प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ लघुकथा – “सिपाही…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

“अनिल भाई, आजकल दिखते नहीं हो ।कहां, बिजी रहते हो ?”

“राकेश जी, नौकरी की ड्युटी में लगा रहता हूं ।”

“अरे, तो इसका मतलब, क्या हम नौकरी नहीं कर रहे ?”

“ऐसी बात नहीं, आप भी कर रहे हैं, पर ऑफिस की बाबूगिरी और पुलिस के सिपाही की नौकरी में बहुत अंतर है ?”

“क्या मतलब ?”

“मतलब यह कि इस समय हम इमर्जेंसी सेवा में लगे हुए हैं, हमारी ज़रा सी लापरवाही देश और लोगों के लिए मंहगी पड़ जाएगी ।”

“अरे अनिल, बहाना बनाकर छुट्टी लो, और ऐश करो ।”

“नहीं जी, यह मुसीबत का काल है, तो क्या हमें पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपनी ड्युटी से न्याय नहीं करना चाहिए ।”

“अरे,छोड़ो तुम भी । अब तुम मुझे ही ज्ञान बांटने लगे ।”

” नहीं भाई, इसमें ज्ञान की क्या बात है, मैं तो अपने दिल की बात कह रहा हूं ।”

दो दोस्त मोबाइल पर ये बातें कर ही रहे थे कि तभी सड़क पर दो मोटरसाइकिलें ज़बरदस्त ढ़ंग से एक-दूसरे से भिड़ गईं ।दोनों गाड़ियों के सवार छिटककर दूर जा गिरे । एक तो, जो अधिक घायल नहीं हुआ था, तत्काल खड़ा हो गया, पर दूसरा जो बहुत घायल हुआ था, वह अचेत हो चुका था। तत्काल ही एम्बुलेंस को बुलाकर ड्युटी पर तैनात सिपाही अनिल उसे अस्पताल लेकर पहुंचा । उसकी जांच करते ही डॉक्टर ने कहा कि घायल को लाने में अगर थोड़ी देर और हो गई होती,तो उसे बचाना मुश्किल होता।

घायल विवेक के पर्स में रखे आधार कार्ड से उसके पेरेंट्स का कॉन्टेक्ट नंबर लेकर जब पेरेंट्स को बुलाया गया, और उसके पिता आये, तो अनिल ने पाया कि विवेक तो उसके उसी दोस्त राकेश का ही बेटा है, जो कुछ देर पहले ही उसे मोबाइल से अपनी ड्युटी से बचने के उपाय बता रहा  था।

सच्चाई जानकर राकेश अनिल से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, वह बगलें झांकने लगा था ।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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