श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 77 – पानीपत… भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे मुख्य प्रबंधक जी ऊंचे लोग, ऊंची पसंद और उससे भी ऊंची सोच के धनी थे. उनका ऐसा मानना था कि हमेशा इरादे बुलंद और ऊंचे होना चाहिए, इसलिए अगर मांगना ही हो तो वो मांगो जिसे मांगने के बारे में आम लोग सपने में भी न सोचें. इसी सोच के तारतम्य में उनका अगला लक्ष्य वापस उसी अंचल में जाना था जहाँ से वो आये थे और जहाँ उनका परिवार पदस्थ था. ये उनका व्यक्तिगत लक्ष्य था या महत्वाकांक्षा, इसका निर्णय करना मुश्किल था पर जो भी ये था या ऐसा था, उसका इस ब्रांच से कोई लेना देना नहीं था. आम जनता के लिए ये सोचना भी धृष्टता कही जाती, साथ ही सामान्य हो या असामान्य परिस्थिति, ये इतनी जल्दी संभव भी नहीं था, पर उनकी यह सोच इसलिए बनी कि

  1. वरिष्ठ प्रबंधन के लिये कोई स्थानांतरण नीति हैइच नहीं
  2. उनके द्वारा कोई स्थानांतरण व्यय क्लेम नहीं किया जायेगा क्योंकि यह स्थानांतरण स्वैच्छिक होगा.
  3. वो तो स्वयं जिस अंचल में जाना चाहते थे, वो दुर्गम और कठिनतम क्षेत्र माना जाता था जहाँ कोई भी आसानी से जाने को तैयार नहीं होता. अपने आप को आगे बढ़कर पेश करना किसी बलिदान या सुविधाओं का त्याग ही कहा जाने वाला पुरस्कृत कृत्य होता.
  4. उनका रुझान सिर्फ अंचल तक ही सीमित था जिसके अंदर वो कहीं भी किसी भी पद पर जाने को तैयार थे.

अतः अपने प्रबल संपर्कों के माध्यम से ऐसा अनौपचारिक संदेश through improper channel भेजा गया और सक्षम अधिकारी से मिलने की अनुमति का भी निवेदन किया गया. पर होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है तो जाहिर है कि सक्षम और अति वरिष्ठ प्रबंधन ने उनका अनौपचारिक निवेदन अस्वीकार कर दिया. बाद में फिर उसी अंचल के बैंक प्रायोजित ग्रामीण बैंक के वांछित पद के लिये भी आवेदन किया गया जिसके वे वैधानिक रूप से पात्र भी थे पर आश्चर्यजनक बात यह हुई कि अपनी नौकरी में वे पहली बार किसी साक्षात्कार में असफल हुये. उनके इर्दगिर्द सारे लोग भी अचंभित थे कि ऐसा क्यों हुआ. शायद बैंक अपने युवा मुख्य प्रबंधक को लूप लाईन में नहीं डालना चाहती थे. उन्हें कठिन से कठिन और चुनौतीपूर्ण एसाइनमेंट में तपा कर शुद्ध सोने की तरह ढालना चाहती थी जो उनकी कैरियर की अगली पादान में काम आये. हालांकि कुछ लोग ऐसा भी सोचते थे कि उनका स्वयं दुर्गम अंचल में जाने के लिये निवेदन करना गदाधारी भीम से गदा मांगने तुल्य धृष्टता थी. ये दुर्गम स्थान तो उनके लिये होते हैं जिनसे नाराजगी रहती है. अगर दूसरे लोग जब खुदबखुद जाने लगेंगे तो काला पानी की सजा के लिये दूसरा “अंडमान निकोबार” कहाँ मिलेगा. ये बात अलग है कि लोग एल. एफ. सी. पर भी वहीं जाकर बैंकाक सिंगापुर के लिये छलांग मारते हैं. जब उनके घरवापसी के सारे प्रयास धराशायी हो गये तो उनका अपनी संस्था से मोहभंग हुआ. काम करने के मामले में वे बहुत मजबूत थे और सोलह सोलह घंटे उनकी काम करने की क्षमता किसी भी प्रधानमंत्री की कार्यक्षमता को चुनौती दे सकने में सक्षम थी. उनकी नाराजगी इस बात पर थी कि अगर उनकी घर वापसी हो जाती तो वे तो सोलह क्या 18 घंटे भी काम कर सकते थे. पर उनके लिये बहुत कुछ आगे इंतजार कर रहा था जिसकी कल्पना उनके अलावा किसी और को भी नहीं थी. आगे क्या हुआ, इसके लिए अगले अंक का इंतजार कीजिए. इस कथा के सारे पात्र और स्थान पूरी तरह से काल्पनिक हैं और वास्तविकता से कोसों दूर हैं.

“जो बाहर से भरा दिखे पर अंदर से खाली हो उसे टैंकर कहते हैं और जो पढ़कर भी चुपचाप आगे बढ़ ले उसे बैंकर कहते हैं. ” जय जिनेन्द्र!!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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