डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘अंत्येष्टि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 238 ☆

☆ कहानी – अंत्येष्टि 

अम्माँ बड़ी शान्ति से चली गयीं। रात को माला टारते टारते सोयीं और सबेरे माला पकड़े शान्त सोयी मिलीं। गड़बड़ इसलिए लगी कि साढ़े पाँच बजे बिस्तर छोड़ देने वाली अम्माँ उस दिन सात बजे तक भी हिली- डुली नहीं।

अम्माँ का छोटा बेटा महेन्द्र बातूनी है। हर आने वाले को कातर स्वर में बता रहा है, ‘क्या बतायें भैया, बिना बोले-बताये चली गयीं। न किसी को तकलीफ दी, न किसी से सेवा करायी। पुन्यातमा थीं, इसीलिए ऐसे चली गयीं। बस अब तो यही मनाते हैं कि उनका आसिरबाद हम पर बना रहे।’

अम्माँ अपने पुश्तैनी मकान में महेन्द्र के साथ रहती थीं। महेन्द्र की कस्बे में जनरल गुड्स की दूकान थी। बड़े वीरेन्द्र और मँझले नरेन्द्र नौकरी पर बाहर थे। दो बेटियाँ शीला और मीना भी कस्बे से बाहर अपने-अपने घर में थीं। सन्तानों में शीला दूसरे नंबर पर और मीना चौथे नंबर की थी। पति की मृत्यु के बाद अम्माँ का ज़्यादातर वक्त पूजा-पाठ में ही गुज़रता था। घर छोड़कर कहीं ज़्यादा दिन रहना उन्हें सुहाता नहीं था। इसीलिए दोनों बड़े बेटों के घर में भी वे ज़्यादा टिकती नहीं थीं। कहती थीं, ‘यहाँ तो दुआरे पर खड़े हो जाओ तो घंटा आधा-घंटा बतकहाव हो जाता है। दूसरी जगह अजनबियों के सामने मुँह खोलना मुश्किल हो जाता है। पता नहीं किस बात पर बेटे-बहू का मुँह फूल जाए। इसलिए अपने घर से अच्छी कोई जगह नहीं।’

अम्माँ के पति दूरदर्शी थे। कस्बे से तीन चार किलोमीटर दूर करीब पन्द्रह एकड़ ज़मीन अम्माँ के नाम कर गये थे। कहते थे, ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे न रहने पर तुम्हें बेटों के आगे हाथ फैलाना पड़े। लेकिन सँभल कर रहना। समय खराब है। किसी के कहने पर बिना समझे-बूझे कोई लिखा-पढ़ी मत करना। जायदाद साधु-सन्तों का भी दिमाग खराब कर देती है।’

अम्माँ की उम्र बढ़ने के साथ बेटे चिन्तित रहने लगे थे, खासकर बड़े वीरेन्द्र। पन्द्रह सोलह साल पहले उत्तराधिकार कानून में संशोधन हो गया है। अब पिता-माता की संपत्ति में बेटियाँ बराबर की हकदार हो गयी हैं। वीरेन्द्र नये कानून पर दाँत पीसते हैं। कहते हैं यह नया कानून परिवारों की समरसता को खंड-खंड कर देगा।

अम्माँ से इस संबंध में कुछ कह पाना मुश्किल था। उनके कान तक यह बात पहुँच चुकी थी कि लड़कियों को अब संपत्ति में हक मिल गया है और वे बेटियों को उनके हक से वंचित करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं। वीरेन्द्र दोनों छोटे भाइयों तक अपनी पीड़ा पहुँचा चुके थे और उधर भी लालच का बीजारोपण हो चुका था। अब बहनें भाइयों की नज़र में प्रतिद्वन्द्वी बन गयी थीं। लेकिन बहनें अपने भाइयों की मानसिकता में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर थीं।

दिन गुज़रने के साथ भाइयों की बेकली बढ़ रही थी। एक ही रास्ता था कि अम्माँ बेटों के नाम संपत्ति का वसीयतनामा कर दें, लेकिन अम्माँ से धोखे में कोई काम करा लेना मुश्किल था। कहीं दस्तखत करने के मामले में वे बड़ी सतर्क थीं। कागज़ को खुद पढ़ने की कोशिश करती थीं। मन नहीं भरता था तो पति के दोस्त गोकुल प्रसाद से पूछने की बात करती थीं। गोकुल प्रसाद तीनों भाइयों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे क्योंकि वे खरे आदमी थे। स्वर्गीय मित्र की पत्नी को धोखा देना वे पाप समझते थे।

बेटों की इसी ऊहापोह के बीच में अम्माँ अचानक चल बसीं। सब बेटे बेटियों के जुटते जुटते शाम हो गयी, इसलिए अम्माँ की अन्तिम यात्रा दूसरे दिन के लिए टल गयी। जैसा कि स्वाभाविक है, बेटियाँ अम्माँ के अचानक चले जाने से बहुत दुखी थीं। अमूमन बेटियों का माँ-बाप से लगाव  ताज़िन्दगी रहता है और उनके लिए रिश्तों की अहमियत ज़मीन- ज़ायदाद से ज़्यादा होती है। बेटियाँ किसी भी कीमत पर आजीवन मायके से जुड़ी रहना चाहती हैं।

बेटियाँ दुख में डूबी थीं लेकिन उनके भाइयों में कुछ अजीब सी बेचैनी थी, जो दूसरों की नज़र में अम्माँ के विछोह के कारण हो सकती थी। बड़े वीरेन्द्र इधर-उधर घूम कर कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठकर बार-बार जैसे गहरी सोच में डूब जाते थे। कोई आवाज़ लगाता तो जैसे नींद से जागते। दोनों छोटे भाई भी उन्हीं के आसपास मँडराते थे। बार-बार आँखें मिलतीं जैसे किसी बात पर कोई सहमति बन रही हो।

रात को ग्यारह बजे बड़े भैया ने सबसे कहा, ‘अब सब लोग जाकर आराम कर लो। अब रोने धोने से क्या फायदा? अपनी तबियत मत खराब करो। हम तीनों भाई अम्माँ के पास बैठे हैं।’

बड़े भैया ने सबको जबरन अम्माँ के कमरे से बाहर कर दिया। अब उस कमरे में सन्नाटा था। नींद की ज़रूरत सबको थी, अन्यथा सुबह का काम आगे कैसे बढ़ेगा?

पहाड़ सी रात कट गयी और भोर हो गयी। अम्माँ की बेटियों को चैन कहाँ? हाथ-मुँह धो कर दोनों अम्माँ के कमरे में पहुँचीं। अब अम्माँ के दर्शन थोड़ी देर और होंगे। जन्मदायिनी और सन्तान के सुख के लिए हर मुसीबत झेलने वाली ममतामयी माँ का प्यारा मुख हमेशा के लिए लोप हो जाएगा।

अम्माँ के शरीर पर करुण दृष्टि फेरती शीला अचानक चौंकी। अम्माँ के बाएँ हाथ का अँगूठा नीला था, जैसे किसी ने स्याही लगायी हो। पास ही एक कपड़े का गीला टुकड़ा पड़ा था। उसमें भी स्याही लगी थी, जैसे अँगूठे को उससे पोंछा गया हो। शीला ने मीना का ध्यान उस तरफ खींचा। दोनों परेशान होकर बड़े भाई के पास दौड़ीं। वीरेन्द्र आये, चिथड़े को उठाकर हाथ में दबा लिया और बोले, ‘कुछ नहीं है। रात भर ज़मीन पर सोयी हैं तो अँगूठा नीला पड़ गया है। फालतू बातों में वक्त बर्बाद मत करो। आगे की तैयारी करो।’

उन्होंने अम्माँ का कपड़ा खींच कर बायाँ हाथ ढक दिया, किन्तु दोनों बहनों के मन में यह बात बराबर घुमड़ती रही। कुछ ठीक ठीक समझ में नहीं आ रहा था।

अन्ततः अम्माँ अपने घर-द्वार का मोह छोड़कर रुख़सत हो गयीं। सचमुच दुखी तो बेटियाँ ही थीं। बेटे किसी और उधेड़-बुन में लगे थे।

सभी बेटे-बेटियाँ तेरहीं तक वहाँ रहे। दोनों बहनों के ज़ेहन में लगातार अम्माँ का नीला अँगूठा कौंधता था। तीनों भाई उनसे नज़र बचाते फिरते थे। ऊपर से मिठास थी, लेकिन भीतर कुछ गड़बड़ था।

तेरहीं के दूसरे दिन तीनों भाई सकुचते हुए बहनों के पास पहुँचे। बड़े बोले, ‘छोटे ने बताया है कि उसे अम्माँ की अलमारी में वसीयतनामा मिला है जिसमें उनकी जायदाद हम तीनों भाइयों में बाँटी गयी है। हम तो चाहते थे कि उनकी जायदाद में सबका हिस्सा हो, लेकिन जैसी उनकी मर्जी। उनकी इच्छा के हिसाब से चलना पड़ेगा। हमने छोटे से कहा है कि सबको फोटोकॉपी निकाल कर दे दे। किसी को शिकायत न हो।’

बहनों ने सुना तो भौंचक्की रह गयीं। बड़ी ने पूछा, ‘कहांँ है वसीयतनामा?’

छोटे ने दूर से वसीयतनामा दिखाया, कहा, ‘यह अम्माँ का अँगूठा लगा है। दो गवाहों के दस्कत हैं।’

बड़ी ने पूछा, ‘किसके दस्कत हैं?’

जवाब मिला, ‘गनेश और पुरसोत्तम के दस्कत हैं। उनके सामने ही अँगूठा लगाया गया।’

गनेश और पुरुषोत्तम छोटे के लँगोटिया यार थे।

छोटी बहन बोली, ‘लेकिन अम्माँ तो दस्कत कर लेती थीं। फिर अँगूठा क्यों लगवाना पड़ा?’

छोटा हाथ उठाकर बोला, ‘हम बताते हैं। एक-डेढ़ महीने से अम्माँ के हाथ काँपने लगे थे। बहुत कमजोर हो गयी थीं। बर्तन उठाती थीं तो छूट जाता था। दस्कत करने में दिक्कत होती थी। इसलिए अँगूठा लगाना पड़ा।’

बड़ी बोली, ‘इन गवाहों को बुलवाओ। मुझे कुछ पूछना है।’

छोटा, ‘मैं देखता हूँ’ कहकर ग़ायब हो गया। दोनों बहने संज्ञाशून्य वहाँ बैठी रहीं। आधे घंटे बाद छोटा लौटकर बोला, ‘वे दोनों एक शादी में बाहर गये हैं। आएँगे तो मैं आपसे फोन पर बात करा दूँगा। लेकिन मैं आपको बताता हूँ कहीं कोई गड़बड़ नहीं है।’

बड़ी देर तक चुप रहने के बाद अचानक शीला बड़े भाई के सामने फट पड़ी— ‘दादा, आपने यह सब प्रपंच क्यों किया? हमें जमीन जायदाद का लालच नहीं है। आप कहते तो हम वैसे ही लिख कर दे देते।’

सुनकर बड़े भैया भिन्ना गये। क्रोध में बोले, ‘मैंने क्या किया है? मुझे तो पता भी नहीं था कि अम्माँ क्या लिख गयी हैं। मैं परपंच क्यों करूँगा? मुझ पर इलजाम लगाने की जरूरत नहीं है।’

वे फनफनाते हुए बाहर निकल गये।

शीला के पति सास की ग़मी में नहीं आ सके थे। दिल के मरीज़ थे। लेकिन फोन करके पत्नी से हालचाल ले लेते थे। उस दिन उनका फोन आया, ‘सब ठीक-ठाक निपट गया?’

उनकी पत्नी ने जवाब दिया, ‘सब ठीक से हो गया। एक अंत्येष्टि तेरह दिन पहले हुई थी, एक आज हो गयी।’

पति घबरा कर बोले, ‘कौन चला गया?’

पत्नी ने जवाब दिया, ‘कोई नहीं गया। उस दिन आदमी की अंत्येष्टि हुई थी, आज रिश्तों की हो गयी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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