हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – युद्ध के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – युद्ध के विरुद्ध ??

कल्पना कीजिए,

आपकी निवासी इमारत

के सामने वाले मैदान में,

आसमान से एकाएक

टूटा और फिर फूटा हो

बम का कोई गोला,

भीषण आवाज़ से

फटने की हद तक

दहल गये हों

कान के परदे,

मैदान में खड़ा

बरगद का

विशाल पेड़

अकस्मात

लुप्त हो गया हो

डालियों पर बसे

घरौंदों के साथ,

नथुनों में हवा की जगह

घुस रही हो बारूदी गंध,

काली पड़ चुकी

मटियाली धरती

भय से समा रही हो

अपनी ही कोख में,

एकाध काले ठूँठ

दिख रहे हों अब भी

किसी योद्धा की

ख़ाक हो चुकी लाश की तरह,

अफरा-तफरी का माहौल हो,

घर, संपत्ति, ज़मीन के

सारे झगड़े भूलकर

बेतहाशा भाग रहा हो आदमी

अपने परिवार के साथ

किसी सुरक्षित

शरणस्थली की तलाश में,

आदमी की

फैल चुकी आँखों में

उतर आई हो

अपनी जान और

अपने घर की औरतों की

देह बचाने की चिंता,

बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष

सबके नाम की

एक-एक गोली लिये

अट्टाहस करता विनाश

सामने खड़ा हो,

भविष्य मर चुका हो,

वर्तमान बचाने का

संघर्ष चल रहा हो,

ऐसे समय में

चैनलों पर युद्ध के

विद्रूप दृश्य

देखना बंद कीजिए,

खुद को झिंझोड़िए,

संघर्ष के रक्तहीन

विकल्पों पर

अनुसंधान कीजिए,

स्वयं को पात्र बनाकर

युद्ध की विभीषिका को

समझने-समझाने  का यह

मनोवैज्ञानिक अभ्यास है,

मनुष्यता को बचाये

रखने का यह प्रयास है!

 

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:29 बजे, 7 मार्च 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 91 ☆ मुद्दे की बात… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना मुद्दे की बात…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 91 ☆ मुद्दे की बात  

अक्सर उबाऊ बातचीत से बचने के लिए लोग कह देते हैं, सीधे- सीधे मुद्दे पर आइए। बात चाहें कुछ भी हो, जल्दी पूरी हो, ये सभी की इच्छा रहती है। आजकल यही प्रयोग पत्रकारों द्वारा चुनावी चर्चा में किया जा रहा है। विकासवाद, राष्ट्रवाद, बदलाव, महंगाई, बेरोजगारी इन शब्दों का प्रयोग खूब हो रहा है। घोषणा पत्र सुनने , पढ़ने व समझने का समय किसी के पास नहीं है क्योंकि सबको पता है ये चुनावी वादे हैं जो बिना बरसे ही हवा के साथ हवाई हो जाएंगे।

जैसे ही मतदाता दिखा, सबसे पहले यही प्रश्न पूछा जाता है कि आप किस मुद्दे को ध्यान में रखकर दल का चुनाव करेंगे ?

तत्काल ही उत्तर मिल जाता है। हाँ इतना जरूर है कि कुछ लोग इसका अर्थ नहीं समझते हैं और कहने लगते हैं कि हमें क्या हम तो इस निशान पर बटन  दबाएंगे। वहीं कुछ लोग अपने पसंदीदा दल की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगते हैं तो कुछ लोग नासमझ बनते हुए, घुमाते फिराते हुए, अंत में कह देते हैं वोट किसको देना है, अभी तक सोचा ही नहीं।

इस सोचने समझने के मध्य पत्रकार भी तो किसी न किसी दल की विचारधारा का समर्थक होता है, अनचाहे उत्तरों से  उसका चेहरा बुझा हुआ साफ देखा जा सकता है। कुछ भी कहिए हाथ में माला लेकर भागते हुए लोग जो आगे जाकर माला देते हैं कि  हमारे नेता जी आने वाले हैं उन्हें आप पहना दीजियेगा। इधर नेता जी भी आठ- दस माला तो पहने रहते हैं बाकी उतार- उतार के उसी व्यक्ति को दे देते हैं। ठीक भी  है, ऐसा करने से फूलों व रुपए दोनों की बचत होती है।  साथ में चलती हुई गाड़ियों में बढ़िया धुनों वाले गाने बजते रहतें हैं जिसकी धुन व बोल सभी के मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। इस बार के चुनावों में मतदाता भी खूब मनोरंजन कर रहे हैं। एक बात तो साफ हो गयी है कि भविष्य में उन्हें भी पाँच वर्ष में एक बार आने वाले इन पर्वों का बेसब्री से इंतजार रहेगा। 

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 100 ☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “हँसता जीवन ही बचपन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 100 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #109 – बाल कविता – चूसेगा पप्पू  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कविता – “चूसेगा पप्पू।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 109 ☆

☆ बाल कविता – चूसेगा पप्पू ☆ 

कच्चे आम हरेभरे है.

पक्के हैं पीलेपीले।

दस भरे रसीले है

लगते जैसे गीलेगीले ।।

 

इस को मूनिया खाएगी

रस बना, पी आएगी।

चूसेगा पप्पू राजा

पिंकी पी इतराएगी ।।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (76-79)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (76 – 79) ॥ ☆

सर्गः-13

अनुज सहित श्रीराम फिर जब पुष्पक-आसीन।

लगे कि बुध गुरू साथ है चंद्र मेघ-आसीन।।76।।

 

की सीता पद वन्दना, कर जिनका उद्धार।

राम लाये वाराहवत् जल से धरा उबार।।77अ।।

 

अथवा जैसे चंद्रमा को वर्षो के बाद।

करता मेघों से शरद है बिलकुल आजाद।।77ब।।

 

सीता माँ के चरण छू भरत जटा निष्पाद।

हुये परस्पर और भी पावन अपने आप।।78।।

 

जन समूह संचरित था जिन आगे थे राम।

पहुँचे उपवन अयोध्या पट-प्रासाद ललाम।।79।।

 

तेरहवां सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १० मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १० मार्च -संपादकीय -सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

वि. वा. शिरवाडकर

विष्णू वामन शिरवाडकर (27 फेब्रुवारी 1912 ते 10 मार्च 1999) हे मराठीतील अग्रगण्य कवी, लेखक, कथाकार, नाटककार वगैरे होते. ‘कुसुमाग्रज’ या टोपणनावाने त्यांनी कविता लिहिल्या.

त्यांचे वास्तव्य नाशिकमध्ये होते.

सामाजिक आस्था, क्रांतिकारक वृत्ती, शब्दकलेवरचे प्रभुत्व ही त्यांच्या साहित्याची प्रमुख वैशिष्ट्ये. त्यांनी पौराणिक व ऐतिहासिक व्यक्तिमत्त्वातील मानवी वृत्तीचा शोध घेतला. ईश्वरासंबंधी प्रश्न उपस्थित केले आणि माणसाच्या समग्रतेचे आकलन करायचा प्रयत्न केला.’पृथ्वीचे प्रेमगीत’सारख्या कवितेतून त्यांच्या प्रतिभेची उत्तुंग झेप प्रत्ययास येते. त्यांचे समृद्ध व प्रगल्भ व्यक्तिमत्त्व त्यांच्या साहित्यात प्रतिबिंबित झाले आहे.

 

त्यांची पुस्तके :

‘विशाखा’, ‘ वादळवेल’ इत्यादी 22कवितासंग्रह.

‘नटसम्राट’, ‘वीज म्हणाली धरतीला’ वगैरे 22 नाटके.

7 लघुनिबंध व इतर लेखनाचे संग्रह.

9 कथासंग्रह.

‘कल्पनेच्या तीरावर ‘ वगैरे 3 कादंबऱ्या.

‘वाटेवरच्या सावल्या’ हे आठवणीपर पुस्तक.

काही एकांकिका संग्रह.

याव्यतिरिक्त त्यांनी चित्रपटांसाठी पटकथा लिहिल्या आहेत.

‘सती सुलोचना’ या धार्मिक चित्रपटात त्यांनी अभिनेता म्हणूनही काम केले आहे.

सुरुवातीच्या काळात ते नियतकालिकात व वृत्तपत्रात संपादक होते.

याशिवाय ‘कुसुमाग्रजां’वर इतरांनी लिहिलेली सहा पुस्तके  व वि. वा. शिरवाडकरांवर लिहिलेली दोन पुस्तके प्रसिद्ध आहेत.

 

त्यांना अनेक पुरस्कार मिळाले. त्यापैकी काही :

1991 साली साहित्यक्षेत्रातील योगदानाबद्दल त्यांना ‘पद्मभूषण’ पुरस्कार प्रदान करण्यात आला.

त्यांच्या ‘विशाखा’ या कवितासंग्रहासाठी त्यांना ज्ञानपीठ पुरस्कार मिळाला. वि. स.  खांडेकर यांच्यानंतर  मराठी साहित्यात ज्ञानपीठ पुरस्कार मिळवणारे ते दुसरे साहित्यिक होते.

‘नटसम्राट’ या नाटकासाठी त्यांना साहित्य अकॅडमी पुरस्कार मिळाला.

1986मध्ये पुणे विद्यापीठाने त्यांना ‘डी. लिट.’ पदवी प्रदान केली.

अंतराळातील एका ताऱ्यास ‘कुसुमाग्रज’ हे नाव देण्यात आले.

त्यांचा जन्मदिवस 27 फेब्रुवारी हा ‘मराठी भाषा गौरव दिन’ म्हणून साजरा केला जातो.

शिवाय त्यांच्या नावानेही अनेक पुरस्कार दिले जातात.

10 मार्च 1999 रोजी त्यांचे देहावसान झाले असले, तरी मराठी साहित्यात ते अमर आहेत.

त्यांना ई -अभिव्यक्ती परिवारातर्फे  सादर अभिवादन. ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ, कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आकाश मोकळे सारे ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आकाश मोकळे सारे ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

 तू मार भरारी आता

 आकाश मोकळे सारे,

 पंखात वादळी वारे

 घेऊन वेच तू तारे

 

 तेजोमय दिव्यत्वाची

 मानसी पेटवी ज्योत,

 तव उदंड कर्तुत्वाला

 माहित नसावा अंत

 

 आभाळी भिरभिरताना

 स्मरणात असावी माती

 भूमीवर जोजविलेली

  हळूवार जपावी नाती

 

 अक्षरे देऊनी गेली

 ज्ञानाचे अमृत तुजला

 हे अमृत पाजीत जा तू

 जो तृषात आहे त्याला

 

 प्रगतीच्या वाटेवरुनी

 क्षण वळून बघ तू मागे,

 देतील प्रेरणा तुजला 

 नात्यातील नाजुक धागे

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ कवितेचा उत्सव ☆ वजन ☆ स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆

स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वजन ☆ कवी…कुसुमाग्रज ☆

(10मार्च पुण्यतिथी)

एकदा रेशन संपल्यावर

घरातली रद्दी विकायला काढली

तेव्हा तू हसत म्हणालीस,

तुमच्या कवितांचे कागद

यात घालू का ?

तेवढंच वजन वाढेल !

मी उत्तरलो,

जे काम काळ उद्या करणार आहे

ते तू आज करू नकोस.

तुझ्या डोळ्यात

अनपेक्षित आसवं तरारली

आणि तू म्हणालीस,

मी तर नाहीच

पण काळही ते करणार नाही.

 

– स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #103 – तू आणि मी…!  ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 103  – तू आणि मी…! 

तू आणि मी

मिळून पाहिलेली सारीचं स्वप्नं

आजही …

मनाच्या अडगळीत

तशीच पडून आहेत

तू आलीस की

आपण ती स्वप्न झटकून

पुन्हा त्यात नवे रंग भरूया…

फक्त तू येताना…

तुझ्याही मनाच्या अडगळीतली

सारीच स्वप्न घेऊन ये…!

कारण…

माझ्या मनातल्या

अडगळीतले

काही स्वप्नांचे रंग

आता..,रंगवण्याच्या

पलीकडे गेलेले आहेत…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ स्त्री कालची आणि आजची…! भाग १ ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?  विविधा ?

☆ स्त्री कालची आणि आजची…! भाग १ ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

‘कशी आहे ती?’ नारीशक्ती वरील एक लेख सहज वाचनात आला! खरंच कशी आहे स्त्री?-स्त्री ही घराची शोभा! संसाराचा गाडा ओढणारी, कुटुंबाशी निगडित असलेली व्यक्ती! फार प्राचीन काळी गार्गी, मैत्रेयी सारख्या विद्वान स्त्रिया होऊन गेल्या. त्यानंतरच्या काळातही अहिल्या, द्रौपदी, तारा,सीता, मंदोदरी यासारख्या पंचकन्यांना स्त्री सन्मान मिळाला.त्यानंतर जिजाऊ,राणी लक्ष्मीबाई, ताराराणी यांसारख्या कर्तृत्ववान स्त्रिया होऊन गेल्या. पण मध्यंतरी चा एक काळ असा आला की स्त्रीला चूल आणि मूल या चक्रात अडकून पडावे लागले. तेव्हा स्त्रीशिक्षणाचा अभाव होता. पुरुषप्रधान संस्कृतीच्या वलयाखाली स्त्री चे अस्तित्व दडपले गेले. कुटुंब सांभाळणारी, आल्या गेल्याचे स्वागत करणारी, वेळप्रसंगी एक हाती संसार करणारी हेच  स्त्रीचे रूप राहिले. संसार रुपी रथाची दोन चाके म्हणून स्त्री आणि पुरुष दोघांचा विचार आपण करतो. स्त्री हे चाक असे काही पेलून धरते की, कधीकधी दोन्ही चाकांचा बोजा तिच्या अंगावर असतो. स्त्री ही अशी गृहिणी, सहधर्मचारिणी असते!

  पूर्वी स्त्रियांना शिक्षण कमी होते, पण व्यवहारज्ञान मात्र खूप होते. पैसा कमी होता पण असणाऱ्या प्रत्येक गोष्टीचा उपयोग जास्तीत जास्त कसा करता येईल याकडे लक्ष असे. त्यामुळे स्त्री काटकसरीने संसार करून तो यशस्वी करून दाखवत असे.

श्यामची आई मधील आई ही अशीच गरिबीत राहून स्वाभिमानाने संसार करणारी स्त्री होती. त्याकाळी कित्येक विधवा स्त्रियांना संसार करून मुलांची, कुटुंबाची जोपासना करावी लागली आहे. माझीच आजी एका मोठ्या घरातील होती.पतीच्या निधनानंतर शिक्षण नाही, हातात पैसा नाही, मुलांची शिक्षणे व्हायची होती, अशावेळी तिने न डगमगता संसार केला. मोठ्या घरातील फक्त दोन-तीन खोल्या स्वतःकडे ठेवून बाकी सर्व खोल्या विद्यार्थ्यांना रेंट वर दिल्या आणि त्या भाड्याच्या पैशात रोजचे व्यवहार भागवायला सुरुवात केली. घर हाच तिचा मोठा आधार होता. हातात असलेले दागिने विकून मुलांची पुढील शिक्षणे केली. त्यानंतर सुनांसाठी पुन्हा सोने खरेदी करून दागिने करून घातले. स्वतःच्या कर्तृत्वाने असे घर सांभाळणाऱ्या त्या काळातील अनेक महिलांच्या गोष्टी आपण ऐकतो.

    काळाच्या ओघात शिक्षणाबरोबर स्त्रीच्या कर्तृत्वाच्या कक्षा रुंदावल्या आणि स्त्री पुरुषाशी बरोबरी करता करता त्याच्यापुढे कधी निसटून गेली हे कळलेच नाही! आज प्रत्येक आघाडीवर स्त्री पुढे आहे. अवकाश क्षेत्र, संशोधन, संरक्षण क्षेत्र, राजकारण यासारख्या महत्त्वाच्या क्षेत्रात स्त्रिया कार्यरत आहेतच पण रोजच्या जीवनातही बरेचसे व्यवहार स्त्रिया सांभाळतात. पूर्वी मुलांवर असलेली माया, प्रेम स्वयंपाकघरातील कुशलतेवर अधिक दिसत असे. मुलांना स्वतः  करून चांगले चांगले खाऊ घालणारी, प्रेमाने घास देणारी,कोंड्याचा मांडा करणारी स्त्री आदर्श होती. पण नंतरच्या काळात नोकरी करून, स्वतःची ओढाताण करून मुलांसाठी घरी पदार्थ बनवणारी स्त्री हळूहळू कालबाह्य झाली. कामावरून घरी येतानाच वडापाव, दाबेली, केक यासारखे पदार्थ घरी येऊ लागले, तर काही वेळा ऑर्डर करून आणलेल्या पिझ्झा मुलांना  खुश करू लागला. काही ठिकाणी घरी स्वयंपाकाला बाई ठेवून ती गरज भागवू लागली. काही तडजोडी कराव्या लागल्या, पण त्याला इलाज नव्हता. त्यांची मुलांवरील माया, प्रेम कमी झालं असं नाही, पण दिवसभर ऑफिस काम करून घर  सांभाळणे ही तिच्यासाठी तारेवरची कसरत होती. शेवटी तिच्या कष्टानाही मर्यादा असतेच ना!

                      क्रमशः ….

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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