प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #117 ☆  ग़ज़ल  – “विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बुराई बढ़कर भी आई हारती हर काल में

मकड़ियां फँसती रही नित आप अपने जाल में।।

 

समझता हर व्यक्ति खुद को सदा औरों से भला

पर भला वह है जो हो वैसा सबों के ख्याल में।।

 

वे बुरे जन जो हैं जीते आज ऊंची शान से

कल वही जाते हैं देखे भटकते बद हाल में।।

 

कर्म से किस्मत बनाई जाती है अपनी स्वतः

है नहीं सच यह कि सब कुछ लिखा सब के भाल में।।

 

प्रकृति देती पौधों को सुविधाएं प्रायः एक सी

बढ़ते हैं लेकिन वही, जीते हैं जो हर हाल में।।

 

धूप, आँधी, शीत, वर्षा, उमस सह लेते हैं जो

फूल सुन्दर सुरभिमय खिलते उन्हीं की डाल में।।

 

सत्य, श्रम, सद्कर्म मानव धर्म है हर व्यक्ति का

आदमी लेकिन फंसा है व्यर्थ के जंजाल में।।

 

मन में जिनके मैल, अधरों पै कुटिल मुस्कान है

तमाचा पड़ता सुनिश्चित कभी उनके गाल में।।

 

चाहते जो जिन्दगी में सुख यहाँ संसार में

स्वार्थ कम, चिन्ता अधिक सब की करें हर हाल में।।

 

विश्व भौतिक है मगर आध्यात्मिक है जिंदगी

ध्यान ऐसा चाहिये हम सब को हर आमाल में।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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