डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी पापा का बर्डे । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 179 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ पापा का बर्डे

गोपू की आँख सवेरे ही खुल गयी। पापा और बड़ा भाई अनिल अभी सो रहे थे। मम्मी उठ गयी थीं। आधी आँखें खोल कर थोड़ी देर इधर उधर देखने के बाद उसने उँगलियों पर कुछ हिसाब लगाना और धीरे-धीरे कुछ बोलना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ सुनकर बगल में दूसरे पलंग पर सोये नीरज ने आँखें खोल कर उसे देखा, बोला, ‘चुप रह। सोने दे।’

वह सोने के लिए सिर पर चादर खींचने लगा, लेकिन गोपू ने उसकी चादर अपनी तरफ खींच ली। बोला, ‘पापा उठो, सवेरा हो गया।’

नीरज ने झूठे गुस्से से उसकी तरफ देखा। गोपू उसके अभिनय पर हँस कर बोला, ‘पापा, आज कौन सी डेट है?’

नीरज बोला, ‘ट्वंटी-फस्ट।’

गोपू बोला, ‘ट्वंटी-फिफ्थ को कितने दिन बचे?’

नीरज बोला, ‘चार दिन। मैं जानता हूँ तू क्यों पूछ रहा है। शैतान।’

गोपू ताली बजाकर बोला, ‘अब आपके बर्डे को चार दिन बचे।’

नीरज उठते उठते बोला, ‘चाट गया लड़का। जब देखो तब पापा का बर्डे। इस लड़के को पता नहीं कितना याद रहता है।’

गोपू छत की तरफ देख कर बोला, ‘हम ट्वंटी-फिफ्थ को पापा का बर्डे मनाएंगे।’

आठ दस दिन से गोपू का यही रिकॉर्ड बज रहा है। हर एक-दो दिन में याद कर लेता है कि पापा के बर्डे के कितने दिन बचे हैं। उसे किसी ने बताया भी नहीं। अपने आप ही उसे पापा का बर्डे याद आ गया। पाँच साल का है, लेकिन उसकी याददाश्त ज़बरदस्त है। अपने सब दोस्तों के बर्थडे उसे कंठस्थ हैं।

आज इतवार है, स्कूल की छुट्टी है। इसलिए गोपू को आराम से अपनी योजनाएँ बनाने का मौका मिल रहा है। मम्मी से कहता है, ‘हम पापा के लिए कार्ड बनाएँगे। मम्मी, मैं नीरू दीदी के घर जाऊँगा। वे खूब अच्छा कार्ड बनाती हैं।’

दिव्या उसकी बात सुनकर कहती है, ‘हाँ, चले जाना। पापा के बर्थडे की सबसे ज्यादा फिक्र तुझे ही है।’

गोपू पूछता है, ‘मम्मी, केक मँगाओगी?’

दिव्या कहती है, ‘केक बच्चों के बर्थडे में कटता है। बड़ों के बर्थडे में ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ कौन गायेगा?’

गोपू मुट्ठी उठा कर कहता है, ‘मैं गाऊँगा। आप केक तो मँगाना। केक के बिना मजा नहीं आएगा।’

उसकी भोली बातें सुनकर नीरज की समझ में नहीं आता कि वह क्या करे। बच्चों को समझाया भी नहीं जा सकता। चार-पाँच दिन से उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता। पाँच दिन पहले उसकी कंपनी ने उससे इस्तीफा ले लिया है। पाँच दिन से वह सड़क पर है। बारह साल की नौकरी पाँच मिनट में खत्म हो गयी। कंपनी अपने निर्णय का कारण बताना ज़रूरी नहीं समझती। गुपचुप कर्मचारियों की सेवाओं की नापतौल होती रहती है, और फिर किसी भी दिन बुलाकर इस्तीफा ले लिया जाता है। इस वजह से कर्मचारी सब दिन सूली पर लटके रहते हैं। इस्तीफा एक कर्मचारी से लिया जाता है, लेकिन चेहरे सबके सफेद पड़ जाते हैं।

अब नीरज के सामने गृहस्थी और बच्चों के भविष्य की चिन्ता है। नौकरी आसानी से मिलती कहाँ है? अब असुरक्षा-बोध और बढ़ गया है। जब बारह साल पुरानी नौकरी नहीं टिकी, तब नयी नौकरी की क्या गारंटी? अब तो हमेशा यही लगेगा जैसे सर पर तलवार लटकी है। उसे सोच कर आश्चर्य होता है कि अधिकारियों के चेहरे एक मिनट में कैसे बदल जाते हैं।

दिव्या को बहुत चिन्ता होती है क्योंकि नौकरी छूटने के बाद से नीरज ज़्यादातर वक्त कमरे में गुमसुम बैठा या लेटा रहता है। लाइट जलाने के लिए मना कर देता है। नौकरी खत्म होने से समाज में आदमी का स्टेटस खत्म हो जाता है। परिचितों की आँखों में सन्देह और अविश्वास तैरने लगता है। जल्दी ही न सँभले तो बाज़ार में साख खत्म हो जाती है। इसीलिए नीरज चोरों की तरह पाँच दिन से घर में बन्द रहता है। किसी का हँसना- बोलना उसे अच्छा नहीं लगता। बच्चों पर भी खीझता रहता है। उसकी मनःस्थिति समझ कर दिव्या का चैन भी हराम है।

लेकिन गोपू को इन सब बातों से क्या लेना देना? उसे तो पापा का बर्डे मनाना है। खूब मस्ती होगी। खाना-पीना होगा।

अगले दिन मम्मी से कहता है, ‘मम्मी, नीरू दीदी के यहाँ कब चलोगी? फिर कार्ड कब बनेगा?’

दिव्या का मन कहीं जाने का नहीं होता। उसे लगता है लोग नीरज की नौकरी को लेकर सवाल पूछेंगे। अब शायद लोग उससे पहले जैसे लिहाज से बात न करें। उसने तो किसी को नहीं बताया, लेकिन बात फैलते कितनी देर लगती है! नीरज के कंपनी के साथी तो इधर-उधर चर्चा करेंगे ही।

गोपू ने मम्मी को अनिच्छुक देखकर भाई अनिल को पकड़ा। ‘चलो भैया, नीरू दीदी के घर चलें। पापा का बर्डे-कार्ड बनवाना है। मम्मी नहीं जातीं।’

अनिल को खींच कर ले गया। बड़ी देर बाद लौटा तो खूब खुश था। बोला, ‘नीरू दीदी ने कहा है कल या परसों दे देंगीं। खूब अच्छा बनाएँगीं।’

फिर उसने माँ से पूछा, ‘मम्मी, आप पापा को क्या गिफ्ट देंगीं?’

दिव्या बुझे मन से बोली, ‘मैं क्या गिफ्ट दूँगी! कुछ सोचा नहीं है।’

गोपू बोला, ‘मैं पापा के लिए एक पेन खरीदूँगा। बटन दबाने से उसमें लाइट जलती है। आप मुझे गिफ्ट खरीदने के लिए पैसे देना।’

दिव्या ने कहा, ‘तुझे गिफ्ट देना है तो पैसे मुझसे क्यों माँगता है?’

गोपू मुँह फुलाकर बोला, ‘ठीक है, मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए। मैं अपनी गुल्लक के पैसों से खरीदूँगा।’

दिव्या ने हार कर कहा, ‘बड़ा आया गुल्लक वाला! ठीक है, मैं पैसे दे दूँगी।’

चौबीस तारीख की शाम को गोपू ने भाई के साथ जाकर पापा के लिए गिफ्ट खरीदी, फिर कार्ड लाने के लिए नीरू दीदी के घर गया। नीरू दीदी के घर से लौटा तो उसके हाथ में एक पॉलीथिन का बैग था। बैग को पीठ के पीछे पकड़े घर में घुसा। ज़ाहिर था बैग में पापा का बर्थडे-कार्ड था, लेकिन अभी किसी को देखने की इजाज़त नहीं थी। बोला, ‘अभी कोई नईं देखना। कल पापा को दूँगा, तभी सब को दिखाऊँगा।’

गोपू ने पॉलिथीन बैग को बड़ी गोपनीयता से अपने स्कूल-बैग में छिपा दिया। उसमें  यह समझ पाने की चालाकी नहीं थी कि स्कूल-बैग में ताला नहीं था और उसके सो जाने पर कार्ड की गोपनीयता भंग हो सकती थी।

उसके सो जाने पर अनिल ने उसके बैग से कार्ड निकाल लिया। नीरू ने खूब अच्छा कार्ड बनाया था। सामने फूलों के बीच में ‘हैप्पी बर्थडे, डियर पापा’ लिखा था। भीतर पापा का बढ़िया कार्टून था। नीरू अच्छी कलाकार है। कार्टून के नीचे लिखा था ‘पापा,ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट। आई लव यू वेरी मच।’ नीचे लिखा था ‘गोपू’, और उसके नीचे गोपू का कार्टून था।

दूसरे दिन सुबह नींद खुलने पर गोपू ने आँखें मिचमिचाकर पापा को देखा, फिर बोला, ‘हैप्पी बर्डे पापा।’ सुनकर नीरज का दिल भर आया। इस बेरोज़गारी के सनीचर को भी अभी लगना था!

फिर उठकर लटपटाते कदमों से गोपू अपने स्कूल-बैग तक गया, उसमें से कार्ड और पेन निकालकर पापा को दे कर अपनी लाख टके की मुस्कान फेंकी।

अनिल उसे चिढ़ाने के लिए पीछे से बोला, ‘ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट।’ गोपू ने पलट कर देखा। समझ गया कि उसका कार्ड रात को देख लिया गया। मुँह फुला कर भाई से बोला, ‘मेरा कार्ड चोरी से देख लिया। गन्दे।’

अनिल ताली बजाकर हँसा।

थोड़ी देर में गोपू की फरमाइश आयी, ‘मम्मी, आपने मिठाई नहीं मँगायी? बर्डे पर मिठाई मँगाते हैं।’

दिव्या ने जवाब दिया, ‘मँगाती हूँ,बाबा। दूकान तो खुलने दे।’

स्कूल जाते वक्त बोला, ‘अच्छा खाना बनाना। खीर जरूर बनाना।’

नीरज और दिव्या संकट में हैं। बच्चे को खुश रखने के सिवा और किया भी क्या जा सकता है?

एक दिन उसके मन की कर दी जाए, फिर चिन्ता करने को ज़िन्दगी पड़ी है। तय हुआ कि शाम को खाना लेकर किसी पार्क में हो लिया जाए। वहीं खाना-पीना हो जाएगा और बच्चों को मस्ती करने के लिए जगह मिल जाएगी। होटल में जाना वर्तमान स्थिति में बुद्धिमानी की बात नहीं होगी।

शाम को वे खाना लेकर बच्चों को शिवाजी पार्क ले गए। साफ सुथरी जगह, अच्छा लॉन और बच्चों के खेलने के लिए झूले, फिसलपट्टी और मेरी-गो-राउंड। गोपू मस्त हो गया। झूले में झूलते और फिसलपट्टी में फिसलते खूब हल्ला-गुल्ला मचाता। माँ-बाप उसकी सुरक्षा की फिक्र में आसपास मुस्तैद रहे। फिर दोनों भाइयों ने घास में खूब धींगामुश्ती की। पार्क से गोपू खूब खुश लौटा।

नीरज और दिव्या भी कुछ अच्छा महसूस कर रहे थे। पाँच दिन से मन पर बैठा विषाद कुछ हल्का हो गया था। घर से बाहर निकले, प्रकृति का सामीप्य मिला और बच्चों के साथ दौड़-भाग हुई तो लकवाग्रस्त पड़ी बुद्धि में कुछ चेतना लौटी। नीरज को लगा नौकरी खत्म होने के साथ ज़िन्दगी खत्म नहीं होती। अभी सब दरवाजे़ बन्द नहीं हुए।

उसके पास अपना अनुभव और योग्यता है। दस्तक देने पर शायद कोई और दरवाज़ा खुल जाए।

उसने विचार किया। अभी उसके पास बहुत पूँजी है। प्यारे बच्चे हैं। समझदार पत्नी है। काम का अनुभव है। मुसीबत के वक्त ये बड़ी नेमत हैं। उसने अपने सिर को झटका दिया। मुसीबत आयी है, लेकिन उदासी में डूबे रहना समझदारी की बात नहीं है। गाँठ की कार्यक्षमता में दीमक लगनी शुरू हो जाएगी।

बच्चे सो गये तो उसने दिव्या की ठुड्डी पकड़कर उसके चिन्ताग्रस्त चेहरे को उठाया, कहा, ‘मैं बेवकूफ था जो इतने दिन फिक्रमन्द होकर बैठा रहा। परेशान मत हो। मैं दूसरी नौकरी ढूँढ़ूँगा। जल्दी ही कोई रास्ता निकलेगा। चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा।’

पति की बात सुनकर दिव्या की आँखें भर आयीं। चिन्ता के बादल छँट गये। चेहरे पर आशा का भाव छा गया। उसने एक बार फिर पति की आँखों में झाँका और आश्वस्त होकर पाँच दिन बाद शान्ति की नींद में डूब गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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