स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – जीवन।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 183 – सुमित्र के दोहे… जीवन ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

*

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

*

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

*

यह सांसों की बांसुरी, कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

*

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

*

नील वसन तन आवरित, सितवर्णी छविधाम।

कहां प्राण घन राधिके, अश्रु अश्रु घनश्याम।।

*

मौसम की गाली सुने, मन का मौन मजूर ।

और आप ऐसे हुए, जैसे पेड़ खजूर।।

*

जंगल जंगल घूम कर, मचा रहे हो धूम ।

पंछी को पिंजरा नहीं, ऐसे निकले सूम।।

*

क्या मेरा संबल मिला, बस तेरा अनुराग ।

मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग।

*

सांस सदा सुमिरन करें, आंखें रही अगोर।

अहो प्रतीक्षा हो गई, दौपदि वस्त्र अछोर।।

*

बरस बीत कर यो गया, मेघ गया हो रीत।

कालिदास के अधर पर, यक्ष प्रिया का गीत।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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