डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द, समस्या व प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 209 ☆

☆ दर्द, समस्या व प्रार्थना ☆

‘दर्द एक संकेत है ज़िंदा रहने का; समस्या एक संकेत है कि आप मज़बूत हैं और प्रार्थना एक संकेत है कि आप अकेले नहीं हैं। परंतु कभी-कभी मज़बूत हाथों से पकड़ी हुई अंगुलियां भी छूट जाती हैं,क्योंकि रिश्ते ताकत से नहीं; दिल से निभाए जाते हैं,’ गुलज़ार का यह कथन अत्यंत चिंतनीय है,विचारणीय है। जीवन संघर्ष व निरंतर चलने का नाम है। परंतु वह रास्ता सीधा-सपाट नहीं होता; उसमें अनगिनत बाधाएं,विपत्तियां व आपदाएं आती-जाती रहती हैं; जिनका सामना मानव को दिन-प्रतिदिन जीवन में करना पड़ता है। अक्सर वे हमें विषाद रूपी सागर के अथाह जल में डुबो जाती हैं और मानव दर्द से कराह उठता है। वास्तव में दु:ख,पीड़ा व दर्द हमारे जीवन के अकाट्य अंग हैं तथा वे हमें एहसास दिलाते हैं कि आप ज़िंदा हैं। समस्याएं हमें संकेत देती हैं कि आप साहसी,दृढ़-प्रतिज्ञ व मज़बूत हैं और अपना सहारा स्वयं बन सकते हैं। वे हमें लीक पर न चलने को प्रेरित करती हैं और टैगोर के ‘एकला चलो रे’ की राह को अपनाने का संदेश देती हैं,जो आपके आत्मविश्वास को परिभाषित करता है। परंतु जब मानव भयंकर तूफ़ानों में घिर जाता है और जीवन में सुनामी दस्तक देता है; उसे केवल प्रभु का आश्रय ही नज़र आता है। उस स्थिति में मानव उससे ग़ुहार लगाता है और उसके आर्त्त हृदय की पुकार प्रार्थी के नतमस्तक होने से पूर्व ही प्रभु तक पहुंच जाती है तो उसे आभास ही नहीं; पूर्ण विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है; सृष्टि-नियंता उसके साथ है। उसके अंतर्मन में यह भाव दृढ़ हो जाता है कि अब उसे चिंता करने की दरक़ार नहीं है।

‘अपनों को ही गिरा दिया करते हैं कुछ लोग/ ख़ुद को ग़ैरों की नज़रों में उठाने के लिए।’ यह आज के युग का कटु सत्य है,क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है और उसके लिए वह अनचाहे व ग़लत रास्ते अपनाने में तनिक भी संकोच नहीं करता। आजकल लोग अपनों को गिराने व ख़ुद को दूसरों की नज़रों में श्रेष्ठ कहलाने के निमित्त सदैव सक्रिय रहते हैं। इस स्थिति में मज़बूती से पकड़ी हुई अंगुलियां भी अक्सर छूट जाती हैं और इंसान ठगा-सा रह जाता है,क्योंकि रिश्तों का संबंध दिल से होता है और वे ताकत व ज़बरदस्ती नहीं निभाए जा सकते। पहले रिश्ते पावन होते थे और विश्वास पर आधारित होते थे। इंसान अपने वचनों का पक्का था,जैसाकि रामचरित मानस में तुलसीदास जी कहते हैं, ‘रघुकुल रीति सदा चली आयी/ प्राण जायें, पर वचन ना जाय।’ लोग वचन-पालन व दायित्व-निर्वहन हेतू प्राणों की आहुति तक दे दिया करते थे,क्योंकि वे निःस्वार्थ भाव से रिश्तों को गुनते-बुनते व सहेजते-संजोते थे। इसलिए वे संबंध अटूट होते थे; कभी टूटते नहीं थे। परंतु आजकल तो रिश्ते कांच के टुकड़ों की भांति पलभर में दरक़ जाते हैं,क्योंकि अपने ही,अपने बनकर,अपनों की पीठ में छुरा भोंकते हैं।

‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हैं और अगर बोल पड़ो तो आप से बुरा कोई नहीं है।’ यही सत्य है जीवन का– इंसान को भी संबंधों को सजीव बनाए रखने के लिए अक्सर औरत की भांति हर स्थिति में ‘कहना नहीं, चुप रहकर सब सहना पड़ता है।’ यदि आपने ज़ुबान खोली तो आप सबसे बुरे हैं और वर्षों से चले आ रहे संबंध उसी पल दरक़ जाते हैं। उस स्थिति में आप संसार के सबसे बुरे अथवा निकृष्ट प्राणी बन जाते हैं। वैसे हर रिश्ते की अलग-अलग सीमाएं व मर्यादा होती है। परंतु यदि बात आत्मसम्मान की हो तो उसे समाप्त कर देना ही बेहतर व कारग़र होता है। वैसे समझौता करना अच्छा है,उपयोगी व श्रेयस्कर है,परंतु आत्म-सम्मान की कीमत पर नहीं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दरवाज़े छोटे ही रहने दो अपने मकान के/ जो झुक कर आ गया,वही अपना है।’ दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति विनम्र होता है, जिसमें अहं लेशमात्र भी नहीं होता; वास्तव में वही विश्वसनीय होता है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘अहं की बस एक ही खराबी है; वह आपको कभी महसूस नहीं होने देता कि आप ग़लत हैं।’ सो! आप औचित्य-अनौचित्य का चिंतन किए बिना अपनी धुन में निरंतर मनचाहा करते जाते हैं, जिसका परिणाम बहुत भयावह होता है।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ अर्थात् सामंजस्य करना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड ना करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ जब दोनों पक्षों में स्नेह,प्यार व सम्मान का भाव सर्वोपरि होगा; तभी रिश्ते पनप सकेंगे और स्थायित्व ग्रहण कर सकेंगे। केवल रक्त-संबंध से कोई अपना नहीं होता– प्रेम,सहयोग,विश्वास व सम्मान भाव से आप दूसरों को अपना बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। नाराज़गी यदि कम हो तो संबंध दूर तक साथ चलते हैं। सो! रिश्तों में अपनत्व भाव अपेक्षित है। जीवन में हीरा परखने वाले से पीड़ा परखने वाला अधिक महत्वपूर्ण होता है,क्योंकि वह आपके दु:ख-दर्द को अनुभव कर उसके निवारण के उपाय करता है। वह हर स्थिति में आपके अंग-संग रहता है। मेरी स्वरचित पंक्तियां ‘ज़िंदगी एक जंग है/ साहसपूर्वक सामनाकीजिए/ विजयी होगे तुम/ मन को न छोटा कीजिए।’ इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें; रिश्ते होते हैं और जो दु:ख में साथ दें; फ़रिश्ते होते हैं।’ ऐसे लोगों को सदैव अपने आसपास रखिए और संबंधों की गहराई का हुनर पेड़ों से सीखिए। ‘जड़ों में चोट लगते ही शाखाएं टूट जाती हैं।’ वास्तव में वे संबंध शाश्वत् होते हैं,जिनमें स्व-पर व राग-द्वेष के भाव का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता; यदि चोट एक को लगती है तो अश्रु-प्रवाह दूसरे के नेत्रों से होता है।

‘अतीत में मत झाँको/ भविष्य का सपना मत देखो/ वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो,’ महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि केवल वर्तमान ही सत्य है और मानव को सदैव उसमें ही जीना चाहिए। परंतु शर्त यह है कि कोई कितना भी बोले; स्वयं को शांत रखें; कोई आपको कितना भी भला-बुरा कहे; आप प्रतिक्रिया मत दें, क्योंकि तेज़ धूप में सागर को सुखाने का सामर्थ्य नहीं होता बल्कि शांत रहने से सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। ‘सो! अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय बन जाता है– जैसे क्रोध छोड़ देने से वह शोक-रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने से धनवान और लोभ छोड़ देने से सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर के उक्त कथन में काम,क्रोध,लोभ व अहं त्याग करने की सीख दी गई है। यही जीवन का आधार है,सार है। महात्मा बुद्ध के मतानुसार ‘सबसे उत्तम तो वही है,जो स्वयं को वश में रखे और किसी भी परिस्थिति व अवसर पर कभी भी उत्तेजित न हो।’

‘संबंध जोड़ना एक कला है तो उसे निभाना साधना है।’ मानव को संबंध बनाने से पहले उसे परखना चाहिए कि वह योग्य है भी या नहीं,क्योंकि आजकल रिश्ते-नाते मतलब की पटरी पर चलने वाली रेलगाड़ी के समान हैं, जिसमें जिसका स्टेशन आता है,उतरता चला जाता है। वैसे भी सब संबंध स्वार्थ पर टिके होते हैं; जिनमें विश्वास का अभाव होता है। इसलिए जब विश्वास जुड़ता है तो पराये भी अपने हो जाते हैं और जब विश्वास टूटता है तो अपने भी पराये हो जाते हैं। परंतु इसकी समझ मानव को उचित समय पर नहीं आती; ख़ुद पर बीत जाने से अर्थात् अपने अनुभव से आती है।

‘जीवन में कभी किसी से इतनी नफ़रत मत करना कि उसकी अच्छी बात भी आपको ग़लत लगे और किसी से इतना प्यार भी मत करना कि उसकी ग़लत बात भी अच्छी व सही लगने लगे।’ इसलिए रिश्तों का ग़लत इस्तेमाल करना श्रेयस्कर नहीं है। रिश्ते तो बहुत मिल जाएंगे,परंतु अच्छे लोग ज़िंदगी में बार-बार नहीं आएंगे और ऐसे संबंधों की क्षतिपूर्ति किसी प्रकार भी नहीं की जा सकती। अपनों से बिछुड़ने का दु:ख असह्य होता है। इसलिए मानव को दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए तथा आपदाओं का डटकर सामना करना चाहिए। उसे स्वयं को कभी अकेला नहीं अनुभव करना चाहिए,क्योंकि सृष्टि-नियंता हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किसमें है? इसलिए वह हम-साये की भांति पल-पल हमारे साथ रहता है। सो! दु:ख में मानव को चातक सम प्रभु को पुकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित विभिन्न गीतों की ये पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ हर पल तेरी राह निहार रहा/ अब तो तुम आओ प्रभुवर!/ अंतर प्यास ग़ुहार रहा’ और ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ परमात्मा सदैव हमारे अंग-संग रहते हैं; चाहे सारी दुनिया हमारा साथ छोड़ जाए। इसलिए मानव को सदैव प्रभु में अटूट व अथाह विश्वास रखना चाहिए– ‘मोहे तो एक भरोसो राम/ मन बावरा पुकारे सुबहोशाम।’

अंत में ‘संभाल के रखी हुई चीज़ और ध्यान से सुनी हुई बात कभी भी काम आ ही जाती है और सुन लेने से कितने ही सवाल सुलझ जाते हैं और सुना देने से हम फिर वहीं उलझ कर रह जाते हैं।’ वैसे हम भी वही होते हैं; रिश्ते भी वही होते हैं और रास्ते भी वही होते हैं– बदलता है तो बस समय,एहसास और नज़रिया। रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई हो तो टूटना मुश्किल है; अगर स्वार्थ से हुई है तो टिकना मुश्किल है। इसलिए मानव को संवेदनशील व आत्मविश्वासी होना चाहिए और दु:ख के समय पर आपदाओं से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह दुनिया का मालिक सदैव उसके साथ रहता है। समस्याओं के दस्तक देते ही मानव दु:ख-दर्द से आकुल-व्याकुल हो जाता है और उसे कोई भी राह दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसी स्थिति में वह प्रभु से प्रार्थना करता व ग़ुहार लगाता है,जो उसके नत-मस्तक होने से पूर्व पलभर में उस तक पहुंच जाती है और उसके कष्टों का निवारण हो जाता है। ‘यह दुनिया है रंग-बिरंगी/ मोहे लागै है ये चंगी’ और अंतकाल में वह ‘मोहे तो प्रभु मिलन की आस/ बार-बार तोहे अरज़ लगाऊँ/ कब दर्शन दोगे नाथ’ की तमन्ना लिए वह मिथ्या संसार से रुख्सत हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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