डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

हरिद्वार से आ रहा था। लक्सर से ज्यूं ही गाड़ी आगे बढ़ी चार या पांच की संख्या में कुछ लोग तालियां पीटते कंपार्टमेंट में घुसे नए-नए उम्र के लड़कों के साथ हंसी मजाक करते हुए ,शउनसे पैसे मांगने लगे। कुछ नहीं ₹10 ₹20 दिए कुछ भद्दा मजाक करने लगे। यह वही लोग हैं, जिन्हें प्रकृति ने हंसी का पात्र बना दिया। उनके जननांग गायब कर दिए।  इसी के कारण समाज उन्हें जनखा, हिजड़ा, उभय लिंगी यहां और जो भी नाम से संबोधित करता है, जगह जगह अब गाड़ियों में घूम घूम कर स्टेशन पर बैठे हुए यात्रियों से,या राह चलते हुए लोगों से या मेले में आए हुए संभ्रांत लोगों से पैसे मांगते हैं। देर तक मैं बच्चों, मनचले युवकों और उनके बीच का उल्टा-सीधा हास्य व्यंग सुनता रहा।

कुछ मनचले उन्हें हाथ पकड़ कर अपने बगल  बैठने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ उन्हें 10या ₹5 देकर चले जाने के लिए अवसर दे रहे थे।

अच्छा नहीं लगा मैंने एक से कहा- मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।एक साथी और आ गया साथ में, उम्र अट्ठारह उन्नीस की रही होगी और दूसरे की उम्र 24- 25 वर्ष । थोड़ी देर बाद वे संपूर्ण डिब्बे का भ्रमण कर जो कुछ भी मांग सके थे ,लेकर आए और मेरे सामने वाली सीट पर जो खाली थी बैठ गए।

मैंने कहा – आप लोग तो कलाकार हैं, आपके पास नृत्य और गायन है, उससे आप लोग क्यों नहीं पैसा प्राप्त कर लेते हैं ।एक का नाम विद्या था।उसने उत्तर दिया -“बाबूजी दुनिया बदल गई है। पहले लोग प्रेम से बच्चे-बच्चियों के जन्म पर हम को बुलाते थे। हम नाचने -गाने के साथ ही बच्चों को गोद में लेकर खिलाते थे ।बहुत-बहुत उनके सुखी जीवन का आशीर्वाद देते थे ।आज कोई हमें नहीं बुलाता है। लोग अब पैसे को अधिक महत्व देते हैं ।सामाजिक मान्यताओं को कम। हम लाचार हैं, कभी गाड़ी पर एक एक यात्री से उनके व्यंग बाण सहते हुए भी भिक्षा मांगने के लिए। क्योंकि पेट तो सभी के साथ है न। हमें ना खाली अपना पेट भरना होता है, बल्कि हमारी ही बिरादरी में कई एक अशक्त, बूढ़े, रोगी और असमर्थ लोग रहते हैं। हम केवल अपना पेट नहीं भरते, हम सभी का ध्यान रखते हैं। बगल में एक आदमी भूखा तड़प रहा हो ,तो दूसरे कैसे चैन की नींद सो सकता है, ऐसा नहीं कहती मानवता।

अब तो जो हमारे साथ हैं, वही हमारे साथी  हैं। मां-बाप हैं, गुरु हैं ,सहायक हैं, मित्र हैं, उनका ध्यान हमें रखना पड़ता है। आज के बच्चे भले ही अपने मां-बाप को छोड़ दें ।जाकर कहीं दूर ऊंची कमाई करते हो। लेकिन हम अपने उन लोगों को कष्ट में नहीं देख सकते जिन्होंने हमें आश्रय देकर शिक्षा के माध्यम से ऐसा बनाया है कि हम कुछ अपनी कला का प्रदर्शन करके कुछ प्राप्त कर लें। पेट प्रत्येक जीव के साथ होता है, हम भी उसी से विवश हैं, अन्यथा एक गाड़ी से दूसरी गाड़ी एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे ताली बजाते ही वे लोगों के आगे हाथ फैलाते हुए क्यों घूमते। आप समझते हैं, पढ़े लिखे हैं, हमने भी कहीं कहीं जा करके थोड़ा बहुत पढ़ने का प्रयास किया है इसी कारण मानवीय संबंध का क्या महत्व है। हमारी समझ में आता है । किंतु, हमें कोई काम नहीं देता। यदि अवसर मिले तो हम भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करें। पढ़ लिख कर के अच्छे पदों पर जाएं । देश की सेवा करें किंतु हमें तो उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। नपुंसक माना जाता है। सत्य है हम प्रकृति की भूल के शिकार हो गए किंतु अन्य किसी क्षमता में हम किसी से कम नहीं है।”मैंने ₹50 उन्हें देकर विदा किया। आशीर्वाद देते हुए दोनों चले गए। सचमुच किसी को भिक्षा मांगना अच्छा नहीं लगता। किंतु, समाज इन प्रकृति के कोप के मारे हुए लोगों को उपेक्षा के भाव से देखता है। यह भी अच्छा नहीं लगता, वास्तव में वे भी समाज के प्राणी है। उनका भी सम्मान है उनका भी जीवन है। उनकी भी आवश्यकताएं हैं। उनकी भी अपनी मानसिक पीड़ा- शारीरिक पीड़ा होती है।

आज समाज को उनकी क्षमता का प्रयोग करके अपने विकास में उन्हें सहभागी बनाना चाहिए।

© डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

भगवानपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 

मो 9450186712

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments