(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – सोने की चिड़िया…।
रचना संसार # 46 – गीत – सोने की चिड़िया… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – आतंक।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपके – आतंक पर दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन की बातें, मन ही जाने…“।)
अभी अभी # 665 ⇒ मन की बातें, मन ही जाने श्री प्रदीप शर्मा
मन रे, तू काहे न धीर धरे ! गोपियों ने तो आसानी से कह दिया, उधो ! मन नहीं दस बीस। मन की शरीर में एक्ज़ेक्ट लोकेशन किसी को पता नहीं है। कभी लोग दिल को मन मान बैठते हैं, तो कभी दिमाग को।
मन संकल्प विकल्प करता है, और दिमाग सोचता है। अगर कभी, मन नहीं करे, तो दिमाग कुछ सोचता भी नहीं। आप कह सकते हैं कि दिल और दिमाग़ पर मन की दादागिरी है।।
अध्यात्म में मन पर लगाम कसने की बात की जाती है। मन बड़ा उच्छ्रंखल है ! साहिर ने मन पर पीएचडी की है ! तोरा मन दर्पण कहलाये। भले बुरे, सारे कर्मों को, देखे और दिखाए। यानी मन, मन ना हुआ, किसी पुराने फिल्मी थिएटर का प्रोजेक्टर हुआ। वह फ़िल्म देखता भी है, और उसे दर्शकों को दिखाता भी है। एक व्यक्ति मन मारकर प्रोजेक्टर चलाता है, हम मन लगाकर फ़िल्म देखते हैं। सही भी तो है ! कहीं हमारा मन लग जाता है, और कहीं हमें मन को मारना पड़ता है।
हमारे शरीर में जितना स्थूल है, वह सूक्ष्म यंत्रों से देखा जा सकता है। दिल, दिमाग़, लिवर और किडनी ! किडनी दो, बाकी तीनों एक एक। दो दो हाथ, दोनों कान, दो ही आँख, और एक बेचारी नाक ! हमारी समझ से बाहर की बात है। दाँतों तले उँगली दबाइए, और उस बनाने वाले का एहसान मानिए।।
जो हमारे अंदर है, लेकिन नहीं नज़र आते, वे मन, चित्त, बुद्धि, और अहंकार हैं। जब हम मन की बात करते हैं, तो कभी उसके विकारों की बात नहीं करते। दुनिया में इतनी बुराई है, कि हमें अपनी बुराई कहीं नजर ही नहीं आती। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मन के विकार माना गया है। भले ही आप इन्हें विकार मानें, लेकिन इनके बिना भी कहीं संसार चला है।
बुद्धि का काम सोच विचार करना है। चित्त और मन को आप अलग नहीं कर सकते ! हमारे लिए तो दिल, चित्त और मन सब एक ही बात है। कौन ज़्यादा मगजमारी करे। हमारी आम भाषा में अगर कहें तो भई दिल को साफ रखो। किसी के प्रति मन में मैल न आने दो और चित्त शुद्धि के प्रति सजग रहो।।
एक गांठ होती है, जिसे प्रेम की गांठ कहते हैं। यह जितनी मजबूत हो, उतनी अच्छी ! दुश्मनी की गांठ अगर ढीली होती जाए, खुलती चली जाए, तो बेहतर। दुश्मनी दोस्ती में बदल जाए, तो और भी बेहतर।
मन में भी गांठ पड़ जाती है ! यह बहुत बुरी होती है। चिकित्सा पद्धति में शरीर की किसी भी गांठ का इलाज है, मन की गांठ का नहीं। प्रेम, भक्ति और समर्पण ही वह संजीवनी औषधि है, जो मन की गांठ को खोल सकते हैं। जब मन मुक्त होता है, मस्त होता है, तब ही ये बोल सार्थक होते हैं;
मन मोरा बावरा !
निस दिन गाए, गीत मिलन के ..
चिंता को चिता कहा गया है !
कम सोचो। चिंतन अधिक करो। किसी माँ को कभी मत सिखाना कि चिंता मत करो। माँ का नाम ही care and concern है। हम भी अगर खुद का खयाल रखें, और थोड़ी बहुत दूसरों की भी चिंता करें, तो कोई बुरा नहीं। मन लगा रहेगा, दिल को तसल्ली मिलेगी और हाँ, थोड़ा बहुत चित्त भी शुद्ध होगा।।
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
☆ आलेख ☆ ||छलावा|| ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆
बेवकूफ़ बनाना नहीं पड़ता बल्कि स्वयं बन चुकी होती हैं “घर की प्रौढ़ स्त्री“।
जीवन के बीचों-बीच फंसी इन स्त्रियॉं का ना ही मायका होता है और ना ही ससुराल
डाक्टर के पास से आते ही यह पर्ची निकाल टेबल्स पे रख दर्द निवारण दवाई नहीं बल्कि बेलन थाम लेती हैं।
कोई फर्क नहीं पड़ता की डाक्टर ने क्या कहा?
उनकी हड्डी क्यो घिस रही है? हड्डी ही घिसी है कोई टूट फूट थोडे़ ही हुई है।
बच्चे अब बडे़ हो चुके हैं उन्हे मां की आवश्यकता नहीं बल्कि उनके पास जीवन की तमाम सुविधा हैं।
पति के पास वक़्त की होती है बहुत कमी क्योंकि घर की महिलाओं के पास ही तो है वक़्त ही वक्त।
एक छलावे से खुद को छल के ना जाने क्यों वह प्रौढ़ स्त्री अपने ही घर में घुटन महसुस करती है।
नहीं पड़ता किसी को फर्क वह मरती है या जीती है हर रोज़।
उसके कंधे पे लादी गयी है जिम्मेवारी अनेकानेक।
सांस लेने की हिम्मत कम पड़ जाये इस लिए वह खुले में सांस लेना छोड़ चुकी होती है।
उन तमाम उलझकर में फंसी कभी कहा नहीं कि – मुझे भी जीना है जीवन कुछ रोज़।
बच्चों के कमरे हो चुके है अलग और पतिदेव माँ की सेवा के बाद सो जाते हैं थककर।
कमरे के अंधकार में रातभर कहाँ सोती हैं वह दो प्रौढ़ आंखे।
अपनी गृहस्थी बांधकर रखने के लिए रखना होगा सासु माँ को भी खुश।
निर्णय लेने की क्षमता नहीं है उनके पास, क्योंकि वह प्रौढ़ है और प्रौढ़ की गृहस्थी होती ही कहाँ है?
उन प्रौढ़ स्त्रीयों के लिए कुछ ख़ास नहीं होता है करने के लिए, बस कोल्हू के बैल बनकर अपने घर में घुमना पड़ता है, दिन और रात।
मृत जज्बातों के साथ जीवित रहती है, वह घर की प्रौढ़ स्त्री।
चेहरे पे लकीरें समेटे हुए चिड़चिड़ी महिला का खिताब पा चुकी होती है।
उनके पास कहने सुनने के लिए कुछ खास नही बचा होता बल्कि वह रसोई घर में बावर्ची बनके अपनीं बची खुची हड्डी को भी गलाती नजर आ रही होती है!!
पण ती लिहीत नाही हे सत्य आहे. चौकटी, मर्यादा, समाजाचे दडपण कोणत्याही प्रकारे तिच्या लेखनासाठी बंधनकारक आहेत असे मला वाटतच नाही.
स्त्रियांचे लेखन संकुचित असायला कारण स्त्री स्वतःच आहे. कारण बऱ्याच वेळा ती स्वतःच उंबरठे ओलांडायला, चौकटी मोडायला, व्यक्त व्हायला,
स्वतःच्या जीवनावर मोकळेपणाने भाष्य करायला तयारच नसते. परिणामी संसार, मुलंबाळं, कौटुंबिक नाती, सासु सुना, नातवंड, नवरा, जावई, सासरे, माहेर, अंगण याच्या पलीकडे स्त्री लेखन वाचायला मिळतच नाही. तिचं लेखन तिच्यापुरतं, तिच्या विश्वापुरतच मर्यादित असलेलं अनुभवायला येतं. फारफार तर नोकरी करणारी एखादी स्त्री लेखिका असेल तर थोडा वेगळा विषय ती हाताळताना जाणवतं परंतु तो विषय हाताळतानाही तिची मुळातली संसारिक सूत्रं वेगळी झालेली जाणवत नाहीत.
तिने लिहिलेल्या कथा, कादंबऱ्या, कविता, ललित यातही चौकटीतलंच स्त्री जीवनाचं प्रतिबिंब पडलेलं दिसतं. काही प्रमाणात विनोदी लेखन करणाऱ्या स्त्रिया आहेत पण त्यातही वाढलेलं वजन, माझे डाएट, शेजारीण, नाचगाण्यासारखे छंद, फसलेली पाककला, अवास्तव खरेदी, दुकानातले सेल, नवऱ्याचं बिच्चारेपण, अचानक येणारे पाहुणे या घरगुती विषयांव्यतिरिक्त फारसं काही वाचायला मिळत नाही. अभिरुची संपन्न, समाजाभिमुख असे पुल, सुभाष भेंडे, द. मा. शंकर पाटील, चिं वि. जोशी, दिवाकर वगैरे पुरुष लेखकांसारखं विनोदी लेखन सामर्थ्य स्त्री लेखिकांमध्ये अभावानेच आढळते. साहित्य क्षेत्रात स्त्री लेखिका आणि पुरुष लेखक असे दोन वेगळे विभाग नकळतच होतात. त्याला एक प्रमुख कारण म्हणजे स्त्री आणि पुरुषांच्या वैचारिकतेतील भिन्नता, निरीक्षण शक्ती आणि अभ्यासही. एका ठराविक परिघातच जगत असताना तिचे जीवनातले अनुभवही मर्यादित, चौकटीतलेच असतात. त्या पलिकडच्या जीवनाचा ती विचारही करू शकत नाही. परिघापलीकडे खूप मोठे मानवी जीवन आहे आणि ते टिपण्याचा किंवा त्याही जीवन प्रवाहाचा दूरस्थपणे भाग होऊन निरीक्षणात्मक वैचारिकतेचा प्रभाव तिच्या लेखनावर पडलेला दिसत नाही. ही वास्तविकता असताना समाजाने तिच्या लेखनावर मर्यादा टाकल्या आहेत किंवा ती बोल्ड लिहूच शकत नाही या म्हणण्याला काहीच अर्थ नाही. ठीक आहे! एक स्त्री. . “स्त्री विषयकच” लिहिणार परंतु त्यातही बहुतांशी स्त्री लेखिकांचे विचार, अनुभव, निरीक्षण, कल्पनांची व्याप्ती तोकडीच वाटते. तोच तोच पणा जाणवतो. याचं समर्थन “ती बंधनात असते म्हणून. . ” हे होऊच शकत नाही. माझ्या मते स्त्री जेव्हा एखादी कथा, कादंबरी किंवा लेख लिहिते तेव्हा त्यातूनही ती स्वतःला पाहत असते. स्वतःच्या प्रतिमेला जपत असते. “एक स्त्री असूनही तिने असं का लिहिलं?” या समाजाच्या टिकेचं भय तिनेच तिच्यावर पांघरलेलं असतं. आपल्या लेखनातून आपल्यावर “संस्कृती, नीती मूल्याचे पतन झाले” असे ओरखडे ओढले जाऊ नयेत हा प्रचंड मानसिक अडथळा तिच्या मनात तिनेच निर्माण केलेला असतो म्हणून ती मुक्त होऊ शकत नाही आणि मुक्तपणे लिहू शकत नाही.
अर्थात असेही अनुभव स्त्री लेखिकांना आलेले आहेत. कविता महाजन, मेघना पेठे, गौरी देशपांडे यांनी स्त्रियांचेच प्रश्न अतिशय धैर्याने आणि मुक्तपणे हाताळलेत. काही ना त्यांचे लेखन फार आवडलं तर काहींनी नाके मुरडली मात्र वेगवेगळ्या अभिरुचीचे, जडणघडणीचे वाचक हे असणारच पण लेखकाने (स्त्री अथवा पुरुष कुणीही) समाजाचा आरसा बनून वास्तवतेचे दर्शन(सुंदर ते ओंगळ) मुक्तपणे घडवून देऊ नये असा अर्थ होऊ शकत नाही. सखाराम बाईंडर, पुरुष, गिधाडे, बॅरिस्टर या गाजलेल्या नाटकांसारखी, ज्वलंत तडफडणारे विषय असलेली निर्मिती एखादी स्त्री लेखिका करू शकेल का? वास्तविक या टोकाच्या बोल्ड लेखनातही स्त्रियांच्या समस्या आहेत पण त्या पुरुष मनाच्या दृष्टिकोनातून मांडलेल्या आहेत म्हणजेच इथे महत्त्वाचा भाग येतो तो दृष्टिकोनाचा. स्त्री लेखिका स्वतःचे दृष्टिकोन विस्तारित का करू शकत नाही? तसलीमा नसरीन, इस्मत चुगताई, मन्नु भंडारी, कमला दास अरुंधती रॉय सारख्या हाताच्या बोटावर मोजण्याइतक्याच लेखिका. समाजाचा प्रचंड विरोध आणि मानहानीला सामोरे जाऊनही त्यांनी लिहिलं. ते चांगलं वाईट याची मीमांसा न करता मुक्तपणे त्यांनी लिहिलं आणि समाजाची एक बाजू उघडी करण्याचं धाडस दाखवलं यात गैर काय??
स्त्री लेखनात विषयाची व्यापकताही कमी दिसते. अश्लीलता टाळूनही शृंगारिक लेखन करता येतं. प्रेमकथा आणि प्रणय कथा यात फरक आहे पण भावनांचा अविष्कार उलगडणारं स्पष्ट लेखन स्त्री लेखिकांकडून होताना दिसत नाही हे सत्य आहे.
“न राहवून त्याने तिचा पटकन् मुकाच घेतला” किंवा “तिच्या भरदार वक्षस्थळांवर त्याची नजर खिळून राहिली. ” अशा तर्हेची भाषा किंवा वाक्यरचना स्त्री लेखिका सहजपणे करू शकेल का? का करू नये? का हरकत असावी? शब्द खेचून धरावेत की मुक्तपणे त्यांची प्रासंगिक उधळण करावी हा चर्चेचा विषय आहे.
कवी कालीदासांच्या मेघदूतातलं यक्षाच्या प्रेयसीचं वर्णन जर सुंदरच वाटू शकतं तर एखाद्या स्त्रीलेखिकेने केलेलं, त्यातलं सौंदर्य जाणून केलेलं रसभरित वर्णन “बोल्ड” का ठरावं? तेव्हा सरळ, सात्विक, मसालेदार किंवा बोल्ड असं काही नसतंच. त्या प्रसंगाची तीच मागणी असते असा विचार का करू नये?
लेखक किंवा लेखिका जेव्हा काही लेखनकृती करते तेव्हा त्यात स्वत:ची गुंतवणूक आणि अलिप्तता दोन्हीची गरज असते. आपण निर्माण केलेल्या पात्रांशी बंध जुळणे आणि प्रत्यक्षात ती पात्रं अलिप्तपणे पाहणे या दोघांचा समतोल साधला गेला तरच उत्कृष्ट आणि मुक्त विचारांचे लेखन होऊ शकतं हे एक लेखनतत्व आहे. त्यात समाज, स्व प्रतिमा, बंधने, मर्यादा याचा प्रश्नच येत नाही. माझ्या मते लेखकाची जबाबदारी ही आहे की भोवतालच्या समाज जीवनाचा सखोल अभ्यास करून त्यावरचे वास्तविक दर्शन देणारे लेखन करतानाही समाजाला चांगला सकारात्मक संदेश देणं ही लेखकाची जबाबदारी आहे. स्त्री लेखकाची आणि पुरुष लेखकाची ही.
काळाबरोबर जीवन पद्धती बदलतात. संस्कृती, नीतीच्याही व्याख्या बदलतात आणि बदलत्या जीवनपद्धतीवर सहअनुभूतीने विचार करून लिहिण्याचे सामर्थ्य स्त्रीलेखिकेकडूनही नक्कीच अपेक्षित आहे. आणखी एक मुद्दाही मला महत्त्वाचा वाटतो “मी एक स्त्री लेखिका म्हणून जेव्हा विचार करते” तेव्हा मला एक जाणवतं की मी रत्नाकर मतकरीं सारखी सुसूत्र गूढकथा नाही लिहू शकत. किंवा आगाथा ख्रिस्ती सारख्या रहस्यकथा लिहितानाही मी कमी पडते. माझ्याच मनाला मी बजावते की हा माझा जॉनर नाही पण हे कितपत स्वीकारार्ह आहे? खरं म्हणजे याला एकच कारण गूढकथा, रहस्यकथा लिहिण्यासाठी लागणारी अफाट कल्पनाशक्ती याचा अभाव. बहुतेक स्त्री लेखिकांबाबत हेच घडत असावं. कल्पनाविश्व किंवा कल्पनाशक्तीचे अपुरेपण यामुळेही स्त्री लेखिका त्याच त्या लेखन वर्तुळात फिरत राहते म्हणून याही गुणांना जाणीवपूर्वक विकसित करण्याची स्त्री लेखिकांना फार गरज आहे असे म्हटले तर ते गैर ठरू नये. ”घरात असता तारे हसरे मी पाहू कशाला नभाकडे” असा वैचारिक कल नसावा. माथ्यावरच्या विशाल नभाकडे जाणीवपूर्वक पाहण्याची दृष्टी मिळवावी आणि मुक्त लेखन बिनधास्त करावे याच मताची मी आहे. मेलोड्रामा किंवा गिमीक्समध्ये अडकू नये. एखाद्या घटनेकडे ती जशी आहे तशी बघण्याची आणि शब्दातून व्यक्त करण्याची गरज ओळखावी. असे लेखन यापूर्वीही स्त्री लेखिकांकडून झालेले आहे. पद्मजा फाटकची हसरी किडनी सुनीता देशपांडे यांचं आहे मनोहर तरी माधवी देसाई यांचं नाच गं घुमा किंवा कांचन घाणेकर यांचे “नाथ हा माझा” स्नेहप्रभा प्रधान यांचं स्नेहांकिता अगदी लक्ष्मीबाई टिळकांची स्मृतिचित्रे ही बोल्ड लेखन प्रकारातलीच नव्हे का? अगदी अलीकडेच मी मृदुला भाटकर यांचं “हे सांगायलाच हवं” हे आत्मवृत्त वाचलं. असं लिहायला स्वातंत्र्यापेक्षा धाडसाची गरज असते. म्हणजेच स्त्रिया बोल्ड लिहू शकत नाहीत या विचार प्रवाहाला का वाहू द्यायचे?
… काय रे श्वाना तू इथं माणसांच्या गावात!… एव्हढ्या रात्रीत एकट्याने जोर जोराने भों भों करत भुंकत का म्हणून राहिलास?… आधी तुझं ते केकाटणं बंद कर पाहू… मी कोण आहे ओळखंलस का मला?… अरे शेजारच्या जंगल राज्यातील शेर सिंग प्रधानजी आहे मी नव्हे का? आपल्या सिंह महाराजांनी या गावातील माणसाची एक तरी शिकार घेऊन येण्याची आज्ञा केलीय… अरे तिकडं आपल्या जंगलात काही काहीही खायला मिळेनासं झालंय गड्या… जंगल खाद्या बरोबरच आपणच आपल्या दुर्बल रयतेची शिकार करत करत इतके दिवस तग धरला होता.. पण अलिकडे असं लक्षात आलयं कि हळूहळू आपलीच रयतेची संख्या खूपच कमी कमी होऊ लागलीय… रोडावलीय… म्हणून आपल्या महाराजांनी आता आपल्या रयतेची शिकार इथून पुढे बंद असा फतवा काढला आहे.. तुला काय हे ठाऊक कसे असणार म्हणा… तिथं जंगलातल्या आपल्या माणसांची भुके कंगाल झालेले हाल काय असतात ते… तू इथं या माणसांच्या घोळक्यात माणसळाला गेला आहेस ना त्याच्याच एक दुष्परिणाम असाही झालाय की हि निर्दयी माणसांची जात राजरोसपणे जंगलात घुसून दिसेल त्या प्राण्यांची शिकार करत सुटलेत.. जंगलतोड तर अहोरात्र करत असतातच शिवाय त्यात अशी सावज शिकार करत फिरतात.. आपली स्तिथी न घर का न घाट का करून टाकलीय… जरा कुठे बंदूकीच्या गोळ्यांचा ठो ठो आवाज जंगलात घुमतो न घुमतो तोच झाडावरचे पक्षीगण जसे पंख फडफडवीत नि भीतीच्या कलकलटाने अख्खं जंगल भिरभिरत राहतात नि सगळ्यांना धोक्याची सुचना देतात.. तेव्हा सिंह महाराजांसकट आमची सगळ्यांची कि रे चड्डी पिवळी पडते… थरथर अंग भीतीने कापत जाते आणि आधी स्वताचा बचाव करण्यासाठी संरक्षित जागा शोधत बसावी लागते.. मग उरलेल्या जनतेकडे लक्ष देण्याची बुद्धी येते… अरे जंगलातले हिंस्र प्राण्यांचा समुह कळीकाळालाही कधीही न भिणारा.. तर आपल्या भीतीने इतरांच्या जीवावर शक्तिशाली हल्ला करणारे आपण आता असे गलितगात्र होऊन गेलोय… आता आपण नाही तर हा माणूस नावाचा प्राणी आपल्या पेक्षाही दसपटीने हिंस्र झालाय… आपल्या अस्तित्वाचा प्रश्नच ऐरणीवर आलाय… त्यामुळे आर या पार मग जशाच तसं लढा करताना या गनिमी काव्याचा आधार घेऊन अश्या अंधारातून त्या माणसांच्या गावात शिरून एक तरी शिकार करायचीच आणि त्या भुकेलेली, दुर्बल झालेल्या जनतेच्या भुकेची व्यवस्था करायची… असा एव्हढा मोठा जीवावर उदार होऊन धोका स्वीकारायला माझ्या शिवाय दुसरं कोण तयार होणारं… म्हणून मीच तो विडा उचलला आणि आज पहिल्यांदा इकडच्या माणसांच्या गावाकडे वळलो.. काल परवा पर्यंत त्या पलिकडे च्या माणसांच्या गावाकडे आठवड्यातून दोन तीनदा जात होतो.. पण माझ्या येण्याने त्यांच्यातील दोनचार जणं नाहीशी झालेली त्यांना त्यांच्या कसल्याशा यंत्रात दिसलं आणि जी त्याच्यांत घबराट निर्माण झाली म्हणतोस… आता रात्र रात्रभर खडा पहारा ठेवून एक दोन बंदूकधारी त्यांनी तैनात ठेवले की… अशी ती डोकेबाज माणसांची जात… पण आपणही काही कमी नाही बरं.. तल्लख बुद्दीचं दान आपल्यालाही मिळालयं… मग दिला सोडून तो माणसांचा गाव नि आजपासून दूसरा नवा गावाकडे मोर्चा वळवला… माणसांना जसं जंगलाची कमतरता नाही तशी आपल्याला माणसांच्या गावाचीही कमतरता नाही बरं… अरे तु बघितंल नसशील पण आजही माणसांच्या मनात आपल्या बद्दल खूप खूप भीती आहे बरं… आता त्यांनी रात्री अपरात्री शिकारीसाठी जंगलाकडे येणं हळूहळू बंद केलयं पण आपण आता जंगल सोडून त्यांच्याच गावातच हल्ला करायला येत असतो.. करावं तसं भरावं असते रे… आमच्या जीवन मरणाचा प्रश्न आम्हालाच सोडवायला लागणार नाही का… आता कशी नवी नवी युक्त्या काढून आम्हाला पकडून जेरबंद करायला धावू लागलेत… आम्ही असे तसे त्यांना सापडतोय होय वाट बघ… ते जाऊ दे… हे नंतरही तू जंगलात परत आलास की समजेलच.. या बोलण्यात आता जास्त वेळ नको घालवायला… हं तर तू मला मदत कर कुठल्या घरात माणसांची संख्या कमीत कमी आहे आणि डरपोक स्वभावाची आहेत. ती घरं ती माणसं मला दाखवशील.. मी मग दोन तीन दिवसाड येऊन एकेकाची शिकार करून घेऊन जाईन… या कामी तू मला मदत केल्याबद्दल आपले सिंह महाराज सैन्याचा सेनापती पद तुला बहाल करतील… आणि आपलं जंगल राज्य अधिक सुरक्षित राहील त्याचा विस्तार वाढत जाईल… हं मग श्वानमित्रा करतोस ना मदत मला.. म्हणजे माझं काम फारच सोयीचं होईल… चल चल बघू.. “
” हे पहा जंगलराज प्रधानजी महाशय तुम्ही आला तसे मुकाट्याने परत फिरा… तुम्हाला इथं माणसांची शिकार बिलकुल करता येणार नाही.. कारण मी इथला त्यांचा रखवालदार आहे… आमचा तुमच्या त्या जंगल राजशी सुतराम संबंध नाही.. आमच्या कैक पिढ्या इथं या माणसांच्या गावात राहून माणसाळाल्या आहेत.. आम्ही त्याचं मीठ खाल्लेल आहे.. तेव्हा इमानी पणाला जागणं हेच आमचं कर्तव्य ठरतं… सारं गावं माझ्यावर विश्वास ठेवून गाढ झोपेत असतं तेव्हा कोणी एक तस्कर किंवा तुमच्यासारखे जंगलातले हिंस्र प्राणी या गावात येण्याची हिंमत धरत नाहीत… आणि कदाचित तुम्हाला ठाऊक नसेल मी असा तसा जंगली शिकारी कुत्र्या पैकी नसून जर्मन शेफर्ड कुत्र्याच्या वंशातला आहे… मलाही गावात वट आहे.. मी पहाऱ्याला असताना इथं वाकड्या मार्गाने येण्याची कुणाची माय अजून तरी व्यालेली नाही… तेव्हा मला वाटतं तुम्ही आता फारवेळ हिथं न घालवता ताबडतोब दुसऱ्या ठिकाणी निघून जावं हेच बरं.. यात तुमचेच हित आहे.. तेव्हा माझं ऐका… “
” अरे जर्मन शेफर्ड असलास तरी शेवटी तू एक य:कश्चित् श्वान आहेस.. आणि तुझ्या असल्या पोकळ धमकीला मला घाबरण्याचं काही एक कारण नाही… हे पहा तुला जर मला मदत करायची नसेल तर तु मुकाट्याने बाजूला हो.. मला माझ्या सावज टिपून शिकार करण्यास अटकाव करू नकोस.. आणि त्याहूनही जर तू माझ्या वाटेत अडथळा करणार असशीलच तर सगळ्यात आधी मला तुझीच शिकार करावी लागेल… एकदाचा तुझाच कायमचा बंदोबस्त केला म्हणजे माझा मला मार्ग निर्वेध होईल.. कसं.. त्या माणसांनी तुला पाळून तुझी खरी ओळख च विसरायला लावली आहे.. चारपायाचां पशू तू आणि दोन पायांच्या माणसांपुढे आपलं शेपुट हलवतं आपल्या एकनिष्ठेची टिमकी वाजवून दाखवतोस आणि ते ही का तर तुझ्या पुढे टाकलेल्या त्या चतकोर भाकर तुकड्या साठी.. का कशासाठी इतकी लाचारी… का तुझ्या अंगात धमक नाही का तुझ्या तंगड्यात चपळपणा नाही… स्वताची भुक स्वता भक्ष्य शोधून आणण्याची स्वावलंबी वृत्ती नाही.. परावलंबित्व स्विकारून इतकं भिंधेपण तुझ्या रोमारोमात भिनलयं पहा कसं.. आधी स्वताची नीट ओळख करून घे.. त्या मतलबी ढोंगी आणि दगाबाज माणसाच्या नादाला लागू नकोस.. माझं ऐक.. अरे शेवटी आपलं जंगल राज्य हेच सुखाचं आणि सुरक्षित असतयं बरं.. तेव्हा यावर मी शिकार करून येईपर्यंत गंभीरपणे विचार कर आणि मग आपण जंगलाकडे जाऊया… कसं… “
” नाही नाही ते कदापि शक्य होणार नाही.. आता आम्हा कुत्र्याचं जगणं हे जीना यहां मरना यहा इसके सिवा जाना कहा.. असं कायमस्वरूपी ठरलेलं आहे.. जिथलं मिठं खाल्लं तिथे एकनिष्ठ राहायचं हेच आमच्या वाडवडिलांच्या पासून शिकवण मिळाली आहे.. आणि घेतलेल्या वसा प्राणपणाने जतन करायचा.. मग भले त्यात आपल्या जीवनाची आहूती पडली तरी चालेल.. ते जीवन सार्थकी लागले म्हणून समजलं जाईल.. तेव्हा आपण इथं निष्कारण बडबड करण्यात वेळ न दवडता तुम्ही आलात तसे परत जा.. आणि या गावातली शांतता अढळ राहू द्या… “
” मी इतका वेळ तुला बऱ्याबोलानं समजावून सांगितलं तरी तुला आपल्या या प्रधानजीच ऐकायचं नाही ठरवलसं तर ठिक आहे आज तुझ्या शिकारी पासूनच शुभारंभ करतो… ” जबरदस्त ताकदीच्या वाघाने त्या जर्मन शेफर्ड कुत्र्याच्याअंगावर झेप घेतली दोघांनी झुंज देण्यास उलटं पालटं होत एकामेंकाच्या उरावर बसत हाताच्या पंजाने एकमेकाला ओरबाडत आणि तोंडाने मोठ मोठ्याने चित्कारत झटापट करत राहिले… त्यांच्या या गदारोळाने अख्खा गाव जागा झाला.. आ वासून जो तो समोरचं दृश्य पुतळ्या सारखा स्तब्ध होऊन बघत राहिला.. पण पुढे जाण्याची एकाचीही शामत नव्हती… त्या वाघाच्या आणि शेफर्ड कुत्र्याच्या झटापटीत शेफर्ड कुत्र्याने जीवाची बाजू लावून लढत दिली पण अखेर त्या वाघाच्या ताकदीपुढे त्याचा टिकाव लागला नाही.. त्याचे त्राण संपत आले तसे तो ढिला पडला… ते पाहताच वाघाने त्याला आता आपल्या कराल दाढेत धरून त्याचे तंगडे ओढत नेऊ लागला.. पण तिथं जमलेल्या माणसांची गजबज पाहून त्या वाघाने तिथून लवकर बाहेर पडण्याचा निर्णय घेतला.. शेफर्ड कुत्र्याच्ं तंगड तोंडात घट्ट धरून तो धावत सुटला… पण त्याच वेळी त्या शेफर्ड कुत्र्याच्या अंगात एक विज सळसळत गेली आणि त्यानं तेव्हढ्याच जोरजोराने आपल्या अंगाला असे काही हिसडे दिले कि त्या पळणाऱ्या वाघाला ने डरकाळी फोडताना त्या शेफर्डचं धरलेलं तंगड सोडून दिल्याचं त्याच्या लक्षात आलं नाही.. तो तसाच आधी जंगलाकडे पळत सुटला… वाघ गेलेला पाहून सगळे गावकरी त्या शेफर्ड भोवती जमा झाले आणि मग जो तो त्याचं कोडकौतुक करू लागला… शेफर्ड च्या अंगावर काही जखमा झाल्या होत्या त्याच्या कडे त्याने लक्ष दिलं नाही.. त्याला ठाऊक होतं आता माझी काळजी घेणारी माझी माणसं ते सारं पाहतील असा विश्वास त्याला होताच… आज आपण स्वामीनिष्ठेला जपलो याचं समाधान त्याच्या चेहऱ्यावर झळकत राहिलं…