श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ९ ☆
☆ कथात्मक साहित्यिक लेख ☆ ~ श्री राम के मर्यादित चरित्र से भरा मानस… ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
(श्री रामचरित मानस – भारतीय संस्कृति की आचार संहिता)
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परिवार में नित्यप्रति होते कलह को देखकर विनय की विनम्रता टूटने के कगार पर पहुंच गई। परिवार का बंटवारा तो काफी दिनों पहले हो चुका था, लेकिन जगह -जमीन- संपत्ति का विवाद अभी भी सम्पूर्ण बंटवारे की तलाश कर रहा था। यद्यपि कि भौतिक सम्पत्ति की हिस्सा – हिस्सादारी लगनी शेष नहीं थी, लेकिन मन के तराजू पर चढ़े पसंगें ने कभी तराजू की डंडी को सीधा होने नहीं दिया। अक्सर जब विनय अपना बस्ता निकालकर पढ़ने के लिए बैठता, तो आंगन और बाहर दोनों तरफ से कुछ न कुछ फुसफुसाहट साथ बातें शुरू होतीं और धीरे-धीरे यह फुसफुसाहट तेज लड़ाई में बदल जाती है। यह सिर्फ एक दिन की कहानी नहीं थी। ऐसा तो लगभग आए दिन ही हुआ करता था।
आठ-नौ साल के विनय को यह समझ में नहीं आता था, कि उसके चाचा और उसके बाबूजी से इस तरह से क्यों लड़ते हैं। वहीं उसे अपनी मम्मी की चुगलखोरी भी कहीं किसी कोने से कम नहीं थी। एक दिन तो बात इस हद तक बिगड़ गयी कि हाथापाही की नौबत आ गई। चाचा के हाथ में लगे चोट को देखकर विनय दुःखी हो गया। दरअसल यह चोट उसकी मम्मी और चाची के बीच में हो रही लड़ाई के बीच बचाव करने के कारण चाचा को लगी। दोनों मांओ को एक इस तरह से लड़ते देख विनय फूट-फूट कर रोने लगा। विनय को ऐसे रोते देख, खेलकर अभी -अभी वापस आया विभव परेशान हो गया। वह दौड़ता हुआ विनय के पास गया। अपने धूल से सने हाथों से उसने अपने छोटे चचेरे भाई के आंसुओं को पोछा तो विनय भी प्यार से उससे लिपट गया।
थोड़ी ही देर में पंचायत बैठी। जिनके घर के खुद के झगड़े सुलझ नहीं रहे थे, वे आज दो भाइयों के बीच हो रही लड़ाई को सुलझाने के लिए पंच बनकर बैठे हुए थे।
बटोही दादा ने जब यह कहते हुए अपनी मुट्ठी कस कर तख़्त पर पटकी कि मुझे नहीं समझ में आ रहा कि आप लोगों के इस रोज रोज की किच-किच का आखिर हल कहां से निकलेगा!
ठीक उसी समय बाबा के कोठरी में रखी लाल कपडे में बंधी भारी -भरकम पुस्तक को अपने हाथों में उठाये विनय और विभव बटोही दादा के तख़्त के पास पहुंच गए। रामचरितमानस को बटोही दादा हाथों मैं रखते हुए उन दोनों ने एक साथ बोला, हम दोनों भाइयों की राय मानो तो आप बड़े बुजुर्गों के रोज-रोज के हो रहे कलह का वास्तविक हल इस पुस्तक में है। दो नन्हे नन्हे बच्चों के मुंह से एक साथ निकली इस बात को सुनकर, पारिवारिक जंग लड़ रहे दोनों भाई दंग हो गए। वहीं पंच की गद्दी पर बैठे बटोही दादा के हाथ उस पुस्तक को थामने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे।
श्रीराम के मर्यादित चरित्र से भरा मानस इधर पंच दादा के तख़्त पर विराजी, उधर विनय और विभव दोनों के पापा आपस में चिपट कर रो पड़े, मानो सारे गिले शिकवे उनकी आँखों से आंसू बनकर तेजी से निकल रहे थे।
इधर विनय और विभव के कानों में अपने दिवंगत हो चुके दादाजी की यह बात जोर जोर से गूंज रही थी कि…
“ए बबुआ तें पूछत बाडिस न कि ए बाबा! ई किताब कइसन ह? त सुनु..
एहि किताब में अपना रामजी के कहानी बड़ूवे। ई किताब हमनी सबके बतावे ले कि रामजी के आचरण के अपना भीतर उतार के कैसे जियल जाला, कैसे परिवार चलावल जाला अउर कैसे पारिवारिक – सामजिक रिस्ता निभावल जाला।
ए बाबुओ! ई रामायन भारतीय संस्कृति के आचार संहिता हउवे, समझल नु?”
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© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”
लखनऊ, उप्र, (भारत )
दिनांक 22-02-2025
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
👏👏हार्दिक आभार