श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 107 ☆

☆ कथा कहानी – सूदखोर ☆

आज देश आजादी का पचहत्तरवां अमृत महोत्सव मना रहा है, चारों तरफ उमंग है उत्साह है आजादी के अमृत महोत्सव का शोर ‌है ।इस बिंदु पर देश के हजारों लेखकों बुद्धिजीवियों की कलमें चल  रही है।आज एक बार फिर देश की आजादी , हिंदू हिंदी हिंदुस्तान खतरे में के शोर के बीच लगभग अस्सी वर्षिय  झुकी कमर  पिचके गाल और सगड़ी ठेले पर भरपूर  बोझ लादे   पसीने तर बतर भीगी शरीर लिए हीरा चच्चा दिखाई पड़े।

जब देश के आजादी की चर्चा चली और वर्तमान समय के विकास और राजनैतिक परिदृश्य और चरित्र पर चर्चा चली तो, कुरेदते ही उनके हृदय में पक रहा फोड़ा वेदनाओं के रूप में फूट कर बह निकला  और मुंशी प्रेमचंद जी की कथा सवा सेर गेहूं के कथा नायक शंकरवा आज भी अमृत महोत्सव की पूर्व संध्या पर अपनी यादें लिए खड़ा दिखा था।

उनका ख्याल था कि भले ही देश में गरीबी बेरोजगारी थी लेकिन तब के लोगों में इमान धर्म दोनों  था, लेकिन कभी-कभी उन्हीं के बीच नर पिशाच तब भी मिलते थे और आज भी मिलते हैं। चर्चा  की पृष्ठभूमि राजनैतिक थी इसलिए मुझे भी उनसे बात करने में भरपूर आनंद आ रहा था लेकिन वहीं पर मेरे भीतर बैठा कहानी कार बीते दिनों की यादों को एक बार फिर अपने शब्दों में समेट लेना चाहता था।  हीरा चच्चा को हम सब प्यार से हीरो बुलाते थे जिन्होंने  बहुत कुरेदने पर बीते दिनों को याद करते हुए बोल पड़े  कि  बेटा जब देश गुलाम था,  अंग्रेज सरकार अपना राजपाट समेटने  के क़रीब  थी  देश में चारों ओर घोर अशिक्षा गरीबी बदहाली का नग्न तांडव था।

दिन भर मेहनत करने पर भी पेट भरने के लिए भोजन नहीं मिलता था, अब तो भला हो सरकार का कि लाख लूट पाट के बाद भी जीनें खाने के लिए कोटा से राशन मिल ही जाता है। चर्चा करते हुए सहसा उनकी आंखें छलक उठी और बीते दिनों को याद करते हुए उनके हृदय में झुरझुरी सी उठ गई थी। बोल उठे थे बेटा उस जमाने में सूदखोर पारस मिश्रा जी पेशे से प्रा०पाठशाला में अध्यापक थे, जिन्हें भगवान ने जीवन में सब कुछ दिया था रूपया पैसा मान मर्यादा सारा सुख  लेकिन औलाद की कमी थी खाने पीने की कोई कमी नहीं, लेकिन  स्वभाव से अति कृपण।

वे सूद पर पैसा उधार देते थे। मैंने उस समय उनके ही पोखरी में सिंघाड़े की खेती के लिए  सिंघाड़े का बीज खरीदने के लिए ढाई रूपए दो अन्नी ब्याज पर लिया था, मूल का दो रुपया चुका दिया था अब अठन्नी मूल की बाकी रह गई थी, मेरा और उनका पुरोहित और यजमान का रिश्ता था। सो मैं एक तरह से उनकी गुलामी करता, उन्हें जहां भी तगादे पर जाना होता मैं ही उनका सारथी होता उन्हें अपनी सगडी ठेला पर बैठा दिन दिन भर ढोता,कभी कभी तगादे के दौरान दिन दिन भर खाने को कुछ भी नहीं मिलता, न खुद खाते न मुझे खाने देते,  उनके मूल की अठ्ठन्नी मैं भूल गया था  लेकिन एक दिन उस अठ्ठन्नी की याद दिलाते हुए मेरी पत्नी जगनी ने  कहा कि उनका आठ आना देकर अपनी कर्ज मुक्ति का रूक्का(प्रमाणपत्र) लिखवा लें, कि उन्हें याद रहे। लेकिनमैं सोचता था कि जहां मैं मालिक की इतनी जी हजूरी करता हूं तो क्या वे आठ आना माफ नहीं करेगें। लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि वह अठ्ठन्नी खाते से खारिज नहीं होने का परिणाम क्या होगा, जिसके बदले दस बरस बाद ब्याज के रुप में मुझे पांच हजार रुपए मुझे उनकी पोखरी पाट कर ब्याज में चुकाना पड़ा था लेकिन उस समय दिन भर मेहनत के बाद कलेवा(नास्ते)  के लिए आधा किलो गुड़ रोज मिलता था,अब उनके उपर साठ किलो खांड के रूप में मेरा कलेवा बकाया चढ़ गया था। लेकिन मैं जब भी उनसेअपने कलेवा का तगादा करता तो उपरोहिती यजमानी का हवाला देकर निकल लेते। लेकिन आज मैंने भी ठान लिया था कि आज भले ही मेरा धर्म कर्म छूट जाय लेकिन मैं आज बच्चू से कलेवा वसूल कर के ही रहूंगा।उस दिन मैं सबेरे से ही जा बैठा उनके घर पर उन्होंने मुझे फिर टालने की गरज से कहा कि हिरवा  बे धर्म हो जाएगा कलेवा तुझे पचेगा नहीं, और खुद भोजन करने चौके में चले गए थे। और मजबूरी में पूरा दिन बैठाने के बाद कलेवा चुकाते बोल पड़े थे “हिरवा ई खांड़ बहुत बढ़िया है इसमें से बीस किलो मुझे उधार दे दे मैं बाद में तुझे दे दूंगा”, लेकिन मेहनत से वसूले गए कलेवा से मैं कुछ भी देने के लिए तैयार नहीं था  और खुद को फंसता हुआ पाया था लेकिन कलेजे पर पत्थर रख कर बीस किलो खांड़ देना ही पड़ा था। लेकिन उस समय मेरी अंतरात्मा से आह निकली “जा महराज तूं कबहूं सुख से ना रहबा” आज पारस महराज तो जीवित नहीं लेकिन उनके घर के खंडहर आज भी उनकी कृपणता की कहानी कहते हैं,मैं आज भी जब उस राह से गुजरता हूं तो मेरे द्वारा पाटी गई पोखरी एक बार फिर उनकी याद दिला जाती है। और वह अठ्ठन्नी नांच उठती है मेरी स्मृतियों में।

लेकिन गरीबों का दिन न तब ही बदला था न आज भी  क्षेत्रीय राजनीति आज भी गांव गरीब पात्रता नकदी लेन देन के बाद ही तय होती है और हावी होता है हमारा मतलब। इस प्रकार वे मुझे राजनिति का नया अध्याय ले मेरे सामनेअपने विकास का संकल्प मुठ्ठी में दबाकर वोटर के रूप में खड़ा था।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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