिर लखनऊ में,काशी में

या रहे बरेली माँ  ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

09-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 18 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 18 ??

श्रद्धाभाव के साथ मनाई जाती है। वटपूर्णिमा अथवा वटसावित्री को वटवृक्ष को मन्नत के धागे बाँधकर चिरायु कर दिया जाता है। पीपल, आँवला को पूजकर प्रदान की जाती पवित्रता 24 बाय7 ऑक्सीजन का स्रोत बनती है। वटपूर्णिमा का एक आयाम लेखक की इस कविता में देखिये,

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

विशाल बरगद

के चारों ओर,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

इसी भाँति तुलसी विवाह प्रकृति में चराचर की एकात्मता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

योग दिवस ‘सर्वे संतु निरामया’ की चैतन्य प्रतीति है। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इसे आदिगुरु महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में मनाया जाता है। अपने गुरु, मार्गदर्शक, शिक्षक को ईश्वर का स्थान देने का साहस केवल वैदिक संस्कृति ही कर सकती है।

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः,

गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

कबीर ने गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान दिया।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय|

बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय||

ये सब प्रतिनिधि रूप से कुछ त्योहारों का वर्णन किया है। किसी छोटे आदिवासी टोले से लेकर बड़े समुदाय तक हरेक के अपने पर्व हैं। हरेक एकात्मता और सामासिकता का जाज्वल्यमान प्रतीक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ यज्ञ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  ‘यज्ञ ’।)

☆ कविता – यज्ञ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अग्नि है

मंत्र हैं

आहुतियाँ हैं

पुरोहित हैं

यजमान हैं

परन्तु यह यज्ञ नहीं है मित्रो !

देखते नहीं

अग्नि हवनकुंड में नहीं

खेतों, खलिहानों, बस्तियों में जल रही है

मंत्रों को ध्यान से सुनो

इनमें विश्रांति नहीं, प्रलय की लय है

पुरोहितों को देखो

इनके चेहरे कापालिकों जैसे हैं

इनके गले में नरमुण्ड लटके हैं

 

यह यज्ञ नहीं है मित्रो !

कापालिकों का भयावह अनुष्ठान है

यजमान को कपाल बनाने में ही

अनुष्ठान की सिद्धि है

आहुतियों के लिए हुलस-हुलसकर

जन-जन का आह्वान करते हुए

क्या तुम्हें अपने आसपास

क़ब्रों से निकाल कर लाये गये

मुर्दे नहीं दिखाई देते?

क्या तुमने अपने चारों ओर

वशीभूत प्रेतात्माओं का घेरा नहीं देखा?

आश्चर्य!

कि तुम्हें रक्तपिपासु पिशाचों के

रक्तपात्र नहीं दीखते, न उनका हिंस्र नृत्य

 

मित्रो !

यज्ञ में विनम्र समर्पण होता है, उन्माद नहीं

सृष्टि को श्मशान और क़ब्रिस्तान में बदलना

इस उन्मादक अनुष्ठान का लक्ष्य है

यदि इस अनुष्ठान को यज्ञ मानने का

तुम्हारा दृढ़ निश्चय है

तो फिर इस ‘यज्ञ’ में

तुम्हारी संतानों का हविष्य होना तय है ।

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “अन्तर्मन”।)  

☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा इस तरह से 

पलकों पे आके बैठ जाना 

फिर पलकों पे बैठकर 

दिन रात आंसू बहाना 

तुम्हारा यूं उठना बैठना 

और आंखों को झील बनाना 

छुप के चुपके से यहां बैठना 

फिर बेवजह जमीन कुरेदना

हर बात पर बहाना बनाना 

दिन रात यादों में खो जाना 

वायदा करके फिर भूल जाना 

पर हरदम तुम ये याद रखना 

अन्तर्मन में संघर्ष न पालना

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆ # संत रविदास की बात # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# संत रविदास की बात  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆

☆ # संत रविदास की बात # ☆ 

दुनिया के कैसे कैसे रंग है

सम्मोहन के अनोखे ढंग है

देख के यह जादूगरी

हम तो भाई दंग है

 

जिसको जीवन भर दुत्कारा

ना कभी आंसू पोंछे, ना पुचकारा

जिसको किया सदा प्रताड़ित

लगा रहे उसके नाम का जयकारा

 

तोड़ा था जिसका कभी मंदिर

अहंकार की भेंट चढ़ा था मंदिर

फल, फूल, मिठाइयां चढ़ा रहे है

सजा रहे है आज उसी का मंदिर

 

आज तो हद ही हो गई

मानवता धरती पर आ गई

सारे माथा टेक रहे हैं

कटुता जाने कहां खो गई

 

कल तक छूना भी पाप था

साया पड़ जाए तो अभिशाप था

तिरस्कृत थे सब “वाल्मीकि”

‘रैदास’ उनका ही तो बाप था

 

क्या पक्ष या विपक्ष हो भाई

सभी नेताओं ने माला चढ़ाईं

“झांझ” बजाते देश के मुखिया की

मीडिया में खूब फोटो है छाई

 

क्या चुनाव का यह आकर्षण है

दिखावे का बस यह दर्शन है

मुंह में राम बगल में छुरी

क्या वोटरों को लुभाने

झूठ मूठ का अर्पण है

 

अंत:करण में बिठाइये

“रैदास” की यह बात

“कर्म” ही जाते हैं

मृत देह के साथ

 

संत रैदास कह गए-

जाति जाति में जाति है,

जो केतन के पात

रैदास” मनुष ना जुड़ सके

जब तक जाति न जात /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (1 – 5) ॥ ☆

सर्गः-13

पुष्पक से करते हुये वृहद गगन को पार।

पत्नी से हरि ने कहा सहसा उदधि निहार।।1।।

 

सीते देखो मलय तक सेतु भिन्न जलराशि।

फेनिल सागर ज्यों शरद तारकमय आकाश।।2।।

 

यज्ञ-अश्व को सगर के कपिल मुनि पाताल।

ले गये पाने फिर जिसे कटी थी धरा विशाल।।3।।

 

सागर से ही रवि-किरण पाती जल-आधान।

बड़वानल, शशि, कीमती रत्नों की यह खान।।4।।

 

दशों दिशा में व्याप्त जो विस्तृत विष्णु समान।

रूप और आकार का जिसके पूर्ण न ज्ञान।।5।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २१ फेब्रुवारी – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? २१ फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

रा. श्री. जोग.

रामचंद्र श्रीपाद जोग (15 मे 1903 – 21फेब्रुवारी 1977)

रा. श्री. जोग यांचा जन्म गडहिंग्लज, कोल्हापूर इथे झाला.

पुण्याच्या फर्ग्युसन कॉलेजमधून संस्कृत व मराठी घेऊन ते मुंबई विद्यापीठाचे बीए (1923) व एमए (1925) झाले. एमएला त्यांना संस्कृतची भगवानदास पुरुषोत्तम शिष्यवृत्ती मिळाली. 1926 ते 1963 या काळात ते संस्कृत व  मराठीचे प्राध्यापक होते.

‘निशिगंध’ या टोपणनावाने कवी म्हणून त्यांनी साहित्यक्षेत्रात पदार्पण केले.सरल भावाविष्कार हे त्यांच्या कवितांचे वैशिष्ट्य.’ज्योत्स्नागीत’ (1926) व ‘निशागीत'(1928) हे त्यांचे काव्यसंग्रह.

पुढे साहित्यशास्त्र व काव्यसमीक्षा हेच त्यांनी आपले कार्यक्षेत्र मानले.

‘अभिनव काव्यप्रकाश'(1930), ‘सौंदर्यशोध आणि आनंदबोध'(1943), ‘संस्कृत काव्यवाङ्‌मय ‘(1945), ‘अर्वाचीन मराठी काव्य’ (1946),’केशवसुत काव्यदर्शन’ (1947), ‘काव्यविभ्रम'(1951), ‘मराठी वाङ्‌मयरुचीचे विहंगमावलोकन'(1951) हे त्यांचे समीक्षात्मक ग्रंथ.त्याचप्रमाणे ‘चर्वणा'(1960), ‘विचक्षणा’ (1962) व ‘दक्षिणा’ (1967) हे त्यांचे साहित्यविषयक स्फूटलेखांचे संग्रह. तपशिलाविषयी दक्ष असणारे साक्षेपी व समतोल समीक्षक म्हणून त्यांचा लौकिक होता.

मराठी साहित्य परिषदेच्या मराठी वाङ्‌मयेतिहास योजनेतील तिसऱ्या, चौथ्या, पाचव्या खंडांचे संपादनही त्यांनी केले.

1960 मध्ये ठाणे येथे भरलेल्या 42व्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

21 फेब्रुवारी 1977 रोजी रा. श्री. जोग यांनी या जगाचा निरोप घेतला.

 

डॉ. किशोर शांताबाई काळे

डॉ. किशोर शांताबाई काळे(1970-21फेब्रुवारी 2007)

डॉ. किशोर काळे हे मराठी लेखक व समाजसेवक होते.

त्यांची आई कोल्हाटी तमाशा कलावंत होती.या अनौरस मुलाला तिने आपल्या माहेरी सोडले. आजोळी, शाळा-कॉलेजात त्यांच्या वाटेला फक्त निंदा, हेटाळणीच आली.

कोल्हाटी समाजातील पुरुष स्वतः काहीही कमवत नाहीत व व्यसनग्रस्त असतात.

पण आपले आयुष्य घडवण्याचा निर्धार आणि धैर्य यामुळे किशोर काळे यांनी जिद्दीने अभ्यास  करून ग्रॅण्ट मेडिकल कॉलेजमधून एम  बी बी एस  ही पदवी मिळवली.ते त्यांच्या समाजातील पहिले डॉक्टर झाले.

‘कोल्हाट्याचं पोर’ हे त्यांचे आत्मचरित्र ग्रंथालीने नोव्हेंबर 1994मध्ये प्रकाशित केले. या आत्मचरित्रामुळे साहित्यजगतात चांगलीच खळबळ माजली. त्यातून तमाशाच्या कोल्हाटी समाजाचे वास्तव जगासमोर आले. त्यामुळे त्यांना त्यांच्या समाजाने बहिष्कृत केले. पुढे त्यांच्या पुस्तकावर बंदी आणण्यासाठीही प्रयत्न झाले.

Against all odds हा त्या पुस्तकाचा संध्या पांडे यांनी केलेला अनुवाद पेंग्विन पब्लिकेशनने प्रकाशित केला.

त्यांचे दुसरे पुस्तक ‘मी डॉक्टर झालो’ हे ‘आपलं प्रकाशन’ने प्रकाशित केलं.

त्यांनी लिहिलेली ‘हिजडा, एक मर्द ‘ ही कादंबरीही गाजली. तिच्यावरून लिहिण्यात आलेल्या ‘अंधारयात्रा’ या नाटकात डॉ. काळे यांनी नायकाची भूमिका केली.

आपल्या समाजाची उन्नती करण्यासाठी व वंचितांचा विकास करण्यासाठी त्यांनी तळमळीने काम केले.

पण आपलं नियोजित कार्य पूर्णत्वाला नेण्यापूर्वीच 21 फेब्रुवारी 2007मध्ये एका अपघातामुळे त्यांचे अकाली निधन झाले.

आज 21 फेब्रुवारी. कै.रा. श्री. जोग  व कै.डॉ. किशोर शांताबाई काळे यांचा स्मृतिदिन. त्यांना ई -अभिव्यक्ती परिवारातर्फे विनम्र अभिवादन.

 

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ध्यास असू दे नंदनवन पण… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ध्यास असू दे नंदनवन पण… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त: वनहरिणी) – मात्रा :८+८+८+८

ध्यास असू दे नंदनवन पण  परसामधली बाग फुलू दे

नित्य नभाशी संभाषण पण  घरट्याशी संवाद असू दे !

 

स्वप्नीच्या त्या गंतव्याची   दे  पांथस्था कोण हमी रे

वळणे वळणे तीर्थस्थाने   तीर्थाटन तव धन्य होवु दे !

 

विझून जाते अंतरज्योती   गोठुन जाती झरे आतले

मूर्तिमंत हे मरण टाळण्या  एक निखारा उरी जळू दे !

 

रणांगणी ह्या जखमी जो तो  कुणि घालावे कोणा टाके

ही तर गंगा रक्ताश्रूंची  ओंजळ तुझीहि विलिन होवु दे !

 

बरीच पडझड तटबंदीची   किती गनीम नि कितीक हल्ले…

तुझ्या गढीवर पण जिवनाचा  ध्वज डौलाने नित फडकू दे !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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