प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 98 ☆ हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी, संसार तुम्हारे हाथों में

हम मानव विवश खिलौने हैं, अधिकार तुम्हारे हाथों में ॥ 1 ॥

 

जग रंग मंच है माया का, द्विविधा इसकी हर बातों में

हम कठपुतली से नाच रहे, सब तार तुम्हारे हाथों में ॥ 2 ॥

 

अनगिनत कामनायें पाले, उलझे ढुलमुल विश्वाशों में

सब देख रहे अपना अपना, संचार तुम्हारे हाथों में ।। 3 ।।

 

आकुल व्याकुल मन आकर्षित हो माया के बाजारों में

भटका फिरता मधु पाने को, रसधार तुम्हारे हाथों में ॥ 4 ॥

 

बुझ पाई न मन की प्यास कभी, रह शीतल कूल कछारों में

सुख दुख, यश अपयश, जन्म मरण व्यापार तुम्हारे हाथों में ॥ 5 ॥

 

जग है एक भूल भुलैया, हम भूले जिसके गलियारों में

हर बात में धोखा चाल में छल, उद्धार तुम्हारे हाथों में ॥ 6 ॥

 

जीवन नौका भवसागर में, अधडूबी झंझावातों में

तुम ही एक नाथ खिवैया हो, पतवार तुम्हारे हाथों में ॥ 7 ॥

 

दिखती तो रूपहली हैं लहरें, बढ़ती हुई पारावारों में

पर इन्द्र धनुष सा आकर्षक, उपहार तुम्हारे हाथों में ॥ 8 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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