श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 175 समन्वय ?

मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी, शरीर का केंद्रीय स्तम्भ है। इस स्तम्भ का लचीलापन ही इसकी शक्ति है। शारीरिक  के साथ-साथ मानसिक लचीलापन, जीवन को स्वस्थ रखता है। समन्वय जीवन में अनिवार्य है। मानसिक लचीलापन समन्वय का आधार है।

परिजनों या परिचितों से थोड़ी-सी मतभिन्नता होने पर अधिकांश लोगों को लगता है कि वे विपरीत वृत्ति के हैं। उनसे समन्वय नहीं सध सकता। साधने के लिए चाहिए साधना। साधना के अभाव में समन्वय तो अस्तित्व ही नहीं पाता। हर साधना की तरह समन्वय भी समर्पण चाहता है, उदारता चाहता है, भिन्न-भिन्न स्वभाव को समान सम्मान देना चाहता है।

दृष्टि निरपेक्ष है तो सृष्टि में हर कहीं समन्वय है। दूर न जाते हुए स्वयं को देखो। शरीर नश्वर है, आत्मा ईश्वर है। एक हर क्षण मृत्यु की ओर बढ़ता है, दूसरा हर क्षण नये अनुभव से निखरता है। फिर आता है वह क्षण, जब शरीर और आत्मा पृथक हो जाते हैं लेकिन नयी काया में फिर साथ आते हैं।

देह व देहातीत के समन्वय पर पार्थ का मार्गदर्शन करते हुए पार्थसारथी ने कहा था,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

सांख्ययोग की मीमांसा का यह योगेश्वर उवाच भी देखिए-

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।

युद्ध का एक अर्थ संघर्ष भी है। संघर्ष अपने आप से, संघर्ष अंतर्निहित समन्वय के दर्शन हेतु।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा द्वारा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करने की प्रक्रिया होती है।

जैसा पहले उल्लेख किया गया है, देह का नाशवान होना, आत्मा का अजन्मा होना, फिर मर्त्यलोक में कुछ समय के लिए दोनों का साथ आना, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ना होना.., समन्वय का ऐसा अनुपम उदाहरण ब्रह्मांड में और कौनसा होगा?

सृष्टि समन्वय से जन्मी, समन्वय से चलती, समन्वय पर टिकी है। दृष्टिकोण समन्वित करो,  सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन समन्वय दृष्टिगोचर होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments