श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 150 ☆

☆ ‌आलेख – श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा रहस्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(दो शब्द रचनाकार के – आज मुझे पुरोहित कर्म करते हुए काफी समय गुजर गया है अपनी पुरोहित कर्म के दौरान तमाम जिज्ञासु जन मुझसे प्रश्न करते रहे कि आखिर वह कौन सी कथा थी जिसे भगवान विष्णु जी ने दरिद्रता से मुक्ति के लिए उस गरीब को उपाय के रूप में सुनाया। अपने अध्ययन में मैंने जो भी तथ्य पाया उसे जिज्ञासु जन की जिज्ञासा शांत करने के लिए सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ । इस प्रस्तुति का आधार पौराणिक मान्यताओं-कथाओं के तथ्य पर आधारित है, जो किसी विवाद को नहीं स्वीकार करता। इसका समर्थन अथवा विरोध पाठक वर्ग के स्वविवेक पर निर्भर है।)

श्री सत्य नारायण कथा का मूल उदगम स्कंध पुराण के रेवा खंड से लिया गया है। पौराणिक श्रुति के अनुसार मृत्यु लोक के दुख पीड़ा जैसी तमाम कष्टो से जूझते हुए प्राणी के मुक्ति के लिए नैमिषारण्य  तीर्थ क्षेत्र में जो कभी अठ्ठासी हजार ऋषियों का संकुल था, वहीं पर श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रादुर्भाव हुआ और यह कथा प्रचलन में आई।

ऋषि शौनक जी तथा अन्य ऋषियों ने महात्मा सूत जी से सरल सहज तथा सूक्ष्म उपाय पूछा था, उन्होंने जो पूजा कथा बताई वह इस प्रकार है।

उन्होंने बताया कि एक बार देवर्षि नारद जी भगवान विष्णु के पास गए तथा लोकहित की इच्छा से प्रश्न किया कि – “हे सर्वेश्वर! मैंने पृथ्वी लोक के भ्रमण के दौरान दुख और पीड़ा से व्याकुल मानव समाज देखा है, जिससे मेरा हृदय करूणासिक्त हो रहा है, इससे मुक्ति का कोई उपाय हो तो मुझे बताएं।”

उनकी लोकहित वाणी सुनकर भगवान ने कहा कि- “हे देवर्षि! आप का प्रश्न लोकहित से जुड़ा है इस निमित्त मैं यह उपाय अवश्य बताऊंगा।”

देवर्षि नारद जी ने आगे कथा का विस्तार करते हुए बताया और व्रत पूजा का विधान समझाया। यदि हम सत्यनारायण कथा पुस्तक के शीर्षक का विवेचन करें तो सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा- जिसका आशय है पहले व्रत का संकल्प, तत्पश्चात पूजा विधान, फिर कथा विधान। अर्थात् कथा का अध्ययन यह सिद्ध करता हैं कि कथा श्रवण के पूर्व ब्राह्मण ने कथा पूजा करने का संकल्प लिया, जिसके संकल्प मात्र से उसे प्रचुर मात्रा में धन मिला। फिर पूजा का विधान किया और उसके बाद कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जो उसका नैमित्तिक कर्म बन गया। वही स्थिति लकड़हारे की हुई, लेकिन संकल्प पूर्ण नहीं करने पर साधूराम बनिया को अपने जीवन के संत्रास से गुजरना पड़ा। वहीं राजा को प्रसाद न ग्रहण करने के कारण दुख भोगना पड़ा। वहीं अधूरी कथा छोड़ने के कारण लीलावती तथा कन्या कलावती को पिता तथा पति के दर्शन से विमुख होना पड़ा था।

भगवान विष्णु ने अपने स्वरूप शालिग्राम के विग्रह पूजन का निर्देश दिया – फिर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उस भिक्षुक ब्राह्मण से मिले, जो सुदामा की तरह भूख की पीड़ा से भिक्षा मांगने के लिए दर दर भटकता फिर रहा था। उन्होंने उस ब्राह्मण से पूछा था कि- हे ब्राह्मण! आप आखिर इस प्रकार क्यों दर दर भटकते  घूम रहे हैं।

तब ब्राह्मण ने कहा  –  “मैं गरीबी के मकड़जाल में फंसा हुआ भूख की पीड़ा से व्याकुल भिक्षा मांगने हेतु विवश हो भटकता फिर रहा हूँ । इस गरीबी के अभिशाप से मुक्ति हेतु यदि कोई उपाय जानते हो तो बताएं मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा। तब उन नारायण रूप में आए वृद्ध  ब्राह्मण  के वेष में भगवान श्री विष्णु जी ने अपने शालिग्राम रूपी विग्रह की सत्यनारायण व्रत पूजा कथा का विधान बताया, जो सर्व कामना पूर्ण करती है। भगवान शालिग्राम विग्रह की कथा देवासुर संग्राम के जालंधर वध से संबंधित है जिसे सारा विद्वत समाज परिचित है। जो वृंदा के शाप के कारण शालिग्राम की पाषाण खंड के रूप में परिणत हो गई तथा भगवान विष्णु के वरदान से वृंदा तुलसी के बिरवा के रूप में अवतरित हुई। बिना तुलसी दल तथा मंजरी के आज़ भी भगवान विष्णु की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।

शेष सत्यनारायण व्रत में पूजा का विधान बताया गया है। पूजा में सर्व प्रथम पवित्रीकरण के बाद प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश तथा माता गौरी के आह्वान पूजन का विधान है जिसके बारे में यह विश्वास है कि यदि कुमारी कन्या विधान पूर्वक माँ गौरी का पूजन कर उन्हें सिंदूर चढ़ाती है तो उन्हें मनवांछित वर की प्राप्ति होती है और जो पत्नी पति मिल कर माँ  गौरी और गणेश जी को पूजन के साथ सिंदूर चढ़ाते है तो उस परिवार में सुख शांति समृद्धि सौहार्द तथा जीवन में प्रेम बना रहता है।

गौरी पूजन का प्रमाण  हमें माता सीता के स्वयंवर के समय गौरी पूजन के रूप में मिलता है।

विनय प्रेम बस भई भवानी।

खसी माल मूरति मुस्कानी।

वर सहज सुन्दर सांवरो ।

करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥

एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।

तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥

इसके बाद पृथ्वी पूजन का विधान है जिसके बारे में मान्यता है कि पृथ्वी ही हमारे जीवन का आधार है, इस के बिना जीवन संभव ही नहीं है। उसी से हमें अन्न वस्त्र, फल फूल,  हीरे-जवाहरात मिलते हैं जो हमारी संपन्नता का प्रतीक है। उसके बाद फिर भगवान वरूण देव की पूजा का विधान है जिसके लिए हम घट पूजा करते हैं। अगले चरण में हम नवग्रह शांति के लिए नवग्रहों की पूजा करते हैं। उस के पश्चात हम  दीप के रूप में अग्नि देवता की पूजा करते हैं। तत्पश्चात भगवान शालिग्राम के विग्रह की पूजा करते हैं। इस प्रकार एक पूजा में ही पंच पूजा समाहित है जिसका उद्देश्य लोक हितकारी है।

शेष पांचों अध्याय तो हमें यह समझाते हैं शालिग्राम की पूजा तो दरिद्र ब्राह्मण, लकड़हारा, नि:संतान साधूराम बनिया, राजा, तथा गोप गण, अर्थात् समाज का सभी वर्ग ने किया। अपनी मंशा के अनुरूप फल प्राप्त किया । जिसने संकल्प लेकर भी पूजा नहीं किया। वह ईश्वर के रूष्ट होने पर अनेकों कष्ट सहने पर मजबूर हुआ।

यही सत्य नारायण पूजा कथा तथा व्रत का विधान है जिसे बार बार एक व्यक्ति ने दूसरे को बताया यह श्रुति कथा आज भी पूरे श्रद्धा विश्वास के साथ कही सुनी सुनाई जाती है। यही तो है भगवान सत्यनारायण व्रत पूजा कथा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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