श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “साझा संकलन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 59 – साझा संकलन ☆

समस्याओं का अंबार सबके पास रहता है,परन्तु कुछ लोग थोड़ा सा महत्व बढ़ते ही महत्वाकांक्षी हो सिर पर सवार हो जाते हैं। माना कि पुराने लोगों की कीमत आपकी नजरों में घटती जा रही है किंतु आप कीमतीलाल बनकर सबके ऊपर रौब तो नहीं झाड़ सकते हैं। आपका रुतबा बढ़ रहा है, आप रौबदार बनने की डींग हाँकते हुए लोगों को नजरअंदाज करें ये किसी भी सूरत में उचित नहीं हो सकता है। कहते हैं न कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। परन्तु यदि यही चना अंकुरित होकर झाड़ में बदल जाए तो कई चने अवश्य उत्पन्न कर सकता है। इसमें समय लगेगा, यदि जिद करो और दुनिया बदलो की राह पकड़ ली जाए तो कुछ भी असंभव नहीं होगा।

एक साथ जब लोग हुँकार भरते हैं तो पर्वत को भी झुकना पड़ता है। कुछ ऐसा ही संपादक महोदय के साथ भी हुआ। जब देखो साझा संकलन के नाम पर ऊल- जलूल पोस्ट बनाकर सबको भेज देना और उससे जुड़ने के लिए बाध्य करना। अरे भई साझा कार्यक्रम तो केवल पढ़ने और पढ़ाने में ही अच्छा लगता है। यदि साझा ही सही होता तो एकल परिवारों का चलन क्यों बढ़ता ? अब तो घर में जितने लोग उतने कमरे होते हैं, उतने ही सुविधाओं के समान।  शेयर इट भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया।  फेसबुक की पोस्ट को तो कोई आसानी से साझा करता नहीं है, टैग करने पर ही नाराज होकर झट से, रिमूव टैग कर दिया जाता है।

निःशुल्क यदि छपना और छपाना हो तो लोग आगे आते हैं। पर यहाँ भी लेखकीय प्रति हेतु इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है कि बस ऐसा लगता है कि बस्ती के नल से पानी भरने हेतु लोग खड़े हैं और आपस में उलझते हुए टाइम पास कर रहे हैं।  साझे के चक्कर में न जाने क्या- क्या गुल खिलाने लगते हैं। मुफ्त में कोई चीज नहीं मिलती,हर चीज की कीमत कभी न कभी चुकानी ही पड़ती है तो क्यों न व्यक्तिगत संकलन पर ध्यान दिया जाए।

खैर कीमतीलाल जी जैसा चाहेंगे वैसा होगा। चारो तरफ लोग अपने – अपने लक्ष्य को पूरा करने हेतु भागा- दौड़ी कर रहे हैं। करें भी क्यों न ? इतने सारे मोटिवेशनल  राइटर व स्पीकर हो गए हैं कि अब तो जिसको कुछ नहीं सूझता वो इसी राह पर चल देता है। लोगों को भी मुफ्त की चीज चाहिए, भले वो सलाह ही क्यों न हो। एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने में तो हमें महारत हासिल होती है। बस आँख से आँख मिलाते हुए पूरी तन्मयता से सब सुनने का ढोंग करिए  किन्तु करिए वही जो दिल करे। जाहिर सी बात है कि  ये तो कंफर्ट जोन का ही आदी होता है सो फिर वही पुराना राग शुरू हो जाता है कि साझे का दौर अब नहीं अब तो एकल का ही चलन बढ़ चुका है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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