हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 86 ☆ गीत – नदी मर रही है ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत – नदी मर रही है ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 85 ☆ 

☆ गीत – नदी मर रही है ☆

नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,

नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी

नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-

भुलाया है हमने नदी माँ हमारी

नदी ही मनुज का

सदा घर रही है।

नदी मर रही है

*

नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी

नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,

नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-

नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी

नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है

नदी मर रही है

*

नदी है तो जल है, जल है तो कल है

नदी में नहाता जो वो बेअकल है

नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा

नदी में बहाता मनुज मैल-मल है

नदी अब सलिल का नहीं घर रही है

नदी मर रही है

*

नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ

नदी के किनारे सघन वन लगाओ

नदी को नदी से मिला जल बचाओ

नदी का न पानी निरर्थक बहाओ

नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है

नदी मर रही है

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.३.२०१८

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन – होली ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(ई-अभिव्यक्ति में साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी का हार्दिक स्वागत है। प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशन। कई साझा संकलनों में प्रकाशन। राष्ट्रीय / अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 150 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन – होली ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-कुण्डलिया)

होली आई साजना, बिखरे रंग गुलाल ।

मुझको कब ये रंग दे, तरसे मेरे गाल ।।

तरसे मेरे गाल, सजा के प्रेमिल आना ।

बाट जोहती प्रीत, सजन अब जीवन लाना ।।

कहती प्रेमा आज, योगिता जोगन भोली ।

नैन निहारे राह, कहे जो आई होली ।।1!!

 

होली के त्यौहार में, खेले सब जन रंग ।

है पौराणिक यह कथा, है प्रहलाद प्रसंग ।

है प्रहलाद प्रसंग, होलिका बनी सयानी ।

 भस्म करे जो आग, बनी है देख कहानी  ।।

कहती प्रेमा आज, कपट की जलती डोली ।

हुआ मगन मन आज, खेलती खुल के होली ।।2!!

 

होली खेले आज जो, कृष्ण राधिका देख ।

रास रचाये ग्वाल भी, करते हैं उल्लेख ।।

करते हैं उल्लेख, बनी जोड़ी है प्यारी ।

प्रीत सिखाती रीत, कहे जो दुनिया सारी ।।

कहती प्रेमा आज, बनी रसिकों की टोली ।

लिए सीख मनुहार, खेलते प्रेमिल होली ।।3!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

मंडला, मध्यप्रदेश 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #115 ☆ अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 115 ☆

☆ ‌अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह  शरीर प्रकृति प्रदत्त एक उपहार हैं जिसकी संरचना विधाताद्वारा की गई है। इसकी आकृति प्रकृति वंशानुगत गुणों द्वारा निर्मित तथा निर्धारित होती है। सृष्टि में पैदा होने वाला शरीर योनि गत गुणों से आच्छादित होता है। यद्यपि भोजन, शयन, संसर्ग प्रत्येक योनि का प्राणी करता है। बुद्धि और ज्ञान प्रत्येक योनि के जीवों में मिलता है, लेकिन मानव शरीर इस मायने में विशिष्ट है कि ईश्वर ने मानव को ज्ञान बुद्धि के साथ विवेक भी दिया है। इसके चलते विवेक शील प्राणी उचित-अनुचित का विचार कर सकता है जब कि अन्य योनि के जीवों में संभवतः यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।

शारिरिक संरचना का अध्ययन करने से पता चलता है कि स्थूल शरीर संरचना के मुख्य रूप से दो भाग हैं पहला बाह्यसंरचना तथा दूसरा आंतरिक संरचना। बाह्य शरीर को हम देख सकते हैं जब की आंतरिक संरचना बिना शरीर के विच्छेदन किए देख पाना संभव नहीं है। आज़ विज्ञान बहुत प्रगति कर चुका है लेकिन फिर भी वह इस शरीर की जटिलता को समझ नहीं पाया है अभी भी शोध कार्य जारी है। शरीर की आंतरिक संरचना में जब रासायनिक परिवर्तन अथवा अन्य विकृतियों के चलते तमाम प्रकार के रोग पनपते हैं और मानव जीवन को त्रासद बना देते हैं, इन्ही में कुछ बीमारियां है जो मन से पैदा होती है इनमें अवसाद एक मनोरोग है। इसके रोगी को नींद नहीं आती, वह एकांत वास चाहता है, एकाकी पन के चलते घुटता रहता है।

उसे खुद का जीवन नीरस लगने लगता है। वह खुद को उपेक्षित तथा असमर्थ समझने लगता है उसकी भूख और नींद उड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति प्राय: नशे का शिकार हो जाते हैं। कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते हैं और अनाप-शनाप हरकतें करने लगते हैं। अकेले रहना चाहते हैं।

वे अपनी दुख और पीड़ा किसी से कह नहीं सकते हैं उनके भीतर बार बार नकारात्मक विचार आते हैं। और ऐसे रोगी प्राय: आत्महीनता की स्थिति में आत्महत्या कर लेते हैं। मनोरोगी को प्राय: मनोचिकित्सा की आवश्यकता होती है। एक कुशल मनोचिकित्सक ही उनका इलाज कर सकता है। ऐसे रोगी घृणा नहीं सहानुभूति के पात्र होते हैं।  इन्हें ओझा और तांत्रिक से दूर रखना चाहिए इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं एक कुशल मनोवैज्ञानिक उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि  तथा परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन कर उन्हें सामाजिक मुख्य धारा में शामिल कर उन्हें अवसाद से बाहर ला सकता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (81-87)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (81 – 87) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

संध्यावंदन बाद सिया ने किया कुटी-निवास।

शैया थी मृगचर्म की, इंगुदि दीप प्रकाश।।81।।

 

कर नियमित स्नान, विधि, पूज अतिथि सत्कार।

कंद-मूल-फल खा, किया जीवन का उपचार।।82।।

 

लक्ष्मण ने कहा राम से सिया कथा विस्तार।

शायद करे वह राम के मन पै कठिन प्रहार।।83।।

 

हुआ बात सुन राम के मन पै एक आघात।

पौष-चंद्र सम कर चले नयन अश्रु बरसात।।84अ।।

 

क्योंकि लोक-निंदा से था सीता का परित्याग।

मन में निर्मल प्रेम था, धधक रही थी आग।।84ब।।

 

धर्म-धुरंधर राम ने किया समन्वित राज।

शोक संयमित रख किया सात्विक हर एक काज।।85।।

 

राम थे जिनने किया निज प्रिय पत्नी का त्याग।

राज-लक्ष्मी का रहा नित उन पर अति अनुराग।।86।।

 

त्याग सीता को, न सोचा राम ने फिर ब्याह को

स्वर्ण प्रतिमा गई बनाई धर्म के निर्वाह को।

सुन के यह वृत्तांत सीता ने भी दुख सब कुछ सहा

एक पत्नी व्रत की भी होती है एक महिमा महा।।87।।

 

चौदहवां  सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २७ मार्च – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २७ मार्च -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गंगाधर विठोबाजी पानतावणे

गंगाधर विठोबाजी पानतावणे हे मराठीतील लेखक, संशोधक, समीक्षक होते. ते आंबेडकरी विचारवंत होते. ते पहिल्या विश्व मराठी साहित्य समेलनाचे अध्यक्ष होते. त्याचप्रमाणे विदर्भ साहित्य समेलन (आनंदवन  – वरोरा ), मराठवाडा साहित्य समेलन यांचेही अध्यक्ष होते. ते पद्मश्री पदवीचेही मानकरी होते.

पानतावणे हे वैचारिक साहित्याचे निर्माते होते. अस्मितादर्श चळवळीचे जनक होते. अनेक लेखक-कवींच्या पुस्तकांना त्यांनी प्रस्तावना लिहिल्या.

१४ ऑक्टोबर १९५६ रोजी त्यांनी बाबासाहेबांकडून बौद्ध धम्मची दीक्षा घेतली. बाबासाहेबांच्या पत्रकारितेवर ‘पत्रकार बाबासाहेब आंबेडकर’ हा शोध प्रबंध लिहिला. बाबासाहेब आंबेडकर मराठा विद्यापीठात त्यांनी मराठीचे प्राध्यापक म्हणून काम केले.

दलित साहित्याने अंधार नाकारला आहे. कलंकित भूतकाळ नाकारला आहे.मानसिक गुलामगिरीतून दलित मुक्त होऊ पाहत आहेत. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या तत्त्वज्ञानातून ते तेजस्वी होत आहेत,’ अशा शब्दात दलित साहित्याची पाठराखण त्यांनी केली आहे.

दलित साहित्याचे मुखपत्र असलेल्या ‘अस्मितादर्श’ या वाङ्मयीन नियतकालिकाचे ते संस्थापक संपादक होते. ५० वर्षे त्यांनी हे काम केले. या नियतकालिकाच्या माध्यमातून त्यांनी अनेक साहित्यिक मराठी साहित्यविश्वाला दिले. त्यांनी दलित लेखक-वाचक मेळावेही भरवले होते.

साहित्य, समाज आणि संकृती या विषयावरील २० वैचारिक पुस्तके आणि संशोधनपर ग्रंथ त्यांचे प्रकाशित आहेत. याशिवाय १२ पुस्तकांचे संपादन त्यांनी केले आहे. राष्ट्रीय आणि अंतरराष्ट्रीय चर्चासत्रात त्यांनी शोधांनिबंध वाचले आहेत. बाबासाहेब आंबेडकर, महात्मा फुले, शाहू महाराज,  यांच्या विचारधारेतून त्यांचे लेखन झाले आहे. वसंत व्याख्यानमाला व आणि विविध व्याख्यानमाला यातून त्यांनी अनेक व्याख्याने दिली.

गंगाधर पानतावणे यांची काही पुस्तके –

१. आंबेडकरी जाणिवांची आत्मप्रत्ययी कविता, २.  साहित्य निर्मिती चर्चा आणि चिकित्सा,    ३. साहित्य प्रकृती आणि प्रवृत्ती, ४. अर्थ आणि अन्वयार्थ (समीक्षा), ५. चैती, ६. दलित वैचारिक वाङ्मय( समीक्षा),  ८. लेणी व ९. स्मृतिशेष (व्यक्तिचित्रे), १०. वादळाचे वंशज ११. विद्रोहाचे पाणी पेटले

गंगाधर पानतावणे यांना मिळालेले पुरस्कार व सन्मान –

१. मत्स्योदरी शिक्षण पुरस्कार, २. आण्णाभाऊ साठे पुरस्कार, ३. आचार्य अत्रे समीक्षा पुरस्कार, ४. भारतरत्न बाबासाहेब आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार ( लंडन) , ५ बाबासाहेब आंबेडकर जीवन गौरव पुरस्कार ६. अखिल भारतीय दलित अॅरकॅडमीचा बाबासाहेब आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, ७ किर्लोस्कर जन्मशताब्दी, कुसुमताई चव्हाण, दया पावार पंजाबराव देशमुख, फडकुले, इ. अनेक पुरस्कार त्यांना लाभले आहेत. ८. दलित साहित्य अॅाकॅडमीची गौरववृत्ती, फाय फाउंडेशन गौरववृत्ती त्यांना मिळाली आहे, तसेच महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृती मंडळाची शिष्यवृत्तीही त्यांना मिळाली होती. १०. रा. ना. चव्हाण प्रतिष्ठानच्या वतीने महर्षी विठ्ठल रामजी शिंदे पुरस्कारही त्यांना मिळाला होता.

गंगाधर पानतावणे यांचा जन्म २८ जून १९३७चा. त्यांना २६ जानेवारी २०१८ला पद्मश्री जाहीर झाली. पण प्रकृती अस्वास्थ्यामुळे ते पदवीदान समारंभाला प्रत्यक्ष हजार राहू शकले नाहीत.

गंगाधर पानतावणे यांचे कार्य विपुल आणि विस्तृत होते, त्यामुळे त्यांना मिळालेल्या पुरस्कारांची संख्याही लक्षणीय आहे.

☆☆☆☆☆

डॉ.मधुकर केशव ढवळीकर

डॉ.मधुकर केशव ढवळीकर यांचा जन्म १६ मे १९३०चा. हे पुरातत्व विभागात संशोधक होते. भारतीय पुरातत्त्व विभागात त्यांनी कामाला सुरूवात केली. पुरातत्वशास्त्राच्या अध्यापनात संशोधनाला अतिशय महत्व आहे. ढवळीकर यांनी भारतातील अनेक ठिकाणी उत्खनन करण्यात पुढाकार घेतला. भारत सरकारने त्यांना ग्रीसमधील पेला येथे उत्खनन करण्यासाठी मुद्दाम पाठवले होते.

इनामगावाचा उत्खनन प्रकल्प, हे ढवळीकर यांचे नावाजलेले प्रमुख कार्य. पुण्यातील डेक्कन कॉलेजमध्ये संचालक म्हणून १९९० पर्यन्त ते कार्यरत होते.

डॉ.मधुकर ढवळीकर यांची काही पुस्तके-

१. आर्यांच्या शोधत, २. कोणे एके काळी हिंदू संस्कृती, ३. श्री गणेश आशियाचे आराध्य दैवत, ४. नाणकशास्त्र, ५. पर्यावरण आणि संस्कृती, ६. पुरातत्वविद्या.

त्यांनी अनेक इंग्रजी पुस्तकेही लिहिली.

ढवळीकर यांना मिळालेले पुरस्कार व सन्मान –

१.    इंडियन आर्कियालॉजी सोसायटीच्या वाराणसीयेथील अधिवेशनाचे ते अध्यक्ष होते.

२.    इंडियन हिस्ट्री कॉंग्रेसचे अध्यक्षपद त्यांना मिळाले होते.

३.    टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठाकडून डी. लिट. ही मानद पदवी त्यांना मिळाली होती.

४.    पंतप्रधानांचे सुवर्णपदक त्यांना मिळाले होते.

५.    त्यांना पद्मश्री ही पदवीही मिळाली होती.

गंगाधर पानतावणे आणि डॉ.मधुकर ढवळीकर या दोघाही आपापल्या क्षेत्रातील मान्यवरांना त्यांच्या स्मृतिदिनी मन:पूर्वक मानवंदना.  ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चकवा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चकवा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

लिहिता लिहिता लेखणी थांबते

भूतकाळाच्या आठवणीवर मोहोर उमटते

 

मनाच्या कप्प्यात दडलेल्या आठवणी

बाहेर येतात बघता बघता हरखून जाते

 

हिरव्यागच्च झाडीतून दिसतो एक पांढरा ठिपका

तो असतो एक चकवा

 

त्यात मला हरवायचं नसतं

नकळतपणे एकाकी चालायचं असतं

 

वादळवा-याशी अखंड तोंड

देत जायचं असतं

 

आठवणींच्या कड्यावरून स्वतःला

झोकून द्यायचं असतं

 

निसर्गाने शिकविले की

वनवास कपाळी आला तरी

 

मानानं जगायचं असतं

त्यागाची महती गायची असते

 

तो एक चकवा असतो

त्यातूनही सहीसलामत सुटायचं असतं.. !!

 

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ग्रहांकीत प्रेम… ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ग्रहांकीत प्रेम… ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

पाडगावकरांची माफी मागून सादर करतोय

 ‘ग्रहांकीत प्रेम ‘ 📝❣️

 

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं

 

काय म्हणता?

या ओळी चिल्लर वाटतात?

काव्याच्या दृष्टीने अगदी थिल्लर वाटतात?

 

असल्या तर असू दे

फसल्या तर फसु दे

तरीसुद्धा 

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं 💕

 

पंचमातील शुक्राकडून 

प्रेम करता येतं

सप्तमातील ‘राहू’ कडून

आंतरजातीय होता येतं

घरचा विरोध पत्करून

गुरुजींना धरता येतं

‘गुण-मिलन’ न करता ही 3️⃣6️⃣

पळून जाता येतं 

 

म्हणूनच म्हणतो, –

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं 💞

 

जसं डोक्यात राग घातलेल्या ‘मेषेच’ असतं

तसंच डंख मारणाऱ्या ‘ वृश्चिकेचं ‘ असतं

या राशी आपल्या मानणा-या मंगळालाही 

प्रेमाचं मर्म चांगलच माहित असतं 

 

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं 💕

 

नटण्या मुरणा-या ‘ वृषभेला ‘

समतोल ‘तुळेची ‘ साथ असते

राशी स्वामी ‘शुक्राचे’ मात्र

‘शनिशी ‘ अधेमधे नाते तुटते

‘प्रजापती’ ची उलटी भूमिका

पालकांना अधून मधून डसत असते 

( जरा बघता का हो पत्रिका म्हणत

ज्योतिषाकडे त्यांची विनंती असते) 

त्यांनाही परत तेच सांगतो…

 

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं ❤‍🔥

 

असाच एक जण चक्क मला म्हणाला,

आम्ही कधी पत्रिकेच्या 

मागे लागलो नाही

दोन मुलं झाली तरी

त्यांचीही पत्रिका काढली नाही

 

आमचं काही नडलं का?

पत्रिकेशिवाय अडलं का?

 

त्याला वाटलं मला पटलं!

तेंव्हा मी इतकचं म्हणलं 

 

कर्म कर्म कर्म म्हणजे कर्म असतं

ते ही सगळ्यांच्या पत्रिकेत सेम नसतं 💘

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ एका जमलेल्या कटिंगची कहाणी ☆ श्री विनय माधव गोखले

श्री विनय माधव गोखले

? विविधा ?

☆ एका जमलेल्या कटिंगची कहाणी ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

दुकानात माझे आगमन झाल्यावर प्रसन्नपणे “या, बसा!” असे म्हणून त्याने एका बैठकीकडे निर्देश केला.

त्या आलिशान लोखंडी खुर्चीत माझी स्थापना केल्यावर एक पांढरेशुभ्र वस्त्र माझ्याभोवती आच्छादून गळ्याभोवती नाडीची एक हलकीशी गाठ मारून टाकली. थंडीच्या सुरूवातीला सारसबागेच्या तळ्यातील गणपतीला जसे स्वेटर परिधान करतात अगदी तसे…

नंतर ‘शुध्दोदक स्नान’ म्हणून डोक्यावर प्लास्टिकच्या पिचकारीतून फवारले.

ह्या सोपस्कारानंतर रेडिओ सुरू केला. त्यावर लता दीदींची, आशाताई, किशोरदा, मुकेशजी, रफीसाहेबांची गाणी लागत होती. मला ती सर्व गणपतीची, दुर्गेची, शंकराची, हनुमानाची, पांडुरंगाची आरती म्हटल्याप्रमाणे भासू लागली. त्याजोडीनेच त्याच्या कर्मपूजेला प्रारंभ झाला…

डोक्याशी “कटकट” “कटकट” करीत होता तो… पण ती सुखद वाटत होती. जणू काही कंगवा आणि कात्री ह्यांचे माझ्या डोक्याच्या मैदानावर द्वितालात केश-स्केटिंग चालले होते.

कधी ‘शिरगडा’च्या बालेकिल्यावरील गवताची टोके उडवली जात होते तर कधी तिन्ही उतारांवरील गवत कापले जात होते. कपाळावर केस पुढे ओढून कात्रीने समलांबीचा एक ‘साधना-कट’ मारून दिला. सरतेशेवटी कानामागील घळीमध्ये पाण्याचे बोट फिरवून वस्तर्‍याने अर्धकमानाकृती कोरण्याचे काम करणे चालू केले. तिथे वस्तर्‍याचा होणारा “खर्र खर्र” आवाज काळीज चिरल्याइतका स्पष्टपणे ऐकू येत होता. मानेवरील गवत वस्तर्‍याने हटवून गडाच्या पायथ्याशी वाहनतळासाठी जागा मोकळी केली. थोड्या वेळाने सर्व आवाज थांबले आणि मी भानावर आलो.

नंतर एखाद्या ‘घटम्’ वर ताल धरावा तसे त्याने डोक्याला बोटाने हलका मसाज करून दिला. फारच बरे वाटले.

तत्पश्चात त्याने मऊ ब्रशने गवताच्या सीमेवर पावडरची पखरण केली व एक खरखरीत ब्रश फिरवून तण काढून टाकावे तसे जमिनीला चिकटलेले सुट्टे गवत बाजूस काढले. नंतर जमीन नांगरटावी तसा माझा चौफेर भांग पाडून दिला.

पांढर्‍या वस्त्रावरील काळ्या गवतामध्ये बराच पांढरा-राखाडी रंग जमल्याचे पाहून मनात क्षणभर चिंतेचे काळे ढग दाटून आले. पण क्षणभरंच…

पांढर्‍या वस्त्राच्या नाडीची गाठ सोडून त्यावर जमलेले सर्व ‘निर्माल्य’ त्याने जमिनीवर हलकेच झटकून टाकले आणि नंतर केरसुणीने गोळा करून बादलीत माझ्या नजरेआड केले.

एकंदरीतच त्याने गवत मध्यम कापल्याचे आरशात पाहिल्यावर मला बरे वाटले. गेल्या वेळेस त्याने माझी मुंज करण्याचाच घाट घातला होता…असो.

“पुनरागमनाय च।” असा मनातल्या मनात विचार करून पुन्हा एकदा स्वत:ला आरशात निरखून मी माझे आसन हलवले. त्याच्या सलूनमध्ये कुठे “ग्राहको देवो भव।” किंवा “ग्राहक हाच देव।” असा संदेश चिकटवला आहे का ते मी शोधले पण नव्हता. त्याला दहा रुपये जास्त द्यावे असाही सुविचार मनात डोकावला.

तेवढ्यात त्याने मला नको तो प्रश्न विचारलाच… “अंकल, बाल कलर करवाने है क्या? अच्छे दिखेंगे…”😡😡

त्याने सांगितले तेवढेच पैसे चुकते करून घरी आलो. दोन बादल्या पाणी डोक्यावर ओतल्यावर ‘शिरगडा’स थंडावा पोहोचला.

उन्हाळ्यात थंड पाण्यासारखे आरोग्यदायी दुसरे काहीच नाही, तुम्ही सुध्दा अनुभव घ्या!😄

 

© विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोसी- सतलज एक्सप्रेस -भाग-2 – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी ☆ अनुवाद – सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ कोसी- सतलज एक्सप्रेस -भाग-2 (भावानुवाद) – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

(कथासूत्र : बिरोजा आणि त्याचे दोन मुलगे फलाटावर आहेत. बायको आणि मुलगी जनकदुलारी धाकट्या छोटूला घेऊन कालव्याच्या बांधाजवळ त्याची वाट पाहत आहेत……..)

कालवा, सुपौलच्या बलुआबाजार पासून ते थेट खगडियाच्या बेलदौरपर्यंत म्हणजे जवळजवळ शंभर किलोमीटर लांबीचा आहे.त्याच्या बांधाजवळ वेगवेगळ्या ठिकाणाहून आलेल्या लोकांनी आपली पालं बांधली आहेत.

खूप वर्षांपूर्वी कोसी नदी सुरसर नदीच्या बाजूने वाहत होती. हळूहळू कोसीने तो मार्ग सोडला आणि ती पश्चिमेला वळली.

18 ऑगस्टला रात्री कुसहाचा बंधारा तुटला, तेव्हा बलुआबाजार ते  सहरसामधली शेकडो गावं पाण्याखाली गेली. लोक घरं -गावं सोडून पळून गेले. आणि त्यांच्याजवळ होतं, नव्हतं ते सामान आणि मुलाबाळांना घेऊन भरल्या डोळ्यांनी इकडे आले. त्यांनी तात्पुरता का होईना, इथे आसरा घेतला.

दुर्दैवाने बांधाच्या ठिकाणाचा जिल्हा प्रशासनाच्या पूरग्रस्त मदत रजिस्टरमध्ये समावेश झालेला नाही. त्यामुळे सरकारी अधिकारी खाद्यपदार्थ वाटायला येतात, ते रेल्वेच्या फलाटापर्यंतच येतात. त्यांना नेमून दिलेलं कर्तव्य बजावून, कोणाला मिळालं नसेल, याची पर्वा न करताच परत जातात.

शेतकरी संस्था, वेगवेगळ्या आश्रमातील संन्यासी किंवा काही एनजीओंचे लोक असे काही, मूठभर गट, दारुण भुकेचा सामना करणाऱ्या या दुर्दैवी स्त्रीपुरुषांच्या मदतीला आले आहेत.

बरेचदा फलाटावरच्या लोकांना सत्तू नाहीतर पोहे वाटले जातात , तेव्हा इकडच्या लोकांना उपाशीच राहावं लागतं. आणि जेव्हा काही उदार लोकांचा गट इकडे अन्नपदार्थ वाटायला येतो, तेव्हा फलाटावरचे लोक सिग्नलकडे बघत राहतात -‘हा लाल दिवा हिरवा कधी होईल? फलाटावरच्या लोकांना अन्न मिळण्याचा मार्ग कधी मोकळा होईल?’

या दोन आश्रयस्थानांमध्ये एक प्रकारची चमत्कारिक, आळीपाळीची म्हणावी तशी परिस्थिती आढळून येते. एकीकडच्या लोकांना खायला काही मिळालं, तर दुसरीकडचे लोक उपाशी राहतात.

त्यामुळे बिरोजा नशीबवानच आहे, असं म्हणावं लागेल. त्याचं अर्धं कुटुंब फलाटावर राहतं आणि उरलेलं अर्धं बांधावर. त्यामुळे इकडे किंवा तिकडे कुठेही अन्नवाटप झालं, तरी त्याच्या कुटुंबातल्या सगळ्यांनाच थोडातरी वाटा मिळतो आणि त्यांची थोडीतरी भूक भागते.

बिरोजाच्या डोळ्यासमोर अजूनही त्या भयानक रात्रीचं दृश्य येतं. सगळंच एवढं अचानक झालं, की त्या संकटाच्या क्षणी विचार करायला, निर्णय घ्यायला वेळच नव्हता.

‘चला, चला. घरातून बाहेर पडा. पुराचं पाणी दाराशी आलंय.’ त्याच्या आजूबाजूला, शेजारीपाजारी एकच ओरडा चालला होता.

धो धो!त्या रात्री नदीचं पाणी त्यांच्या गावात  शिरलं, तेव्हा सुरुवातीला सगळ्यांनाच धक्का बसला. काय करावं, ते कोणालाच सुचेना. शेजाऱ्यापाजाऱ्यांचं बघून त्यानेही आपल्या कुटुंबाला बांधाकडे न्यायचं ठरवलं.’जानकीची माय, लवकर आटप. वेळ घालवू नकोस. बांधाकडे जाऊया.’

त्या रात्रीनंतर आकाशच त्यांच्या डोक्यावरचं छप्पर बनलं. दुसऱ्या दिवशी सकाळी फलाटावर पाकिटं वाटत आहेत, हे कळलं, तेव्हा तो मुरली, माधो आणि जनकदुलारीला घेऊन तिकडे धावत सुटला,’चला पोरांनो. ते लोक निघून जायच्या आत तिकडे पोचूया.’ तशी धावपळ झाली; पण त्यामुळेच त्यांच्या नावांची नोंद फलाटावरच्या रजिस्टरमध्ये झाली.

क्रमश: ….

 मूळ इंग्रजी कथा – ‘कोसी- सतलज एक्सप्रेस’ मूळ लेखक – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी 

अनुवाद : सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पारावरचा चहा… ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

 ? मनमंजुषेतून ?

☆ पारावरचा चहा… ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले  ☆ 

त्या सगळ्या मैत्रिणी आता निवृत्त झालेल्या। सगळ्या जबाबदार्यातून म्हटले,तर मुक्त झालेल्या। अशीच, ग्रुप मधील उत्साही मनू एकदा म्हणाली, “अग ऐकाना। मला एक मस्त आयडिया सुचलीय। आपण एरवी भेटतो तेव्हा घाईघाई ने भेटतो, निवांत गप्पा होतच नाहीत मी परवा माझ्या नवऱ्या बरोबर अशीच गेले होते तेव्हा एका ठिकाणी मस्त चहा प्यायला. गम्मत म्हणजे, त्या चहा वाल्याने समोर असलेल्या, मोठ्या झाडालाच पार बांधलाय. गुळगुळीत. आणि त्यावर बसवून तो चहा देतो. इतकी मजा वाटली ग. तर आपण निदान  महिन्याने तरी जमूया का.”  सीमा म्हणाली “हो, मला चालेल.”

सगळ्या तयार झाल्या. मनु अगदी आनंदून गेली नवरा म्हणाला, “मनु, आपण जातो ते ठीक, तुझ्या म्हाताऱ्या कसल्या यायला.”

मनु खट्टू झाली. “बघूया आता, ठरवले तर आहे.”

ठरवलेल्या तारखेला, 10 च्या दहा सख्या हजर होत्या. त्यांना त्या पाराची खूप गम्मत वाटली. हॉटेल सारखे बंधन नव्हते तिथे की मागे माणसे खोळंबून उभी आहेत. खूप गप्पा मारल्या आणि निवांत घरी गेल्या. मनु म्हणाली, “बघ बघ प्राची, चेष्टा केलीस ना, पण बघ. सगळ्या ग माझ्या सख्या आल्या न चुकता.” पुस्तकातले डोके वरही न काढता प्राची म्हणाली, “मासाहेबा, जरा रुको तो. आगे आगे देखो, होता है क्या.”

मनूने तिच्या पाठीत धपका घातला म्हणाली, “बाई, नको ग बोलू असे.जमलोय तर जमू दे की.”

प्राची,म्हणाली, “उगीच चिडू नको ग. मागच्या अनुभवावरून म्हणतेय मी.”

नवरा म्हणाला “प्राची आपल्या आई इतका उत्साह नसतो कोणाला. ही जाते जीवाची धडपड करत आणि त्या म्हाताऱ्या सतरा कारणे सांगतील बघ. गप बसा तुम्ही बाप लेक. काही सांगितले, की केलीच चेष्टा. मी सांगायलाच नको होते.”

मनु आत निघून गेली. पुढच्या वेळीही पारावर दहाचा आकडा जमला. मनूला धन्य धन्य झाले. गप्पा झाल्या आणि  निघताना,मनीषा म्हणाली, “ए, सॉरी ग.मला पुढच्या वेळी जमणार नाही यायला का ग मनीषा? आता काय झाले.”

“अग काय होणार। सूनबाई ची deadline आहे बाई.”

मला म्हणाल्या, “बंटी कडे बघाल ना जरा? कसली येणार मी आता मग.”

“काय आई साहेब. गप्पशा. आज कोरम फुल नव्हता वाटते.” प्राचीने विचारलेच.

मनू चिडचिड करत म्हणाली, “ होता,, होता ग बाई. पण पुढच्या वेळी,मनीषा मावशीला जमणार नाही म्हणे.

“अग, देवयानी म्हणाली, सुद्धा. फारच करते हो, ही मनीषा. काय मेलं महिन्यातून एकदा भेटतो, तेही जमू नये का. असो. चला, मी आज भेळ देते सगळ्यांना.”

“किस खुशीमे ग देवी?”

“काही नाही ग. आता जून आलाच. अमेरिकेची हाक आली लेकीची नोकरी, आणि तिच्या पोरांना समर हॉलिडेज. मग काय. आहोतच की आम्ही. विहिणबाईंची आईआजारी आहे मग त्यांना जमत नाहीये. आमचे हे. लगेच उडी मारून तयार.”

“जाऊ ग देवी आपण. तुला का नको असते ग यायला?”

देवी म्हणाली “याना काय होतंय बोलायला। तिकडे गेलो की, नुसते सोफ्यावरबसायचे 24 तास तो, tv आणि मला हुकूम. कामाने कम्बरडे मोडून ग जाते माझे एवंच काय तर, मीही जून पासून रजा बर.”

मनू गप्पच बसली. प्राची आणि नवरा घरीच होते. प्राची म्हणाली, “आज ही मेंबर गळाला वाटते.” आई जवळ येऊन बसली, आणि म्हणाली आई, “कम ऑन. चीअर अप.”

“असे होणारच मॉम. तू का चेहरा पाडून बसतेस. तुझ्या परीने तू खूप केलेस ना ग प्रयत्न सगळ्या जुन्या मैत्रिणी एकत्र याव्या, सुखदुःखाच्या गोष्टी share कराव्या. पण मॉम, लोकांच्या priorities वेगळ्या असतात तुझ्या इतके sincere आणि हृदय गुंतवणारे लोक फार कमी असतात मॉम. म्हणून तुला त्याचा त्रास होतो ग. दे सोडून. इतके दिवस भेटलात, हसलात, मजा केलीत, हेच बोनस म्हण .”

“हे बोलतेय ती प्राचीच का?” मनूने डोळे उघडून नीट बघितले। इतकी कधी समजूतदार आणि mature झाली आपली मुलगी? बॉयकट उडवत,विटक्या  जीन्स  घालणारी, भन्नाट कार चालवणारी, पण लग्नाचे नाव काढले तर खवळून उठणारी, मोठ्या पगाराची नोकरी करणारी आपली मुलगी, इतकी प्रगल्भ आहे? मनूच्या डोळ्यातच पाणी आलं. प्राची म्हणाली, “आई,चल मस्त मूड मध्ये ये तुला एक surprise आहे .छान साडी नेसून तयार हो ग.”

“आणखी काय धक्के देतेय प्राची”, म्हणतमनु साडी नेसून तयार झाली. बेल वाजल्यावर प्राचीने दार उघडले. एक स्मार्ट रुबाबदार तरुण उभा होता.

“आई बाबा, हा निनाद ग माझ्या ऑफिस मध्ये बॉस आहे माझा. तुला आठवतं का ग. मागे म्हणाली होतीस, की आज चहा च्या पारावर एक बाई माझी चौकशी करत होत्या?त्या याचीच आई बर का. मी तुला सोडायला नव्हते का आले, कार ने तेव्हा त्यांनी मला बघितले. या खुळ्या ला तोपर्यंत मला विचारावेसे वाटले नाही. पण याच्या आईनेच माझी माहिती तुझ्या कडून काढली। आधी नुसताच बॉस होता. मागे  निनाद च्या आई उभ्या होत्या. मनु ला अगदी गोंधळल्या सारखे झाले.

“अहो, आत याना. प्राचीच्या आई, प्राचीने आम्हाला तुमच्या चहाच्या पारा बद्दलसगळे  सांगितले आहे बर का. कट्ट्या वरचे तुमचे सभासद कमी होईनात का पण पारावरच्या चहाने तुम्हाला जावई तर झकास मिळवून दिला की नाही।“

मनू ला या सगळ्या योगाचे  अतिशय आश्चर्य वाटले। निनाद च्या आई म्हणाल्या “अहो त्या दिवशी मी आणि हे असेच त्या पारावर चहा प्यायला आलो होतो. तर ही मुलगी तुम्हाला सोडताना दिसली म्हणून पुढच्या वेळी मी मुद्दाम तुमच्या कडून माहिती काढली. आणि केवळ योगायोगानेच निनादच्याच ऑफिस मध्ये ही काम करते, हे समजले. मग काय, निनाद ला विचारले. आणि तो हसत हिला विचारायला तयार झाला. घाबरत होता कसे विचारायचे. ही बिनधास्त आहे फार म्हणून. तर, असा तुमचा चहाचा पार, आपल्या दोघांना पावला म्हणायचा. निनाद प्राची, या रविवारी, आपण सगळ्यांनीच जायचे हं पारावर।” सगळ्यांच्या हसण्याने घर नुसते दणाणून गेले मनूचे।

©️ डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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