श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर श्री जयशंकर प्रसाद जी से किए गए सवाल जवाब का अंतिम भाग “आमने-सामने…”)

☆ परिचर्चा — हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-2 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देश के जाने-माने व्यंग्यकारों ने विगत दिनों व्यंंग्यकार जय प्रकाश पाण्डेय से सवाल जबाव किए। विगत अंक में व्यंंग्यकार श्री मुकेश राठौर (खरगौन) एवं श्री प्रभाशंकर उपाध्याय (गंगानगर) जी के सवालों के जवाब आपसे साझा किये थे। आज आमने-सामने में प्रस्तुत है व्यंंग्यकार डॉ ललित लालित्य (दिल्ली), श्री आत्माराम भाटी (बीकानेर), श्री शशांक दुबे (मुंबई), श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल), श्री रमेश सैनी (जबलपुर), श्री अशोक व्यास (भोपाल) एवं डॉ अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) जी के सवालों के जवाब के अंश —

व्यंंग्यकार डॉ ललित लालित्य (दिल्ली)

प्रश्न – १ – पांडेय जी आप चुपचाप काम करने वाले व्यंग्यकार हैं जबकि आपके जूनियर कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।

प्रश्न – २ – क्या आप मानते है कि व्यंग्यकार को ईमानदार होना चाहिए,चुगलखोर या ईर्ष्यालु नहीं ?

प्रश्न – ३ – क्या जीते जी व्यंग्यकार मंदिर बनवा कर पूजे जाएं यह कहाँ की भलमान्सियत है ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

उत्तर (१) – सर जी,लेखन में कोई जूनियर, सीनियर या वरिष्ठ, कनिष्ठ या गरिष्ठ नहीं होता, ऐसा हमारा मानना है। ईमानदारी और दिल से जितना कुछ संभव हो, वही संतुष्टि देता है। यदि कोई कहां से कहां पहुंच भी गया तो खुशी की बात है, उसकी प्रतिभा उसका अध्ययन उसे और ऊपर ले जाएगा।

उत्तर (२) – ईमानदार और दीन-दुखी जन जन के साथ खड़ा लेखक ही असली व्यंंग्यकार कहलाने का हकदार है, जैसे आप हर दिन आम आदमी की दैनिक जीवन में आने वाली विसंगतियों और पाखंड पर रोज लिखकर आम आदमी के साथ खड़े दिखते हो। समाज की बेहतरी के लिए व्यंंग्यकार की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए, ईमानदार प्रयास ही इतिहास में दर्ज होते हैं, फोटो और बोल्ड लेटर के नाम पानी के बुलबुले हैं। भाई,व्यंंग्यकार ही तो है जो जुगलखोरी और ईर्षालुओं के विरोध में लिखकर उनके चरित्र में बदलाव की कोशिश करता है।

उत्तर (३) – ऐसे लोगों को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो आत्म प्रचार और आत्ममुग्धता के नशे में जीते जी मंदिर बनवाने की कल्पना करते हैं। ऐसे लेखक के अंदर खोट होती है, वे अंदर से अपने प्रति भी ईमानदार नहीं होते,जो लोग ऐसे लोगों के मंदिर बनवाने में सहयोग देते हैं वे भी साहित्य के पापी कहलाने के हकदार हो सकते हैं।

व्यंंग्यकार श्री आत्माराम भाटी(बीकानेर)

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए, दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था, आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

व्यंंग्यकार श्री शशांक दुबे (मुंबई)

पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर *हरिशंकर परसाई जी* का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से।पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।

परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या,, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी,सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।

व्यंंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल) 

आप लंबे समय तक बैंकिंग सेवाओं मे थे,बैंक हिंदी पत्रिका छापते हैं,आयोजन भी करते हैं। 

आप क्या सोचते हैं की व्यंग्य, साहित्य के विकास व संवर्धन में संस्थानों की बड़ी भूमिका हो सकती है ? होनी चाहिये ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

विवेक भाई, हम लगातार लगभग 36साल बैंकिंग सेवा में रहे और शहर देहात, आदिवासी इलाकों के आलावा सभी स्थानों पर लोगों के सम्पर्क में रहे और अपने ओर से बेहतर सेवा देने के प्रयास किए।पर हर जगह पाया कि बेचारे दीन हीन गरीब,दलित,किसान, मजदूर,दुखी है पीड़ित हैं,उनकी बेहतरी के लिए लगातार सामाजिक सेवा बैंकिंग के मार्फत उनके सम्पर्क में रहे, गरीबी रेखा से नीचे के युवक युवतियों को रोजगार की तरफ मोड़ा, दूरदराज की ग़रीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत मदद की मार्गदर्शन दिया। प्रशासनिक कार्यालय में रहते हुए गृह पत्रिकाओं के मार्फत गरीबों के उन्नयन के लिए स्टाफ को उत्साहित किया, बिलासपुर से प्रतिबिंब पत्रिका, जबलपुर से नर्मदा पत्रिका, प्रशिक्षण संस्थान से प्रयास पत्रिका आदि के संपादन किए, और जो थोड़ा बहुत किया वह आदरणीय प्रभाशंकर उपाध्याय जी के उत्तर में देख सकते हैं। बैंक में रहते हुए साहित्य सेवा और सामाजिक सेवा से समाज को बेहतर बनाने की सोच में उन्नयन हुआ, दोगले चरित्र वाले पात्रों पर लिखकर उनकी सोच सुधारने का अवसर मिला। कोरोना काल में विपरीत परिस्थितियों के चलते बैंकों में अब समय खराब चल रहा है इसलिए आप जैसा सोच रहे हैं उसके अनुसार अभी परिस्थितियां विपरीत है।

व्यंंग्यकार श्री रमेश सैनी (जबलपुर) 

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है,विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है,जो फसल को नष्ट कर रही है। 

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ? 

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है,अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता,हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

व्यंंग्यकार श्री अशोक व्यास (भोपाल) 

मेरा प्रश्न है कि आजकल जो व्यंग्य पढ़ने में आ रहे हैं उसमें  साहियकारों  पर जिसमें अधिकतर व्यंग्यकारों पर व्यंग्य किया जा रहा है । क्या विसंगतियों को अनदेखा करके दूसरे के नाम पर अपने आप को व्यंग्य का पात्र बनाने में खुजाने जैसा मजा ले रहे हैं हम ?  

जय प्रकाश पाण्डेय –

भाई साहब,सही पकड़े हैं।हम आसपास बिखरी विसंगतियों, विद्रूपताओं, अंधविश्वास को अनदेखा कर अपने आसपास के तथाकथित नकली व्यंंग्यकारों को गांव की भौजाई बनाकर खुजाने का मजा ले रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि इनकी मोटी खाल खुजाने से कुछ होगा नहीं,वे नाम और फोटो के लिए व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं।

व्यंंग्यकार डॉ अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) 

आपने परसाईं जी का साक्षात्कार  भी किया है।

उस साक्षात्कार  के अनुभव क्या रहे?

आज यह कहा जा रहा है,व्यंग्य कार खुल कर नहीं  लिख रहे,अक्सर व्यंग्य  चर्चाओं में  बहस छोड़ रही है ।

कितने सहमत  हैं, आप?

क्या अभिव्यक्ति  के खतरे पहले नहीं  थे?

आपके लेखन में आप इसे कितना  उठाते हैं, या स्टेट बैंक  के महाप्रबंधक  पद रहकर उठाए?

परसाई जी से आप अपने लेखन  को लेकर चर्चा  करते थे?

जय प्रकाश पाण्डेय –

डॉ अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है। 

वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।

 1- सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई,तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हम उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे,हम दंग रह गए थे।

2- हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।

3- आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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