डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य सुदामा के तन्दुल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 204 ☆
☆ व्यंग्य ☆ सुदामा के तन्दुल

चुनाव के बादल गहरा रहे थे। पता नहीं कब बरस पड़ें। मंत्री जी ने अपने चुनाव क्षेत्र का ‘टूर’ निकाला। अब अपनी जनता की सुध लेना बहुत ज़रूरी हो गया था। यह बंगला, ये कारें, यह रुतबा सब जनता की मेहरबानी से है। दुबारा जनता की खोज-खबर लेने के दिन आ गये। 

मंत्री जी अपने फौज-फाँटे के साथ जमालपुर के डाक बंगले में रुके। उनके पहुँचते ही डाक-बंगला तीर्थ स्थल बन गया। लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। कुछ उनके परिचय के आदमी, कुछ अपने परिचय को भुनाने के इच्छुक, कुछ ऐसे ही कि ‘जगदीश भैया आये हैं, चलो मिल आते हैं’ वाले। बहुत से सयाने यह देखने आये कि ‘जगदिसवा अब हमें पहचानता है कि मिनिस्टर बन के भूल गया।’

बड़ी रात तक मंत्री जी अपने ‘आदमियों’ से घिरे, अपनी घटती लोकप्रियता को फिर से ऊपर ढकेलने की तरकीबें सोचते रहे। बहुत उधेड़बुन हुई, लेकिन साफ-साफ कुछ बात बनी नहीं। तरकीब ऐसी हो कि सब विरोधी चारों खाने चित्त गिरें।

सबेरे मंत्री जी उठे तो मन परेशान था। कौन सा दाँव लगायें कि दंगल जीत लें? मंत्री जी नाश्ता करते जाते थे और सोचते जाते थे। सामने गांधी जी का चित्र टँगा था। वही, घुटने तक धोती और हाथ में लाठी। मंत्री जी के दिमाग में कुछ कौंधा। लो, समाधान सामने है और ढुँढ़ाई दुनिया भर में हो रही है। जनता का मन जीतने के लिए अपने को गरीब जनता जैसा ही बनाना होगा। शान-शौकत दिखाने से वोट नहीं मिलने वाले।

निजी सचिव को बुलाया, कहा, ‘अस्थाना साहब, आज हम किसी गाँव के गरीब की झोपड़ी में विश्राम करेंगे। यह कूलर, यह पंखा सब बेकार। दोपहर का भोजन भी वहीं करेंगे। जो गरीब खाएगा वही खाएँगे। हमारे और गरीब के बीच भेद रहेगा तो हम उसका दिल कैसे जीतेंगे?’

अस्थाना साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी। भीतर से गुस्सा उठा— कहाँ कहाँ के खब्त इन पर सवार होते रहते हैं।

ऊपर से विनम्रता से बोले, ‘मैं कोई माकूल घर देख कर आपको सूचित करता हूँ सर।’

अस्थाना साहब सुरक्षा अधिकारी को लेकर निकले। सोचा, कस्बे का कोई घर चुनना ठीक नहीं। कस्बे के लोग बदमाश होते हैं। विरोधी लोग खामखाँ कोई तूल खड़ा कर देंगे। कस्बे से तीन चार मील दूर एक गाँव में गये। सरपंच से मुलाकात की, और सुखलाल का घर चुन लिया।

सुखलाल के घर में यह फायदा कि वह एक तो इतना गरीब घर नहीं की घुसते ही घिन आये। यानी कि ज़रा कायदे का गरीब। दूसरे, उसका घर सरपंच के घर के एकदम पास, करीब करीब सरपंच साहब की छत्रछाया में था। तीसरी बात यह कि सुखलाल के घर के पीछे एक दरवाज़ा था,कि कुछ चुपके से घर के भीतर  ‘स्मगल’ करना हो तो पीछे से चुपचाप लाया जा सके। यह बड़ी भारी सुविधा थी।

सरपंच साहब से कहकर सुखलाल के घर के आसपास सफाई करा दी गयी। घर की भी सफाई हुई, लेकिन इस तरह कि सब स्वाभाविक लगे। सालों से पल रहे जाले-जंगल साफ हो गये। मुद्दत से स्थायी आश्रय पाये कीड़ों- मकोड़ों को खदेड़ दिया गया। बहुत सा अंगड़-  खंगड़ दूर फेंक दिया गया। कुछ गैर-ज़रूरी सामान दूसरे घरों में स्थानांतरित कर दिया गया। सुखलाल को एक सलीके का गरीब बना दिया गया।

सुखलाल साफ-सुथरा कुर्ता धोती पहने यह सब भागदौड़ देखता घूमता था। कुर्ता सरपंच साहब का था, धोती नयी-नयी अस्थाना साहब ने बनिये के यहाँ से उठवा दी थी। घर की सफाई हो गयी। सामने की ऊँची नीची जमीन भी ठीक हो गयी। रास्ते में उगे आलतू फालतू झाड़ साफ हो गये। मिट्टी से सारा घर पोत दिया गया। टूट-फूट सुधर गयी। एक तरफ तुलसी का बिरवा कहीं से लाकर लगा दिया गया। नया घड़ा पानी से भर कर रख दिया गया। उस पर सब तरफ ‘साँतिये’ बना दिए गये। दरवाज़े पर आम के पत्तों की झालर लटका दी गयी।

सुखलाल कमर पर हाथ धरे दूल्हे के बाप की तरह घूमता था। कोई उसे कुछ करने ही नहीं देता था। सब काम अपने आप हो रहा था। पूरे गाँव के लोग उसे और उसके घर को ईर्ष्या से देखते थे।

सुखलाल के घर में दो झिलंगी खाटें थीं, ऐसी कि कोई अच्छा पाला-पोसा शरीर उन पर रख दिया जाए तो मूँज का दम टूट जाए। उन दोनों खाटों को घर से बाहर कर दिया गया। सरपंच साहब के घर से दो मजबूत, कसी हुई खाटें आयीं कि गरीबी का भ्रम भी बना रहे और मंत्री जी के शरीर को तकलीफ भी न हो।

आसपास के घरों में मंत्री जी के सहायकों और पुलिस वालों के विश्राम की व्यवस्था कर दी गयी। मंत्री जी का हुकुम था कि उन्हें छोड़कर बाकी लोग अपने अपने भोजन की व्यवस्था करके लायेंगे, लेकिन ऐसा कैसे होता? सरपंच को इशारा मिल गया था कि सबके लिए व्यवस्था करनी है। इशारा नहीं भी होता तो सरपंच साहब इतना गलत काम कैसे होने देते?

इसलिए सुखलाल के घर के पीछे भट्टी बनाई गयी। उस पर गाँव की पाक कला में कुशल महिलाओं को लगाया गया। सुखलाल की बीवी को उसके पास भी फटकने नहीं दिया गया। उसके बच्चे सकते की हालत में दूर खड़े सारा तमाशा देखते रहे। सुखलाल के घर के सामने तो थोड़े से ही लोग थे, लेकिन घर के पीछे मेला लग गया था। वही से सारा सामान ‘सप्लाई’ होना था। करीब बारह बजे मंत्री जी लाव-लश्कर के साथ पधारे। दरवाज़े पर उनकी आरती हुई। सुखलाल को उनके सामने पेश किया गया। मंत्री जी बोले, ‘भाई सुखलाल, आज हम तुम्हारे ही घर भोजन और विसराम करेंगे।’

सुखलाल बोला, ‘हमारे बड़े भाग हजूर।’

मंत्री जी हाथ उठाकर बोले, ‘हजूर वजूर मत कहो। प्रजातंत्र में सब बराबर हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। समझे?’

‘ऐसा न कहें हजूर।’

‘फिर वही हजूर? यह हजूर हजूर बन्द करो।’

सुखलाल बोला, ‘आप बड़े हैं मालिक। हम आप की बराबरी के कैसे हो सकते हैं? आपको हजूर न कहें तो क्या कहें?’

मंत्री जी हार गये। बोले, अच्छा चलो, तुम्हारे घर में चलते हैं।’

भीतर गये तो देखा मूँज की खाट पर नया दरी-चादर और उस पर गुदगुदा तकिया। मंत्री जी समझ गये, लेकिन अनदेखा कर दिया। तकिये के सहारे उठंग गये। गाँव के लोग खाट के पास सिमट आये। दुनिया भर की फरियादें, रोना-धोना। अस्थाना साहब हाथ में नोटबुक लिये सब के नाम और शिकायतें नोट करते थे। गाँव वालों को लगता था आज सारे संकट टल गये। दो घंटे तक यह कचहरी चलती रही।

घंटे बाद अस्थाना साहब आकर फुसफुसाये, ‘सर, खाना तैयार है।’

मंत्री जी मुड़कर सुखलाल से बोले, ‘कहो सुखलाल जी, हमें क्या खिलाओगे?’

सुखलाल हड़बड़ा गया। उसे पता नहीं था कि भट्टी पर क्या पक रहा है। उसने अस्थाना साहब की तरफ देखा। अस्थाना साहब बोले, ‘बताओ भई।’

सुखलाल क्या कहे? कुछ मालूम हो तो बताये।

मंत्री जी फिर मिठास के साथ बोले, ‘बताओ सुखलाल।’

सुखलाल ने पीछे आटे का बोरा देख लिया था। बोला, ‘हजूर, रोटी खिलाएंगे, और फिर जो सरपंच साहब की मरजी।’

अस्थाना साहब उसे घुड़क कर बोले, ‘सरपंच साहब की मरजी का क्या मतलब? खिलाना तो तुम्हें है।’

मंत्री जी भाँप कर बोले, ‘अच्छा, जो भी हो ले आओ।’

सरपंच साहब की पत्नी लंबा घूँघट खींचकर काँसे की चमकती थाली में भोजन रख गयी— दाल, सब्जियाँ, चटनी, रायता, रोटी, चावल। चावल बहुत बढ़िया तो नहीं, लेकिन मामूली भी नहीं। रोटियों में लगे घी का स्पष्टीकरण अस्थाना साहब ने दिया, ‘सर, इसके भाई के घर में गाय है। वहीं से घी और दही माँग लाया। हमने मना किया था, लेकिन नहीं माना।’

मंत्री जी मुस्कराये, पूछा, ‘किसने पकाया है?’

सुखलाल फिर चक्कर में। अस्थाना जी ने उसका उद्धार किया, कहा, ‘इसकी घरवाली ने, सर।’

मंत्री जी बोले, ‘वाह! बड़े भाग्यवान हो, सुखलाल।’

बड़े प्रेम से भोजन हुआ। पीछे पड़ी हुई मंत्री जी की बारात ने भी भोजन किया।

फिर मंत्री जी बोले, ‘भई, अब हम थोड़ा आराम करेंगे।’

थोड़ी देर में वे सो गये। नाक बजने लगी। सुखलाल खड़ा उन्हें पंखा झलता रहा।

तीन घंटे बाद मंत्री जी की नींद टूटी। अँगड़ाई लेकर उठे। बोले, ‘आज जैसी सुख की नींद बहुत दिन बाद आयी। गरीब के घर जैसा चैन और शांति कहीं नहीं। सच कहा है कि गरीब आदमी भगवान का रूप होता है।’

अस्थाना जी से बोले, ‘अस्थाना जी,आज भोजन में जो स्वाद मिला वह अपने बंगले के भोजन में कभी नहीं मिला। आत्मा तृप्त हो गयी। रोटी चटनी से ज्यादा स्वादिष्ट भोजन संसार में नहीं।’

फिर सुखलाल से बोले, ‘सुखलाल भाई, अब हम जाएँगे। आपके घर में और आपके भोजन में हमें बहुत आनन्द मिला। हम आपके हैं। हमें अपना समझिए। ऊपरी टीम- टाम देखकर हमें अपने से अलग मत समझिए।’

इसके बाद मंत्री जी सब को हाथ जोड़कर अपने काफिले के साथ चले गये। थोड़ी देर पहले का गुलज़ार वीरान हो गया। पीछे रह गये सामान को सहेजते सरपंच साहब और गाँव वाले। जैसे बारात की विदा हो जाने के बाद लड़की वाले रह जाते हैं।

मंत्री जी के जाने के बाद सुखलाल सरपंच से बोला, ‘हजूर, हमें भी भोजन दिलवा दो। हम तो रह ही गये।’

सरपंच जी ज़ोर से हँसे, बोले, ‘वाह! तुम्हारे नाम से दुनिया भोजन कर गयी और तुम्हीं रह गये?’

सुखलाल सपरिवार भोजन करने बैठा। सरपंच जी सामान समिटवाने में लगे थे। खाते-खाते सुखलाल कुछ सोच कर सरपंच से बोला, ‘हजूर, एक अरज है। अगली बार जब मंतरी जी आएँ तो हमारे घर में ही रहवास और भोजन होवे।’

सरपंच जी उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गये और सुखलाल झेंप कर सिर खुजाने लगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
3.5 2 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments