प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सादी संस्कृति गाँव की एक सरल संसार

बिना दिखावे के जहाँ दिखता हर परिवार ।

 

लोगों में सच्चाई है आपस में है प्यार

परम्पराओं से पगा संबंध हर व्यवहार।

 

छोटी अटपट बात में हो चाहे तकरार

पर घर का हर व्यक्ति हर घर का रिश्तेदार ।

 

सबको है सबकी फिकर सब हैं एक समान

परख-पूँछ है, नेह है, भले न हो पहचान।

 

बड़े सबेरे जागते, सोते होते रात

शाम समय चौपाल में मिलते करते बात ।

 

हर एक के है झोपड़ी, आँगन, बाड़ी, खेत

 जिनमें कटती जिंदगी, पशु-हल – फसल समेत ।

 

शहर गाँव से भिन्न हैं. रीति-नीति विपरीत

यहाँ कोई अपना नहीं, नहीं किसी से प्रीति ।

 

शहरों में फुरसत किसे ? हरेक हर समय व्यस्त

घर के द्वारे बन्द नित, सब अपने में मस्त ।

 

लोगों की आजीविका सर्विस या व्यापार

पड़ोसियों की खबर हित पढ़ते हैं अखबार ।

 

बिन आँगन के घर बने, चढ़े एक पै एक

मंजिल छूते गगन को पातें खड़ी अनेक ।

 

भीड़-भाड़ भारी सदा बड़े बड़े बाजार

आने जाने के लिये, हों गाड़ी या कार ।

 

औपचारिक व्यवहार सब शब्दों का संसार

मन में धन की चाह है केवल धन से प्यार ।

 

गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव

चमक दमक तो बहुत है, शांति न सुख की छाँव ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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