डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कथा – ‘सबक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 221 ☆

☆ कहानी – सबक

चमनलाल को इस शहर में रहते बारह साल हो गये। बारह साल पहले इस शहर में ट्रांसफर पर आये थे। दो साल किराये के मकान में रहने के बाद इस कॉलोनी में फ्लैट खरीद लिया। देर करने पर मुश्किल हो सकती थी। दस साल यहाँ रहते रहते कॉलोनी में रस-बस गये थे। कॉलोनी के लोगों से परिचय हो गया था और आते-जाते नमस्कार होने लगा था। अवसर-काज पर वह आमंत्रित भी होने लगे थे। उनकी पत्नी कॉलोनी की महिलाओं की गोष्ठियों में शामिल होने लगीं थीं।

फिर भी इन संबंधों की एक सीमा हमेशा महसूस होती थी। लगता था कोई कच्ची दीवार है जो ज़्यादा दबाव पड़ते ही दरक जाएगी या भरभरा जाएगी। आधी रात को कोई मुसीबत खड़ी हो जाए तो पड़ोसी को आवाज़ देने में संकोच लगता था। सौभाग्य से बेटी शहर में ही थी, इसलिए जी अकुलाने पर चमनलाल उसे बुला लेते थे।

चमनलाल को बार-बार याद आता है कि बचपन में उनके गाँव में ऐसी स्थिति नहीं थी। मुसीबत पड़ने पर अजनबी को भी पुकारा जा सकता था। ज़्यादा मेहमान घर में आ जाएँ तो अड़ोस पड़ोस से खटिया मँगायी जा सकती थी और रोटी ठोकने के लिए दूसरे घरों से बहुएँ- बेटियाँ भी आ जाती थीं। अब गाँव में भी टेंट हाउस खुल गये हैं और समाज से संबंध बनाये रखने की ज़रूरत ख़त्म हो गयी है।

तब गाँव में मट्ठा बेचा नहीं जाता था। घर में दही बिलोने की आवाज़ गूँजते ही हाथों में चपियाँ लिए लड़के लड़कियों की कतार दरवाजे़ के सामने लग जाती थी। उन्हें लौटाने की बात कोई सोचता भी नहीं था।

शहरों में टेलीफोन के बढ़ते चलन ने मिलने-जुलने की ज़रूरत को कम कर दिया है। पड़ोसी से भी टेलीफोन पर ही बात होती है। जिन लोगों की सूरत अच्छी न लगती हो उनसे टेलीफोन की मदद से बचा जा सकता है। अब अगली गली में रहने वालों से सालों मुलाकात नहीं होती। बिना काम के कोई किसी से क्यों मिले और किसलिए मिले?

इसीलिए चमनलाल का भी कहीं आना-जाना कम ही होता है। शाम को कॉलोनी के आसपास की सड़कों पर टहल लेते हैं। लेकिन उस दिन उन्हें एक कार्यक्रम के लिए तैयार होना पड़ा। उनके दफ्तर का साथी दिवाकर पीछे पड़ गया था। मानस भवन में राजस्थान के कलाकारों का संगीत कार्यक्रम था। उसी के लिए खींच रहा था। बोला, ‘तुम बिलकुल घरघुस्सू हो गये हो। राजस्थानी कलाकारों का कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है। मज़ा आ जाएगा। साढ़े छः बजे तक मेरे घर आ जाओ। पौने सात तक हॉल में पहुँच जाएँगे।’ चमनलाल भी राजस्थानी संगीत के कायल थे, इसलिए राज़ी हो गए।

करीब सवा छः बजे चमनलाल तैयार हो गये। बाहर निकलने को ही थे कि दरवाजे़ की घंटी बजी। देखा तो सामने कॉलोनी के वर्मा जी थे। उनके साथ कोई अपरिचित सज्जन।
वर्मा जी से आते जाते नमस्कार होती थी, लेकिन घर आना जाना कम ही होता था। चमनलाल उनके इस वक्त आने से असमंजस में पड़े। झूठा उत्साह दिखा कर बोले, ‘आइए, आइए।’

दोनों लोग ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गये। चमनलाल वर्मा जी के चेहरे को पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि यह भेंट किस लिए और कितनी देर की है।

वर्मा जी जल्दी में नहीं दिखते थे। उन्होंने कॉलोनी में से बेलगाम दौड़ते वाहनों का किस्सा छेड़ दिया। फिर वे कॉलोनी में दिन दहाड़े होती चोरियों पर आ गये। इस बीच चमनलाल उनके आने के उद्देश्य को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः के करीब पहुंच गयी।

बात करते-करते वर्मा जी ने सोफे पर आगे की तरफ फैल कर टाँग पर टाँग रख ली और सिर पीछे टिका लिया। इससे ज़ाहिर हुआ कि वे कतई जल्दी में नहीं थे। उनका साथी उँगलियाँ मरोड़ता चुप बैठा था।

चमनलाल का धैर्य चुकने लगा। वर्मा जी मतलब की बात पर नहीं आ रहे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः से आगे खिसक गयी थी। वे अचानक खड़े होकर वर्मा जी से बोले, ‘माफ कीजिए, मैं एक फोन करके आता हूँ। दरअसल मेरे एक साथी इन्तज़ार कर रहे हैं। उनके साथ कहीं जाना था। बता दूँ कि थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा।’

वर्मा जी का चेहरा कुछ बिगड़ गया। खड़े होकर बोले, ‘नहीं, नहीं, आप जाइए। कोई खास काम नहीं है। दरअसल ये मेरे दोस्त हैं। इन्होंने चौराहे पर दवा की दूकान खोली है। चाहते हैं कि कॉलोनी के लोग इन्हें सेवा का मौका दें। जिन लोगों को रेगुलरली दवाएँ लगती हैं उन्हें लिस्ट देने पर घर पर दवाएँ पहुँचा सकते हैं। दस परसेंट की छूट देंगे।’

उनके दोस्त ने दाँत दिखा कर हाथ जोड़े। ज़ाहिर था कि वे कंपीटीशन के मारे हुए थे। चमनलाल बोले, ‘बड़ी अच्छी बात है। मैं दूकान पर आकर आपसे मिलूँगा।’

वर्मा जी दोस्त के साथ चले गये, लेकिन उनके माथे पर आये बल से साफ लग रहा था कि चमनलाल का इस तरह उन्हें विदा कर देना उन्हें अच्छा नहीं लगा था, खासकर उनके दोस्त की उपस्थिति में।

दूसरे दिन चमनलाल को भी महसूस हुआ कि वर्मा जी को अचानक विदा कर देना ठीक नहीं हुआ। शहर के रिश्ते बड़े नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चूक होते ही मुरझा जाते हैं। चमनलाल की शंका को बल भी मिला। दो एक बार वर्मा जी के मकान के सामने से गुज़रते उन्हें लगा कि वे उन्हें देखकर पीठ दे जाते हैं, या अन्दर चले जाते हैं। उन्होंने समझ लिया कि इस दरार को भरना ज़रूरी है, अन्यथा यह और भी चौड़ी हो जाएगी।

दो दिन बाद वे शाम करीब छः बजे वर्मा जी के दरवाजे़ पहुँच गये। घंटी बजायी तो वर्मा जी ने ही दरवाज़ा खोला। उस वक्त वे घर की पोशाक यानी कुर्ते पायजामे में थे। चमनलाल को देखकर पहले उनके माथे पर बल पड़े, फिर झूठी मुस्कान ओढ़ कर बोले, ‘आइए, आइए।’

चमनलाल सोफे पर बैठ गये, बोले, ‘उस दिन आप आये लेकिन ठीक से बात नहीं हो सकी। मुझे सात बजे से पहले एक कार्यक्रम में पहुँचना था। मैंने सोचा अब आपसे बैठकर बात कर ली जाए।’

वर्मा जी कुछ उखड़े उखड़े थे। उनकी बात का जवाब देने के बजाय वे इधर-उधर देखकर ‘हूँ’, ‘हाँ’ कर रहे थे। दो मिनट बाद वे उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘एक मिनट में आया।’

चमनलाल उनका इन्तज़ार करते बैठे रहे। पाँच मिनट बाद वे शर्ट पैंट पहन कर और बाल सँवार कर आ गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘अभी मुझे थोड़ा एक जगह पहुँचना है। माफ करेंगे। बाद में कभी आयें तो बात हो जाएगी।’

चमनलाल के सामने उठने के सिवा कोई चारा नहीं था। घर लौटने के बाद थोड़ी देर में वे टहलने के लिए निकले। टहलते हुए वर्मा जी के घर के सामने से निकले तो देखा वे कुर्ते पायजामे में अपने कुत्ते को सड़क पर टहला रहे थे। चमनलाल को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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