डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय  कहानी ‘जन्मभूमि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 163 ☆

☆ कथा कहानी – जन्मभूमि

गिरीश भाई को शहर में रहते बीस साल हुए, लेकिन ठाठ अभी तक पूरी तरह देसी है। कभी छुट्टी के दिन उनके घर जाइए तो उघाड़े बदन, लुंगी लगाये, कुर्सी पर पसरे, पेट पर हाथ फेरते मिल जाएँगे। सब देसी लोगों की तरह पान-सुरती के शौकीन हैं। हर दो मिनट पर गर्दन दाहिने बायें लटकाकर थूकने की जगह खोजते  रहते हैं। दाढ़ी तीन-चार दिन तक बढ़ाये रखना   उनके लिए सामान्य बात है। सोफे पर पालथी मारकर बैठना और कई बार अपने चरण टेबिल पर रख कर सामने बैठे अतिथि की तरफ पसार देना उनकी आदत में शामिल है।

गिरीश भाई को अपने देस के लोगों से बहुत प्यार है। पूछने पर इस शहर में बसे उनके इलाके के लोगों की पूरी लिस्ट आपको उनके पास मिल जाएगी। हर छुट्टी के दिन देस के लोगों के साथ बैठक भी जमती रहती है, कभी उनके घर, कभी दूसरों के घर। उनकी बैठक कभी देखें तो आपको गाँव की चौपाल का मज़ा आएगा। कुर्सियों को किनारे कर, ज़मीन पर दरियाँ बिछ जाती हैं और वहीं पान-सुरती के साथ गप, ताश और शतरंज की बैठकें चलती रहती हैं। चाय के नाम से बैठकबाज़ों का मुँह बिगड़ता है। ठंडाई और लस्सी हो तो क्या कहना! गिरीश भाई और उनके देस के लोगों का मन इन बैठकों से ऊबता नहीं। कल की ड्यूटी की बात करना पूर्णतया वर्जित। बहुत होगा तो कल आधे दिन की छुट्टी ले लेंगे, लेकिन फिलहाल कल की बात उठाकर रंग में भंग न करें श्रीमान।

गिरीश भाई का गाँव उनकी रगों में हमेशा दौड़ता रहता है। वही तो उनके खान-पान से लेकर उनके जीवन की एक-एक हरकत में प्रकट होता है। जब देस के लोगों की बैठक होती है तब गाँव की स्मृतियों को खूब हरा किया जाता है। याद करके कभी ठहाके लगते हैं तो कभी स्वर भारी हो जाता है।

गाँव गिरीश भाई से छूटा नहीं। गाँव में अभी पुरखों का मकान है जिसमें माता-पिता और भाई भतीजे रहते हैं। पिताजी का मन गाँव के अलावा कहीं नहीं लगता। गिरीश कुल पाँच भाई हैं। तीन शहरों में रहते हैं और दो गाँव में। पिता-माता इच्छा और ज़रूरत के अनुसार शहर बेटों के पास आते जाते रहते हैं, लेकिन उन्हें सुकून गाँव में ही मिलता है। कहते हैं, ‘शहर में साफ हवा नहीं है। शोरगुल भी बहुत है।’ सुविधाएँ सब शहर में हैं, इसलिए कई बार जाना ज़रूरी होता है, खास तौर से तबियत बिगड़ने पर।

दिवाली पर एक हफ्ते के लिए है गाँव जाना गिरीश का नियम है जो बीस साल से बराबर निभ रहा है। एक हफ्ते खूब जश्न होता है। शहर की सारी थकान और शहर की बू-बास निकल जाती है। शरीर और मन को नयी ताकत मिलती है। कैसे वे सात दिन निकल जाते हैं, गिरीश को पता नहीं चलता। चलने के वक्त जी दुखता है। शहर और नौकरी को कोसने का मन होता है।

गाँव का यह जश्न मामूली नहीं होता। बुज़ुर्गों के आदेश पर सब भाइयों, चचेरे भाइयों को दिवाली पर गाँव में हाज़िर होना ज़रूरी होता है। दूसरी बात यह कि सबको अपनी एक एक माह की तनख्वाह इस उत्सव के लिए समर्पित करना अनिवार्य होता है। कोई हीला-हवाला नहीं चलता। इस तरह उत्सव के लिए अच्छी रकम इकट्ठी हो जाती है।
यह उत्सव गिरीश के घर में होता है, लेकिन इसकी प्रतीक्षा पूरा गाँव साल भर करता है। घर के लोगों के साथ-साथ हफ्ते भर उनका भी जश्न हो जाता है। खूब गाना-बजाना होता है और गाँव वालों के लिए प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं होता। फुरसत के वक्त गाँव वाले वैसे ही ढोलक और मृदंग की थाप पर खिंचे चले आते हैं। गाँव की नीरस ज़िन्दगी हफ्ते भर के लिए खासी दिलचस्प हो जाती है।

यह उत्सव हर साल होने के कारण सारा कार्यक्रम जमा जमाया रहता है। इशारा करने की देर होती है और आसपास की भजन और लोकगीतों की मंडलियाँ इकट्ठी होने लगती हैं। फिर क्या दिन और क्या रात। रात चढ़ते और सुरूर आता है। सात दिन का यह जश्न वस्तुतः दिन और रात का होता है। जिन्हें नींद आ जाती है वे वहीं दरी या मसनद पर सो लेते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या काफी होती है जिनकी पलक नहीं झपकती। सात दिन बाद यह सरिता सूख जाएगी, इसलिए जितना बने इसके जल में डुबकी लगा लो। फिर तो वही सूनापन है और वही रोज़मर्रा के ढर्रे का सूखापन।

गाँव के लोग इसलिए भी जुड़ते हैं कि सात दिन गिरीश भाई के घर खाने-पीने का भरपूर इंतज़ाम होता है। जो हाज़िर हो जाए उसे भोजन नहीं तो कलेवा-प्रसादी तो मिलेगी ही। गाँव में ठलुओं की कमी नहीं होती। कुछ फितरती ठलुए होते हैं और कुछ बेरोज़गारी से मजबूर ठलुए। ऐसे लोगों के लिए गिरीश का घर सात दिन के लिए नखलिस्तान बन जाता है। और कुछ नहीं तो घर की दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहते हैं।

जो मांँस-मदिरा के प्रेमी होते हैं उन्हें भी आराम हो जाता है। गिरीश सात दिन के लिए सभी तरह का इंतज़ाम करते हैं। जब पूजा- अनुष्ठान के लिए व्रत-परहेज़ करना है तब व्रत-परहेज़, और बाकी समय मौज-मस्ती।

इसीलिए गाँव में साल भर गिरीश भाई और उनके बंधु-बांधवों के लिए पलक-पाँवड़े बिछे रहते हैं। गिरीश खर्चे को लेकर किचकिच नहीं करते। खर्चा कुछ ज़्यादा हो जाए तो बेशी खर्चा गिरीश भाई वहन करते हैं। परिणामतः गाँव में गिरीश भाई की जयजयकार होती है।

गिरीश भाई को गाँव आने में एक ही बात से तकलीफ होती है। जब भी गाँव आते हैं, दो-चार लड़के घेर कर बैठ जाते हैं। उनके चेहरे पर आशा भरी नज़र जमा कर कहेंगे, ‘भैया, अब की बार हम आपके साथ चलेंगे।’

गिरीश इन लड़कों को जानते हैं। दसवीं बारहवीं तक पढ़ कर खेती-किसानी और मेहनत- मज़दूरी से विमुख हो गये, अब बेकार बैठे कुंठित हो रहे हैं। ‘तनक पढ़ा तो हर (हल) से गये, बहुत पढ़ा तो घर से गये ‘ वाली कहावत चरितार्थ होती है। अब शहर में उन्हें अपने दुख की दवा दिखायी देती है। साधन नहीं हैं, इसलिए जो भी हैसियत वाला गाँव में आता है उसे घेरते हैं। गिरीश के लिए यह प्रसंग तकलीफ देने वाला है।

इस बार भी उत्सव के सुख के बीच में ऐसे ही लड़के आ आ कर गिरीश के पास बैठने लगे। गिरीश उनसे बचने की कोशिश करते, लेकिन कहाँ तक बचते? फिर वही अनुरोध, वही आजिज़ी। गिरीश ‘हाँ हूँ ‘ में जवाब देकर टाल देते, लेकिन लड़के बार-बार उन्हें घेर लेते थे। वे उनका रसभंग कर रहे थे। सात दिन के लिए सब चिन्ताओं से मुक्त रहने और मौज करने के लिए आये हैं, यह ज़हमत कौन उठाये? फिर शहर में कौन सी इनके दुख की दवा मिलती है? शहर में आदमी की कैसी फजीहत हो रही है, यह इन्हें क्या मालूम।

रामकृपाल काछी का बेटा नन्दू कुछ ज़्यादा ही पीछे पड़ा है। बारहवीं पास है। सवेरे- शाम धरना देकर बैठ जाता है। एक ही रट है, ‘भैया, इस बार आपके साथ चलना ही है। दो साल हो गये। कब तक फालतू बैठे रहें?’

गिरीश बचाव में कहते हैं, ‘मैं वहाँ पहुँच कर खबर दूँगा, तब तुम आ जाना। वहाँ जमाना पड़ेगा। ऐसे आसानी से काम थोड़इ मिलता है।’

नन्दू कुछ नहीं सुनता। कहता है, ‘मैं आपके यहाँ पड़ा रहूँगा। यहाँ भी तो फालतू ही पड़ा हूँ। दिन भर दद्दा बातें सुनाते हैं।’

गिरीश परेशानी महसूस करते हैं। कहते हैं, ‘सबर करो। मैं जल्दी कुछ न कुछ करूँगा।’

जैसे-जैसे गिरीश भाई के रवाना होने के दिन करीब आते हैं, नन्दू की रट और उसकी घेराबन्दी बढ़ती जाती है। वह चाहता है कि किसी भी कीमत पर शहर चला जाए तो कुछ न कुछ रास्ता निकल ही आएगा। जिस दिन गिरीश भाई को रवाना होना था उसकी पिछली शाम भी वह चलने की रट लगाये रहा और गिरीश उसे समझाते रहे।
अगली सुबह चलने के लिए गिरीश भाई ने टैक्सी बुलवा ली थी। उन्होंने आशंका से इधर-उधर देखा। नन्दू कहीं दिखायी नहीं पड़ा। उन्होंने राहत की साँस ली। घर के लोगों और गाँव वालों से विदा लेकर भारी मन से वहाँ से निकले। गाँव वालों ने अगले साल फिर आने का वादा लेकर उन्हें विदा किया।

टैक्सी करीब एक किलोमीटर गयी होगी कि किसी पेड़ के पीछे से निकलकर नन्दू हाथ ऊँचा किये रास्ते के बीच में खड़ा हो गया। टैक्सी रोकनी पड़ी। फिर वही रट— ‘भैया, मुझे ले चलिए।’ उसके कपड़ों-लत्तों  और हाथ के थैले से स्पष्ट था कि वह जाने के लिए तैयार होकर आया था। गिरीश का दिमाग खराब हो गया।

उन्होंने खिड़की से सिर निकाल कर कहा, ‘मैं खबर दूँगा। जल्दी खबर दूँगा।’ लेकिन लगता था उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। गिरीश भाई ने ड्राइवर को गाड़ी बढ़ाने का इशारा किया। गाड़ी चली तो नन्दू खिड़की पर हाथ रखे साथ साथ दौड़ने लगा, साथ ही इसरार— ‘भैया मुझे ले चलिए।’

गिरीश ने जी कड़ा करके उसका हाथ खिड़की से अलग किया। वह दौड़ते दौड़ते रुक कर बढ़ती हुई गाड़ी को देखता रहा।

कुछ आगे बढ़ने पर गिरीश भाई ने देखा, वह अपना थैला सिरहाने रख कर पास ही बनी पुलिया पर लंबा लेट गया था। इसके बाद धूल के ग़ुबार में सब कुछ नज़र से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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