प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 59 ☆ गजल – दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
फल-फूल, पेड़-पौधे ये जो आज हरे है
आँधी में एक दिन सभी दिखते कि झरे है।
सुख तो सुगंध में सना झोंका है हवा का
दुख से दिशाओं के सभी भण्डार भरे है।
नभ में जो झिलमिलाते हैं, आशा के हैं तारे
संसार के आँसू से, पै सागर ये भरे है।
जंगल सभी जलते रहे गर्मी की तपन से
वर्षा का प्यार पाके ही हो पाते हरे है।
ऊषा की किरण ही उन्हें देती है सहारा
जो रात में गहराये अँधेरों से डरे है।
रॅंग-रूप का बदलाव तो दुनियाँ का चलन है
मन के रूझान की कभी कब होते खरे है ?
सब चेहरे चमक उठते है आशाओं के रंग से
आशाओं के रंग पर छुपे परदों में भरे है।
इतिहास ने दुनियॉं को दी सौगातें हजारों
पर जख्म भी कईयों को जो अब तक न भरे है।
यादों में सजाता है उन्हें बार-बार दिल
जो साथ थे कल आज पै आँखों से परे है।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈