डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा ‘दरवाज़ा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 202 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ ‘दरवाज़ा’

देवेन्द्र जी पत्नी के साथ ससुराल के गाँव के मोड़ पर बस से उतर गये। यात्रा से शरीर हिल गया था। सामने कच्ची सड़क पेड़ों और खेतों के बीच लहराती हुई दूर तक चली गई थी। अब सूटकेस उठाये एक किलोमीटर कौन जाए? पत्नी के लिए वैसे भी घुटनों के दर्द के कारण चलना मुहाल था।

सन्देश दो दिन पहले आया था। एक रिश्तेदार ने सूचना दी थी कि देवेन्द्र जी के एकमात्र साले और तीन बहनों के एकमात्र बड़े भाई सुखपाल दादा अचानक चल बसे थे। देवेन्द्र जी की पत्नी गीता को खासा आघात लगा क्योंकि बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उसका मायके से लगाव ज़्यादा था और उसमें ज़िम्मेदारी-बोध भी कुछ ज़्यादा था।

दूसरी बात यह कि सुखपाल दादा को कोई तकलीफ नहीं थी। अभी डेढ़ माह पहले वे गीता के घर आये थे। तब उनके पैर में पट्टी ज़रूर बँधी थी। बताया कि घाव हो गया है जो दो-तीन महीने गुज़र जाने के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। देवेन्द्र जी ने सलाह दी थी कि मामले को गंभीरता से लिया जाए और ब्लड-शुगर की जाँच करा ली जाए, लेकिन आम देहातियों की तरह सुखपाल दादा ने बात को हँसी में उड़ा दिया था। देवेन्द्र जी ने भी फिर जाँच के लिए ज़ोर नहीं दिया। अब ज़रूर उन्हें थोड़ा अपराध-बोध हुआ कि जाँच करा देते तो शायद कुछ पता लग जाता, लेकिन इस विचार को उन्होंने ज़्यादा टिकने नहीं दिया।

मृत्यु का संदेश मिलने के बाद ससुराल पहुँचने में देवेन्द्र जी को दो दिन लग गये थे क्योंकि शहर में घर छोड़कर अचानक चल पड़ना नहीं हो सकता। घर की सुरक्षा का इंतज़ाम करना पड़ता है। एक बेटा बाहर है। दूसरा बेटा और बेटी कॉलेज में पढ़ते हैं। पड़ोसियों पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहा जा सकता। अंततः सारी मुसीबत खुद ही झेलनी पड़ती है। देवेन्द्र जी को झुँझलाहट भी लगी कि अचानक यह झंझट कहाँ से आ गयी।

सुखपाल दादा की स्थिति कभी अच्छी हुआ करती थी। पिता की छोड़ी काफी ज़मीन थी और गाँव में खासा रौब और रसूख था। लेकिन आय का दूसरा साधन न होने के कारण बहनों की शादी में काफी ज़मीन निकल गयी और सुखपाल दादा के पास इतनी ही बची कि साल भर छाती मारने के बाद किसी तरह गुज़र-बसर हो सके। इकलौते पुत्र होने और शिक्षा की कमी के कारण वे कहीं बाहर भी नहीं निकल सके। कुछ दिन बाद वे समझ गये कि वे ऐसे दुष्चक्र में फँस गये हैं जिस से बाहर निकलना मुश्किल था। गाँव का वातावरण, अशिक्षा और फिर खेती में चौबीस घंटे की ड्यूटी— विपत्ति का सारा इंतज़ाम था। इतनी आमदनी नहीं थी कि बच्चों को बाहर भेजकर शहर वालों जैसा सक्षम बनाया जा सके।

सुखपाल दादा की चार संतानें थीं— दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे और बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी। बड़ा बेटा खेती में ही रेत में से तेल निकालने में लगा था। छोटा किसी प्रकार परीक्षाओं में प्राइवेट बैठकर पढ़ाई की खानापूरी कर रहा था। उसे बार-बार पूरक परीक्षाओं में बैठना पड़ता था। छोटी बेटी बारहवीं तक पढ़ कर घर में बैठ गयी थी।

बड़ी बेटी की शादी सुखपाल दादा ने किसी प्रकार गिरते-मरते निपटायी। हालत यह हुई कि पलंग तो आया लेकिन गद्दा गायब। बैंड पास के गाँव का। बजाने वालों की ड्रेस और हाथ-पाँव गन्दे, केश और दाढ़ी बढ़ी। बाकी इंतज़ाम भी बेतरतीब। वर पक्ष के लोग भले थे, सो लड़की को लेकर बिना हल्ला-गुल्ला किये चले गये। लेकिन सुखपाल दादा के दोनों छोटे बहनोइयों का मुँह बहुत दिन तक फूला रहा। उन्हें लगा कि इस ‘लो स्टैंडर्ड’ शादी से उनकी शान में बट्टा लग गया। उनकी देखा-देखी उनकी पत्नियाँ भी बहुत दिन तक भाई से भकुरी रहीं।

ऐसा नहीं था कि सुखपाल दादा ने अपने दुष्चक्र से निकलने के लिए हाथ-पाँव न मारे हों। उन्होंने बहनों से अनुरोध किया था कि उनके बच्चों को अपने पास रख लें ताकि वे भी शहरी भाषा में ‘आदमी’ बन जाएँ। उन्होंने आश्वासन दिया था कि उन पर होने वाले खर्चे की भरपाई वे करेंगे, लेकिन तीनों बहनोइयों ने उनके अनुरोध को सिरे से खारिज कर दिया। बड़ी बहन गीता के मन में भाई के बच्चों के लिए करुणा थी, लेकिन देवेन्द्र जी ने घुटना अड़ा दिया। तर्जनी उठाकर कहा, ‘बिलकुल नहीं। दूसरे के बच्चों को रखने से अपने बच्चों पर होने वाले खर्चों में हमें क्या कटौती करनी पड़ेगी, यह हम अभी नहीं समझ पाएँगे। यह सेंटीमेंट की बात नहीं है। दूसरे बच्चे हमारे फैमिली सेट-अप पर क्या असर डालेंगे आपको अभी से क्या पता। बाद में आप दूसरे के बच्चे को भगा तो नहीं सकते।’

मँझली बहन कविता के साथ दूसरी समस्या थी। उसकी ससुराल वाले अपेक्षाकृत संपन्न थे, इसलिए वह सारे समय अपने मायके की दरिद्रता छिपाने और अपनी इज़्ज़त बचाने में लगी रहती थी। मायके से किसी के आने की खबर मिलते ही वह हिदायतों की फेहरिस्त भेज देती थी। उसके घर पहुँचने पर मायके के सदस्य और उसके सामान का बाकायदा मुआयना होता था और जो भी कोर-कसर हो उसे तत्काल दुरुस्त करने का निर्देश दिया जाता था। इसीलिए मायके के लोग उसके घर तभी जाते थे जब निकल भागने के सभी रास्ते बन्द हो जाएँ।

तीसरी बहन रेखा के साथ मनोवैज्ञानिक समस्या थी। सामान्य घर से शहर की चकाचौंध में आने के बाद उसे चीज़ों को इकट्ठा करने का ज़बरदस्त शौक लग गया था। उसके पतिदेव भी वैसी ही तबियत के थे। ग़ैरज़रूरी चीज़ें इकट्ठी करते-करते उनका घर कबाड़खाना बन गया था। वहाँ आदमी के अँटने की गुंजाइश कम रह गयी थी। किसी चीज़ के ज़रा भी इधर-उधर होने पर पति-पत्नी का पारा चढ़ जाता था। बच्चों को चीज़ें शत्रु लगने लगी थीं। ऐसे घर में और बच्चों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।

बहनोइयों के इस रुख़ के कारण सुखपाल दादा के अपने बच्चों की तरक्की के मंसूबे भ्रूणावस्था में ही दम तोड़ गये और उनके बेटे धरतीपुत्र ही बने रह गये। एक बार अपनी मजबूरी उघाड़ने के बाद सुखपाल दादा ने स्थितियों से समझौता कर लिया और बहनों के सामने दुखड़ा रोना बन्द कर दिया।

अब गाँव की ओर बढ़ते हुए वे सब बातें  याद कर के गीता को दुख हो रहा था। शायद बच्चों के जीवन का संतोषप्रद न होना ही दादा की अचानक मृत्यु का कारण बना हो। गाँव की वही सड़क जो कभी उस के मन को हुलास से भर देती थी अब उसे व्यथित कर रही थी। सूटकेस उन्होंने मोड़ की चाय की दूकान में छोड़ दिया। बता दिया कि बड़ा भतीजा हरपाल या छोटा श्रीपाल आकर ले जाएगा।

धीरे धीरे चलते हुए वे आधे घंटे में सुखपाल दादा के घर पहुँच गये। खपरैल के छप्पर वाला लंबा सा घर था। सामने कच्चे चबूतरे के बीच में बड़ा सा नीम का पेड़। एक तरफ चरई पर पाँच छः मवेशी खड़े थे। हरपाल बाहर ही मिल गया। पच्चीस छब्बीस साल का होगा। लंबा और स्वस्थ। घुटा हुआ सिर और छोटी सी चोटी। गीता उससे लिपट कर रोने लगी। हरपाल आँखें पोंछता चुप खड़ा रहा।

भीतर घुसते ही भाभी, छोटे भतीजे और दोनों भतीजियों से भेंट हुई। थोड़ी देर को कोहराम मचा, फिर सब संयत हुए। पता चला सुखपाल दादा घर के बाहर काम करते अचानक ही मूर्छित हो गये थे। ट्रैक्टर पर दूसरे गाँव ले जाकर डॉक्टर को दिखाया तो मालूम हुआ कुछ शेष नहीं है। बीमारी का पता नहीं चला। जहाँ जाँच-पड़ताल और इलाज की सुविधाएँ न हों वहाँ बीमारी का कारण जानना संभव भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में दुर्घटना को होनी मानकर स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं होता।

मृत्यु का आक्रमण घर पर असर डालता है। हँसी-खुशी से भरा घर कुछ वक्त के लिए मनहूस बन जाता है। शाम होने पर यह मनहूसियत और गाढ़ी हो गयी। घर में बिजली थी, लेकिन उसके आने जाने का कोई ठिकाना नहीं था। चौबीस घंटे में छः सात घंटे ही बिजली मेहरबान रहती।

दूसरे दिन दोनों शेष बहनें अपने पतियों के साथ आ गयीं तो देवेन्द्र जी को कुछ राहत मिली। सुखपाल दादा के जाने के बाद घर में कोई ऐसा बचा नहीं था जिससे इत्मीनान से कुछ बात की जा सके। साढ़ुओं के आने से बातचीत का ज़रिया बन गया और मनहूसी कुछ कम हुई।

घर में अतिथियों के सत्कार में कोई कसर नहीं थी। गरम पानी, दो तीन बार चाय और सुविधानुसार भोजन। भतीजे, भतीजियाँ सेवा में हाज़िर थे। देवेन्द्र जी ने सुखपाल दादा के पीछे पड़कर कुछ समय पहले एक फ्लश वाला टायलेट बनवा लिया था, लेकिन उसके ऊपर छप्पर इतना नीचा था कि खड़े होते वक्त सिर पर ठोका खाने की पूरी संभावना बनी रहती थी।

सारी सुविधाओं के बावजूद बिजली की अनुपस्थिति से खासी परेशानी थी। ए.सी. और कूलर के आदी शहरवासियों के लिए यह बड़ा संत्रास था। बहनोइयों का सारा वक्त करवटें बदलते और बाँस का पंखा झलते गुज़रता था। रात को ज़रूर बाहर चबूतरे पर नीम के नीचे सुकून मिलता था।

दोनों छोटी बहनों के पति एक दिन रुक कर उन्हें छोड़ कर चले गये थे। तेरहीं पर आकर ले जाएँगे। देवेन्द्र जी रुके रहे क्योंकि वे नौकरी से रिटायर हो चुके थे। दूसरे, पत्नी को ले जाने के लिए दुबारा कष्टप्रद यात्रा करने की ज़हमत वे उठाना नहीं चाहते थे।

दस ग्यारह दिन देवेन्द्र जी और तीनों बहनें वहाँ बनी रहीं। तीनों बहनें अपनी भाभी के पास बैठकर उनके मन को कुरेदने की कोशिश करतीं, उनकी परेशानियों, समस्याओं को जानने की कोशिश करतीं। खास तौर से गीता उनके मन तक पहुँचने की कोशिश करती। लेकिन घर के सदस्य उनके सामने कोई लाचारी प्रकट नहीं करना चाहते थे। बात चलते चलते जहाँ आर्थिक परेशानी पर पहुँचती, भाभी और उनके बच्चे बात को दूसरी तरफ मोड़ देते। लगता था जैसे कोई कपाट है जो तीनों बहनों के सामने आ जाता है। उसके पार उनका प्रवेश निषिध्द है। गीता दुखी हो जाती कि भाभी अपने दुख में उसे सहभागी नहीं बनाती। ज़्यादा दबाव पड़ने पर भाभी बात को ख़त्म करने के लिए कह देती, ‘हरपाल सयाने हो गये हैं। सब सँभाल लेंगे। चिन्ता करने से क्या होगा?’

भाभी से अनुकूल उत्तर न मिलने पर गीता हरपाल से टोह लेने की कोशिश करती। कुछ पता चले कि पैसे-टके का क्या इंतज़ाम है। ज़्यादा परेशानी तो नहीं है। लेकिन वहाँ से भी वही उत्तर मिलता— ‘सब ठीक है बुआजी। कोई परेशानी नहीं है।’

रोज़ के खर्च की बात माँ-बेटे के बीच ही दबे स्वर में हो जाती। किसी दूसरे को भनक न लगती कि स्थिति क्या है।

लाचार गीता ने दस हज़ार रुपये ज़बरदस्ती भाभी के पास रख दिये। कहा, ‘रखे रहो। न लगे तो वापस कर देना। ज़रूरत पड़े तो खर्च कर लेना।’

तेरहीं ठीक-ठाक हो गयी। सब धार्मिक कृत्य ठीक से निपट गये। फिर भोज में सब रिश्तेदार-व्यवहारी जुट आये। दोनों बहनोई तेरहीं पर फिर हाज़िर हो गये थे। खूब चहल-पहल हो गयी। दोपहर से शुरू हुआ भोजन का सिलसिला रात तक चलता रहा।

अब रुकने का कोई काम नहीं था। दूसरे दिन बहनोइयों ने रवानगी की तैयारी की। एक बार फिर बहनें दिवंगत भाई को याद करके रोयीं। भाई के जाने से मायके की सूरत बदल गयी थी। अब मायके से संबंध क्षीण ही होने हैं।

दोनों भाई हरपाल और श्रीपाल उन्हें छोड़ने रोड तक आये। बस के इंतज़ार के बीच में हरपाल ने एक पैकेट बड़ी बुआ को पकड़ा दिया, कहा, ‘अम्माँ ने आपके पैसे भेजे हैं। कहा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी।’

गीता को दुख हुआ, कहा, ‘इतना तो खर्च हुआ। रखे रहतीं तो क्या बिगड़ जाता? कहीं तो काम आते।’

हरपाल ने जवाब दिया, ‘बिना जरूरत रख कर क्या करते? इंतजाम हो गया था। आप लोग आ गये यही बहुत है।’

इतने में बस आ गयी और मेहमान उसमें सवार हो गये। बस के रवाना होते  ही मायके के दृश्य और भतीजों के चेहरे दूर होने लगे और कुछ क्षणों में सब धुँधला कर आँख से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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