श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-3।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-3 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

बीसवीं सदी के साहित्य के इतिहास को खंगालना है, तो बहुत कुछ चकित करने वाली चीज मिल जाती हैं वैसे इतिहास समय का दस्तावेज होता है..वह होना चाहिए, पर होता नहीं है. इतिहास में अधिकतर राजनीतिक उतार-चढ़ाव, उथल पुथल राज्योत्थान पतन का अधिक महत्व दिया जाता जा रहा है. इतिहास मे जीवन मूल्यों, मानवीय संवेदना और सामाजिक परिवर्तन परिदृश्य नहीं के बराबर होता है. समाजशास्त्र भी सामाजिक गतिविधियों और परिवर्तन पर अधिक बात करता है. यहाँ पर मानवीय संवेदना छूट जाती हैं. एक साहित्य ही है. जो मानवीय सरोकारों, चिंताओं, परिवर्तन के परिदृश्य  समय के साथ समाज के समक्ष रखता है .साहित्य सदा  समकालीनता की बात करता है.समकालीन सरोकार चिंताएं, चरित्र, साहित्य ही लेकर आगे बढ़ता है. अगर विभिन्न समय के साहित्य का अध्ययन करें. तब उस समय की सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का दृश्यावलोकन  करने मिल जाता है.

साहित्य के इतिहास को अधिक खनन से बहुत सी चीजें हमारे हाथ लग जाती हैं. जिसकी हम  कल्पना नहीं करते हैं. कबीर के समय की स्थितियां, विसंगतियां, प्रवृत्तियां, धार्मिक अंधविश्वास आदि कबीर के साहित्य में से ही मिलते हैं. कबीर के साहित्य को पढ़ने से उस समय की सामाजिक स्थितियां का ज्ञान हो जाता है. इसी प्रकार हम भारतेंदु हरिश्चंद्र को पढ़ते हैं. तो उस समय का राजनीतिक, सामाजिक और शासन व्यवस्था की अराजकता का पता चल जाता है. 20 वीं सदी का प्रारंभिक काल अंग्रेजी शासन का अराजकता का काल था. पर इसके साथ अंग्रेजी शासन को उखाड़ने के लिए  स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत भी हो गई थी. भारत में ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक बनावट, आर्थिक संरचना, सामंती और जमींदारों के अत्याचारों आदि को नजदीक से परखना है. तो आपको उस समय के समकालीन साहित्य से गुजरना ही होगा. तब उस समय के निर्विवाद  प्रमुख साहित्यकार हैं कहानीकार उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद..जिनकी रचनाओं में गांव के उबड़खाबड़ रास्ते, संकुचित विचारों, रीति रिवाजों, जातिवाद आदि की गलियां सहजता से मिल जाएंगी. मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों, उपन्यासों आदि में अपने समय की गरीबी, भुखमरी अंधविश्वास, छुआछूत, पाखंड,जमींदारी प्रथा, महाजनी कुचक्र पाठक के सामने निश्चलता,निडरता से सामने उभारा हैं. पर हां इसके साथ ही समाज में और व्यक्ति में नैतिक मूल्यों में ईमानदारी, ग्रामीणों का भोलापन, आदि आपको सहजता से मिल जाएगा. बानगी की तौर पर उनकी कुछ रचनाओं पर बात की जा सकती है.

मुंशी प्रेमचंद की अपने समय की प्रतिनिधि और चर्चित कहानी “ठाकुर का कुआं” है, जिसमें उस समय का परिदृश्य एक आईने के समान नजर आता है. उस समय की गरीबी और छुआछूत का भयावह दृश्य हमें सोचने को मजबूर कर देता है. उस समय गांव में ठाकुर ब्राह्मण, दलित के कुएँ अलग अलग होते थे. दलित अपने कुएं के अलावा किसी अन्य कुएं से पानी नहीं भर सकते था. अन्य कुएँ  से पानी भरने पर दलित की सजा तय थी और सजा को सोचने से शरीर के रुएँ खड़े हो जाते हैं. दलित के कुएं में जानवर मर गया है. पानी में बदबू आ रही है. गंगी का बीमार पति जब पानी पीता है. बदबू से उसका स्वाद कसैला हो जाता है.पति को प्यास लगी है. गंगी आश्वस्त करती है कि रात के अंधेरे में वह उसके लिए ठाकुर के कुएंँ से पानी ले आएगी. ऊंची जाति का आतंक इतना भयभीत करने वाला होता था कि वह कोशिश करने के बावजूद पानी लेकर नहीं आ सकी और उसे अपनी बाल्टी और रस्सी को कुएंँ में छोड़कर भागना पड़ा. अन्यथा  शायद उसकी जान को को भी खतरा हो सकता था.और गंगी का पति राजकुमार प्यास से बेहाल हो कर बदबूदार पानी पीने को विवश था. इस रचना में उस समय की जातिगत व्यवस्था अत्यंत खतरनाक बिंदु पर थी. इस रचना में छुआछूत और गरीबी का भयावह जो दृश्य हमें दिखाई देता है उसकी आज के समय में हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.  पर आज समाज में जातिगत, छुआछूत वर्ण व्यवस्था  की बुराईयों /विडम्बना में काफी कुछ बदलाव देखने में आया है.

आज हमें ऐसे दृश्य कम देखने मिलते हैं. फिर भी आंचलिक गांव के लोगों की मानसिकता जस का तस दिख जाती है. आज भी ऊंची जाति वर्ग के लोगों का अत्याचार दलित वर्ग पर यदा-कदा सुनाई पड़ जाता है. इसी तरह एक और कहानी का उल्लेख करना जरूरी है “बेटी का धन” यह ऐसी रचना है जिसमें छल, प्रपंच, स्वाभिमान, और उच्चतर मूल्य  समाहित  है. प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समय के साथ जिया है. बीसवीं सदी के प्रारंभिक चालीस साल के तत्कालीन साहित्य में भारत के जनजीवन में  सामाजिक वर्ण संरचना, जातिगत व्यवस्था सामंती और जमींदारी प्रथा, छुआछूत, गरीबी भुखमरी के साथ साथ भारतीय संस्कृति जीवन मूल्यों का दर्शन भी दिखाई पड़ते हैं.वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओ का संवेदनहीन समय था. पढ़कर और सुनकर हम चकित रह जाते हैं.  ग्रामीण  परिवेश की तुलना आज के समय से करेंगे तो हमारी आंखें खुली हो जाती है आज का समय इतना बदल गया है कि पुराने समय से उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है. प्रेमचंद का साहित्य समय के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की चिंताओं से रूबरू  कराने वाला है. उनकी अनेक कहानियां ‘पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, बड़े भाई साहब, पूस की रात, कफन, बेटी का धन, शराब की दुकान, ईदगाह, बूढ़ी काकी, तावान, दो बैलों की जोड़ी,आदि रचनाएं अपने समय का प्रतीक प्रतिनिधित्व करती हैं.

इन रचनाओं के माध्यम से उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों, गतिविधियों को बहुत आसानी से समझ सकते हैं. अगर हम राजनीति की बात करें, तो उस समय कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता का आंदोलन तो कर रही थी. उसी समय काँग्रेस भारत के दबे कुचले लोगों का जीवन सुधारने हेतू समाज में व्याप्त अंधविश्वास, भुखमरी, छुआछूत, जातिगत वर्ग भेद की विसंगतियों और सामंती, जमीदारी अत्याचारों के कुचक्र को तोड़ने के लिए भी प्रतिबद्धता के साथ निचले स्तर पर काम कर रही थी. उस समय की कांग्रेस और आज की कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर पाते हैं. साहित्य में समय के  अंतर्संबंध में किसी राजनीतिक दल इस तरह जान रहे हैं. यह साहित्य के समय के संबंध से ही संभव है. मुंशी प्रेमचंद का साहित्य समय के साथ सदियों से चले आ रही  सामाजिक कुरीतियाँ,अंधविश्वास को व्यक्त करने वाला है. जो उस समय की मार्मिक कुरीतियाँ पर सोचने को मजबूर करता है. इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है और इसके निवारण के लिए राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक उपक्रम क्या हो सकते थे या अब हो रहे हैं यह प्रश्न अभी भी जिंदा है. उस समय की भारतीय राजनीतिक संस्थाएं अपने ढंग से जूझ रही थी. तभी तो आज सामाजिक स्तर पर इतना बड़ा बदलाव देख रहे हैं. शायद इसके मूल के पार्श्व में मुख्य कारण लेखक और साहित्यकार  का अपने समय से जुड़ना है. यह जुड़ाव ही मानवीय संवेदना के साथ मनुष्य को बेहतर बनाने के लिए तत्पर है.

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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