डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशियों का सबब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 224 ☆

ख़ामोशियों का सबब… ☆

‘कुछ वक्त ख़ामोश होकर भी देख लिया हमने /  फिर मालूम हुआ कि लोग सच में भूल जाते हैं’ गुलज़ार का यह कथन शाश्वत् सत्य है और आजकल ज़माने का भी यही चलन है। ख़ामोशियाँ बोलती हैं, जब तक आप गतिशील रहते हैं। जब आप चिंतन-मनन में लीन हो जाते हैं, समाधिस्थ अर्थात् ख़ामोश हो जाते हैं, तो लोग आपसे बात तक करने की ज़ेहमत भी नहीं उठाते। वे आपको विस्मृत कर देते हैं, जैसे आपका उनसे कभी संबंध ही ना रहा हो। वैसे भी आजकल के संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। आपने तनिक नज़रें घुमाई कि सारा परिदृश्य ही परिवर्तित हो जाता है। अक्सर कहा जाता है ‘आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड।’ जी हाँ! आप दृष्टि से ओझल क्या हुए, मनोमस्तिष्क से भी सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं।

सुना था ख़ामोशियाँ बोलती है। जी हाँ! जब आप ध्यानस्थ होते हैं, तो मौन हो जाते हैं और बहुत से विचित्र दृश्य आपको दिखाई देने पड़ते हैं और बहुत से रहस्य आपके सम्मुख उजागर होने लगते हैं। उस स्थिति में अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं तथा आप अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। दूसरी ओर यदि आप चंद दिनों तक ख़ामोश अर्थात् मौन हो जाते हैं, तो लोग आपको भुला देते हैं। यह अवसरवादिता का युग है। जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी है, आपका अस्तित्व है, वजूद है और लोग आपको अहमियत प्रदान करते हैं। जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो हो जाता है, मनोरथ पूरा हो जाता है, वे आपको दूध से मक्खी की भांति निकाल फेंक देते हैं। वैसे भी एक अंतराल के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं, छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है और सब चलते-फिरते पुतले नज़र आने लगते हैं अर्थात् अस्तित्वहीन हो जाते हैं। ना उनका घर में कोई महत्व रहता है, ना ही घर से बाहर, मानो वे पंखविहीन पक्षी की भांति हो जाते हैं, जिन्हें सोचने-समझने व निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।

बच्चे अपने परिवार में मग्न हो जाते हैं और आप घर में अनुपयोगी सामान की भांति एक कोने में पड़े रहते हैं। आपको किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने व सुझाव देने का अधिकार नहीं रहता। यदि आप कुछ कहना भी चाहते हैं, तो ख़ामोश रहने का संदेश नहीं; आदेश दिया जाता है और आप मौन रहने को विवश हो जाते हैं।  ख़ामोशियों से बातें करना आपकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। आपको आग़ाह कर दिया जाता है कि आप अपने ढंग व इच्छा से अपनी ज़िंदगी जी चुके हैं, अब हमें अपनी ज़िंदगी चैन-औ-सुक़ून से बसर करने दो। यदि आप में संयम है, तो ठीक है, नहीं है, तो आपको घर से बाहर अर्थात् वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहाँ आपको हर पल प्रतीक्षा रहती हैं उन अपनों की, आत्मजों की, परिजनों की और वे उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और एक दिन सदा के लिए ख़ामोश हो जाते हैं और इस मिथ्या जहान से रुख़्सत हो जाते हैं।

अतीत बदल नहीं सकता और चिंता भविष्य को संवार नहीं सकती। इसलिए भविष्य का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है। उसमें जीवन का सच्चा सुख निहित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए ‘जो पीछे छूट गया है, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, आपका अपना है; उसका आनंद उठाना सीखें’, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर / बस व्यवहार और लगाव ही है / जो कभी बूढ़ा नहीं होता। किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार बहुत कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का समावेश करता है, उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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