श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 185 विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ?

न चोरहार्यं न च राजहार्यं

न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्धते एव नित्यं

विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥

जिसे चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता, भाई बांट नहीं सकता, जिसका किसी तरह का कोई अतिरिक्त भार अनुभव नहीं होता, व्यय करने पर जो नित्य बढ़ता है, ऐसा विद्या रूपी धन सभी प्रकार के धनों में श्रेष्ठ है।

विद्या-धन से समृद्ध होना अर्थात केवल काग़ज़ पर छपा पढ़कर रट्टू तोता बनना नहीं होता। विद्या-धन वह, जो जानकारी से होते हुए ज्ञान तक ले जाए। यदि विद्या यह यात्रा नहीं कराती तो साक्षर व्यक्ति भी अज्ञानी ही कहलाता है।

एक लोकप्रिय प्रसंग है। एक साक्षर विद्वान, यात्रा पर थे। उन दिनों पदयात्रा हुआ करती थी। मार्ग में उन्हें तीव्र प्यास लगी। वे समीप के गाँव में पहुँचे। एक महिला कुएँ पर पानी भर रही थी।

विद्वान ने महिला से पीने के लिए जल मांगा। महिला ने कहा, “जल तो मिल जाएगा परंतु मैंने आपको आज से पूर्व कभी गाँव में नहीं देखा। कृपा करके अपना परिचय दीजिए।” ग्रामीण महिला को अपना परिचय देना विद्वान को अपमानास्पद लगा। तथापि सूखते कंठ की विवशता थी। किसी तरह स्वयं को नियंत्रित रखते हुए कहा, “मैं अतिथि हूँ।” महिला हँस पड़ी। बोली, “अतिथि तो दो ही होते हैं, धन और यौवन।” विद्वान महोदय कुछ विस्मित हुए। तब भी साक्षरता का अहंकार झुकने को तैयार नहीं था। तनिक झुंझला कर बोले,”मैं सहनशील हूँ।”। महिला फिर हँसी। बोली, “संसार में सहनशील तो दो ही हैं। एक पृथ्वी माता जो सारे अत्याचार सहकर, सबका बोझ उठाकर भी अन्न देती है। दूसरा वृक्ष जो पत्थर की चोट खाकर भी फल देता है।”

विद्वान की झुंझलाहट और हठ दोनों ही बढ़ चले। इस बार कहा, “सुनो, मैं हठी हूँ।” महिला ने ठहाका लगाया। बोली, “जगत में हठी तो दो ही हैं, हमारे नाखून और बाल। कितना ही काटो, फिर-फिर बढ़ जाते हैं। इनके हठ के आगे अन्य सारे हठ तुच्छ हैं।” अंतत: विद्वान को अपनी लघुता की अनुभूति हुई। इस बार विनम्रता से कहा, “देवी सत्य कहूँ, मुझे लगता है कि साक्षरता के अहंकार में ज्ञान से मैं वंचित रहा। वास्तविक ज्ञानी तो आप हैं। अब मुझे अपना परिचय मिला है। वस्तुत: मैं अज्ञानी हूँ।” विद्वान को आश्चर्य हुआ कि महिला इस बार भी हँसी। कहा, “जगत में अज्ञानी दो ही हैं। ऐसा राजा या राजवंशी जो बिना किसी योग्यता के राज करना चाहता है। दूसरे वे दरबारी जो राजा के अनुचित निर्णय में भी उसे प्रसन्न रखने के लिए उसकी प्रशंसा करते हैं।”

साक्षर अब ज्ञानमार्ग पर प्रशस्त हुआ। इस प्रसंग के पात्रों का उल्लेख अनेकदा महान कवि कालिदास और माँ सरस्वती के बीच संवाद के रूप में भी होता है।

प्रसंग नहीं, प्रसंग से प्राप्त प्रेरणा, प्रेरित होकर ज्ञानार्जन के पथ पर चलना महत्वपूर्ण है। ज्ञान का पथ अविराम है। ज्ञान का पथ ज्ञान की अकूत संपदा तक ले जाता है।

विद्या के सार्थक ग्रहण ओर समुचित क्रियान्वयन से उपजी ज्ञान की संपदा शाश्वत होती है। एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी, एक युग से अगले युग, उसके अगले युग तक, समय के आरंभ से समय के विराम तक बची रहती है ज्ञान की जननी विद्या। इसीलिए कहा गया है, ‘विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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