हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ?

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/

अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/

राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

मिलें होली, खेलें होली! ..शुभ होली।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह #84 ☆ सॉनेट गीत – तुम ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट गीत – तुम।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 84 ☆ 

☆ सॉनेट गीत – तुम☆

 

ट्रेन सरीखी लहरातीं तुम।

पुल जैसे मैं थरथर होता।

अपनों जैसे भरमातीं तुम।।

मैं सपनों सा बेघर होता।।

 

तुम जुमलों जैसे मन भातीं।

मैं सचाई सम कडुवा लगता।

न्यूज़ सरीखी तुम बहकातीं।।

ठगा गया मैं; खुद को ठगता।।

 

कहतीं मन की बात, न सुनतीं।

जन की बात अनकही रहती।

ईश न जाने क्या तुम गुनतीं।।

सुधियों की चादर नित तहती।।

 

तुम केवल तुम, कोई न तुम सा।

तुम में हूँ मैं खुद भी गुम सा।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-३-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #113 ☆ स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 113 ☆

☆ ‌आलेख – ‌स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यूं तो स्पर्श शब्द का शाब्दिक अर्थ मात्र छूने से ही है, यह पढ़ने सुनने में अति साधारण सा शब्द होते हुए भी अपने आप में असाधारण अनुभव की अनुभूतियां समेटे हुए है. इसमें गजब का सम्मोहन समाया हुआ है. यह हृदय को सकारात्मक अनुभव प्रदान करता है. यह सामने खड़े सचेतन जीव जगत के उपर गहरा प्रभाव छोडता है, तथा अबोध बालक से लेकर अबोध जानवरों को भी सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए उकसाता है ,आप ने भी अपने जीवन में कभी कभार स्पर्श की दिव्य अनुभूति की होगी. एक मां की लोरी और थपकी में ऐसी क्या अनुभूति है‌ जो अबोध बालक को गहरी नींद में सुला देती है.

हाथों के अंगुलियों का प्रेयसी के बालों को सहलाना जहां प्रेयसी को आपकी बांहों में आने तथा आलिंगन को बाध्य करता है तो वहीं कोमल स्पर्श जानवरों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए उत्साहित करता है.

यह स्पर्श ही है जो मात्र अलग-अलग ढंग से छूने मात्र से छूने वाले ब्यक्ति के उद्देश्य तथा हृदय की अभिव्यक्ति को दर्शाता है. यह ब्याकरणीय संरचना के अनुसार एक क्रिया है. जिसमें भावों के आदान-प्रदान का गुण गहराई से रचा बसा है आखिर क्या कारण है

कि हम जब किसी मूर्ति अथवा किसी सकारात्मक ऊर्जा वाले व्यक्ति के पैरों को छूकर आशीर्वाद लेते हैं , तो हृदय भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाता है और इसकी अंतिम परिणति श्रद्धा भक्ति के रूप में दृष्टि गोचर होती है.  

इस प्रकार स्पर्श का अर्थ मात्र एक क्रियात्मक शब्द बोध ही नहीं, भावनात्मक बोध भी है.

– सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (11 – 15) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

रथ पर धारे छत्र थे भरत सहित सम्मान।

लखन शत्रुहन चँवर ले शोभित थे द्युतिमान।।11अ।।

 

राजाराम विराजते थे सब सहित अनूप।

साम-दाम-दंड-भेद ज्यों चार भाई के रूप।।11ब।।

 

कालागुरू की धूप भी वायु में धूम्र समान।

नगरी की कबरी खुली सी देती पहचान।।12।।

 

सज्जा सज्जित सिया को निरख डोली आसीन।

खिड़की से ललनाओं ने किया नमन मनलीन।।13।।

 

अनुरूपा आशीष के अंगराग से दीप्त।

लगी, हों ज्यों पावन सिया पुनः परीक्षा-दीप्त।।14।।

 

सबको दे आवास गृह सब सुविधा-सम्पन्न।

याद-शेष, पितुगृह गये राम अश्रु आपन्न।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १३ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १३ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दत्तात्रय कोंडो घाटे

दत्तात्रय कोंडो घाटे ऊर्फ कवी दत्त (27 जून 1875 – 13 मार्च 1899). हे मूळचे श्रीगोंद्याचे. त्यांचे शालेय शिक्षण नगरमध्ये, तर महाविद्यालयीन शिक्षण मुंबई, इंदूर, कलकत्ता येथे झाले. नंतर ते पुण्याच्या नू. म. वि.मध्ये शिक्षक होते.

रेव्ह. ना. वा. टिळक, कविवर्य चंद्रशेखर  वि कवी दत्त या तिघांचे सख्य होते.

‘बा नीज गडे ‘ ही कवी दत्तांची लोकप्रिय कविता. त्यांनी 1897-98 मध्ये बहुसंख्य कविता लिहिल्या. त्या वेगवेगळ्या नियतकालिकांतून प्रसिद्ध झाल्या. त्यापैकी 48 कवितांचा ‘दत्तांची कविता ‘हा संग्रह त्यांचे पुत्र शिक्षणतज्ज्ञ व साहित्यिक वि. द. घाटे यांनी 1922 साली प्रसिद्ध केला. डॉ. मा. गो. देशमुखसंपादित संग्रहात त्यांच्या सर्व म्हणजे 51 कविता आहेत.

आकाशानंद

आकाशानंद ऊर्फ आनंद बालाजी देशपांडे (1933-13 मार्च 2014). आकाशानंद हे पूर्वी नागपूर नभोवाणी केंद्रात कार्यक्रम निर्माते होते. नंतर 1972 पासून मुंबई दूरदर्शन केंद्रात आले.1992 साली ते तिथे उपसंचालक पदावरून  निवृत्त झाले.

त्यांनी सादर केलेले ‘ऐसी अक्षरे ‘, ‘शालेय चित्रवाणी’  व ‘ज्ञानदीप ‘हे कार्यक्रम अतिशय लोकप्रिय झाले.

1988मध्ये ‘ज्ञानदीप’ या कार्यक्रमावर बीबीसीच्या एलिझाबेथ स्मिथ यांनी 45 मिनिटांचा लघुपट केला. याच कार्यक्रमावर अमिता भिडे यांनी पीएचडी मिळवली.

‘ज्ञानदीप’वर आधारित असलेले ‘ज्योत एक सेवेची’ हे मासिक त्यांनी 25 वर्षे चालवले.

1992मध्ये निवृत्त झाल्यावर त्यांनी पहिल्या ‘ज्ञानदीप’ मंडळाची स्थापना केली. त्यांचा विस्तार होऊन राज्यात 1500 मंडळे स्थापन झाली.

त्यांनी ‘माध्यम चित्रवाणी’ वगैरे  पाच पुस्तके व बालसाहित्यात 300 गोष्टीची पुस्तके लिहिली.

त्यांच्या ‘माध्यम चित्रवाणी’ या दूरचित्रवाणी या विषयावरील पहिल्या मराठी पुस्तकाला राज्यसरकारचा सर्वोत्कृष्ट पुस्तकाचा पुरस्कार मिळाला.

याशिवाय त्यांना गोंदियाभूषण व सेवाश्री पुरस्कारही मिळाले.

मालतीबाई किर्लोस्कर

मालतीबाई किर्लोस्कर या विख्यात मराठी संपादक व लेखक शंकरराव किर्लोस्करांच्या कन्या.

त्या सांगलीच्या विलिंग्डन कॉलेजमध्ये मराठीच्या प्राध्यापिका होत्या. त्या अतिशय सुंदर शिकवत असत.

पक्की वाङ्‌मयीन व वैचारिक बैठक, भारदस्त व्यक्तिमत्त्व व विपुल व्यासंग ही त्यांची प्रमुख वैशिष्ट्ये. त्या परखड व स्पष्टवक्त्या होत्या.

त्या ‘किर्लोस्कर’, ‘स्त्री’ व ‘मनोहर’ मध्ये अधूनमधून लिहीत असत.

‘भावफुले’ व ‘फुलांची ओंजळ’ हे त्यांचे व्यक्तीचित्रसंग्रह प्रसिद्ध आहेत.

13 मार्च 2017 ला त्यांचे निधन झाले.

रमेश मुधोळकर

बालसाहित्यकार व चित्रकार रमेश मुधोळकर (19.07.1935 – 13.03.2016) यांचा जन्म व प्राथमिक शिक्षण मलकापूर येथे झाले.पुढे ते मुंबईला आले. तिथे माध्यमिक शिक्षण घेतल्यानंतर जे. जे. कला महाविद्यालयातून कमर्शियल आर्टचे शिक्षण घेतले.

1972मध्ये त्यांचे अनुवादित पुस्तक प्रसिद्ध झाले.1974 मध्ये त्यांनी ‘शालापत्रक’ हे मासिक सुरू केले. बालकुमारांवर संस्कार करणारी सुमारे 300 पुस्तके त्यांनी लिहिली. त्यात ‘इसाप’, ‘गलिव्हरच्या गोष्टी’, ‘बिरबल आणि बादशहाच्या 175 गोष्टी’ यांचा समावेश आहे.

जयको पॉकेट बुक्स व अमर चित्रकथा तसंच एको बुक्स या पुस्तक मालिकांच्या निर्मितीत त्यांचा मोठाच वाटा आहे.

देशोदेशीच्या रसाळ कथा, तसंच खगोलशास्त्र, चित्रकला, अक्षरचित्रांसह अंकलिपी, भारतीय विज्ञान सप्तर्षी, भारतरत्न, पक्षी, प्राण्यांचे बंड, बडबडगीत असे बरेच लेखन त्यांनी मराठी व इंग्रजीतून केले. त्याचप्रमाणे शंकरमहाराज व दिगंबरदास महाराज यांच्या गोष्टींमधून त्यांनी संदेशपर लेखन केले.

‘अखिल भारतीय मराठी बालकुमार साहित्य संमेलन’ या संस्थेचे ते संस्थापक -सदस्य होते.

2009मध्ये त्यांच्या लेखनाची नोंद ‘लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड’मध्ये करण्यात आली.

13 मार्च 2016 मध्ये पुणे येथे त्यांचा देहांत झाला.

कवी दत्त, आकाशानंद, मालतीबाई किर्लोस्कर व रमेश मुधोळकर यांना स्मृतिदिनानिमित्त सादर अभिवादन.  ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया, इंटरनेट. मराठीसृष्टी. कॉम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रणी उतरतो सर्वांसाठी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रणी उतरतो सर्वांसाठी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त: वनहरिणी)

रणी उतरतो सर्वांसाठी,भोग भोगतो सर्वांचे मी……..

उपकाराचे ढोंग कशाला,रणांगणी ह्या माझ्यास्तव मी!

 

तरीहि येतो कोणी दारी,जखमांवर घालाया फुंकर

पराभूत मी परंतु ज्याच्या,दाटे कंठी माझा हंबर !

 

तेच कपातिल फुटकळ वादळ, तीच चहाची अळणी धार

तूफानांनो तुमच्यासाठी,सताड उघडे केले दार !………..

 

प्रभंजनाशी घेता पंगा,संहाराची व्यर्थ रे तमा

साती सागर ओलांडू वा निमूट होऊ इतिहासजमा!

 

पैल पोचता क्षणात कळते, हा न किनारा ध्यासामधला

क्षणभर वाटे उगीच केला, ऐल पारखा रक्तामधला!….

 

जागा होतो कैफ पुन्हा तो, शिडात भरतो उधाण वारा

पुन्हा सागरी नाव लोटणे, शोधाया तो स्वप्नकिनारा !…

 

झिजता झिजता वर्धमान मी,आटत आटत अथांग होतो….

तुझी नि माझी एक कहाणी, आत्मकथेतुन सांगत असतो !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सारंगपाणी ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

श्री मुबारक उमराणी

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सारंगपाणी… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

वारा शिवारी गार शिवारी

झुलतो शाळू भार शिवारी

मनात फुलते रान गाणी गं

पाणी पाजते आप्पाची राणी गं

 

नथ हसता,माळ बोलते

भाळी कुंकूम टिळा फुलतो

हाती कंकणाचा नाद खुलतो

पैंजण खेळे माती पाणी गं

 

वारा सळसळ झाड हलवी

मनात फुलते पान पालवी

वसंत कोकिळ मला बोलवी

मनात नाचता मीही गाते गाणी गं

 

मोहर अांबा मनात घुमतो

वेली फुलांचा गंध झुमतो

जाई जुई शेवंता रंग चुमतो

कळी हसता पायी खेळे पाणी गं

 

माळावरी ती झालर  फुलांची

हलत वा-यासवे खेळे धुलाशी

पक्षीपाखरु पंखी रंग फुलांचे

अप्पा हसे माझा सारंगपाणी गं

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ या बाई या ☆ कवी दत्त (विठ्ठल दत्तात्रेय घाटे)☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ या बाई या ☆ कवी दत्त (विठ्ठल दत्तात्रेय घाटे)☆

[विठ्ठल दत्तात्रेय घाटे (१८ जानेवारी, १८९५ – ३ मे, १९७८) ]

या बाई या,

बघा बघा कशी माझी बसली बया

 

ऐकू न येते,

हळुहळू अशी माझी छबी बोलते

 

डोळे फिरविते,

टुलूटुलू कशी माझी सोनी बघते

 

बघा बघा ते,

गुलूगुलू गालातच कशी हसते

 

मला वाटते,

हिला बाई सारे काही सारे कळते

 

सदा खेळते,

कधी हट्ट धरून न मागे भलते

 

शहाणी कशी,

साडीचोळी नवी ठेवी जशीच्या तशी.

 

 – कवी दत्त (वि.द.घाटे)

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ एक गंमत सांगू तुला …? ….अनामिक ☆ प्रस्तुती… श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? विविधा ?

एक गंमत सांगू तुला …? ….अनामिक ☆ प्रस्तुती… श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

एक गंमत सांगू तुला …?

लहानपणी चणे फ़ुटाणे खूप आवडायचे खायला..

पण दहा पैसेही परवडायचे नाहीत खिशाला..

म्हातारपणी रुपयांनी खिसा भरला

पण मोडके दात बघून चणे लागले चिडवायला…

😗

 

एक गंमत सांगू तुला …?

लहानपणी वाटायचं,

नविन पुस्तके हवीत वाचायला..

पण चोरुन, लपुन,उसनी मित्रांची पुस्तके  घेवून अभ्यास पूर्ण केला..

म्हातारपणी नवीन पुस्तकांचा ढीग येवून पडला

पण तो पर्यंत चष्म्याचा नंबर सोडावाँटर झाला…

😍

 

एक गंमत सांगू तुला ….?

लहानपणी रिक्षातून आवडायचे फ़िरायला

पण सव्वा रुपायासुध्दा नसायचा कनवटीला..

म्हातारपणी ड्रायव्हर म्हणतो गाडी तयार आहे, चला फ़िरायला

पण जीना उतरेस्तवर

पाय लागतात लटपटायला…

😓

 

एक गंमत सांगू तुला …..?

लहानपणी 10✘10 ची खोली होती रहायला,

दमून भागून आलो की क्षणात लागायचो घोरायला..

म्हातारपणी चार खोल्यांचा मोठा ब्लाँक घेतला,

पण एकेक खोली आ वासून येते खायला…

😵

 

एक गंमत सांगू तुला ……?

खूप शिकून मुलगा अमेरिकेला गेला,

फ़ार फ़ार आनंद झाला पण भिती वाटते मनाला..

मृत्युसमयी येईल का तो पाणी द्यायला,

का

ई-मेलवरच शोकसंदेश पाठवेल आपल्या आईला.

😰😒😭

 

म्हणून म्हणतो मित्रांनो……आताच जगणं शिका.

👆आणि आयुष्यातील प्रत्येक क्षण भरभरून जगा…💐

💎…ज्या क्षणी तुम्ही मरण पावता,👼

 

 त्या क्षणी तुमची ओळख एक बॉडी ” बनुन जाते

,”बॉडीला” 👽आणा , बॉडीला झोपवा ,😑

 

लोक तुमच्या नावाने सुद्धा हाक मारत नाही.

 

म्हणूनआव्हाने स्वीकारा,😠

 

आवडत्या गोष्टीसाठी ख़र्च करा,💴

 

आवडत्या लोकांना वेळ दया,💑

 

पोट दुखेपर्यन्त हसा, कोणीबालीश

😂

म्हणाले तरी चालेल. 

 

मनसोक्त नाचा,लग्नात, वरातीत.जिथे भेटेल तिथे नाचा.

💃

अगदी लहान बाळासारख़ जगा.

कारण,👶

 

“मृत्यु” हा जीवनतला सर्वात मोठा लॉस नाहिये , लॉस तर तो आहे जेव्हा तुम्ही जिवंत असूनही तुमच्यातला “जिवंतपणा”मेलेला असतो.🙏

 

प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोनाडा… भाग 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ कोनाडा… भाग 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

मे महिन्याच्या सुट्टीत आम्ही महिनाभर ग्रँटरोडला आजोबांकडे रहायला जायचो. जीजी आणि पपा फक्त घरी. पपा तर दिवसभर बाहेरच असायचे. म्हणजे जीजी एकटी घरात. कधीकधी पपाही आमच्याबरोबर असायचे. म्हणजे जीजी अगदी एकटीच. रात्री आमच्या नात्यातला एक काका तिच्या सोबत असायचा.

पण ती आम्ही परत घरी यायची वाट बघायची. ती आमच्यासाठी माळ्यावर आंब्याच्या अढ्या घालून ठेवायची.  त्यावेळी ठाण्याजवळ जंगलात रहाणार्‍या कातकरी आदीवासी बायका आमच्या घरी आंबे घेऊन यायच्या. प्रत्येक आंबेवालीशी हुज्जत घालून’ निवडून ती आंबे विकत घ्यायची. त्यांनाही सांगायची,

“आता माझ्या नाती येतील. त्यांना आंबे लागतील. त्या येईपर्यंत पिकलेल्या आंब्यांची अढी तयार होईल. . . “

तिचं सारं विश्वच आमच्यात सामावलेलं होतं. . .

आम्ही परत आलो की, माळ्यावर ढीगभर पसरलेले आंबे पाहून आनंदून  जायचो. .

तसे आजोबांकडेही आम्ही आंबे खात असू. पण आजोबांकडे सगळं शिस्तीत , नियमात, वेळेत. . . जीजीच्या सहवासात आंबे खाण्याचा आनंद मुक्त असायचा. . भरपूर , केव्हांही. . कधीही. . .

आणि आमच्या डोळयात माखलेला आनंद पाहणे हा तिचा आनंद होता. . .

आता वाटतं, आम्ही तिला एकटीला टाकून जायचो. . . कशी राहत असेल ती एकटी. .

आमच्याशिवाय किती सुनी सुनी झाली असेल ती. . . .

कधी सांगायची, “अग!त्या दिवशी वेणु आली होती. . . या एवढ्या मोठ्या करपाल्या कोलंब्या घेऊन. . पाठीसच पडली. “घेच गं म्हातारे!तुला द्यायच्या म्हणून कुणालाच दिल्या नाहीत. . . “

“पण कुणासाठी घेऊ बाई?माझी नात नाही खायला. ती आली की आण पुन्हा नक्की. . आता दे त्या चित्रेबाईला. . . “

पण बिंबाला किती आवडतात या तळलेल्या कोलंब्या. . म्हणून तिचा जीव हळहळायचा. .

रविवार असला की,  पाट्यावर नारळ वाटून ती त्याचं दूध काढायची. आणि नहाण्यापूर्वी ती केसांना छान लावून द्यायची. त्यावेळी मिक्सर नव्हते. केसांना शांपू लावणे अथवा बाजारात मिळणारे केसांचे साबण लावणे तिला अजिबात मान्य नसायचे. . .

सगळ्या नातींचे केस दाट आणि काळेभोर.

आता या सगळ्याची पावती जीजीलाच देते. पण त्यावेळी तिचा रागच यायचा. तिची ही साग्रसंगीत औषधं लावण्याचा आम्हाला कंटाळा यायचा. म्हणून आम्ही तिच्याशी वाद घालायचो. . भांडायचेही. . पण ती ऐकून घ्यायची आणि तिला जे करायचे तेच करायची. .

कधी चिडून दांतओठ खायचीही, .

म्हणायची,  “कार्टीला अक्कल नाही. . चांगलं कळत नाही. . दळभद्री कुठली. , . . “

तिची गंमत वाटायची.  एव्हढं आयुष्य तिनं उन्हात काढलं.  सोळाव्या वर्षी विधवा झाली . पदरात चार महिन्याचं मुल. त्यावेळचा सामाजिक काळही चांगला नव्हता. विधवा बाईला खूप पीडा. तिला तिच्या सासरच्या माणसांनीही खूप त्रास दिला. कधी ती सांगायची. . .

“मला जीवनाचा कंटाळा आला होता. मी जनाला घरीच पाळण्यात ठेवले आणि तळं गांठलं. आता जीवच द्यायचा . . . तळ्या जवळच्या शंकराच्या देवळात घंटा वाजत होत्या. पाण्यात खूप कमळं फुलली होती. का कोण जाणे!मला एकदम वाटलं, पाळण्याच्या दांड्यात माझ्या बाळाचा पाय अडकलाय. माझं बाळ रडतंय् . . त्याच्याजवळ कुणीच नाही. आणि मी झपाट्याने घरी धावत आले बाळ पाळण्यात शांत झोपला होता.

गुटगुटीत. गोरागोमटा. भव्य कपाळ. काळंभोर जावळ.  मी त्याला छातीशी कवटाळलं. आणि ठरवलं . . याला मी वाढवेन मोठा करेन. चणे दाणे खाईन. . खूप कष्ट करेन…”

कष्टच केले तिने आयुष्यभर. . . . तेव्हांही. . नंतरही. . या ना त्या कारणाने. . अथक. कंटाळा न करता.

पप्पा एव्हढाले कोहळे आणायचे ते किसायचे त्याचा रस काढायचा. पातेल्यात साखरेच्या पाकात शिजवून वड्या करायच्या. टोपलीभर कमळाचे देठ आणायचे. ते गोल  पायचे.

तिखट मीठ, जीरपूड लावून वाळवायचे. आणि तळून खायचे. त्याला कमळाची भिशी म्हणत. ही भिशी करणं अपार कटकटीचं होतं. गवारीच्या शेंगा ताकात भिजवून नंतर वाळवायच्या.

बरण्या भरुन लोणची मुरंबे करायचे. दिवाळीच्या दिवसात, सुगंधी उटणे ती घरी बनवायची. . . अनारशाचे ओले तांदुळ जात्यावर दळायची. आम्हाला म्हणायची, “येग! जात्याला हात लाव…माझे हात दुखतात..तुझ्या आईलाही भरपूर कामं असतात…”पण आम्ही तिला कधीतरीच मदत करायचो…खरं म्हणजे हे ती सर्व आमच्यासाठीच करत होती…

आता तिच्या हातचे जाळीदार कुरकुरीत सोनेरी अनारसे आठवले की वाटतं…ती गोडी अवीट होती…आणि आता कायमची दुरावली….

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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