श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #107 🌻 ईमानदार राजा 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी भलाई के लिए बड़ी-बड़ी और सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्ट आदमी राज्य से निकाल बाहर किए गये, राज्य में सर्वत्र सुख शांति का साम्राज्य था।

एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।

दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सब के सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।

निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाए। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाए तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी।

उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।

उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधान मंत्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हट कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे, भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सब को बता दी गई थी।

राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधान मंत्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुख उपभोग की सामग्री जगह-जगह उपस्थित कर दी। उन्हें लेने की सब को छुट्टी थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र, आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलांगी युवतियां सेवा सुश्रुषा के लिए मौजूद थीं जगह-जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्र के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।

चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजा भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसंद करने शुरू किए। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।

एक दिन पहले ही सब प्रजा को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोज है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी, एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा-दुहरा कर सुना न दी गई हों, सभी ने कान खोलकर सुन लिया था।

शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उलटे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।

दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजा में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधान मंत्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसे सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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