श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “कई सुखनवर कहते हैं…”)

? ग़ज़ल # 70 – “कई सुखनवर कहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ग़ज़ल बनती नहीं है महबूबा तेरे बिना,

जमता नहीं रदीफ़्र क़ाफ़िया तेरे बिना।

ग़र तू नज़दीक हो कुछ न चाहिए मुझे,

दुश्वार है मुझे ए सनम जीना तेरे बिना।

दिखता मुझे तेरा ही अक्स भरे प्यालों में,

मय भी अब ज़हर लगे है जाना तेरे बिना।

हर काम करने का आता है सलीक़ा तुम्हें,-

मुमकिन नहीं है घर का सँवरना तेरे बिना

कई सुखनवर कहते हैं बहुत अच्छी ग़ज़ल,

फीकी लगे है महफिल ऐ दिलारा तेरे बिना।

तेरा सुर मिले तो दिलसाज़ हो मेरी ग़ज़ल,

आतिश मोशिकी लगे है ग़मज़दा तेरे बिना।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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